shrimad bhagwat katha in hindi
श्रीमद् भागवत कथा हिंदी
( भाग-3,part-3)
[ प्रथम स्कंध ]
जीवों का कैसे कल्याण होगा? कलिकाल में लोगों की बुद्धि भी मन्द, भाग्य भी अति मन्द है। कोई बुद्धिहीन व्यक्ति हो, पर यदि भाग्यशाली हो, तो काम चल जायेगा। भाग्यहीन व्यक्ति हो पर, यदि बुद्धिमान हो तो, बुद्धि के बल पर अपना निर्वाह कर लेगा।( भाग-3,part-3)
[ प्रथम स्कंध ]
पर बुद्धि और भाग्य - दोनों ही मन्द पड़ गये हों, तो ऐसे जीवों का कैसे कल्याण होगा? इसलिये व्यासजी महाराज ने उन सबका ध्यान रखते हुए एक वेद के चार विभाग कर दिये - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद।
इस पर उनके चित्त को फिर भी शान्ति नहीं हुई क्योंकि वेदों में ज्ञान का भण्डार तो बहुत भरा पड़ा है, पर वेद के ज्ञान को समझने वाला कोई नहीं है। वेद की भाषा जटिल है, तो उसे और सरल करने के लिये पंचम वेद महाभारत की रचना कर दी।
जिनकी गति वैदिक ज्ञान में न हो, वह महाभारत का स्वाध्याय करके वैदिकज्ञान प्राप्त कर सकेंगे इसलिये महाभारत की रचना हुई, परन्तु फिर भी मन को संतोष नहीं हुआ। तब पुराणों की रचना प्रारम्भ की। एक-एक करके सत्रह पुराण लिख डाले, पर व्यासजी महाराज का मन अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ। सोच रहे थे कि अब क्या किया जाये? कि अचानक ! उनके कान में ध्वनि सुनाई पड़ी।
कीर्तन - नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण देवर्षि नारद अपनी वीणा पर गोविन्द के गुणानुवाद गाते हुए व्यासजी के सामने प्रकट हो गये। देवर्षि नारद का दर्शन करते ही व्यासजी महाराज खड़े हुए। और, पूजयामास विधिवन्नारदं सुरपूजितम् बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा परमपूज्य देवर्षि नारद का व्यासजी महाराज ने पाद्य, अर्घ्य, आचमन, आदि के द्वारा विधिवत् पूजन किया। अतिथिपूजन करने के पश्चात् जब आदरपूर्वक आसन देकर बैठाये, तब नारदजी मुस्कुराये और बोले-
पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥
(भा. 1/5/2)
हे पराशरनन्दन! 'पराशस्यापत्यं पुमान् पाराशरः' पराशर ऋषि की संतति में जो हुए वह सब पाराशर तो व्यासजी को पाराशर कहकर सम्बोधित कर रहे हैं।हे पाराशरजी! आपका मुख थोड़ा मलीन-सा क्यों दीख रहा है? आपके धर्म-कर्म सब व्यवस्थित तो चल रहे हैं? आपकी दिनचर्या में, भगवत्सेवा-पूजा में कोई विघ्न तो उपस्थित नहीं हो रहा? व्यासजी कहते हैं, नारदजी! आपने जो भी कुछ पूछा, वह सब ठीक चल रहा है।
मेरे पूजापाठ में कहीं कोई बाधा नहीं है। मैंने जीवों के कल्याणार्थ भी बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना कर डाली, फिर भी न जाने क्यों, मेरे चित्त को चैन नहीं पड़ रहा? अभी भी मेरा मन संतुष्ट नहीं हो पा रहा? अभी भी मेरे हृदय में एक आह्लाद जो होना चाहिए कि मैंने समाज के लिये कुछ किया उससे पूर्ण संतुष्टि मेरे मन में नहीं है।
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श्रीमद् भागवत कथा हिंदी
और वह क्यों नहीं है? ये कारण मैं स्वयं भी नहीं जानता। नारदजी बोले, तो हम बतायें? तब सूतजी कहते हैं, 'श्रीनारद उवाच'। अब नारदजी बोले। आप कभी श्रीमद्भागवत की मूलपाठप्रति में ध्यान दीजिये। इस प्रकरण में पहले केवल 'नारद उवाच' कहा, लेकिन अब लिख रहे हैं श्रीनारद उवाच'। '
श्री' अब लगाई, पहले नहीं लगाई; क्योंकि पहले केवल नारदजी #बोल रहे थे। अब जो बोल रहे हैं, वह नारदजी तो बोलते दिखाई पड़ रहे हैं, परन्तु प्रेरणा देने वाले तो परमात्मा हैं। व्यासजी का मार्गदर्शन कराने के लिये नारदजी के भीतर से परमात्मा बोल रहे हैं। इसलिए 'श्रीनारद उवाच' ऐसा पाठ देखने में आता है।
क्योंकि अब स्वयं भगवान नारदजी के माध्यम से व्यासजी को भागवत का उपदेश दे रहे हैं। भागवत का मतलब - 'भगवता प्रोक्तम' - भगवान ने जो कहा।
श्री' अब लगाई, पहले नहीं लगाई; क्योंकि पहले केवल नारदजी #बोल रहे थे। अब जो बोल रहे हैं, वह नारदजी तो बोलते दिखाई पड़ रहे हैं, परन्तु प्रेरणा देने वाले तो परमात्मा हैं। व्यासजी का मार्गदर्शन कराने के लिये नारदजी के भीतर से परमात्मा बोल रहे हैं। इसलिए 'श्रीनारद उवाच' ऐसा पाठ देखने में आता है।
क्योंकि अब स्वयं भगवान नारदजी के माध्यम से व्यासजी को भागवत का उपदेश दे रहे हैं। भागवत का मतलब - 'भगवता प्रोक्तम' - भगवान ने जो कहा।
भगवान् ने ही ब्रह्माजी के भीतर से नारदजी को कहा, फिर भगवान् ने ही नारदजी के भीतर बैठकर व्यासजी को कहा, फिर व्यासजी के भीतर बैठकर भगवान् ने ही शुकदेवजी को कहा, फिर शुकदेवजी के भीतर बैठकर भगवान् ने ही परीक्षितजी को कहा, 'तत्राभवद्भगवान् व्यासपुत्रो'।
इसलिये बोलता हुआ कोई भी दिखाई पड़े, पर वक्ता के भीतर से बुलाने वाले तो परमात्मा ही होते हैं। इसलिये वक्ता भगवद्-स्वरूप ही होता है। इसलिये अब नारदजी के भीतर से भगवान् बोल रहे हैं?
इसलिये बोलता हुआ कोई भी दिखाई पड़े, पर वक्ता के भीतर से बुलाने वाले तो परमात्मा ही होते हैं। इसलिये वक्ता भगवद्-स्वरूप ही होता है। इसलिये अब नारदजी के भीतर से भगवान् बोल रहे हैं?
नारदजी कहते हैं, व्यासजी! तुमने बहुत कुछ लिखा और अपनी लेखनी में बहुत चमत्कार दिखाये। कहीं-कहीं पर तो आपने ऐसे-ऐसे व्यामिश्रित वाक्य बोल दिये कि लोगों की बुद्धि समझने में चक्कर खा गई।
न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।।
तद्वायसं तीर्थमशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमन्त्यशिक्क्षयाः ॥
(भा. 1/5/10)
नारदजी बोले, व्यासजी ! हंस मोती चुनते हैं। कौओं के साथ हंस थोड़े-ही घूमेंगे? उसी प्रकार तुमने बहुत चित्र-विचित्र भाषा का वैशिष्ट्य तो दिखाया, पर गोविन्द के गुणानुवाद नहीं गाये ।नैष्कर्म में भी भगवान् की प्रीति न हो, तो उस निष्काम कर्म की भी कोई शोभा नहीं। उस ज्ञान की कोई शोभा नहीं, जो गोविन्द से जुड़ा हुआ न हो। इसलिये व्यासजी महाराज! जबतक भगवान् की कीर्ति-कौमुदी का विस्तार नहीं करोगे, गायन नहीं करोगे, तबतक न तो आपको ही चैन मिलेगा, न तुम्हारी उन पूर्व कृतियों में भक्तों को इतना आनन्द मिलेगा। व्यासजी महाराज! मुझे देखो।
अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेद वादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ॥ मैं पूर्वजन्म में दासी पुत्र था, पर मेरी माँ संतो में बड़ी श्रद्धा रखती थी, ब्राह्मणों की भक्त थी। जबसे मैंने होश सँभाला, माँ के साथ ही जाता था। माँ संतों की सेवा में जाती, मैं साथ में जाता। महात्मालोग स्नान कर लेते, तो उनके कपड़े माँ के साथ मैं भी धोता था।
महात्माओं के लिये जंगल से समिधायें बीन-बीनकर लाता था। महात्मा लोग प्रसाद ग्रहण कर लेते, तो उनका उच्छिष्ट-प्रसाद मैं पाता था। महात्मा लोग कीर्तन करते थे, नाचते थे, तो मैं भी उनके साथ खूब ताली बजा-बजाकर नाचता था।
महात्मा लोग कथा कहते थे, तो मैं भी खब चित्त लगाकर भगवान की मधर-कथा संतों के बीच बैठकर सुनता था। चातुर्मास्य में परमात्मा के भजन में उन संतो का संग पाकर मेरा चित्त खुब रम गया। संतो की संगति से मेरा मन भी परमात्मा के प्रेम में रम गया। और चातुर्मास्य पूरा होते ही महात्मा लोग तो चल पड़े, मैं भी उनके संग में चल पड़ा। महात्माओं ने टोका, ऐ बच्चे! तू कहाँ जा रहा है हमारे साथ? मैंने कहा, महाराज! मैं तो अब आपके साथ ही रहूँगा।
संत बोले, न बेटा! तू अपनी माँ का इकलौता बेटा है। तेरी माँ ने कितनी सेवा की। अब तुझे हम अपने साथ ले जायेंगे, तो तेरी माँ जीवन भर गाली देगी। इसलिये बेटा! या तो तुम अपनी माँ की आज्ञा लेकर हमारे पास आओ, माँ आज्ञा देती है तो तुम्हें अपने साथ रखने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।
और माँ की यदि आज्ञा नहीं है, तो माताजी जब पधार जायें तब हमारे पास आना। जबतक माँ की सेवा करो। हम तुम्हें मंत्र दिये देते हैं, घर में बैठकर ही भजन करो।
महात्माओं के लिये जंगल से समिधायें बीन-बीनकर लाता था। महात्मा लोग प्रसाद ग्रहण कर लेते, तो उनका उच्छिष्ट-प्रसाद मैं पाता था। महात्मा लोग कीर्तन करते थे, नाचते थे, तो मैं भी उनके साथ खूब ताली बजा-बजाकर नाचता था।
महात्मा लोग कथा कहते थे, तो मैं भी खब चित्त लगाकर भगवान की मधर-कथा संतों के बीच बैठकर सुनता था। चातुर्मास्य में परमात्मा के भजन में उन संतो का संग पाकर मेरा चित्त खुब रम गया। संतो की संगति से मेरा मन भी परमात्मा के प्रेम में रम गया। और चातुर्मास्य पूरा होते ही महात्मा लोग तो चल पड़े, मैं भी उनके संग में चल पड़ा। महात्माओं ने टोका, ऐ बच्चे! तू कहाँ जा रहा है हमारे साथ? मैंने कहा, महाराज! मैं तो अब आपके साथ ही रहूँगा।
संत बोले, न बेटा! तू अपनी माँ का इकलौता बेटा है। तेरी माँ ने कितनी सेवा की। अब तुझे हम अपने साथ ले जायेंगे, तो तेरी माँ जीवन भर गाली देगी। इसलिये बेटा! या तो तुम अपनी माँ की आज्ञा लेकर हमारे पास आओ, माँ आज्ञा देती है तो तुम्हें अपने साथ रखने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।
और माँ की यदि आज्ञा नहीं है, तो माताजी जब पधार जायें तब हमारे पास आना। जबतक माँ की सेवा करो। हम तुम्हें मंत्र दिये देते हैं, घर में बैठकर ही भजन करो।
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श्रीमद् भागवत कथा हिंदी
नारदजी कहते हैं, व्यासजी! मैं जानता था कि मेरी माँ मुझे कभी घर छोड़ने की आज्ञा नहीं देने वाली। इसलिए माँ से मैंने कुछ नहीं कहा और महाराजजी से मंत्र लेकर चला आया। घर में ही बैठकर माला जपने लगा। चौबीसों घंटे प्रेम में डूबा प्रभु की माला जपता रहता था।
मेरा अन्य बालकों की तरह कोई भी खेलने में मन नहीं लगता था, संसार की बातें कभी मुझे अच्छी नहीं लगती थीं। सदा हरिभजन में मस्त रहता था। मेरी माँ ने जब मेरी ये स्थिति देखी तो माँ को भय होने लगा कि कहीं मैं बाबा न बन जाऊँ ? उनकी धड़कन तेज हो गई। माताओं को इस बात का बहुत डर लगता है कि कहीं मेरा बेटा बाबा न बन जाये।
और कुछ न बन जाये उसकी उतनी चिन्ता नहीं करती। चोर न बन जाये, डकैत न बन जाये, नेता न बन जाये, आदि-आदि कुछ भी बन जाये, पर बाबा न बन जाये, ये बहुत डर लगता है। थोड़ा भी तिलक-चंदन और कंठी धारण की, माला लेकर भजन किया कि माताजी घबड़ाईं।
नारदजी कहते हैं, व्यासजी ! मेरी माँ को मेरी चिन्ता होने लगी। घर में जो भी आता, मेरी माँ एक ही बात करती। मेरे बेटे की जल्दी से शादी करवा दो, बस मेरी बुढ़ापे में एक ही इच्छा है कि रुनक झुनक करती घर में बहू आ जाये, मेरा बच्चा घर-गृहस्थी सँभाल ले, तो मैं निश्चित हो जाऊँ।
मेरा अन्य बालकों की तरह कोई भी खेलने में मन नहीं लगता था, संसार की बातें कभी मुझे अच्छी नहीं लगती थीं। सदा हरिभजन में मस्त रहता था। मेरी माँ ने जब मेरी ये स्थिति देखी तो माँ को भय होने लगा कि कहीं मैं बाबा न बन जाऊँ ? उनकी धड़कन तेज हो गई। माताओं को इस बात का बहुत डर लगता है कि कहीं मेरा बेटा बाबा न बन जाये।
और कुछ न बन जाये उसकी उतनी चिन्ता नहीं करती। चोर न बन जाये, डकैत न बन जाये, नेता न बन जाये, आदि-आदि कुछ भी बन जाये, पर बाबा न बन जाये, ये बहुत डर लगता है। थोड़ा भी तिलक-चंदन और कंठी धारण की, माला लेकर भजन किया कि माताजी घबड़ाईं।
नारदजी कहते हैं, व्यासजी ! मेरी माँ को मेरी चिन्ता होने लगी। घर में जो भी आता, मेरी माँ एक ही बात करती। मेरे बेटे की जल्दी से शादी करवा दो, बस मेरी बुढ़ापे में एक ही इच्छा है कि रुनक झुनक करती घर में बहू आ जाये, मेरा बच्चा घर-गृहस्थी सँभाल ले, तो मैं निश्चित हो जाऊँ।
नारदजी कहते हैं, मैंने जब माँ की ये बातें सुनी तो मेरी धड़कन और ज्यादा तेज हो गई, हे प्रभु! ये क्या झंझट है? अभी माँ की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि माताजी पधारेंगी सो ही भजन करने संतों के साथ चला जाऊँगा। और कहीं शादी करके मैया गई? तो देवीजी के पधारने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
फिर तो मेरा पूरा जीवन यों प्रतीक्षा ही करते-करते बीत जायेगा। क्या करूँ? हे प्रभु! अब आप ही कुछ करो। ____ठाकुरजी ने ऐसी कृपा करी कि एक दिन सायंकाल का वक्त था। गईया दुहने के लिये मेरी मैया जा रही थी, उन्हें दिखाई नहीं पड़ा और एक सर्प पर उन्होंने पैर रख दिया।
सर्प ने तुरन्त मेरी माँ को काट लिया, मेरी मैया मर गई। एक ने मुझे खबर करी तेरी मैया मर गई, उसे नाग ने काट लिया। मैं सुनते ही गद्गद् हो गया। मन में तो मैं बहुत खुश हुआ, पर ऊपर से थोड़ा मुँह लटकाकर, आँसू बहाया। क्योंकि यदि ऊपर से खुश होता तो मुझे संसार के लोग खूब गाली देते कि मैया मरने की खुशी मनाता है? तो,
फिर तो मेरा पूरा जीवन यों प्रतीक्षा ही करते-करते बीत जायेगा। क्या करूँ? हे प्रभु! अब आप ही कुछ करो। ____ठाकुरजी ने ऐसी कृपा करी कि एक दिन सायंकाल का वक्त था। गईया दुहने के लिये मेरी मैया जा रही थी, उन्हें दिखाई नहीं पड़ा और एक सर्प पर उन्होंने पैर रख दिया।
सर्प ने तुरन्त मेरी माँ को काट लिया, मेरी मैया मर गई। एक ने मुझे खबर करी तेरी मैया मर गई, उसे नाग ने काट लिया। मैं सुनते ही गद्गद् हो गया। मन में तो मैं बहुत खुश हुआ, पर ऊपर से थोड़ा मुँह लटकाकर, आँसू बहाया। क्योंकि यदि ऊपर से खुश होता तो मुझे संसार के लोग खूब गाली देते कि मैया मरने की खुशी मनाता है? तो,
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अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम्।
भगवान् का परम अनुग्रह मानकर माँ का संस्कार किया और सीधा उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा, जिस रास्ते महात्मा लोग गये थे। अब महात्मा तो कब के गये? मैं कहाँ ढूँढ़ता उन्हें? ढूँढ-ढूँढ़ के परेशान महात्मा कहीं नहीं मिले। एक दिन जब चलते-चलते खूब थक गया, तो एक सरोवर दीखा। सरोवर में मैंने स्नान किया, पानी पीकर प्यास बुझाई।स्नात्वा पीत्वा हृदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः।
पानी पीकर, प्यास बुझाकर जब मेरा परिश्रम दूर हो गया तो एक वृक्ष की सघन-शीतल छांव में मैं बैठ गया कि थोड़ा आराम कर लूं। बैठ गया तो आसन जमाकर आँख बंद करके वही मंत्र जपने लगा कि थोड़ी देर ध्यान करूँ, भजन करूँ। फिर आगे चलूँ।परन्तु वह ऐसा पावन-दिव्यस्थान था कि मैं जैसे-ही माला लेकर भजन कर रहा था कि हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः धीरे से भगवान् की सांवली-सलौनी सूरत मेरे हृदय में प्रकट हो गई और मैंने ध्यान में जो भगवान की बांकी-झांकी की आभा-प्रभा-शोभा का दर्शन किया, मेरे आनन्द का पारावार नहीं रहा। ... ओ हो! मेरी साधना सफल हो गई! मैं सिद्ध हो गया ! मुझे साक्षात् नारायण का साक्षात्कार हो गया। ...और ठिकाना नहीं रहा।
और उस आनन्द के सागर में गोता लगा रहा था कि अगले ही क्षण वह छवि गायक अब मेरे को बड़ी घबराहट हुई कि दीखते-दीखते अचानक भगवान् कहाँ भाग गये?
मैंने फिर दुबारा आसन लगाया, फिर वही भजन किया, फिर ध्यान लगाया, लाख कोशिश की। नहीं हुआ। अब तो मेरी विरह-वेदना इतनी प्रबल हो गई कि मैं चीत्कार करके रोने लगा, छाती पीटने लगा। प्रभ! क्या हो गया? मझसे कौन-सा दोष बन गया कि इतनी सुन्दर छवि का दर्शन कराते-कराते आप गये? जब मैं बहुत बुरी तरह रोया, तो अचानक मेरे कान में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ी,
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम्।
आकाशवाणी ने कहा, अरे वत्स! अभी तुम परिपक्व योगी नहीं हुए हो, कच्चे हो। जब परिपक्व सच्चे योगी बन जाओगे, तभी तुम्हें मेरा दिव्यदर्शन प्राप्त होगा। अभी तुम अनधिकारी हो। इसी प्रकार साधना करो फिर तुम्हें हम मिलेंगे।मैं बोला, महाराज ! जब मैं परिपक्व नहीं था, तो आप मुझे अभी दर्शन देने आये क्यों? मैं परिपक्व हो जाता, सिद्धकोटि में पहुँच जाता, तभी दर्शन देने आते? पर आपने जो दर्शन की छटा दिखाई और फिर जो भाग गये। अब तो मैं उसके बिना रह नहीं पाऊँगा ! मैं तो उसके लिये छटपटा रहा हूँ।
जैसे पानी से पृथक मछली की स्थिति हो जाये, आपने तो वह स्थिति मेरी कर दी। मैं आपके बिना नहीं रह पाऊँगा। भगवान् बोले, बेटा! वह तो मैंने अपनी रूपसुधा की चटनी चटाई थी। अरे ! तू बालक है! विरक्त तो हो गया। पर जब बहुत दिन हो जायेंगे, कदाचित तुझे मेरा दर्शन बहुकाल तक नहीं हुआ, तो तेरी बुद्धि में भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि कहीं महात्मा लोग बचपन में मुझे ऐसे ही पागल तो नहीं बनाकर चले गये?
न जाने कोई भगवान् होते भी हैं कि नहीं? तो मेरी सत्ता के प्रति संदेह मन में न जाग जाये, इसलिये मैंने अपनी रूपसुधा की चटनी चखा दी, स्वाद का चस्का तुझे लगा दिया। इसलिये अब तू भटकेगा नहीं और इसी स्वाद में डूबकर मेरा भजन कर। इस जन्म में नहीं अगले जन्म में तुझे मेरी प्राप्ति सुनिश्चित हो जायेगी।
___नारदजी कहते हैं, व्यासजी महाराज ! भगवान् के उसी वचन पर विश्वास करके मैं जम गया। उसी वृक्ष की छांव में आँख बंद करके, जो छटा मुझे दीखी थी, उसी छटा के आनन्द में डूबा हुआ, उसी का चिंतन करता रहा।
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और कुछ ही दिनों के बाद महाप्रलय हो गया। समुद्र ने अपनी सीमाओं को लांघ दिया और देखते-देखते सारा संसार ही जलमग्न हो गया। सारा संसार परमात्मा के उदर में विलीन हो गया। और जब उस परमात्मा ने पुन: इस संसार का सृजन किया तो उस दासीपुत्र नारद को अब की बार सृष्टि में ब्रह्मा का पुत्र बनाकर पैदा किया।
व्यासजी महाराज! कहाँ दासीपुत्र नारद और कहाँ ब्रह्मापुत्र हो गया। ये उन संतों के सान्निध्य में भगवत्सत्संग का ही चमत्कार है। चातुर्मास्य के संतों के संग ने आज मुझे भगवद्रसिक बना दिया, कृष्ण-दीवाना कर दिया। ब्रह्माजी का बेटा बनकर भी मैंने उसी तत्त्व को पाने का प्रयास किया, जब देखो तब उसी का चिंतन और ध्यान करता रहा।
संस्कारवश भजन करते-करते यदि इस जन्म में ब्रह्म साक्षात्कार न हो पाये और शरीर छूट जाये, तो अगला जब जन्म होगा तो बाल्यावस्था से ही वह संस्कार तुम्हारे जाग्रत हो जायेंगे। जो काम पूर्वजन्म में अधूरा रह गया, वह इस जन्म में फिर वहीं से प्रारम्भ हो जायेगा।
व्यासजी महाराज! कहाँ दासीपुत्र नारद और कहाँ ब्रह्मापुत्र हो गया। ये उन संतों के सान्निध्य में भगवत्सत्संग का ही चमत्कार है। चातुर्मास्य के संतों के संग ने आज मुझे भगवद्रसिक बना दिया, कृष्ण-दीवाना कर दिया। ब्रह्माजी का बेटा बनकर भी मैंने उसी तत्त्व को पाने का प्रयास किया, जब देखो तब उसी का चिंतन और ध्यान करता रहा।
संस्कारवश भजन करते-करते यदि इस जन्म में ब्रह्म साक्षात्कार न हो पाये और शरीर छूट जाये, तो अगला जब जन्म होगा तो बाल्यावस्था से ही वह संस्कार तुम्हारे जाग्रत हो जायेंगे। जो काम पूर्वजन्म में अधूरा रह गया, वह इस जन्म में फिर वहीं से प्रारम्भ हो जायेगा।
नारदजी कहते हैं, उसी प्रकार जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार फलीभूत हुये कि मैं भी अपने प्रभु के गुण-गणा का गान करते हुए उनका भजनानुरागी बन गया। और उन्हीं के गुणों का गान करते हुए नाचने लगा।
तो नारायण प्रभु के सामने ऐसा ठुमुक-ठुमुककर, नाच-नाचकर मैंने संकीर्तन किया कि मेरे प्रभु मेरे कीर्तन पर खुश हो गये। इतने प्रसन्न हो गये कि मुझे अपनी वीणा प्रदान कर दी। और कहा कि बेटा !
इस वीणा पर मेरे गीतों का गायन करना, नाम का संकीर्तन करना और जगत् में विचरण करना। और मेरे नाम की महिमा का प्रचार-प्रसार करना। व्यासजी ! तभी से वीणा पर, उन्हीं के गीत गाता हुआ घूम रहा हूँ।
प्रभु के नाम का चमत्कार देखो कि कहाँ तो दासी पुत्र था, आज ब्रह्मा का पुत्र बन गया। और नाम की महिमा का चमत्कार देखो कि जगत् में सब जगह मेरी पूजा होने लगी। मानवों में जाऊँ, दानवों में जाऊँ, या देवताओं में जाऊँ, मेरी सर्वत्र पूजा होती है। ये मेरी पूजा नहीं है, वस्तुतः ये मेरे प्रभु के नाम की पूजा है, जिसने मुझे जगत्पूज्य बना दिया।
इस वीणा पर मेरे गीतों का गायन करना, नाम का संकीर्तन करना और जगत् में विचरण करना। और मेरे नाम की महिमा का प्रचार-प्रसार करना। व्यासजी ! तभी से वीणा पर, उन्हीं के गीत गाता हुआ घूम रहा हूँ।
प्रभु के नाम का चमत्कार देखो कि कहाँ तो दासी पुत्र था, आज ब्रह्मा का पुत्र बन गया। और नाम की महिमा का चमत्कार देखो कि जगत् में सब जगह मेरी पूजा होने लगी। मानवों में जाऊँ, दानवों में जाऊँ, या देवताओं में जाऊँ, मेरी सर्वत्र पूजा होती है। ये मेरी पूजा नहीं है, वस्तुतः ये मेरे प्रभु के नाम की पूजा है, जिसने मुझे जगत्पूज्य बना दिया।
'देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम्।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥
(भा. 1/6/33)
मैं उन्हीं के गीत गाता घूम रहा हूँ व्यासजी ! इसलिये आप से निवेदन है कि आप भी गोविन्द के गुणानुवाद गाओ। फिर देखो! आपको कितना आनन्द आता है। और आपकी वाणी से भक्तों को कितना परमसुख प्राप्त होता है।'प्रादेशमानं भवता प्रदर्शितम्' गोविन्द के गुणानुवाद का संकेत भर कर दिया कि अब तुम विस्तार से सुनाओ। ऐसा कहकर नारदजी तो अतध्यान हो गये। व्यासजी महाराज ने तुरन्त अपनी कमी का अनुभव कर लिया कि अभी तक मैं वक्ता बनकर सोच रहा था कि मैं बोल रहा हूँ! मैं लिख रहा हूँ! पर अब मैं वही लिखूगा, जो ठाकुरजी लिखायेंगे, जो उनकी प्रेरणा होगी।
तुरन्त सरस्वती नदी में स्नान किया। स्नान करके जैसे-ही व्यासजी महाराज अपने शम्याप्रास आश्रम में ध्यानमग्न होकर बैठे कि हृदय में भागवत की भागीरथी प्रकट होने लगी। गद्गद् कण्ठ से गोविन्द के गुणानुवाद गाने लगे। व्यासजी गाते गये और गणेशजी महाराज लिखते गये।
भगवत्प्रेम में डूबे हुए श्रीवेदव्यासजी महाराज ने ये पावन-परमहंसो की संहिता प्रकट की। अट्ठारह हजार श्लोकों की ये दिव्य संहिता तैयार तो हो गई। अब मन में विचार आया कि ये अमृत किसे परोसा जाये? जब परमहंसो की कथा है तो सबसे पहले किसी परमहंस को ही सुनाया जाये।
ऐसा कौन है? ध्यान करते ही अपना बेटा याद आ गया। जो जन्म लेते ही परिव्राजक हो गया, उस जैसा परमहंस कहाँ होगा? पर वह तो न जाने, किसी गिरि-गुफा में ध्यान लगाकर छुपा बैठा होगा। कहाँ ढूँढ़ता फिरूँ? तो अपने कुछ शिष्यों को बुलाकर भागवत के दो-चार श्लोक रटा दिये और कहा कि इन श्लोकों को तुम यत्र-तत्र गाओ, गुनगुनाओ। शिष्यगण तब गाते हुए घूमने लगे।
जहाँ पर निर्गुण-ब्रह्म की सत्ता में श्रीशुकदेवजी समाधिस्थ बैठे थे, अचानक ! उनके कान में भागवत का श्लोक टकराया, जो कोई गुनगुनाता हुआ गाता जा रहा था।
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