अजानदामात्म्यं /ajana damatmyam shloka vairagya
अजानदामात्म्यं पततु शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद् बडिशयुतमश्नातु पिशितम्।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलाः
नमुञ्चामः कामानहह! गहनो मोहमहिमा॥२०॥
अग्नि की महिमा को न जानता हुआ पतंगा भले ही दीये की ज्वाला में अपने आपको जला डाले, मछली भी न जानकर बन्सी में लगे हुए मांस को खा ले, चाहे फिर बन्सी का कांटा गले में भले ही फँस जाय, पर वह मांस के मोह को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। इस तरह अपने कामों (इच्छाओं) के विपत्तिरूप जाल के जंजाल से युक्त जानकर भी हम लोग उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अहो, मोह की महिमा कैसी गहन है।