sampurna bhagwat katha in hindi
(भाग-4,part-4)
[ प्रथम स्कंध ]
[ प्रथम स्कंध ]
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्गोपवृन्दै
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥
(भा. 10/21/5)
मोरपंख धारण किये हुए माधव दिव्य-पीतांबर ओढ़े हुए, वंशी बजाते हुए, गायें चराते हुए, ग्वालों से अपनी कीर्ति का श्रवण करते हुए वृंदावन में प्रवेश पा रहे हैं। जो ये श्लोक कान में पड़ा, शुकदेवजी की समाधि खल गई। वाह! ऐसे सुन्दर मोरमुकुट वंशी वाले का तो दर्शन हम भी करेंगे।
क्या अद्भुत छटा है? क्या प्यारी झांकी है, देखने योग्य है। चलो चलें देखें! परन्तु विचार बदल गया, अरे! जो इतना सुन्दर है, इतना मधुर है। वह आवश्यक नहीं उतना ही सरल भी हो। कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता फिरूँ? मिलेगा कि नहीं? मिल भी गया तो स्वीकार करेगा कि नहीं? मुझे अपनायेगा कि नहीं?
जो सुन्दर है, वह स्वभाव से भी सुन्दर हो, इसकी कोई गारंटी नहीं। अपने चित्त को रोका और पुन: अपने ब्रह्मचिंतन करने का प्रयत्न करने लगे। उस रूपसुधा के प्रति अपने मन में जो खिचाव पैदा हुआ, उसे रोकने का प्रयत्न करने लगे। पर जैसे ही ब्रह्मचिंतन करने का प्रयास करते हैं कि मोरमुकुट वंशी वाला चित्त में प्रकट हो जाता है। स्वभाव के प्रति संदेह हो रहा था कि तबतक व्यासजी के उस चेला ने दूसरा श्लोक गुनगुना दिया, इस दूसरे श्लोक में भगवान् के स्वरूप का वर्णन है।
क्या अद्भुत छटा है? क्या प्यारी झांकी है, देखने योग्य है। चलो चलें देखें! परन्तु विचार बदल गया, अरे! जो इतना सुन्दर है, इतना मधुर है। वह आवश्यक नहीं उतना ही सरल भी हो। कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता फिरूँ? मिलेगा कि नहीं? मिल भी गया तो स्वीकार करेगा कि नहीं? मुझे अपनायेगा कि नहीं?
जो सुन्दर है, वह स्वभाव से भी सुन्दर हो, इसकी कोई गारंटी नहीं। अपने चित्त को रोका और पुन: अपने ब्रह्मचिंतन करने का प्रयत्न करने लगे। उस रूपसुधा के प्रति अपने मन में जो खिचाव पैदा हुआ, उसे रोकने का प्रयत्न करने लगे। पर जैसे ही ब्रह्मचिंतन करने का प्रयास करते हैं कि मोरमुकुट वंशी वाला चित्त में प्रकट हो जाता है। स्वभाव के प्रति संदेह हो रहा था कि तबतक व्यासजी के उस चेला ने दूसरा श्लोक गुनगुना दिया, इस दूसरे श्लोक में भगवान् के स्वरूप का वर्णन है।
अहो आश्चर्यम! बकी नाम पूतना का, बकासुर की भगिनी - बकी, जो अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर भगवान् को मारने से प्रेरित होकर आई और वह विषयुक्त स्तन प्रभु के मुख में दे दिया। पर वाह प्रभु! सारे उस पापिनी के उन पापों पर पर्दा डाल दिया। और कहते हैं - बुरी-भली जैसी भी सही, पर काम तो मैया जैसा किया है।
यशोदामैया की तरह कितने प्यार से, अनुराग से, हृदय से लगाकर मुझे स्तनपान करा रही है। इसलिये 'लेभे गति धात्र्युचितां ततोऽन्यम्' माँ यशोदा के समान उस पापिनी पूतना को भी गति प्रभु ने प्रदान कर दी।
अरे कौन अभागा होगा, जो ऐसे परम-दयालु प्रभु की शरणागति स्वीकार न करे, उनकी शरण में जाना न चाहे। जो शुकदेवजी ने सुना, तो बोले वाह इतने प्यारे इतने सुन्दर इतने मधुर होने के साथ-साथ इतने सरल और इतने सगम, इतने सहज। ऐसा तो कोई हो ही नहीं सकता। बस! अब अपने आपको रोक नहीं पाये
यशोदामैया की तरह कितने प्यार से, अनुराग से, हृदय से लगाकर मुझे स्तनपान करा रही है। इसलिये 'लेभे गति धात्र्युचितां ततोऽन्यम्' माँ यशोदा के समान उस पापिनी पूतना को भी गति प्रभु ने प्रदान कर दी।
अरे कौन अभागा होगा, जो ऐसे परम-दयालु प्रभु की शरणागति स्वीकार न करे, उनकी शरण में जाना न चाहे। जो शुकदेवजी ने सुना, तो बोले वाह इतने प्यारे इतने सुन्दर इतने मधुर होने के साथ-साथ इतने सरल और इतने सगम, इतने सहज। ऐसा तो कोई हो ही नहीं सकता। बस! अब अपने आपको रोक नहीं पाये
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥
(भा. 1/7/11)
हरि का अर्थ हरण करने वाला। उस हरि ने इनका चित्त भी हर लिया, चुम्बक की तरह चित्त चितचोर माधव के चरणों में चिपक गया। खिचे चले आये।अरे भैया! बड़े प्यारे-प्यारे श्लोक गुनगुनाये, जरा दो-चार और सुना दो।शिष्यगण बोले, हमें तो दो ही आते हैं, तो दोनों सुना दिये। और ज्यादा आनन्द लेना है, तो हमारे गुरुदेव के पास ऐसे ही दिव्य अट्ठारह हजार श्लोकों की पावनसंहिता है। ओ हो! कहाँ हैं? आओ हमारे साथ!
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकी भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
(भा. 1/7/10)
सूतजी महाराज कहते हैं, ऋषियों! गोविन्द के गुणानुवाद ही इतने दिव्य हैं कि किसी का भी मन खिंच जाये। चुंबक की शक्ति जितनी अधिक होगी लोहा उतनी ही जल्दी से खिचेगा। थोड़ी बहुत गंदगी भी लगी हो उसमे , तो भी चुंबक अपनी ओर खींच ही लेता है। और कहीं विशुद्ध लोहा हो, तो फिर कहना ही क्या है?जिस लोहे में बहुत ही ज्यादा गंदगी लगी हो, मोटी-मोटी कीचड़ की परत लगी हो, अनेक वस्त्रों से यह लिपटा हुआ यदि पड़ा हो, तो चुम्बक-शक्ति बहुत अच्छा काम नहीं करेगी। निरावरण होना चाहिए, कोई कपड़ा नहीं लिपटा हो। लोहे में बहुत ज्यादा कीचड़ न लगी हो, तो चुंबक तुरन्त खींच लेगा प्रभावशील होगा। ऐसे ही गोविन्द के गुणानुवाद चित्त को खींचते हैं, पर चित्त शुद्ध हो, उसमें दुर्वासनाओं के वस्त्र न लिपटे हों।
sampurna bhagwat katha in hindi
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
शुकदेवजी का चित्त तो परम विशुद्ध है, इसलिये खिच गया, चिपक गया। अपने आपको रोक न सके। निर्गन्थ थे, सारी ग्रथियां जिनकी खुल चुकी थी। अज्ञान की भी ग्रंथियां होती हैं। अविद्या, स्मिता, राग-द्वेष, अविनिमेष - ये अज्ञान की ग्रंथियां हैं, जिनके जीवन से खुल चुकी हैं।
इसलिये निग्रन्थ अथवा संग्रह की भी ग्रंथियां जिनकी खुल चुकी हैं। बहुत से विरक्त भी कुछ-न-कुछ संग्रह की ग्रंथी बाँधकर रखते हैं। पर शुकदेवजी के पास किसी प्रकार का कोई संग्रह नहीं है। कोई ग्रंथी इनके तन में नहीं। अरे! और तो और ? कौपीन की ग्रंथी से भी रहित, इनके तन पर लंगोटी भी नहीं है।
संग्रह की भी कोई ग्रंथी नहीं अथवा शिखा-सूत्र की भी ग्रंथी नहीं। शिखा की ग्रंथी और सूत्र में भी ब्रह्मगांठ होती है। सारी ग्रंथियों से रहित हरि के गुणनुवादों ने ऐसे विशुद्धात्मा शुकदेवजी के उस पावन चित्त को खींच लिया।
इसलिये निग्रन्थ अथवा संग्रह की भी ग्रंथियां जिनकी खुल चुकी हैं। बहुत से विरक्त भी कुछ-न-कुछ संग्रह की ग्रंथी बाँधकर रखते हैं। पर शुकदेवजी के पास किसी प्रकार का कोई संग्रह नहीं है। कोई ग्रंथी इनके तन में नहीं। अरे! और तो और ? कौपीन की ग्रंथी से भी रहित, इनके तन पर लंगोटी भी नहीं है।
संग्रह की भी कोई ग्रंथी नहीं अथवा शिखा-सूत्र की भी ग्रंथी नहीं। शिखा की ग्रंथी और सूत्र में भी ब्रह्मगांठ होती है। सारी ग्रंथियों से रहित हरि के गुणनुवादों ने ऐसे विशुद्धात्मा शुकदेवजी के उस पावन चित्त को खींच लिया।
श्रीवेदव्यासजी के पास श्रीशुकाचार्यजी पधारे। चरणों में नमन किया, गुरुदेव! क्या ये प्रसाद हमें भी मिलेगा? अपने प्रिय पुत्र को पाकर प्रसन्नता में प्रमुदित हो उठे श्रीवेदव्यासजी महाराज। वाह! जिसके पीछे मैं पागलों की तरह पुत्र-पुत्र कहकर भाग रहा था, धन्य हैं! गोविन्द के गुणानुवाद, जो आज खुद ही भागा हुआ मेरे पास आ गया।
ये प्रभु के चरित्रों का ही तो चमत्कार है। बैठाकर अपने प्रिय पुत्र को भागवतसंहिता प्रदान की। मधुर-मधुर भागवत के श्लोक सुनाये। शुकदेवजी तो दीवाने हो गये। अबतक केवल परमहंस थे, आज से श्रीपरमहंस हो गये। अबतक निर्गुणसत्ता में चित्त परिनिष्ठित था, आज से सगुण-साकार श्रीराधाकृष्ण के परमोपासक बन गये।
___ और वही भागवत-संहिता को आत्मसात करने के बाद, उन्हीं श्रीशुकदेवजी महाराज ने अवसर आने पर परीक्षित के सामने परोस दिया। शुकदेव जैसे परमहंस सात दिन तक उनके सामने बैठे रहे।
जो गोदोहन काल से ज्यादा कहीं टिकने वाले नहीं, वह सात दिन तक लगातार परीक्षित को इस प्रकार से एक जगह बैठकर कथा सुनाते रहे। इसका कारण क्या है? परीक्षित ने भागवत क्यों सुनी? परीक्षित को ही शुकदेवजी ने पात्र क्यों बनाया? तब श्रीसूतजी महाराज अब परीक्षित का चरित्र प्रारम्भ करते हैं। परीक्षित कथा :
ये प्रभु के चरित्रों का ही तो चमत्कार है। बैठाकर अपने प्रिय पुत्र को भागवतसंहिता प्रदान की। मधुर-मधुर भागवत के श्लोक सुनाये। शुकदेवजी तो दीवाने हो गये। अबतक केवल परमहंस थे, आज से श्रीपरमहंस हो गये। अबतक निर्गुणसत्ता में चित्त परिनिष्ठित था, आज से सगुण-साकार श्रीराधाकृष्ण के परमोपासक बन गये।
___ और वही भागवत-संहिता को आत्मसात करने के बाद, उन्हीं श्रीशुकदेवजी महाराज ने अवसर आने पर परीक्षित के सामने परोस दिया। शुकदेव जैसे परमहंस सात दिन तक उनके सामने बैठे रहे।
जो गोदोहन काल से ज्यादा कहीं टिकने वाले नहीं, वह सात दिन तक लगातार परीक्षित को इस प्रकार से एक जगह बैठकर कथा सुनाते रहे। इसका कारण क्या है? परीक्षित ने भागवत क्यों सुनी? परीक्षित को ही शुकदेवजी ने पात्र क्यों बनाया? तब श्रीसूतजी महाराज अब परीक्षित का चरित्र प्रारम्भ करते हैं। परीक्षित कथा :
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्शभग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे ॥
(भा. 1/7/13)
सूतजी कहते हैं, ऋषियो! उस समय की बात है, जब महाभारत के युद्ध में सभी कौरव मारे गये और पाण्डवों को विजयश्री प्राप्त हुई। अन्तिम युद्ध में विशाल भीमसेन की गदा ने दुर्योधन का उरुदण्ड-भेदन कर दिया, जंघा को तोड़ दिया और मूर्च्छावस्था में दुर्योधन को छोड़कर पाण्डव अपने शिविर में पहुंचे।उस समय एकान्त में दुर्योधन के पास अश्वत्थामा आया। कुरुक्षेत्र की भूमि में अनेक शव बिखरे पड़े हैं, कई हिंसक जीव खाने के लिये झपट रहे हैं, कई गीध आकाश में दृष्टि डाले हुए जहाँ पर चाहते हैं, वहीं पर जाकर बैठ जाते हैं। कई गिद्ध दुर्योधन का भी मृत-देह समझकर आते हैं, घायल अवस्था में दुर्योधन उन्हें भगाते-भगाते अत्यंत संतृस्त हो रहा है।
sampurna bhagwat katha in hindi
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
ये दुर्दशा जब अश्वत्थामा ने देखी, तो विकल हो गया। दुर्योधन के पास आया, मित्र! मैंने तुम्हारा वह वैभव देखा, वह दिव्य साम्राज्य देखा और आज ऐसे उस महापुरुष का ये हाल? ये दुर्दशा? बताइये! आपके लिये मैं क्या कर सकता हूँ। मैंने तुम्हारा नमक खाया है, तुम्हारे बहुत सारे एहसान हैं हम पर ।
बोलिये! तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं क्या कर सकता हूँ। दुर्योधन ने कहा, मित्र! हम सौ भाई थे, पर आज एक नहीं है। इससे अधिक पीडा इस बात की है कि मेरे शत्रु पाँच भाई थे, उनमें से एक भी नहीं मरा सब ज्यों-के-त्यों हैं। पाँच में से एक भी चला जाये, एक की भी संख्या कम हो जाये तो चित्त को कुछ तो संतोष मिले।
अश्वत्थामा ने कहा, तो मित्र। यदि यही तुम्हारी अन्तिम इच्छा है, तो ठीक है। तुम एक की बात कर रहे हो, मैं पाचों का सिर काटकर अभी लाता हूँ।
बोलिये! तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं क्या कर सकता हूँ। दुर्योधन ने कहा, मित्र! हम सौ भाई थे, पर आज एक नहीं है। इससे अधिक पीडा इस बात की है कि मेरे शत्रु पाँच भाई थे, उनमें से एक भी नहीं मरा सब ज्यों-के-त्यों हैं। पाँच में से एक भी चला जाये, एक की भी संख्या कम हो जाये तो चित्त को कुछ तो संतोष मिले।
अश्वत्थामा ने कहा, तो मित्र। यदि यही तुम्हारी अन्तिम इच्छा है, तो ठीक है। तुम एक की बात कर रहे हो, मैं पाचों का सिर काटकर अभी लाता हूँ।
ऐसा कहकर अश्वत्थामा चल पड़ा। सोचने लगा कि क्या किया जाये? 'काग-उलूक-न्याय' से हमला बोलने का प्रयास किया जाये। तमाम कौवे एक वृक्ष पर बैठे थे। रात्रि में उल्लू ने हमला बोला, तो सारे कौए मारे गये, भाग गये। अकेले एक उल्लू ने सब पर विजय प्राप्त कर ली।
ये न्याय अश्वत्थामा की समझ में आ गया कि पाण्डव भी इस समय सशक्त हैं और मैं अकेला क्या कर पाऊँगा? इसी विधि से मैं उन पर आक्रमण करूँ! चल पड़ा अर्धरात्रि में। पर प्रभु जिसे बचाना चाहें, जो करना चाहें, उनकी इच्छा के सामने किसी की नहीं चलती। वह जो चाहते हैं, वही होता है।
भगवान् आज पाँचों पाण्डवों को शिविर से ही बाहर निकालकर ले गये, चलो भाई ! विजय की प्रथम रात्रि है। धूमधाम से उत्सव मनायेंगे। और पाण्डवों की सूनी शय्या पर द्रौपदी के पाँचो बेटे आकर सो गये। ये पाँचों पाण्डवों के द्वारा उत्पन्न हुए थे, जो देखने में बिल्कुल अपने पिता के समान ही दिखाई पड़ते थे। अपने-अपने पिता की शय्या पर पाँचों द्रौपदीपुत्र आकर सो गये।
ये न्याय अश्वत्थामा की समझ में आ गया कि पाण्डव भी इस समय सशक्त हैं और मैं अकेला क्या कर पाऊँगा? इसी विधि से मैं उन पर आक्रमण करूँ! चल पड़ा अर्धरात्रि में। पर प्रभु जिसे बचाना चाहें, जो करना चाहें, उनकी इच्छा के सामने किसी की नहीं चलती। वह जो चाहते हैं, वही होता है।
भगवान् आज पाँचों पाण्डवों को शिविर से ही बाहर निकालकर ले गये, चलो भाई ! विजय की प्रथम रात्रि है। धूमधाम से उत्सव मनायेंगे। और पाण्डवों की सूनी शय्या पर द्रौपदी के पाँचो बेटे आकर सो गये। ये पाँचों पाण्डवों के द्वारा उत्पन्न हुए थे, जो देखने में बिल्कुल अपने पिता के समान ही दिखाई पड़ते थे। अपने-अपने पिता की शय्या पर पाँचों द्रौपदीपुत्र आकर सो गये।
रात्रि में जब अश्वत्थामा ने आक्रमण किया, तो उन पाँच पाण्डवपुत्रों को ही पाण्डव समझ लिया, और पाँचों का सिर काट लिया। प्रसन्न हो गया कि मैं सफल हो गया। पाँचों का सिर लेकर आया, मित्र दुर्योधन ! देखो-देखो! एक माँग रहे थे, मैं पाँचों का सिर लाया हूँ। दुर्योधन भी प्रसन्न हो गया। पर जब गौर से देखा, तो पहचान गया। पहचानते ही दुर्योधन बहुत दु:खी हो गया और बोला, अरे अश्वत्थामा !
ये पाण्डव नहीं! पाण्डव पुत्र हैं ! इन्हें मारकर तो तूने हमें पानी देने वाला भी नहीं छोड़ा ! इनसे मेरा क्या वैर था? दुर्योधन का भी प्राणान्त हो गया, पर अश्वत्थामा अब बहुत घबड़ाया कि पाण्डव यदि जीवित हैं, तो अब वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। उधर जब द्रौपदी को इस घटना का पता चला, तो अत्यंत चीत्कार कर उठी। छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगी।
ये पाण्डव नहीं! पाण्डव पुत्र हैं ! इन्हें मारकर तो तूने हमें पानी देने वाला भी नहीं छोड़ा ! इनसे मेरा क्या वैर था? दुर्योधन का भी प्राणान्त हो गया, पर अश्वत्थामा अब बहुत घबड़ाया कि पाण्डव यदि जीवित हैं, तो अब वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। उधर जब द्रौपदी को इस घटना का पता चला, तो अत्यंत चीत्कार कर उठी। छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगी।
द्रौपदी की इस व्यथा को देखकर अर्जुन ने गाण्डीव-धनुष उठा लिया और तुरन्त क्रोध में भरकर प्रतिज्ञा कर डाली, द्रौपदी ! दुःखी मत हो!! जिस दुष्ट ने ये दुष्कर्म किया है, उसे मैं तुम्हारी आँखों के सामने लाकर मृत्युदण्ड दूंगा। ऐसा कहकर अर्जुन गाण्डीव उठाकर चल पड़े। गोविन्द के द्वारा संचालित उस रथ में बैठकर अश्वत्थामा का पीछा किया। अश्वत्थामा भागा कि बचूंगा नहीं! जब जान ही लिया कि अर्जुन मुझे छोड़ने वाला नहीं, तो उसने अर्जुन के ऊपर ब्रह्मास्त्र चला दिया।
अर्जुन घबड़ा गये। भगवान् बोले, अर्जुन ! तुम क्यों घबड़ाते हो? तुम्हें तो ब्रह्मास्त्र चलाना आता है, तुम भी चलाओ! तुरन्त अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र टकराये। भगवान् बोले, अर्जुन ! तुरन्त शान्त करो। तुरन्त अर्जुन ने अपने दिव्य ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को शान्त कर दिया और छोड़कर अश्वत्थामा को बंदी बना लिया।
रस्सियों में बुरी तरह बाँधकर, रथ में लाकर पटक दिया। भगवान् कहते हैं, इसे बाँध क्यों रहे हो? इसे यहीं मृत्युदण्ड दे दो। ये आततायी है। सोते हुए प्रबल शत्र को भी कोई मारता नहीं, इसने सोते-सोते अबोध बच्चों को मारा है।
अर्जुन घबड़ा गये। भगवान् बोले, अर्जुन ! तुम क्यों घबड़ाते हो? तुम्हें तो ब्रह्मास्त्र चलाना आता है, तुम भी चलाओ! तुरन्त अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र टकराये। भगवान् बोले, अर्जुन ! तुरन्त शान्त करो। तुरन्त अर्जुन ने अपने दिव्य ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को शान्त कर दिया और छोड़कर अश्वत्थामा को बंदी बना लिया।
रस्सियों में बुरी तरह बाँधकर, रथ में लाकर पटक दिया। भगवान् कहते हैं, इसे बाँध क्यों रहे हो? इसे यहीं मृत्युदण्ड दे दो। ये आततायी है। सोते हुए प्रबल शत्र को भी कोई मारता नहीं, इसने सोते-सोते अबोध बच्चों को मारा है।
sampurna bhagwat katha in hindi
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥
(भा. 1/7/36)
धर्मवेत्ता पुरुष स्त्री को, बालक को, मतवाले को, पागल को, सोते हुए शत्रु को, कभी नहीं मारते। इसने अधर्म किया है, अर्जुन ! छोड़ना मत। अर्जुन ने कहा, सरकार ! छोड़ने वाला तो नहीं हूँ। परन्तु द्रौपदी को वचन दिया है, इसलिए वहीं मारूंगा। पशुओं की तरह रस्सी से बाँधकर, अश्वत्थामा को रथ में डालकर, लाकर द्रौपदी के सामने खड़ा कर दिया। जो द्रौपदी की दृष्टि अश्वत्थामा पर पड़ी, तुरन्त खड़ी हुई और अश्वत्थामा की रस्सियां खोलने लगी।मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः क्या कर रहे हो महाराज? ये ब्राह्मण देवता हैं। और केवल ब्राह्मण ही नहीं, आपके गुरुदेव का पुत्र है। अरे ! गुरूपत्र तो गुरुदेव के समान ही वन्दनीय होना चाहिये। और आपने इसे बाँध रखा है? भूल गये गुरुदेव के एहसानों को?
सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः __आपके गुरुदेव ने आपको सबसे परमप्रिय शिष्य मानकर, वह अस्त्र के रहस्य बतलाये हैं, जो किसी को नहीं दिये। धनुर्वेद में जितने भी रहस्य थे, वे सब तुम्हें प्रदान किये। और जिन गुरुदेव ने इतने रहस्य आपको दिये, आज वही गुरुदेव तो पुत्र के रूप में तुम्हारे सन्मुख खड़े हुए हैं और आपने उन्हें पशुओं की तरह बन्दी बना रखा है?
अश्वत्थामा रस्सियों से बँधा नीचे सिर झुकाये खड़ा है। कर्म ही इतना जुगुप्सित किया है कि अपने पापकर्म के कारण कभी निगाह उठाकर किसी से आँख नहीं मिलाता। अश्वत्थामा स्वत: लज्जित हो रहा है, द्रौपदी उन्हें मुक्त करने की प्रार्थना कर रही है।
अश्वत्थामा रस्सियों से बँधा नीचे सिर झुकाये खड़ा है। कर्म ही इतना जुगुप्सित किया है कि अपने पापकर्म के कारण कभी निगाह उठाकर किसी से आँख नहीं मिलाता। अश्वत्थामा स्वत: लज्जित हो रहा है, द्रौपदी उन्हें मुक्त करने की प्रार्थना कर रही है।
अर्जुन बोले, देवी ! क्या तुम भूल गईं? तुम्हारे एक नहीं पाँच-पाँच पुत्रों को सोते-सोते इसने समाप्त कर दिया, और इस पर तुम इतनी दया दिखा रही? द्रौपदी ने कहा, महाराज! इस पर तो मुझे बिल्कुल भी दया नहीं आती, पर मैं ये नहीं चाहती कि जिस शोकसागर में मैं डूब रही हूँ, किसी दूसरी माँ को क्यों डुबाऊँ? मैं जान गई कि पुत्र-पीड़ा की व्यथा कितनी होती है।
यदि तुमने इसे समाप्त किया, तो क्या तुम्हारी गुरुमाता मेरी तरह नहीं रोयेगी? मेरे पुत्र नहीं तो मुझे कम-से-कम पति का अवलम्ब प्राप्त है। परन्तु इनकी माँ कृपी, जिनके पति द्रोणाचार्यजी महाराज तो पधार चुके हैं, बेटे का सहारा लिये बैठी है। यदि इसे भी तुम समाप्त कर दोगे, तो तुम्हारी गुरुमाता पर क्या बीतेगी? वह तो बिल्कुल असहाय अकेली पड़ जायेगी।
यदि तुमने इसे समाप्त किया, तो क्या तुम्हारी गुरुमाता मेरी तरह नहीं रोयेगी? मेरे पुत्र नहीं तो मुझे कम-से-कम पति का अवलम्ब प्राप्त है। परन्तु इनकी माँ कृपी, जिनके पति द्रोणाचार्यजी महाराज तो पधार चुके हैं, बेटे का सहारा लिये बैठी है। यदि इसे भी तुम समाप्त कर दोगे, तो तुम्हारी गुरुमाता पर क्या बीतेगी? वह तो बिल्कुल असहाय अकेली पड़ जायेगी।
मां रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं मृतवत्साऽऽर्तारोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥
(भा. 1/7/47) -
धर्मराज युधिष्ठिरजी को द्रौपदी के ये वचन उचित लगे। उन्होंने तुरन्त आदेश दिया, अर्जुन ! द्रौपदी बिल्कुल ठीक कह रही है। जैसा भी हो, ब्राह्मण है, गुरुपुत्र है। हमारे लिये सर्वथा वन्दनीय है, हमें इसे मारना नहीं चाहिये। पर भीमसेन की आँखें टेढ़ी हो गई। गदा सँभालने लगे, तुम सब छोड़ भी दो, तो भी मेरी गदा से ये छूटने वालानहीं है। कदापि इसे जीवनदान नहीं मिल सकता।
अर्जुन बोले, भैया ! मैं भी वचनबद्ध हूँ। मैंने भी द्रौपदी के सामने प्रण किया था। इसलिये मैं भी छोड़ने वाला तो नहीं। अब तो बड़ा भारी द्वन्द्व खड़ा हो गया। द्वारकाधीश प्रभु मौन खड़े-खड़े सब कुछ सुन रहे हैं, देख रहे हैं, विचार कर रहे हैं।
जब बात बहुत ज्यादा उलझती चली गई. तब अर्जुन द्वारकाधीश के पास आकर बोले, सरकार ! अब आप मौन क्यों खड़े हो? आप भी तो कुछ अपना मन्तव्य बतलाइये, क्या किया जाये? भगवान् बोले, हमसे पूछते हो, तो सुनो!
अर्जुन बोले, भैया ! मैं भी वचनबद्ध हूँ। मैंने भी द्रौपदी के सामने प्रण किया था। इसलिये मैं भी छोड़ने वाला तो नहीं। अब तो बड़ा भारी द्वन्द्व खड़ा हो गया। द्वारकाधीश प्रभु मौन खड़े-खड़े सब कुछ सुन रहे हैं, देख रहे हैं, विचार कर रहे हैं।
जब बात बहुत ज्यादा उलझती चली गई. तब अर्जुन द्वारकाधीश के पास आकर बोले, सरकार ! अब आप मौन क्यों खड़े हो? आप भी तो कुछ अपना मन्तव्य बतलाइये, क्या किया जाये? भगवान् बोले, हमसे पूछते हो, तो सुनो!
तस्मात् शास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ।
क्या करना चाहिये और क्या नहीं, इसके शास्त्र साक्षी होते हैं। शास्त्र जो कहें, वह करना चाहिए। तो ऐसी स्थिति में शास्त्र कहता है -ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः ।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ॥
(भा. 1/7/53)
शास्त्रों ने स्पष्ट आदेश दिया है कि ब्राह्मण कितना भी पतित हो, अधम हो, पर वह मारने योग्य नहीं होता। ब्राह्मण का कभी वध नहीं किया जाता। पर शास्त्रों में ये भी स्पष्ट आदेश है कि आततायी कोई भी हो, कैसा भी हो, वह वध के ही योग्य होता है।उसे छोड़ना ही नहीं चाहिये। अर्जुन ने कहा, जय हो महाराज! आपने तो ये दोनों ही बातें कर दीं। एक तरफ कह दिया, ब्राह्मण कभी मारा नहीं जाता। दूसरी तरफ कह दिया, आततायी कोई भी क्यों न हो, उसे छोड़ना ही नहीं चाहिये! तो बात तो जहाँ-की-तहाँ रही महाराज ! मैं क्या करूँ?
भगवान् बोले, शास्त्र की बात हमने बता दी। अब जो उचित लगता हो, तुम करो। अर्जुन ने कहा कि महाराज ! मैं कुछ समझा नहीं। भगवान् बोले, तो यों समझो! श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज सम्राट हैं, राजा हैं, तुम्हारे बड़े भाई हैं। वह जो आज्ञा दे रहे हैं, उसका तुम्हें पालन करना चाहिये। पर ध्यान रखना कि तुम क्षत्रिय हो, अपनी प्रतिज्ञा को मत तोड़ बैठना।
क्षात्रधर्म का पालन करना, वचनरक्षा करना। अर्जुन समझ गये कि ये टेड़ी टाँग वाले सीधा बोलना जानते ही नहीं, हर मामला इनका टेड़ा। पर अर्जुन भी भगवान् के पक्के चेला हैं। भगवान् से ही भगवद्गीता का ज्ञान प्राप्त किया है महाभारत में। अर्जुन को तुरन्त गीता का एक सूत्र याद आ गया।
भगवान् कह रहे थे, माननीय पुरुषों का अपमान ही मृत्यु है। शरीर का वध ही वध नहीं कहलाता। ये भी तो मौत है। माननीय पुरुषों का अपमान हो जाये, वह जितनी बार उस अपमान को याद करेगा, उतनी मौत मरेगा।
क्षात्रधर्म का पालन करना, वचनरक्षा करना। अर्जुन समझ गये कि ये टेड़ी टाँग वाले सीधा बोलना जानते ही नहीं, हर मामला इनका टेड़ा। पर अर्जुन भी भगवान् के पक्के चेला हैं। भगवान् से ही भगवद्गीता का ज्ञान प्राप्त किया है महाभारत में। अर्जुन को तुरन्त गीता का एक सूत्र याद आ गया।
भगवान् कह रहे थे, माननीय पुरुषों का अपमान ही मृत्यु है। शरीर का वध ही वध नहीं कहलाता। ये भी तो मौत है। माननीय पुरुषों का अपमान हो जाये, वह जितनी बार उस अपमान को याद करेगा, उतनी मौत मरेगा।
सम्भावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते।
संभावित कहुं अपजस लाहू । मरण कोटि सम दारुण दाहू ॥ तुरन्त भगवान् का वाक्य स्मरण आ गया। अर्जुन ने अश्वत्थामा के सिर से चमकती हुई मणि को निकाला और शिविर से धक्का मारकर भगा दिया।
sampurna bhagwat katha in hindi
bhagwat puran in sanskrit with hindi translation