ek katha kahani (प्रेम और सद्भावना)

ek katha kahani 

ek katha kahani (प्रेम और सद्भावना)

(प्रेम और सद्भावना)

 बहुत पुरानी बात है। किसी बड़े नगर में एक सेठ रहता था। उसके पास अपार धन-सम्पत्ति थी। चारों दिशाओं में उसकी सम्पन्नता प्रसिद्ध थी। परिवार भी बहुत बड़ा था और सब उसका सम्मान करते थे।


एक दिन अचानक एक घटना घटी।


रात के समय सेठ गहरी नींद में सो रहा था। उस नींद में उसने एक सपना देखा। सपने में उसे धन की देवी लक्ष्मी ने दर्शन दिये और बोली-“सेठ! तुम्हारे पुण्यों के कारण ही मैं तुम्हारे घर में निवास कर रही थी। 


पर अब वे पुण्य समाप्त हो गये हैं अतः शीघ्र ही तुम्हारे घर से चली जाऊँगी। जाने से पहले मैं तुम्हें वरदान देने आई हूँ। तुम जो भी चाहो, मुझसे माँग लो।"


सेठ सोच में पड़ गया। बहुत कुछ सोचने-विचारने पर भी वह निर्णय नहीं कर पाया कि क्या माँD। अतः लक्ष्मी जी से उसने कहा- “माँ! कल प्रात:काल अपने परिवार के लोगों से सलाह करके निर्णय लूँगा कि आपसे क्या माँगूं।"

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“ठीक है, उनसे सलाह करके कल मुझे बता देना कि क्या चाहते हो।" यह कहकर लक्ष्मी जी अन्तर्धान हो गईं।


प्रातःकाल जब सेठ की नींद खुली तो उसे रात को देखा हुआ सपना याद आ गया। उसने परिवार के सभी लोगों को बुलाया और अपने देखे हुए सपने की बात बताई।


परिवार-जनों में से किसी ने अटूट धन-सम्पत्ति मांग लेने की बात कही तो किसी ने सुन्दर राजमहल की, किसी ने सोने का भण्डार माँगने की सलाह दी।


सब अपनी-अपनी सलाह दे रहे थे पर सेठ की सबसे छोटी बहू चुपचाप बैठी घर वालों की बातें सुन रही थी। उसने स्वयं कुछ नहीं कहा। सेठ का ध्यान इस ओर गया तो उसने अपनी उस बहू से कहा-“बहू! तुम कुछ नहीं बोल रही हो। तुम भी कुछ बताओ न!"

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बहू ने बड़ी शालीनता के साथ उत्तर दिया-“पिताजी! जब लक्ष्मी घर से जाना ही चाहती है तो ये सब चीजें मिल भी जायें तो क्या फर्क पड़ सकता है?


कोई भी धन-सम्पदा हमारे पास टिकेगी ही नहीं। यदि टिक भी गई तो भी हम आपस में लड़-झगड़कर उसे बरबाद कर देंगे।


अतः यदि मेरी मानें तो माँ लक्ष्मीजी से यह वरदान माँगिए कि हमारे परिवार में परस्पर प्रेम और सद्भावना बनी रहे। हम में परस्पर प्रेम बना रहेगा, सद्भावना बनी रहेगी तो विपत्ति के दिन भी ठीक से गुजर सकेंगे।"


सेठ को छोटी बहू की बात अँच गई। रात को जब सेठ सोया तो स्वप्न में लक्ष्मीजी ने पुनः दर्शन दिये। उन्होंने सेठ से कहा- “सेठ! मैं समझती हूँ कि आज तुमने अपने परिवार के सदस्यों से विचार-विमर्श कर लिया होगा। अब बोलो, क्या माँगना चाहते हो?"


सेठ ने हाथ जोड़कर कहा-“माँ! मैं तो चाहता हूँ कि आप मेरे घर में निवास करती ही रहें। पर यदि आप जाना ही चाहती हैं तो यह वरदान देती जाइए कि हमारे परिवार में परस्पर प्रेम और सद्भावना बनी रहे।"


सेठ की बात सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं। सेठ से बोली- “सेठ! अब मैं तुम्हारे घर से जा ही नहीं सकती, क्योंकि जिस कुटुम्ब में परस्पर प्रेम और सद्भावना होती है, उस कुटुम्ब से मैं अलग हो ही नहीं सकती, उस कुटुम्ब को छोड़ ही नहीं सकती।"


सेठ अपनी छोटी बहू की सलाह पर विचार करते हुए मन ही मन उसकी प्रशंसा करने लगा।

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