अम्भोधिः स्थलतां /ambhodhi sthalta shloka
अम्भोधिः स्थलतां स्थलं जलधितां धूलीलवः शैलतां
मेरुमृत्कणतां तृणं कुलिशतां वज्रं तृणप्रायताम्।
वह्निः शीतलतां हिमं दहनतामायाति यस्येच्छया
लीलादुर्ललिताद्भुतव्यसनिने देवाय तस्मै नमः॥८॥
जिसकी इच्छामात्रसे समुद्र स्थलरूप और स्थल समुद्ररूप हो सकता है, धूलिकण पर्वतसदृश और मेरुपर्वत धूलिके सदृश हो सकता है, तृण वज्ररूप और वज्र तृणरूपमें परिणत हो सकता है तथा अग्नि शीतल और बरफ अग्निवत् दाहक हो सकता है; उस विचित्र लीला-रसिक देवको नमस्कार है॥ ८॥
अम्भोधिः स्थलतां /ambhodhi sthalta shloka