गंगातीरे हिमगिरि /ganga tire himgiri shloka vairagya
गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य
ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।
किं तैर्भाव्य मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः
कण्डूयन्ते जरठहरिणाः स्वांगमंगे मदीये॥९२॥
क्या वे दिन आयेंगे जबकि पतितपावनी भगवती भागीरथी के तट पर हिमालय पर्वत की चट्टान पर पद्मासन से बैठे हुए मेरे शरीर में वृद्ध मृग निःशंक होकर शरीर की खुजलाहट को अपनी रगड़ से दूर करेंगे।