F श्रीमद भागवत महापुराण कथा-कल्पद्रुम -2 / bhagwat katha kalpadruma pdf book - bhagwat kathanak
श्रीमद भागवत महापुराण कथा-कल्पद्रुम -2 / bhagwat katha kalpadruma pdf book

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श्रीमद भागवत महापुराण कथा-कल्पद्रुम -2 / bhagwat katha kalpadruma pdf book

 श्रीमद भागवत महापुराण कथा-कल्पद्रुम -2 / bhagwat katha kalpadruma pdf book

 श्रीमद भागवत महापुराण कथा 

[ भाग-२ ,part-2]
[ प्रथम स्कंध ]
श्रीमद भागवत महापुराण कथा-कल्पद्रुम -2 / bhagwat katha kalpadruma pdf book

छ: प्रश्नों को सुनकर सूतजी महाराज प्रसन्न हो गये और बोले, महात्माओ! पहले हम अपने गुरुदेव भगवान् का ध्यान कर लें, तब आपके इन प्रश्नों का उत्तर देंगे। सूतजी ने शुकदेवजी महाराज का दो श्लोंको में ध्यान किया,

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं 
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । 
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ 

यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक
मध्यात्मदीपमतितितीर्षतां तमोऽन्धम् । 
संसारिणां करुणयाऽऽह पुराणगुह्यं 
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम्॥
(भा. 1/2/2-3) 

इन दो श्लोकों में श्रीशुकदेवजी का ध्यान किया। 'यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यम्' - जो जन्म लेते ही प्रव्रजन्त हो गये। 'व्रजगतौ' धातु में 'प्र' उपसर्ग लगा हुआ है, जिनका वैराग्य उच्चकोटि का है कि परिस्थिति विपरीत हो, तो वैराग्य बहुतों को चढ़ता है।

पर शुकदेवजी महाराज का तो सहज व स्वाभाविक वैराग्य है। जब पैदा हुए तो पिताजी 'पुत्र-पुत्र' कहकर वात्सल्य उड़ेल रहे हैं। फिर भी वन की ओर चले जा रहे हैं। 

जिनका उपनयन संस्कार भी अभी तक नहीं हुआ, परमात्मा जिन्हें दर्शन देने आशीर्वाद देने माँ के गर्भ में ही जब पहुँच गये कि बेटा !

तुझे मेरी माया प्रभावित नहीं करेगी। तू निश्चिन्त होकर आ। तभी माँ के गर्भ से बाहर निकले। अन्यथा, जीव को माँ के गर्भ में ज्ञान तो सब रहता है कि हम कौन हैं? क्या हैं? 

पर जहाँ माँ के गर्भ से बाहर आया कि माया लपेट लेती है और सारा ज्ञान भूल जाता है।

भूमि परत भा डाबर पानी ।
जिमि जीवहि माया लपटानी ॥ 
(रामचरितमानस 4/14/3) 
जैसे निर्मल जल की धारा धरती का स्पर्श करते ही मलिन हो जाती है, ऐसे ही जीव जन्म लेते ही माया में मलिन हो जाता है। अहं ममेत्यसद्ग्राहः करोति कुमतिर्मतिम्' इसलिए शुकदेवजी माँ के गर्भ से बाहर ही नहीं निकले, जबतक प्रभु ने आशीर्वाद नहीं दिया।

shrimad bhagwat mahapuran katha,श्रीमद भागवत महापुराण कथा
जो माधव का दास बन गया, माया उसकी दासी बन जाती है। माया उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। माया में जो नाच रहा है, वह जीवात्मा और माया के बीच रहकर भी जो निर्लिप्त हो जाये, वह महात्मा। 

और माया को भी जो अपने इशारे पर नचावे, वह परमात्मा। तो शुकदेवजी विशुद्ध महात्मा हैं।

विरह से कातर श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी महाराज पुत्र-पुत्र पुकारते जा रहे हैं। जब जोर से कहते हैं, बेटा! ... तो जंगल के वृक्षों से भी प्रतिध्वनि निकलती है, बेटा! बेटा ! 

ऐसा लग रहा है कि जैसे व्यासजी के विरह को देखकर जंगल के वृक्ष भी विरही हो गये। और व्यासजी के स्वर में अपना स्वर मिलाकर वृक्षों ने भी बेटा-बेटा पुकारना प्रारम्भ कर दिया।

ऐसे सर्वभूतहृदयसम्राट श्रीशुकदेवजी के पादपद्मों में हम बारम्बार प्रणाम करते हैं। _जिन श्रीशुकदेवजी महाराज ने समस्त श्रुतियों का मन्थन करके एक सार रूप निकाल लिया ।

समस्त श्रुतियों का मन्थन करके, अध्यात्म का एक दीप प्रज्जवलित किया। जो साधक अज्ञान के अंधकार में भटकते हुए रास्ता ढूँढ़ रहे थे, पर दिखाई नहीं पड़ रहा था उन्हें मार्ग दिखाने के लिए ही शुकदेवजी ने यह भागवत का  सुन्दर दीपक प्रज्जवलित कर दिया।

अंधकार में भटके हुए जीवों पर करुणा करके ही संसारियों पर अनुग्रह करने के लिए ही उन्होंने ये दीपक जलाया है। ऐसे व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी के पादपद्मों में हम बारम्बार प्रणाम करते हैं। भगवान् नर-नारायण तथा भगवती सरस्वती एवं व्यासजी का स्मरण करके ही व्यासजी के शास्त्रों का वर्णन करना चाहिए।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । 
देवी सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
(भा. 1/2/4) 
उन सबका स्मरण करने के बाद श्रीसूतजी कहते हैं -
मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमंगलम् । 
हे ऋषियो! तुमने जो प्रश्न किये हैं, वह अपने लिए नहीं लोक मंगल के लिए हैं। ऋषियो ! तुमने ये बड़े सुन्दर प्रश्न किये। अब ध्यान से सुनो - जीवमात्र का परमधर्म क्या है?
shrimad bhagwat mahapuran katha,श्रीमद भागवत महापुराण कथा
आपत्ति-विपत्ति में ही भगवान् याद आवें ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रतिक्षण स्वाभाविक भगवान् से प्रीति होवे, जैसे माँ का पुत्र के प्रति स्वाभविक प्रेम होता है। चाहे वह घर में रहे या परदेश चला जाये, माँ तो उसे किसी न किसी बहाने याद करती ही रहती है।

जैसे परदेश गये हुए प्रीतम का उसकी प्रिया स्वाभाविक चिंतन करती रहती है, ऐसे ही भगवान् के प्रति स्वाभाविक प्रीति हो। सूर्योदय होने पर कमल क्यों खिलता है? 

चन्द्रमाँ का उदय होने पर ही कुमुदिनी क्यों विकसित होती है? इस का कोई जवाब नहीं है, उनका स्वाभाविक प्रेम है। तो ये जैसे सहज प्रीति इनमें होती है, ऐसी प्रभु के प्रति हमारी सहज-प्रीति होवे, स्वार्थभरी प्रीति नहीं।

अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति |
ऐसी यदि विशुद्ध-भक्ति भगवान् के चरणारविंद में हो जाये तो,

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् |
भक्ति के ही बेटा हैं ज्ञान और वैराग्य। जब भगवान् में भक्ति सुदृढ़ हो जायेगी, तो भगवान् के स्वरूप का ज्ञान अपने आप हो जायेगा और जगत् से वैराग्य भी स्वतः हो जायेगा। अलग-अलग क्रियायें नहीं होंगी, अपने आप ही हो जायेगा।

मीराजी का चित्त गिरिधर-गोपाल में ऐसा चिपक गया कि मीराजी को फिर घर छोडने की जरुरत नहीं पड़ी। घर अपने आप ही छूट गया। घर में रह रही हैं, तो कृष्ण-दीवानी होकर नाच रहीं हैं। 

और घर से कोई निकाल दे, तो कोई फर्क नहीं। उनके लिए तो घर के बन्धन ही विघ्न बनने लगे।

वह घर में रहें तो वैराग्य और बाहर चली जायें, तो क्या फर्क पड़े? घर अपने आप ही छूट गया। कहाँ कितना बड़ा वैभव? कितनी सम्पन्नता राजघराने की? 

पर 'कृष्णगृहीतमानसाः' होते ही अपने आप भगवान् के स्वरूप का ऐसा ज्ञान हुआ, जगत् से ऐसा वैराग्य हुआ कि कुछ करना नहीं पड़ा और अपने आप ही मुँह से निकल गया -
 रखवाले सबके केवल श्याम

तो संसार में जो आसक्ति है, वह अपने आप छूट जायेगी कब? जब भगवत्प्रेम जाग जायेगा. तब। गोपाल कन्याका जन्म होता है, माँ-बाप के यहाँ लालन-पालन होता है, तो माँ-बाप से कन्या की कितनी प्रीति हो जाती है।

माँ-बाप के प्रति कितना प्रेम उस पुत्री के मन में होता है? 

कोई पूछे, बेटी! तम्हारा पार तरन्त दिखायेगी ये मकान हमारा है, ये गाड़ी हमारी है, ये माताजी हैं, ये पिताजी हैं, ये भैया हैं। कितनी प्रीति) और जहाँ बीस वर्ष की हुई, घर-परिवार वही सब था और जहाँ विवाह हुआ तब? सब कुछ बदल गया।

अब एकदम तो नहीं बदलेगा, थोड़ा समय लगेगा। पर धीरे-धीरे जब वही कन्या ससुराल में अच्छी तरह घुल मिल जाती है, तो अब वह घर पराया नजर आने लगता है, जहाँ पैदा हुई, जहाँ इतने वर्षों तक रही अब अपना पर बदल गया।

अब ! ये बँगला मेरा है, ये गाड़ी मेरी है, ये मेरे पतिदेव हैं, ये मेरा बेटा है, ये मेरा परिवार है वह मेग मायका है बदल गया सब। कल तक वही सब कुछ था? 

आज यही सब कुछ हो गया। मायके में माता-पिता बुला भी लें कि माताजी की तबियत थोड़ा ठीक नहीं है, बेटी ! कुछ दिन के लिये आ जाओ, तो आ जायेगी।

दो-चार दिन रह जायेगी, फिर कहेगी - देखो! घर में कोई नहीं है और बच्चों की पढ़ाई खराब हो रही है। बहुत सारे काम पड़े हैं, अब ज्यादा दिन नहीं रुक सकती। 

तुरन्त अपनी ससुराल के लिए भागती है। क्योंकि अब उसे महसूस हो गया कि वह मेरा घर है। सब कुछ बदल गया।

उसी प्रकार जबतक यह संसार है, तबतक हम इसी को ही अपना समझते रहते हैं। परन्तु कोई सद्गुरु की कपा दष्टि हो जाये और पाणिग्रहण उस परमपति के साथ हो जाये, तो अपने वास्तविक घर को हम समझ लें कि हमारा घर वास्तव में तो ये है।

उस परमात्मा रूपी पति को पहचानकर जीवात्मा का उसके साथ ठीक संबंध हो जाये, तो ये संसार अपने आप छूट जायेगा। इसलिए हम जितने भी धर्मानुष्ठान करते हैं, उन सबका एक ही फल है। 

भगवान् से प्रेम हो जाये। बड़े-बड़े अनुष्ठान कर रहे हैं, पुरुश्चरण कर रहे हैं, पर भगवान् से प्रेम नहीं हो रहा? तो फिर तो कोरा परिश्रम कर रहे हैं।
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ये जितना भी धर्मानुष्ठान हम करते हैं, उसका फल क्या है? 'धर्मस्य ह्यापवर्गस्य' धर्म का अर्थ ये नहीं है कि हमें बहुत सारा धन मिल जाये। धर्म का उद्देश्य अपवर्ग की प्राप्ति है। 

अपवर्ग अर्थात् मोक्ष! मोक्ष का नाम अपवर्ग क्यों है? 'अपगतावर्गः अपवर्ग:' जहाँ पर कोई वर्ग नहीं।

हम लोग कई वर्गों में बैठे हैं, स्त्रीवर्ग, पुरुषवर्ग, संतवर्ग, ब्राह्मणवर्ग, क्षत्रियवर्ग – ये कई वर्ग हैं। पर जहाँ जाने के बाद सब एक ही वर्ग के हो जायें, वह अपवर्ग है। अथवा 'नाऽपवर्ग: अपवर्ग:' जहाँ पर प-वर्ग न हो, वह अपवर्ग। और ऐसे दिव्य अपवर्ग को पाना ही धर्म का उद्देश्य है।

धर्मस्य ह्यापवय॑स्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते | 
भगवान् ने अर्थ दिया है तो धर्म करो, धर्म अर्थ के लिए न करो। अर्थ का उद्देश्य तो धर्म है, धर्म का उद्देश्य अथ नहा। धन से धर्म भी करना चाहिए और जितनी आवश्यकता हो उतना विषय का सेवन भी करना चाहिए। शरार पर बिल्कुल ध्यान नहीं दोगे, तो ये शरीर किसी मतलब का नहीं रह जायेगा, रोगों का घर बन सकता है। 

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् | 
तो शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए। जितना हमें भोजन की जरुरत है, उतना भोजन भी देना चाहिए। सर्दी-गर्मी से आवश्यकतानुसार इसे बचाना भी चाहिए। 

विषय की भी आवश्यकता है, पर वह विषय इतने हों जिससे शरीरयात्रा सुगमता से चले। इन्द्रियों की दासता न करें, हम विषयों का दास इन्द्रियों को न बना लें। इन्द्रियां हमारे अनुसार चलें, हम इन्द्रियों के अनुसार न चले।
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श्रीमद भागवत महापुराण कथा 

____कामस्य नन्द्रियप्रीतिः इस जीवनरथ में दस घोड़े हैं और दसों घोड़ों की लगाम स्वतन्त्र कर दी जाये, तब क्या होगा? किसी गड्डे में गिरेगा कि नहीं? पूर्णनियंत्रण आपके हाथ में उन घोड़ों का होना चाहिए।

अर्थात् हम जो देखना चाहें, आँख वह देखे। ऐसा न हो आँख जो देखना चाहे, वह हम देखें। हम जो सुनना चाहें, कान वह सुनें। ऐसा न हो कि कान जो सुनना चाहें, वह हम सुनें। हम जो कहना चाहते हैं, वह वाणी कहे।

ऐसा न हो कि जो वाणी कहना चाहे, वह हम कहें अनर्गल। कुल मिलाकर यह समझिये कि ये घोड़े हमारे नियंत्रण में रहें, हम घोड़ों के अधीन न चलें। सो इन्द्रियों की दासता के लिये हम विषय-सेवन न करें। जीवन की यात्रा के लिये विषय-सेवन करो, अब प्रश्न उठता है कि महाराज ! जीवन का उद्देश्य क्या है?

जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः |
बहुत कर्म कर लेना जीवन की सार्थकता नहीं है क्योंकि बहुत कर्म करने के बाद भी जबतक तत्त्वज्ञान नहीं हुआ, तब तक जन्म-मरण तो चलता ही रहेगा।

इसलिये जीवन का परम लक्ष्य है उस परमतत्त्व को जानना, क्योंकि उस परमतत्त्व को जाने बिना जन्म-मरण की यात्रा समाप्त नहीं होगी। प्रश्न उठता है कि वह तत्त्व क्या चीज है? किस तत्त्व को जानने की बात कर रहे हैं ? तो तत्त्व की परिभाषा देखो,
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । 
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
(भा. 1/2/11) 
तत्त्व एक ही है, लेकिन एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' एक तत्त्व को तत्त्ववेत्ता विविध नामों से पुकारते हैं। ज्ञानियों से कहो, तो वह उसी तत्त्व को ब्रह्म कहेंगें। योगियों से कहो, तो वे उस तत्त्व को परमात्मा कहेंगें। भक्तों से कहो, तो भक्त उसी तत्त्व को भगवान् कहेंगे।

तत्त्व एक है, वही सगुण-निराकार है, वही सगुण-साकार है। उदाहरण से समझें - बिजली एक है। पहले जब व्यापक थी, तब हमारे अनुभव में नहीं थी पर बिजली का अस्तित्व तो था। परन्तु वैज्ञानिकों ने यांत्रिक-पद्धतियों के द्वारा बिजली को प्रकट कर दिया।

पहले बिजली निर्गुण-निराकार रूप में व्याप्त थी, परन्तु अनुभूति नहीं हो रही थी। तो जो बिजली है, वह ब्रह्म का स्वरूप है । निर्गण-निराकार विद्युत। पर यांत्रिक-पद्धतियों से वैज्ञानिकों ने बिजली को बना लिया, बिजली तैयार हो गई।

अब वह बिजली तारों में करेंट रूप में प्रवाहित होने लगी, तो वही बिजली का वह सगुण-निराकार रूप हो गया। अब बिजली के तार को हाथ लगा दो तो भयंकर करेंट लगेगा। उसमें करेंट आ गया, पर आँखों से दिखाई नहीं पड़ रही कि बिजली कैसी है। उसका रूप दिखाई नहीं दे रहा, पर गुण तो उसमें आ गया।

ये विद्युत का सगुण-निराकार रूप है। परन्तु वही बिजली का करेंट जब बल्ब से जोड़ा, तो प्रकाश फेंकने लगा। अब बिजली का रूप भी समझ में आ गया। जहाँ बल्ब जलता देखा तो हमने कहा कि बिजली आ गई। अब हमें छूने की सोचने की आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रकाश दीख रहा है।

तो जो पहले बिजली व्यापक थी, वह निर्गुण-निराकार थी। जब तारों में प्रवाहित होने लगी, तो वह सगुण-निराकार थी। और बल्ब से प्रकाशित होने लगी, तो सगुण-साकार हो गई। ऐसे ही जब वह निर्गुण-निराकार तत्त्व था, तो ब्रह्म के रूप में था।

सगुण-निराकार बना तो परमात्मा के रूप में घट-घटवासी बन गया, सबका संचालन करने लगा। और वही राम, कृष्ण, नृसिंह, आदि दिव्यरूप धारण करके हमारे बीच प्रकट होकर नाचने भी लगा, गाने भी लगा, तो उसी तत्त्व को हम भगवान् कहने लगे। ।

यदि वह बिजली प्रकाश के रूप में प्रकट न होवे, तो बिजली हमारे किस मतलब की? प्रकट भी होना चाहिए? इसलिये वही अपना दिव्यरूप बनाकर प्रकट जब होता है, तो वह भगवान् हमारे बीच में आँखों का विषय बन जाता है।
 'सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसह जाहि निरंतर ध्यावें' 
पर वही जब प्रकट होकर हमारे बीच आया, तब ताहि अहीर की छोहरियां, छछिया भर छांछ पे नाच नचावें' कहाँ तो वह ब्रह्म ध्यान में नहीं आ रहा था और आज व्रज की ग्वालनियां कहती हैं - 'कन्हैया ! बढ़िया ठुमका मारकर नाच दे, तो ताजो-ताजो माखन खवाऊँगी !',

 तो वही परमतत्त्व ठुमक-ठुमककर नाच-नाचकर व्रजवामाओं के मन को मुग्ध कर रहा है। भक्तों को परमानन्द प्रदान करने के लिये वही परम-तत्त्व प्रकट भी होता है।
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श्रीमद भागवत महापुराण कथा 
अब प्रकट होने के कई रूप हैं, रामजी के रूप में, श्यामजी के रूप में, वाराह के रूप में, कपिलजी के रूप में; अनेक रूपों में वह प्रकट हुआ। मुख्यरूप से भगवान् के चौबीस अवतार' हुए हैं।

वैसे तो भगवान् के अनन्त अवतार हैं। अवतार के कई भेद हैं जैसे अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, पूर्णावतार, आदि। तो कोई आवेशावतार है, तो कोई अंशावतार है, पर
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् |
भगवान् श्रीकृष्णजी का और श्रीरामभद्र का परिपूर्ण अवतार हैं 'चकार शब्देन रामोऽपिज्ञेयः- एते चांश'। तो च-कार शब्द इसमें जुड़ा है। तो च-कार के द्वारा श्रीसूतजी महाराज श्रीरामभद्र को भी पूर्णावतार स्वीकार कर रहे हैं।

तो श्रीरामजी और श्रीकृष्णजी का ही पूर्णावतार है। बाकि, कोई आवेशावतार, तो कोई अंशावतार, तो कोई कलावतार। अब रसिकों की अपनी-अपनी उपासना है, किस रूप में वह परमतत्त्व उन्हें ज्यादा आनन्द देता है। किसी को छैल छबीले कृष्ण-कन्हैया बहुत अच्छे लगते हैं, तो किसी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी का रूप ज्यादा भाता है, तो किसी को जटाजूटधारी फक्कड़ भोले बाबा ज्यादा अच्छे लगते हैं।

वही परमतत्त्व विभिन्न रूपों में प्रकट हैं, तुम्हें कौन-सा रूप पसंद है? किसी को पूड़ी अच्छी लगती है, किसी को परांठे अच्छे लगते हैं, तो किसी को रोटी में ही आनन्द ज्यादा आता है। अब अपना-अपना स्वाद है, तुम्हारा रस जहाँ हो।
हरि ब्यापक सर्वत्र समाना । 
प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना ॥
(मानस 11/85/3) 
प्रहलादजी की निष्ठा एक खंभे में भी प्रभु को प्रकट कर देती है। तुम्हारा प्रेम कहाँ पुष्ट हो जाये, परमात्मा वहीं से प्रकट हो जायेगा। नामदेवजी ने कुत्ते से ही भगवान् को प्रकट कर दिया। फुलका सेंककर भोग लगाने की तैयारी कर रहे थे, तभी कुत्ता आकर मुँह में टिक्कड़ दबाकर भाग लिया।

नामदेवजी को उसी में अपने पण का दर्शन हो रहा है, अरे ! वाह प्रभु! रूखे-रूखे टिक्कड़ खा रहे हो? अरे! जब आपकी कृपा से घी है, तो जरा चुपड़ के ही भोग लगाइये? घी की कटोरी लेकर पीछे-पीछे भागने लगे तो भगवान् उसी श्वान-शरीर से ही प्रकट हो गये। तो भगवान् की सत्ता तो सार्वभौम है।

तत्त्व वही है, उसमें भेद नहीं है। बिजली वही एक है, उसके प्रयोग अनेक हैं, यथा - बल्ब से जुड़कर प्रकाश दे रही है, पंखा से जड़कर हवा दे रही है, हीटर से जुड़कर गर्मी दे रही है, कूलर से जुड़कर शीतलता दे रही है, आदि-आदि तमाम उसके अनेक प्रयोग हैं।

बिजली के भीतर कोई भेद नहीं, सब एक ही बिजली है। आवश्यकतानुसार जहाँ तुम्हारी उपयोगिता सिद्ध होवे, वही सबसे उत्तम है। यदि उस परमतत्त्व को ठीक से जान लिया, तो उससे क्या होगा,

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ 
(भा. 1/2/21) 
उस परमतत्त्व को जानते ही तुम्हारे हृदय की अज्ञान की सारी ग्रंथियां खुल जायेंगी। जितने भी बुद्धि में संशय और भ्रम है, सब समाप्त हो जायेंगे। जितने भी कर्मबंधन हैं, उनसे तुम विमुक्त हो जाओगे। इसलिए उस परमतत्त्व को जानना ही जीवन का परमलक्ष्य है।

और उस परमतत्त्व को मानव जीवन में ही जाना जा सकता है। अन्य जितने शरीर हैं, वह तो भोग के लिये हैं। जितने भी जानवर हैं, आहार, निद्रा, भय, मैथुन, में जीवन निकाल देते हैं।

केवल मानव की इसलिए विशेषता है क्योंकि मानव उस परमतत्त्व को जान सकता है, जिसे जानने के बाद आवागमन ही छूट जाता है। इसलिये मानव जीवन की बड़ी महिमा शास्त्रों ने गाई है। मोक्ष के दरवाजे में जो ताला लटका है, वह ताला इस मनुष्य शरीर की चाबी से ही खुलता है।

चाबी तो चौरासी लाख हैं, पर चौरासी लाख चाबियों में वहाँ कोई फिट नहीं बैठती। मानव-तन की चाबी इतनी बढ़िया है कि इस चाबी को प्राप्त करके एकदम ताला खुल जाता है। 

पर चाबी हाथ में लग गई, फिर भी ताला न खोले, तो उससे बड़ा अभागा कौन? तो ये मनुष्य शरीर साधनों का धाम है। हम मनुष्य शरीर से ही साधन कर सकते हैं, उस परमतत्त्व को जान सकते हैं। इसलिये इस चाबी का सदुपयोग करना चाहिये।
बड़े भाग मानुष तन पावा। 
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ॥
साधन धाम मोक्ष करि द्वारा। 
पाइ न जेहिं परलोक संवारा ॥ 
(रामचरितमानस 7/43/4) 

व्यास-नारद संवाद :
उस परमतत्त्व का विविध रूपों में अवतार हुआ। और यहाँ सूतजी महाराज ने चौबीस अवतारों का निरूपण किया, जिनकी चर्चा आगे के प्रसंगों में विस्तार से की गई है। शौनकजी ने पूछा, महाराज ! जिस भागवत का आप हमें उपदेश दे रहे हैं, इस भागवत की रचना किसने की? कब की? कहाँ की? क्यों की?

द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये। 
जातः पराशराद्योगी वासव्यां कलया हरेः।।
(भा. 2/4/14) 
सूतजी कहते हैं, ऋषियो! जिस समय द्वापर के अंत में भगवान् के कलावतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी का प्राकट्य हुआ, तब अपनी दिव्यदृष्टि से त्रिकालद्रष्टा व्यासजी महाराज ने भविष्य पर दृष्टिपात करके देखा, तो घोर कलिकाल के कलुषित प्राणियों को देखकर चित्त अशान्त हो गया।
मन्दा सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः
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