F विपुलहृदयैधन्यैः /vopul hradyai dhanyaih shloka vairagya - bhagwat kathanak
विपुलहृदयैधन्यैः /vopul hradyai dhanyaih shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

विपुलहृदयैधन्यैः /vopul hradyai dhanyaih shloka vairagya

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विपुलहृदयैधन्यैः कैश्रिज्जगज्जनितं पुरा

विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा।

इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते

कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः॥२२॥

संसार की महिमा कैसी विलक्षण है, देखिए इसको प्राचीन काल में उदार हृदय वाले कुछ महापुरुषों ने अपनाया, कुछ लोगों ने उसका उपभोग किया, बहुतेरों ने इसको जीतकर तृण की तरह औरों को दे दिया आज भी कुछ धीर राजा महाराजा चौदहों भुवनों का पालन करते हैं, पर उनको इतने बड़े साम्राज्य के आधिपत्य का तनिक भी अभिमान न हुआ, परन्तु इने-गिने ग्रामों के स्वामित्व में मनुष्य की यह मदोन्मत्तता कैसी? 

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विपुलहृदयैधन्यैः /vopul hradyai dhanyaih shloka vairagya

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