त्वं राजा वयमप्यु /tvam raja vaymapyu shloka vairagya
त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमनोन्नताः
ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः।
इत्थं मानधनातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं
यद्यस्मासुपराङ्मुखोऽसि वयमप्येकान्ततो निस्पृहा॥२३॥
यदि तू राजा है, इसलिए तुझे अभिमान है तो हमें भी गुरुओं की उपासना से प्राप्त ज्ञान के कारण तुझसे कम अभिमान नहीं है, यदि त अपने ऐश्वर्य से प्रसिद्ध है तो विरक्तता में कवियों द्वारा हम लोगों का भी यश दसों दिशाओं में व्याप्त है, हे राजन्! इस प्रकार आप में और हम में विशेष अन्तर नहीं फिर भी यदि तू हम लोगों से मुँह फेर लेता है तो हम भी तुमसे अत्यन्त निःस्पृह रहा करते हैं।