F श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी-1 / bhagwat kalpdrum in hindi - bhagwat kathanak
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी-1 / bhagwat kalpdrum in hindi

bhagwat katha sikhe

श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी-1 / bhagwat kalpdrum in hindi

श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी-1 / bhagwat kalpdrum in hindi
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
(भाग-1,Part-1)
[ माहात्म्य ]
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी / bhagwat kalpdrum in hindi

अथ श्रीपद्मपुराणोक्त श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे । 
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
(भा.मा. 1/1) 

भगवान् का स्वरूप कैसा है? सत्-घन, चिद्-घन और आनन्दघन है। ऐसे भगवान् सच्चिदानन्द स्वरूप, जो समस्त विश्व का पालन, सृजन और संहरण - तीनों के जो हेत हैं तथा जिनकी पावन चरण-शरण ग्रहण करते ही जीव के तापत्रय समाप्त हो जाते हैं - ऐसे गोविन्द के पादपद्मों में हम सब मिलकर बारम्बार प्रणाम करते हैं। 

महाभागवत श्रीशुकदेवजी का ध्यान करते हुए, नैमिषारण्य की पावनभूमि में सूतजी महाराज शौनकादि ऋषियों को यह मंगलमयी कथा सुना रहे हैं। 

हम भी अपने मन को वहीं लेकर चलें। अट्ठासी हज़ार ऋषियों के मध्य श्रीशौनकजी प्रधान श्रोता बनकर सबका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और आयु में जो छोटे हैं, ऐसे श्रीसूतजी महाराज व्यासपीठ पर सुशोभित हो रहे हैं। 

शौनकजी आयु में बड़े हैं, पर वयोवृद्ध होकर भी श्रोता बनकर बैठे हैं और इनकी विशेषता यह है कि, कथामृतरसास्वादकुशलः।  

भगवान् का कथामृत पान करने में परमकुशल हैं। जब श्रोता बनकर बैठते हैं, तो महान् विद्वान् और वयोवृद्ध होकर भी एकदम अनभिज्ञ बन जाते हैं - यही इनकी कुशलता है। आज शौनकजी सूतजी को नमन करके पूछते हैं,

अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्य सम प्रभ । 
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम् ॥
(भा.मा. 1/4) 
हे सूतजी महाराज ! हम लोगों के हृदय में अज्ञान का घोर अन्धकार व्याप्त है। यह त्रिभुवन के अन्धकार को दूर करने में तो भगवान सूर्य समर्थ हैं। पर जीव के हृदयगत अज्ञान-अन्धकार को सूर्य की किरणें दर नहीं कर सकती।

 सूतजी महाराज! उस अज्ञान-तिमिर को ध्वस्त करने के लिये आपके पास करोड़ों सूर्य के समान ज्ञान का प्रकाश है। उस ज्ञान की एक किरण हम लोगों के हृदयपटल पर भी डाल दीजिए, जिससे हमारा अज्ञान-तिमिर ध्वस्त हो जाये।

हम यह जानना चाहते हैं कि भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने के लिये वैष्णवलोग क्या करते हैं? ऐसा कौन-सा कार्य किया जाये, जिससे माया-मोह का निवारण हो जाय? 

देखिये महाराज! अब घोर कलिकाल आ गया है, जिससे लोगों की आसुरीवृत्ति हो गयी है। हर प्राणी क्लेश से आक्रान्त है। 

ऐसे प्राणियों का कैसे कल्याण होगा? जो पवित्र को भी पवित्र कर दे और भगवत्प्राप्ति का सरलतम साधन हो - वह कृपया आज हमें बतलायें क्योंकि आपके ऊपर गुरुदेव भगवान् की बड़ी कृपा है।

संसार में किसी को चिन्तामणि मिल जाये, तो जिस वस्तु का चिन्तन करो, वही वस्तु प्रदान कर देती है। और कल्पवृक्ष का यह चमत्कार है कि उसके नीचे जो कल्पना करो, तो वह स्वर्ग की सम्पत्ति को भी प्रकट कर देगा।

 पर चिन्तामणि और कल्पवृक्ष में भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वह परमात्मा को प्रकट कर दिखा दे  ब्रह्म साक्षात्कार करा दे।

यह सामर्थ्य तो केवल गरुदेव भगवान की कपामयी छाया में है और वह आपको सदा प्राप्त है। इसलिए हे सूतजी महाराज! आपके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। जो बड़े-बड़े योगियों को दर्लभ वैकुण्ठ है, वह भी गुरुकृपा से अति सुलभता से प्राप्त हो सकता है।

चिन्तामणिर्लोकसुखं सुरदुः स्वर्गसम्पदम् । 
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम् ॥
(भा.मा. 1/8) 
इसालए हे सूतजी महाराज! गुरुकृपा का प्रसाद हमें भी कृपा करके प्रदान करें। सूतजी महाराज प्रसन्न हो गये और प्रमुदित मन से बोले, हे शौनकादि ऋषियों! आपके मन में हमारे प्रति यदि इतना प्रेम और स्नेह है, तो अब हम तुम्हें समस्त शास्त्रों का सार ही सनाने जा रहे हैं, जो संसार के भय को दूर कर देगा। 

इसे आप सावधान होकर सुनिये।

जब कोई व्यक्ति कोई कीमती वस्तु देता है, तो लेने वाले को सावधान कर देता है कि ज़रा सम्भालकर रखियेगा। उसी प्रकार से वक्ता जब कोई विशिष्ट बात कहने जाता है, तो श्रोताओं को सावधान कर देता है। 

सावधानतया शृणु सूतजी कहते हैं, ऋषियों! संसार में सबसे बड़ा डर है मृत्यु का। मरने का भय प्रत्येक प्राणी को भयाक्रान्त रखता है और इसका नाम है - मृत्युलोक

जो आया है, उसका जाना सुनिश्चित है। 'संसरति इति संसारः - यह सरकता रहता है, खिसकता रहता है। कोई कितना भी पकड़ने का प्रयास करें, यह किसी की पकड़ में नहीं आता। 

तो संसार सरक रहा है और हम चाहते हैं कि ऐसा ही बना रहे। हमारे साथ और हमारे चाहने पर भी जब हमसे खिसक जाता है, तो हमें बड़ा कष्ट होता है। 

इस संसारभय को समाप्त करने के लिए महाभागवत श्रीशुकदेवजी महाराज ने श्रीमद्भागवतसंहिता को कलिकाल में प्रकट किया।
कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाशहेतवे। 
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥
(भा.मा. 1/11) 
'कीरेण शुकेन भाषितम्' तोता बड़ा मीठा बोलता है। किन्तु बोलता वही है, जो उसे सिखाया जाता है। तो श्रीशुकदेवजी महाराज ने भी जगत् में कल्याणकारी भागवतरूपी फल प्रदान तो किया, पर यह मनमुखी फल नहीं है। 

उन्हें भी आचार्यपरम्परा से जो प्राप्त हुआ, वही उन्होंने संसार को दिया।

जब महाराज परीक्षित के सामने मृत्यु का भय उपस्थित हआ, सात दिन में मरना सुनिश्चित हो गया; तो वे अपने कल्याण का मार्ग खोजने लगे। 









































































































































































































































































































उसी समय महामनि शुकदेवजी ने ही श्रीमद्भागवतसंहिता के द्वारा परीक्षित को भयमुक्त कर दिया। जैसे ही गंगा के तट पर शकदेवजी भागवतसंहिता का प्रवचन करने के लिए विराजमान हुए, तो देवताओं को पता चल गया।
सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्
(भा.मा. 1/13) 

सभी देवतालोग अमृत का कलश लेकर आये और शुकदेवजी को प्रणाम करके अमृत का कलश सामने रख दिया। देवता बोले, महाराज! हमने जैसे सुना कि परीक्षित के सामने मृत्यु का भय उपस्थित हुआ है, इसलिए आप उन्हें कथा सुनाने जा रहे हैं। महाराजजी ! अमृत का कलश हम ले आयें हैं।

परीक्षित को यह अमृत पिला दीजिये, तो वह मृत्युभय से मुक्त हो जायेंगे। शुकदेवजी को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि देवतालोग इतने परमार्थी कब से हो गये? इस मृत्युलोक में तो आये दिन लोग मरते रहते हैं। 

न हमने बुलाया, न परीक्षित न पुकारा। तो फिर बिना बुलाये ही देवता अमृत ले आये - ये तो महान् आश्चर्य है।
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श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
महाभारत (आदिपर्व/22-23) में प्रसंग आता है कि पक्षीराज गरुड को अपनी माँ वनिता को दासत्व स मुक्ति दिलवाने के लिये अमत की आवश्यकता पड़ी। वनिता और कद्र में होड़ हुई और वनिता हार गई। 

शत रखी कद्र ने कि यदि तुम स्वर्ग का अमृत हमें दो तो हम अपने दासत्व से तुम्हें मुक्ति दिला दग। मादासाह, इसलिए उनके पुत्र गरुड को भी दास बनकर रहना पड़ता है और सर्यों की सेवा करनी पड़ती है। 

सभा सप पर के सिर पर सवार होकर कहते है कि 'उड़ो', तो जहाँ कहें, वहाँ जाना पड़ता है।

गरुड ने अपनी माता से कहा, माँ! मैं इतना बलिष्ठ हैं, फिर भी मुझे इन सॉं की दासता करनी पड़ता है। मैं क्या करूँ कि इस दासत्व से मुझे छुटकारा मिले? 

माँ ने कहा, बेटा! मिल तो सकता है, पर इसके लिए तुझे स्वर्ग का अमृत लाना पड़ेगा। गरुडजी बोले, माँ! मैं आपके लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ।

तब गरुडजी स्वर्ग का अमृत लेने गये। देवराज इन्द्र ने वज्र लेकर युद्ध की चुनौती दी और कहा, तुम अमृत को हाथ नहीं लगा सकते। गरुडजी ने देवताओं से कहा, आज सारे देवता मिलकर भी मुझे नहीं रोक सकते। 

यों कहते-कहते गरुड़ ने हठात/बलपूर्वक अमृत का कलश देवताओं से छीन लिया।

तब इन्द्र घबड़ाते हुए हाथ जोड़कर बोले, भाई! तुम जिन सर्यों के लिए अमृत लेकर जा रहे हो, यदि उन्होंने अमृत पी लिया तो सर्वनाश हो जाएगा। 

तब दोनों के बीच समन्वय हुआ। गरुड ने अमृत लाकर सो को दिया, दासत्व से माँ को मुक्त किया और उसी समय इन्द्र आकर अमृत का अपहरण करके अन्तर्धान हो गये।

कहने का अभिप्राय है कि गरुड को आवश्यकता थी, तो देवता लड़ने-मिटने को तैयार हो गये और अन्त में दिया भी नहीं। इसके विरुद्ध आज परीक्षित को बिना बुलाये ही अमृत देने चले आये।

इसी बात पर शुकदेवजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब देवताओं ने कहा, महाराज ! एक निवेदन हमारा भी सुनिये। यह स्वर्ग का अमृत आप परीक्षित को पिला दें। इसके बदले में जो कथामृत आप इन्हें पिलाने वाले थे, वह हमें पिला दीजिए।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्भागवतामृतम् 
देवताओं ने यह प्रस्ताव रखा तो शुकदेवजी बड़ी ज़ोर-से हँसे और बोले, अरे ठगियाओं! तुम्हारे आते ही मैं समझ गया था कि कुछ गड़बड़ है। 

दधीचि बाबा को दण्डवत् करने गये, तो बदले में हड्डियाँ माँग लाये। तुम लोग बड़े स्वार्थी हो, अपना कार्य करने में बड़े निपुण हो।

स्वकार्यकुशलाः सुराः स्वार्थी व्यक्ति यदि तुम्हारे फायदे की ज्यादा बातें करे, तो सावधान हो जाना चाहिए कि हमारे प्रति यह इतना उदार क्यों हो रहा है? 

तो देवताओं ने पहला फायदा तो परीक्षित का ही बतलाया कि महाराज! इसे अमृत पिला दीजिए, अमरत्व को प्राप्त हो जायेगा तो शुकदेवजी तो उसी समय सजग हो गये।

अमृत कोई साधारण वस्तु तो है नहीं? समुद्रमन्थन किया गया, तो उससे प्रकट हुए चौदह रत्नों में सबसे दिव्य रत्न अमृत प्रकट हुआ। जिसके बँटवारे को लेकर बड़ा भयंकर देवासुर संग्राम भी हुआ।

 और ऐसा वह दुर्लभ अमृत आज देवता अपने आप ही (बिना माँगे) प्रदान कर रहे हैं? बिना आह्वान किये ही दौड़े-दौड़े चले आ रहे हैं? बिना मतलब के कोई इतनी कीमती वस्तु क्यों देगा?

परन्तु जब इसके बदले में भागवतामृत माँगा, इसी से आप समझ लीजिये कि वह अमृत इतना दुर्लभ है? तो यह भागवतामृत कितना अद्भुत होगा, जिसके बदले में देवतालोग वह अमृत देने को तैयार हो गये। 

घाटे का सौदा देवता कभी नहीं करते। आज अपना अमृत रख दिया सामने कि ले लीजिए महाराज! परीक्षित को पिला दीजिए और इसके बदले में हम यह भागवतामृत चाहते हैं।
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श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
शुकदेवजी हँसते हुए बोले, अरे देवताओं! तुम लोग श्रद्धा से श्रोता बनकर आते, तो मैं अवश्य सुनाता। पर तुम तो सौदागर बनकर आये हो। सौदागर ही नहीं, अपितु ठग बनकर आये हो। 

क्योंकि कोई काँच का टुकड़ा देकर बदले में करोड़ों की कीमती बहुमूल्य मणि माँगे, तो उसे सरासर ठग ही कहा जायेगा।

कहाँ काँच का टुकड़ा और कहाँ लाखों की मणि? देवताओं! तुम्हारा अमृत काँच है और मेरा कथामृत करोड़ों की मणि है। विनिमय बराबर की वस्तुओं का होता है। पर काँच और मणि की तो कोई बराबरी नहीं है, इसलिए तुम ठग हो।
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सूतजी कहते हैं, हे ऋषियों! यह देवदुर्लभ कथामृत है, क्योंकि देवताओं को शुकदेवजी ने डाँटकर भगा दिया, पर नहीं दिया। विचार कीजिए कि कथामृत और सुधामृत में कौन-सा अमृत श्रेष्ठ है? 

सुधामृत का यह वैशिष्ट्य है कि बड़े-बड़े पुण्यात्मा जब इस मृत्युलोक से देह त्यागकर स्वर्गलोक में पहुँचते हैं, तब यह प्राप्त होता है।

इसके विरुद्ध, कथामृत की यह विशेषता है कि कथामृत के लिए तो कोई पुण्यात्मा हो, दुष्टात्मा हो, पतितात्मा हो, या पापात्मा हो - कोई कैसा भी हो, यह अमृत सबको पिलाया जाता है और सबके लिए सुलभ है।

 तो पहली विशेषता यह सिद्ध हुई कि स्वर्ग का सुधामृत पक्षपाती है (भेदभाव करता है) और हरिकथामृत निष्पक्ष है, जो आवे सबको मिलता है, अत: अभेदवादी है।

दूसरी विशेषता क्या है कि स्वर्ग का अमृत पीने वाले देवताओं के शनैः शनैः सुकृत क्षीण होते चले जाते हैं और पुण्य समाप्त होते ही वह धरातल पर गिर पड़ते हैं ।
क्षीणे पुण्ये मृत्युलोकं विशन्ति 
हरिकथामृत की विशेषता है कि 'कल्मषापहम्' – हरिकथामृत पापों को नष्ट करने वाला है। स्वर्ग का सुधामृत पुण्यों को क्षीण करने वाला और हरिकथामृत पापों को क्षीण करने वाला है। 

एक ओर स्वर्ग का अमृत पुण्यों को क्षीण करके ऊपर से नीचे गिराता है। इसके विपरीत दूसरी ओर, हरिकथामृत पाप व कल्मषों को नष्ट करके श्रीहरि के परमपद को प्रदान करवाता है।

अब आप स्वयं ही निर्णय करें कि कौन-सा अमृत श्रेष्ठ माने? 

स्वर्ग सुधामृत दीर्घजीवी बनाता है, पर हरिकथामृत दिव्यजीवी बनाता है। स्वर्ग का सुधामृत अमरत्व प्रदान करता है, पर हरिकथामृत अभयत्व प्रदान करता है। शुकदेवजी ने अच्छे से तौलकर निर्णय लिया है कि हर दृष्टि से हरिकथामृत ही दिव्य है।

जहाँ पर विष्णुरात (परीक्षित) श्रोता हों, और ब्रह्मरात (शुकदेवजी) वक्ता हों - ऐसे श्रोता और वक्ता को कौन छल सकता है? परीक्षित कोई साधारण श्रोता नहीं है? 

माता के गर्भ में ही अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से बचाने के लिए परमात्मा तस्वय इन्ह दशन दिया और गर्भ में जाकर परीक्षित को कृपा प्रदान की। 

वैसे ही शकदेवजी महाराज को भी माता के गर्भ में भगवान् ने ही आकर आशीर्वाद दिया, तब माँ के गर्भ से बारह साल बाद शुकदेवजी बाहर- 
अन्वयादितरतः - अनुपश्चात् अयात् अगच्छत 
जन्म लेते ही जो भाग लिये। इतरतः - इतर गोकुले- जन्म लिया मामा के बन्दीगृह मथुरा में और जन्म लेते ही तुरन्त भागकर पहुँच गये गोकुलधाम में। 

अर्थेष्वभिज्ञः - अर्थेषु कंसवंचनादिप्रयोजनेषु अभिज्ञः निपुणः 
जो हमारे कन्हैया इतने कुशल हैं कि मामा कंस के बन्दीगृह में जन्म लेकर गोकुल भाग आये, पर मामा कस को भनक भी नहीं लगने दी, पता भी नहीं चलने दिया ऐसे परम निपुण, परम कुशल है हमारे केशव|

स्वराट - स्वेषु गोपेषु राजते शोभते इति स्वराट गोकुल में आकर अपने श्रीदामा, मधुमंगल आदि ग्वालबालों के बीच, गोपवेष में सुशोभित हुए ऐसे श्रीकृष्ण।

तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः - 
आदिकवये ब्रह्मणे ब्रह्माणं विस्मापयतुं
वत्सवत्सादिरूपम् तेने विस्तारितवान् (तनु विस्तारणे:) 
जिन प्रभु ने व्रज में आकर ऐसी लीलायें की कि विचित्र लीलाओं को देख-देखकर चतुर्मुख ब्रह्माजी भी विमोहित हो गये कि ये कैसा भगवान् है, जो ग्वाल-बालों के बीच जंगल में बैठा जूठा-मीठा सब खा रहा है। 

न हाथ पैर धोये, न कोई पवित्रता का विचार। ये भगवान् हो ही नहीं सकते। - ऐसे चक्कर में ब्रह्माजी पड़े कि परीक्षा लेने के लिए व्रज के ग्वाल बालों बछड़ों को ही चुराकर चले गये।

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परिणाम यह हुआ कि ब्रह्माजी को अपनी भगवत्ता बतलाने के लिए भगवान् स्वयं ही उतने बछड़े बन गये और स्वयं ही उतने ग्वाले बन गये। अपने ही स्वरूप को प्रकट करके विस्तृत कर दिया। 

तेने विस्तारितवान् - अपने स्वरूप का विस्तार करके ब्रह्माजी को दिखा दिया कि हम ही चरने वाले, हम ही चराने वाले, हम ही बनने वाले, और हम ही बनाने वाले। परमात्मा ही तो इस जगत् के अभिन्न निमित्तोपादान कारण हैं।

बनते भी वही हैं, बनाते भी वही हैं। यही बात भगवान् ने वृन्दावन में दिखा दी। दशमस्कन्ध में वर्णन आया है, बछड़े भी स्वयं बने और ग्वाला ही नहीं बने, अपितु उनके लाठी-डण्डा भी बन गये। उनके कपड़े-वस्त्रादि भी बन गये।
यावद्वत्सपव सकाल्पकवपुर्यावत्कराझ्यादिकं 
यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्यावद्विभूषाम्बरम् । 
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं
सर्व विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः सर्वस्वरूपो बभौ॥ 
(भा. 10/13/19) 
विश्वरूप भगवान् सब कुछ बनने में समर्थ हैं। ब्रह्माजी का मोह भंग किया, बल्कि ब्रह्माजी का ही नहीं, मुह्यन्ति यत्सूरयः भगवान् के अग्रज संकर्षण श्रीदाऊजी महाराज भी कन्हैया की लीलाओं को देखकर मोहित हो जाते हैं - ऐसे श्रीकृष्णजी।

तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो कन्हैया जब वंशी की तान छेड़ते हैं, तो उनकी मधुर तान जिसके कान में पड़े, वह समस्त भान भूल जाता है। कन्हैया की वंशी रव का श्रवण करके कलकल-कल्लोल करती हुई कमनीय-कालिन्दी का कलरव भी कुण्ठित हो जाता है।

जल का धर्म है निरन्तर बहते रहना। लेकिन जब यमुनाजी वंशी की तान सुनती है, तो उनकी धारा रुक जाती है। और गिरिराज गोवर्धननाथ जब वंशी सुनते हैं, तो उनके पाषाणखण्ड द्रवीभूत हो जाते हैं। तो पाषाण में जल का धर्म आ गया और जल में पाषाण का धर्म पहुँच गया।

पाषाणाऽद्रेः द्रवत्वम् यमुनायाः कठिनत्वम् 
यमुना की धारा पाषाणवत् हो गई और गोवर्धन के पाषाण द्रवीभूत हो उठे ये कन्हैया की वंशी का वैशिष्टय है। 
कृष्णलीला त्रिधा प्रोक्ता तत्तदभेदैरनेकधा गोकुले मथुरायां च द्वारावत्यां तथा क्रमात्॥
यत्र निसर्गोऽमृषा - यत्र श्रीकृष्णचरित्रे निसर्गः अमृषा 

भगवान् के तीन धाम हैं - श्रीधाम वृन्दावन, श्रीधाम मथुरा और श्रीधाम द्वारिका। और ये तीनों धामों का जो भी परिकर है, वह नित्य है। 

जैसे कि वृन्दावन में श्रीदामा, मधुमंगल, नन्द, यशोदा, आदि मथुरा में अक्रूर, उद्धव, आदि और द्वारिका में रुक्मिणी, सत्यभामा, आदि जो भी परिकर है - निसर्गः अमृषा सत्यः।

उन सच्चिदानन्द भगवान् का समस्त परिकर भी सच्चिदानन्द स्वरूप ही है। आपने वृन्दावन से रासमण्डली बुलवाई, तो रासाचार्यजी अकेले थोड़ा-ही आयेंगें। पूरे दस-बीस पात्रों को लेकर आयेंगे। 

फिर रंगमंच पर आकर (वे ही पात्र, जो एक ही घर के सदस्य हैं) कोई कंस बन जाय, कोई कृष्ण बन गया, कोई यशोदा बन जाय, कोई नन्द, कोई अघासुर, बकासुर भी बन जाता है।

उसी प्रकार भगवान् जब धरातल पर पधारते हैं, तो अपने पूरे परिकर को साथ लेकर आते हैं। तुम्हें यह भूमिका बनानी है, तुम्हें यह भूमिका निभानी है ... अब सूत्रधार जिसको जो अभिनय सौंप दे।
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श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
तो ठाकुरजी पूरे परिकर के साथ पधारते हैं। द्वारपालों से यह कहा कि तुम हमारे दुश्मन बनकर पहुँचो। तो जो अभिनय दिया गया, सब अपना-अपना अभिनय निभा लिये। मोहन अपने परिकर के साथ पधारते हैं और जिसको जो भूमिका दी जाये।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि - 
स्वेन मथुराख्येन धाम्ना तन्निवासिनां सदा सर्वदा निरस्तं कुहकं संसारलक्षणं येन तं 
भगवान् के मथुरादि धामों में निवास करने वाले भक्तजनों का भगवान् संसार प्रपंच समाप्त कर देते हैं। ऐसे सच्चिदानन्दघन परमपरमेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रजी का हम सब मिलकर ध्यान करते हैं। 

अब द्वितीय श्लोक में व्यासजी अनुबन्धचतुष्टय का निरूपण करते हैं। श्रीमद्भागवत का विषय क्या है? श्रीमद्भागवत सुनने का पात्र कौन है? और श्रीमद्भागवत सुनने से क्या लाभ है?
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इस श्लोक में तीन बार अत्र शब्द का प्रयोग किया गया है। व्यासजी कहते हैं, अत्र श्रीमद्भागवते प्रोज्झित कैतवः परमो धर्मः निरूप्यते- श्रीमद्भागवत में निष्कपट परमधर्म का निरूपण किया गया है। परमधर्म किसे कहते हैं ? इसकी चर्चा आगे के प्रसंगों में विस्तारपूर्वक सुनेंगें।

तो श्रीमद्भागवत का मुख्य विषय क्या है? परमधर्म का निरूपण। अत्रैव निरूप्यते नान्यत्र - श्रीमद्भागवत में परमधर्म का जिस विधि से वर्णन किया गया है, वह आपको अन्यत्र सुनने को प्राप्त नहीं होगा। 

इसलिए अत्र शब्द का प्रयोग किया। उसका पात्र कौन है?

निर्मत्सराणां सतां - निर्गता: मत्सराः येभ्यः तेः निर्मत्सराः। 
जिसके भीतर से मत्सर निकल गया हो। मत्सर और मच्छर में थोड़ा-ही अन्तर है। मच्छर बाहर से काटता है, मत्सर भीतर से काटता है।

 लेकिन बाहर के मच्छर से बचने के लिए आप मच्छरदानी में सो जाओ। पर भीतर का मच्छर बहुत खतरनाक है, बड़े-बड़े लोगों को भी नहीं छोड़ता।

मत्सर अर्थात् मत्तः अग्रेसरति । देखो-देखो! मुझसे भी कितना आगे निकल गया। जहाँ किसी का उत्कर्ष देखा, वैभव देखा, मान-बड़ाई देखी कि बस भीतर का मच्छर हमें काटने लगता है। 

इसे कहते हैं मात्सर्य, जो बड़े-बड़े महापुरुषों को भी नहीं छोड़ती।
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तो श्रीधरस्वामिपाद व्याख्या करते हैं - निर्मत्सराणां परोत्कर्षासहनं मत्सरः, तद्रहितानां सतां भूतानुकम्पिनाम भागवत सुनने का पात्र कौन? जो निर्मत्सर हो गया हो। जिसके हृदय से मात्सर्य चला गया हो। 

किसी की मान, बड़ाई, धन, वैभव, प्रतिष्ठा, आदि देखकर आपका मन प्रसन्न होने लगे कि इसके ऊपर भगवान् की कैसी कृपा हुई, भगवान् ऐसी कृपा सब पर करें – ऐसा भाव आपके हृदय में आवे तो समझिए कि आप श्रीमद्भागवत के उत्तम पात्र बन गये।

क्योंकि प्रायः लोग अपने दु:खो से दु:खी नहीं हैं, जितने कि पड़ोसी के सुख से दु:खी हैं। हमारे घर अन्धेरा है, उसका कष्ट नहीं हैं। पर पड़ोसी के घर में उजाला क्यों हो रहा है? 

और ऐसी यदि प्रवृत्ति है, तो भागवत की पात्रता नहीं है। गाय का दूध तो अमृत के समान होता है।

 पर थोड़े भी खट्टे बर्तन में रख दो, तो दूध फट जाएगा, बर्बाद हो जाएगा। इसलिए भागवत का पूर्णलाभ लेना चाहो तो अपने हृदय को निर्मत्सर बनाना होगा।

अच्छा महाराज ! हम पात्र बढ़िया बनायें और इस परमधर्म के निरूपण करने वाले भागवत का श्रवण करें, उस सबसे क्या फायदा होगा? तो व्यासजी लाभ गिनाते हैं -
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् 
पुनः अत्र शब्द का प्रयोग किया। वेद्यं वास्तवमत्र - अत्र वास्तवं वस्तु वेद्यम् - इस श्रीमद्भागवत में वास्तव वस्तु का बोध कराया गया है।

 वास्तव वस्तु किसे कहते हैं, वास्तवश्चजीव: वास्तवी च माया वास्तवं जगत् जीव, जगत् और माया तीनों को वास्तव नाम से जाना जाता है।

तो भागवत के श्रवण करने से जीव, जगत् और माया का बोध होगा। जिसके बोध हो जाने से शिवदं, जीव का कल्याण हो जाएगा। और तापत्रयोन्मूलनम् - वह संसार के दैहिक, दैविक और भौतिक – तीनों तापों से मुक्त हो जाएगा। तो भागवत का मुख्य हेतु क्या है? 

जीव को अपने स्वरूप का बोध होवे और तापत्रय से विमुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त करे यही भागवत का प्रयोजन है, उद्देश्य है।

अब व्यासजी महाराज दावा करते हुए कहते हैं कि और अन्य साधनों से तुम्हें परमात्मा मिलते हैं, मिल सकते हैं। पर किं वा परैरीश्वरः साधन करते-करते किसी काल में जाकर तुम्हें भगवत्साक्षात्कार होगा। भगवान् के दिव्य आनन्द की अनुभूति होगी?
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् 
अभी कथा सुनी नहीं, केवल सुनने की इच्छा मन में प्रबल हो गई कि हमें सुनना है। तो सुनने की उत्कण्ठा
का उदय होता है। श्रोतुं इच्छद्भिः शुश्रूषुभिः तत्क्षणात् ईश्वरः हृदि अवरुध्यते-सुनने की उत्कण्ठा होते हा परमात्मा हृदय में आकर अवरुद्ध हो जाते है।

व्यासजी के शब्दों पर ध्यान दें, यह नहीं कहा कि भगवान् हृदय म विराजमान हो जाते हैं, अपितु सद्यो हृद्यवरुध्यते- शीघ्र ही भगवान् हृदय में अवरुद्ध हो जाते है। अभिप्राय हाक भगवान् आने के बाद भागना भी चाहे, तो भाग नहीं सकते, अवरुद्ध हो गये। आप तो कथा में विराजमान है।

जब मन आवे, बैठें, जब मन आवे, उठकर चल दिये। और कहीं द्वार बंद कर दिया जाए कि ऐसा नियम है सम्पन्न होगा, तब बजे ही द्वार खुलेगा। फिर आपको विराजमान नहीं कहा जाएगा। अवरुद्ध कहा जाएगा, क्या करें फंस गये। आये तो ये सोचा कि आधा-पौना घंटा सुनेंगे, उसके बाद चल देंगे।

पर यहाँ का नयम मालूम नहीं था, अब तो फंस गये। तो व्यक्ति अवरुद्ध कहा जाएगा। उसी प्रकार भगवान् भी एक बार विराजमान हो जाये, फिर जो भागना भी चाहें तो भाग नहीं पाते। भक्त के हृदय का बन्धक बन जाते है - ये प्रताप है श्रीमद्भागवत का।
shrimad bhagwat katha-hindi
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
निगमकल्पतरोगलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ 
(भा. 1/1/3) 
नितरां गमयति बोधयति स निगमो वेदः - वेदों का नाम है निगम। वेदरूपी इस विशाल कल्पतरु का परिपक्व फल श्रीमद्भागवत है। किसी ने पूछा कि यदि भागवत रूपी फल बहुत परिवक्व है और वेदों की उच्च-शाखा से टपककर नीचे गिरा है, तब तो फूट गया होगा? 

श्रीधरस्वामीपाद कहते हैं, कि यह फूटा हुआ फल नहीं है।

क्योंकि, शिष्यप्रशिष्यादिरूपपल्लवपरम्परया शनैरखण्डमेवावतीर्ण, न तूच्चनिपातेन स्फुटितम् - यदि नीचे गिरा होता, तो शायद फूट जाता। पर ये तो शाखा-प्रतिशाखा के द्वारा शनैः शनैः धरातल पर आया। 

सबसे पहले भगवान् श्रीमन्नारायण की दिव्यशाखा से यह फल टपका, भगवता प्रोक्तं भागवतम् - इसका नाम भागवत है, क्योंकि चतुश्लोकी-भागवत के रूप में यह बीज भगवान् ने ब्रह्माजी को प्रदान किया तो नारायण की शाखा से यह फल टपका, तो ब्रह्मा की शाखा पर आकर अटका।

फिर ब्रह्मा की शाखा से टपका, तो नारद की शाखा पर लटका। फिर नारद की शाखा से टपककर, व्यासजी की शाखा पर अटका। फिर व्यास की शाखा से टपका, तो शुक-शाखा पर अटका। 

फिर शुक-शाखा से टपका, तब परीक्षित के माध्यम से सूतजी, आदि अनेक ऋषियों को प्राप्त हुआ।

तो यह धीरे-धीरे डालियों के सहयोग से धरातल पर आया है, इसलिए टूटा-फूटा नहीं है। यथावत् ज्यों-का-त्यों यह फल धरातल पर उपलब्ध हो गया।

किसी ने पूछा, व्यासजी! आपका फल तो बड़ा सुन्दर है, और पका हुआ भी है, परन्तु खट्टा निकल पड़ा तब? खट्टा फल खाने में अच्छा नहीं लगता, फल तो मीठा होना चाहिये। 

व्यासजी कहते हैं, फल एकदम मीठा है। जिज्ञासु ने पुनः पूछा, आपके कहने से थोड़े ही मानेंगे? कोई प्रमाण दीजिये?

व्यासजी बोले, तो प्रमाण यह है कि फल का उत्तम पारखी तोता माना जाता है। तोता जिस फल में चोंच मार दे, आँख मूंदकर समझ लो मीठा निकलेगा। 

तो मेरे भागवत रूपी फल में भी शुकदेवरूपी तोते ने चोंच मार दी। शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् - यह श्रीमद्भागवत शुक-मुख-विगलित फल है।

इस फल में शुकदेव-जैसे परमहंस का मुख लगा हुआ है। ऐसे-वैसे महात्मा नहीं, जन्म लेते ही जो परिव्राजक होकर चले गये।  

तो इस भागवतरूपी फल को मुँह लगाने वाला तोता शुकदेव भी एकदम पारखी, परम बुद्धिमान, परम रसिक है। और इस फल में ऐसे विशेषज्ञ तोता की चोंच लगी है, तो खट्टे होने का प्रश्न ही नहीं है।

पुनः जिज्ञासु ने व्यासजी से पूछा, बाबा! फल बहुत मीठा है, अच्छी बात है। पर इस फल में रस कौन-सा है? आम है, तो आमरस उससे बनाया जाता है। 

भागवत यदि फल है, तो उसका रस क्या है? अमृतं परमानन्दः स एव द्रवोरसः परमात्मा को श्रुतियों ने रस-रूप में ही प्रतिपादन किया है,

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति 
वह परमात्मा रसस्वरूप है। वही परमात्मा-रूपी रस इस भागवत-रूपी फल में भरा हुआ है। कृष्णरस से परिपूर्ण ये फल है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के मधुर-चरित्र ही इसमें रस स्वरूप में विद्यमान हैं। 

स्वयं परमात्मा की ही तो यह वांगमयी मूर्ति है ये श्रीमद्भागवत। वह रसराज श्रीकृष्ण ही इसमें रसरूप में विद्यमान है।

अतः व्यासजी कहते हैं, इस भागवत रूपी फल को पियो। पुनः एक जिज्ञासु ने कहा, जय हो व्यासजी महाराज! फल भी कहीं पिया जाता है? फल को खाया जाता है, चूसा जाता है, पीने वाला फल तो कोई नहीं होता।

व्यासजी कहते हैं, भाई! चूसने की बात तब करता जब इस फल मे छिलका-गुठली होते। पर सम्पूर्ण भागवत साक्षात् श्रीकृष्ण का शब्द विग्रह है, अतः इसमें फेंकने वाली छिलका-गुठली, आदि कोई चीज ही इसमें नहीं है। इसलिए कृष्णरूप के इस रसमय फल का पान करो।

यह फल रसमय माधुर्य पूर्ण है, इसलिये पियो। व्यासजी बोले-बारम्बार पियो, जितनी बार पी सकते हो, उतनी बार पियो। पीते-पीते जबतक उस रस में तुम स्वयं ही रस मग्न न हो जाओ, तबतक पीते ही जाओ। 

जिज्ञासु ने प्रश्न किया, अच्छा महाराज! तो किसे-किसे पिला रहे हैं आप? तो व्यासजी ने दो नामों को पुकारा-
अहो रसिका भुविभावुकाः 
अरे रसिकों! अरे भावुकों! आओ-आओ तुम्हारे लिए ये अमृत तैयार किया है, इसे पियो। जिज्ञासु ने पूछा, महाराज ! और कोई नहीं पी सकता है क्या? इन दो लोगों को ही क्यों पुकारा? व्यासजी कहते हैं, नहीं-नहीं! 

प्याऊ तो सार्वजनिक है, जो आवे उसे पानी पिलाया जाता है। लेकिन, दो नाम तो मैंने उनके लिए हैं, जिनको प्यास ज्यादा लगी है।

और पानी का महत्व तो प्यासा ही समझ सकता है। जिसे प्यास न हो, उसे हठात् बुलाया जाये, आओ-आओ बाबूजी! मीठा-मीठा पानी पीकर जाओ। तो बाबूजी पानी नहीं पियेंगे, क्योंकि उन्हें प्यास ही नहीं है। 

फिर भी दुराग्रहपूर्वक उसने बाबूजी को बुला ही लिया, तो बाबूजी आयेंगे। पानी बाद में पियेंगे, पहले उससे प्रश्नों की झड़ी लगायेंगे - ये बताओ भाई! पानी तो पिला रहे हो, पर कहाँ से भरकर लाते हो?

कुआँ-बावड़ी से भरते हो? नल-तालाब से भरते हो? कहाँ का पानी है? इतने प्रश्न कर डाले, पानी को छुआ तक नहीं। ये प्रश्न इसलिए हो रहे हैं क्योंकि प्यास नहीं है। 

और कहीं रेगिस्तान में फंस गये होते और प्यास के मारे मुँह चिपक रहा होता और कोसों दूर पानी का दर्शन नहीं हो रहा होता, उस क्षण कोई अचानक कह दे भैया ! पानी पियोगे? 

तो छानकर भरा, या मॉजकर भरा, या कुएँ से भरा ... एक प्रश्न समझ में नहीं आयेगा, उस समय सिर्फ पानी समझ में आयेगा।

उस समय वह प्यासा पानी का महत्व समझता है। इसलिए व्यास भगवान् कहते हैं, ये दिव्यकथामृत प्रभु के चरित्रों का अमृत है, पर जो पिपासु हैं, वही इसका महत्व समझ पायेंगे। 

रसिको और भावुको का नाम इसलिए लिया, क्योंकि ये कृष्णकथामृत पान करने के लिए आतुर हैं, पिपासु है।

प्यासा होता है, उसकी पैनी निगाह चारों तरफ ढूंढ़ती है कि पानी कहाँ मिलेगा? वह निमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करेगा रसिक तो पागलों की तरह भागते हैं, कैसे भी मिले, कहीं भी मिले हमें पीना है।

shrimad bhagwat katha-hindi
श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी
इसलिए व्यासजी महाराज ने रसिक और भावुकों का ही आह्वान किया।
नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः । 
सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत ॥
(भा. 1/1/4) 
नैमिषारण्य की पावनभूमि में शौनक आदि अट्ठासी हजार महात्माओं का एक हजार वर्ष का सत्संगसत्र चल रहा है। जहाँ एक-एक निमिष का महत्व हो, वह नैमिषारण्य। जिस भूमि में जाकर इस चंचल मनश्चक्र को शान्ति मिले, वही नैमिषारण्य। ब्रह्माजी का भेजा चक्र यहीं गिरा, इसीलिये चक्रतीर्थ बना, वही नैमिषारण्य कहलाया।

परन्तु हमारा भी मनश्चक्र चलकर जहाँ शान्त हो जाये, वही भगवान् के कथा की सबसे पावनभूमि है। मन का निग्रह करना इतना सरल नहीं, पर भगवान् के चरित्र इतने मधुर हैं कि हठात् जीव के मन को बड़ी सरलता से खींच लेते हैं। इसलिए हमारे कन्हैया तीन-तीन जगह से टेढ़े हैं।

मल्लाहों को मछली पकड़ते आपने देखा होगा। जिस कांटे से वह मछली को पकड़ते हैं, उस काटे को वंशी कहते हैं। टेढ़े कांटे में खाद्य-पदार्थ लगाकर पानी में छोड़ते हैं। 

जहाँ मछली ने खाया कि कांटा चुभ गया, वंशी में फंस गई मछली। अब चाहे जितना छटपटा ले, पर बचने वाली नहीं। मल्लाह डोरी से खींच लेता है।

 तो विषयासक्त जीव का मन परमात्मा की ओर लगता नहीं, अभिमुख होता नहीं तो परमात्मा फिर धराधाम पर सुन्दर लीला-पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण बनकर प्रकट हुये। तीन-तीन जगह से टेढ़े हैं, ताकि यह जो जीव का चंचल-विषयानुरागी मन है, उसे सहजता से अपनी ओर खींच सकें।

इसलिए नाम भी कृष्ण है। कर्षति इति कृष्णः - जो जीव के मन को हठात् अपनी ओर खींचे, उसका नाम कृष्ण। कृष्ण शब्द में क के नीचे जो री लगाई जाती है, वह मानो मछली पकडने वाली वंशी ही है।

मल्लाह के पास वह कांटे के वंशी है, जिसमें मछली फंसती है। और ये जिसके मन को फँसाना चाहते हैं, उसे अपनी वंशी बजाकर फंसा देते हैं। महारास में गोपियों के मन को वंशी बजाकर खींच लिया। इससे बढ़िया व सरलतम साधन दूसरा सम्भव ही नहीं है।

एक हज़ार वर्ष का सत्र ये नैमिषारण्य की पावनभूमि में भगवच्चर्चा करते हुए सूतजी व शौनकजी के संवाद के माध्यम से चल रहा है। आज शौनकजी ने छः प्रश्न किये हैं, और उन्हीं छ: प्रश्नों के उत्तर में सम्पूर्ण भागवत का श्रवण कराया।
पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि 
सूतजी से शौनकजी ने छः प्रश्न किये - 1. प्राणीमात्र का कल्याण कैसे हो? 2. शास्त्र बहत हैं, लेकिन मनुष्य के पास समय कम है। इसलिए समस्त शास्त्रों का सार क्या है? 3. भगवान् यदि सर्वसमर्थ जगदीश्वर है. तो वह अवतार क्यों लेते हैं? जिनके संकल्प से संसार का सृजन हो सकता है, तो क्या उनके संकल्प से दुष्टों का विनाश नहीं हो सकता?

यदि उनकी इच्छामात्र से शत्रुओं का संहार हो सकता है, तो उन्हें फिर स्वयं आने की क्या आवश्यकता पड़ गई? उस परमात्मा का जन्म क्यों होता है? 4. यदि भगवान ने अवतार लिये तो भगवान् के कितने अवतार हुए? 

कहाँ-कहाँ किस-किस रूप में प्रभु के अवतार हए? 5. जीवन का परमलक्ष्य क्या है? और 6. भगवान धर्म की स्थापना के लिए आते हैं, पर जब भगवान् लीला-सम्पन्न करके चले जाते हैं, तो फिर धर्म किसकी शरण में जाता है? धर्मः कं शरणं गतः यही छ: प्रश्न किये।
किं श्रेयः शास्त्र सारः कः स्वावतार प्रयोजनम् । 
किं कर्म केऽवताराश्च धर्मः कं शरणं गतः ॥
भागवत कथानक के सभी भागों की क्रमशः सूची/ Bhagwat Kathanak story all part
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