धार्मिक ग्रंथों की कहानी
या ते नीचे नैन
रामचरित मानस के रचयिता सन्त गोस्वामी तुलसीदास जी के पास एक बार एक निर्धन व्यक्ति आया।
तुलसीदास जी ने उससे आने का कारण पूछा तो उसने कहा-“अपनी कन्या के विवाह के लिए आपसे कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए आपकी सेवा में प्रस्तुत हुआ हूँ।"
तुलसीदास यह सुनकर बोले-“भैया! मैं तो साधु हूँ, मैं तुम्हारी आर्थिक सहायता कैसे कर सकता हूँ! पर मेरे एक मित्र हैं, जिनका नाम अब्दुर्रहीम खानखाना है।
वे राजदरबार में उच्च पद पर विराजमान हैं और खुले हाथ से दान देकर गरीबों की सहायता करते हैं। मैं किसी भाँति तेरे लिए उनसे ही कुछ माँग करने का संकेत करता हूँ।"
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यह कहकर उन्होंने कागज के एक टुकड़े पर दोहे की एक पंक्ति लिखी-
सुरतिय नरतिय नागतिय यह चाहत सब कोय।
कागज का वह टुकड़ा देकर ब्राह्मण को रहीम जी के पास भेज दिया। ब्राह्मण ने उनके पास जाकर जब कागज का टुकड़ा दिया तो खानखाना साहब ने उस पंक्ति को पढ़ा और आशय समझकर ब्राह्मण से बोले-“कितना धन चाहिए तुम्हें?"
ब्राह्मण ने बता दिया-"जितने में मेरी कन्या का विवाह हो सके।"
रहीम जी ने कहा-“ठीक है। विवाह से पहले मुझे बता देना, मैं सब इन्तजाम कर दूंगा।"
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कुछ दिन बाद विवाह की सूचना मिलने पर उन्होंने उस कन्या के विवाह का पूरा खर्च स्वयं उठाया। लेकिन जाते समय ब्राह्मण को कागज का वही टुकड़ा देते हुए कहा- “इसमें मैंने तुलसीदास जी के लिए कुछ लिखा है, यह उन्हें दिखा देना।
ब्राह्मण ने वह पढ़ा। उसमें लिखा था गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत होय॥ तुलसीदास जी ने भी वह पंक्ति पढ़ी।
उन्होंने ब्राह्मण से पूछा-“उन्होंने तुम्हें आर्थिक सहायता तो खूब दी थी न? पर क्या तुझसे कोई खास बात भी कही?"
ब्राह्मण बोला-“सहायता तो भरपूर की, पर कहा कुछ नहीं। पर मैंने यह जरूर देखा कि वे पहले अपना हाथ ऊपर उठाते थे और फिर नीचे की ओर देखते हुए धन देते थे।"
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ब्राह्मण की बात सुनकर तुलसीदास जी ने कागज पर लिखा-
सीखी कहँ खानानजू, ऐसी देनी देन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।
यह लिखकर उन्होंने वह कागज खानाखाना को देने के लिए ब्राह्मण को सौंप दिया। ब्राह्मण ने जाकर उन्हें दे दिया।
खानाखाना ने वह दोहा पढ़ा। दोहे का अर्थ था कि खानाखाना जी, आपने इस प्रकार से दान देना कहाँ सीखा?
क्योंकि देते समय आप हाथ जितना ऊपर उठाते हैं उतनी ही आपकी नजर नीची हो जाती है। रहीम ने उस दोहे के नीचे यह दोहा लिखकर ब्राह्मण को दिया-
देनहार कोउ और है, भेजत जो दिन-रैन।
लोग भरम मुझपै करें, या ते नीच नैन॥
उनके कहने का भाव था-
देने वाला तो कोई और (जगदीश्वर ) है लेकिन लोगों को यह भ्रम हो गया कि मैं देता हूँ। इससे मुझे शर्म आती है और मेरी आँखें नीची हो जाती हैं।
तुलसीदास जी ने यह पढ़ा तो उनके नेत्रों से प्रेम और हर्ष के अश्रु बह निकले।