गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana

गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana

गोपी गीत लिरिक्स
Gopi Geet in Sanskrit and Hindi गोपी गीत लिरिक्स

गोपी गीत' श्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं । रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है । भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं । उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं । वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है । इसमें प्रेम के अश्रु,मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है । भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल,सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।

गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana

गोप्य ऊचुः

(गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं)

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥

(हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।)


शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥

(हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।)

गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥

(हे पुरुष शिरोमणि ! यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु , अजगर के रूप में खाने वाली मृत्यु अघासुर , इन्द्र की वर्षा , आंधी , बिजली, दावानल , वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार- बार हम लोगों की रक्षा की है।)


न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥

(हे परम सखा ! तुम केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।)


विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥

(हे यदुवंश शिरोमणि ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।।)


व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥

(हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर ! तुम सभी व्रजवासियों का दुःख दूर करने वाले हो । तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक एक झलक ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त हैं । हे हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।)

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥

(तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो।।)


गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥

(हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । तुम्हारा एक एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है । बड़े बड़े विद्वान उसमे रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं । हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो।।)


तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥

(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)


प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।

रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥

(हे प्यारे ! एक दिन वह था , जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है , उसके बाद तुम मिले । तुमने एकांत में ह्रदय-स्पर्शी ठिठोलियाँ की, प्रेम की बातें कहीं । हे छलिया ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर देती हैं।।)


चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥

(हे हमारे प्यारे स्वामी ! हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके, कुश एंव कांटे चुभ जाने से कष्ट पाते होंगे; हमारा मन बेचैन होजाता है । हमें बड़ा दुःख होता है।।)


दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥

(हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं की तुम्हारे मुख कमल पर नीली नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़ उड़कर घनी धुल पड़ी हुई है । तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखा दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलन की आकांक्षा उत्पन्न करते हो।।)

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥

(हे प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले है । स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं । और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित है जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । हे कुंजबिहारी ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरूप चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो।।)


सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥

(हे वीर शिरोमणि ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को को बढ़ाने वाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक संताप को नष्ट कर देता है । यह गाने वाली बांसुरी भलीभांति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने उसे एक बार पी लिया, उन लोगों को फिर अन्य सारी आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता । अपना वही अधरामृत हमें पिलाओ।।)


अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥

(हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।)


पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥

(हे हमारे प्यारे श्याम सुन्दर ! हम अपने पति-पुत्र, भाई -बन्धु, और कुल परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । हे कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।।)


रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥

(हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं । हे प्रिये ! तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।)


व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥

(हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो, जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।)


यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥

(हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी कोमल हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं।।)

गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana



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॥ गोपीगीतम् ॥

गोप्य ऊचुः ।
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥

गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी अर्थ सहित gopi geet lyrics in sanskrit

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥

अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥

गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी अर्थ सहित gopi geet lyrics in sanskrit

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥

इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥
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इति गोप्य: प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा
ससदुः सुस्वरं राजन् कृष्ण दर्शन लालसा
तासामाविरभूच्छौरिः स्वयमान मुखाम्बुजः
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ मन्मथ:

इस प्रकार गोपी भगवान के दर्शन की लालसा से उंचे स्वर से जोरजोर से रोने लगी तो साक्षात् कामदेव के समान भगवान प्रकट हो गए गोपियों के शरीर में प्राण आ गए सभी गोपियों को ह्रदय से लगा लिया भगवान बोले गोपियों अब महा रास होगा।

गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी


दर्शन देवो रास बिहारी प्रभु ढूढ़ रही गोपी सारी

महिमा अधिक बनी बृज की बैकुण्ठ हु ते बनवारी

सुन्दरता मृदुता की देवी लक्ष्मी रमत विहारी-दर्शन

तजि बैकुण्ठ वास बृज कीनो लक्ष्मी दासी तिहारी

नाथ गोपियां ढूढ़ रही है चरणाश्रित प्रभु थारी-दर्शन

प्रेम पूर्ण हिरदा के स्वामी बिनामोल की दासीतिहारी

कमल नयन सों घायल करना क्या वध नही मुरारी-दर्शन

काली दह जल अरु दावानल बृषभासुर व्योमासुर भारी

इन्द्रकोप से रक्षाकीनी बृज की आप असुरारी-दर्शन

यशोदा नन्दन मात्र नही हो जनजन के हितकारी

ब्रह्माजी की विनती सुनकर बृज प्रकटे गिरधारी-दर्शन

शरणागत भवबन्धन मेटत पूरण काम विहारी

हस्त कमल सिर उपर रखदो लक्ष्मीपति वनवारी-दर्शन

बीरशिरोमणि बृज जनरक्षक प्रेमीजन मदहारी

रूठोमत दर्शन दो स्वामी सुन्दरश्याम बिहारी-दर्शन

उरकी ज्वाला शान्त करो प्रभु रख दो चरण मुरारी

कालीफण पर नृत्य कियो जिन नाशक पाप विहारी-दर्शन

मधुर वाणी से मोहित करते ऋषिमुनि तनुधारी

अधरामृत कापान करादो जीवन देवो खरारी। दर्शन

पापताप की मेटनहारी लीला कथा तुम्हारी

ऋषिमुनि जन गान करत हैं लीलामंगलकारी। दर्शन

दर्शन परसन का सुखदीना इकदिन हे गिरधारी।

सुनलो कपटी मित्र आजवे दुखी विरह की मारी। दर्शन

कोमलचरण विचरणबन करते दुखीकरत मनभारी

धूषरधूरिमुख दर्शनदेदो विनती यहीहमारी। दर्शन

तप्त ह्रदय को शान्तकरो उररखदो चरणमुरारी

शरणागत के पूर्णकाम प्रभु जन के कष्टनिवारी। दर्शन

अधरामृत का पान करादो विरह मिटावन हारी

जिनकोनित पीवतबांसुरिया आसक्तिमिटावनहारी। दर्शन

पतिसुतभ्रात कुटुम्ब तजे हम तेरे हित बनवारी

निषाकाल में छोड़ गए विरहवन्त दुखी बृजनारी। दर्शन

हंसीठिठोली करते मोहन प्रेमभरी मुस्कान तिहारी

श्रीनिवास वक्षस्थल उपर सब गोपीजन वारी। दर्शन

दुख संताप मिटाने वाली प्रभु अभिव्यक्ति तुम्हारी

ह्रदयरोग को दूर करो दे दो औषधि बनवारी। दर्शन

स्तन कठोर है चरण कमल सम कोमल कुंजविहारी

कंकडपत्थर कैसे सहेगें मन अधीर गिरधारी। दर्शन

गाती रोती और विलखती गोपी करत पुकारी

दास भागवत दर्शन दीने गोपी भई सुखारी। दर्शन

गोपी गीत लिरिक्स इन हिंदी अर्थ सहित gopi geet lyrics in sanskrit


गोपी गीत लिरिक्स अर्थ -

गोपियाँ विरहावेश में गाने लगी- प्यारे ! तुम्हारे जन्मके कारण वैकुण्ठ आदि लोकोंसे भी व्रजकी महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलताकी देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं।

परंतु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ, जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रक्खे हैं, वन-वनमें भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥

हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोलकी दासी हैं । तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दरसे-सुन्दर सरसिजकी कर्णिकाके सौन्दर्यको चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रोंसे मारना वध नहीं है ? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ? ॥२॥

पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजीके विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगरके रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार-बार हमलोगोंकी रक्षा की है ॥ ३॥

तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियोंके हृदयमें रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो । सखे ! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥

अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछायामें लेकर अभय कर देते हैं।

हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ॥ ५ ॥ Gopi Geet Lyrics in Hindi - गोपी गीत लिरिक्स अर्थ सहित

व्रजवासियोंके दुःख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मन्द-मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मानमदको चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है । हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ ॥६॥


तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियोंके सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य-माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं चरणोंसे हमारे बछड़ोंके पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँपके फणोंतकपर रखनेमें भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा हृदय तुम्हारी विरह-व्यथाकी आगसे जल रहा है, तुम्हारे मिलनकी आकाङ्क्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षःस्थलपर रखकर हमारे हृदयकी ज्वालाको शान्त कर दो ॥ ७॥

कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है । बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो छका दो ॥ ८ ॥ Gopi Geet Lyrics in Hindi - गोपी गीत लिरिक्स अर्थ सहित

प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृतस्वरूपा है । विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन-सर्वस्व ही है । बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं-भक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मङ्गल-परम कल्याणका दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ।। ९ ॥

प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्न हो जाया करती थीं।

उनका ध्यान भी परम मङ्गलदायक है। उसके बाद तुम मिले । तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ की, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं ॥ १० ॥

हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओंको चरानेके लिये व्रजसे निकलते हो, तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है । हमें बड़ा दुःख होता है ॥ ११ ॥ Gopi Geet Lyrics in Hindi - गोपी गीत लिरिक्स अर्थ सहित

दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है । हमारे वीर प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकाङ्क्षा-प्रेम उत्पन्न करते हो ॥ १२ ॥

प्रियतम ! एकमात्र तुम्ही हमारे सारे दुःखोंको मिटानेवाले हो । तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं।

आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुञ्जविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्षःस्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो ॥ १३॥

वीरशिरोमणे ! तुम्हारा अधरामृत मिलनके सुखको, आकाङ्क्षाको बढ़ानेवाला प है ! वह विरहजन्य समस्त शोक-संतापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली बाँसुरी भलीभाँति उसे चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता।

वीर !अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ। प्यारे ! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब तुम संध्या समय लौटते हो तथा घुघराली अलकोसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती है, उस समय पलकों गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥

प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति-पुत्र, भाईबन्धु और कुल-परिवारका त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे मोहित होकर यहाँ आयी हैं ।
Gopi Geet Lyrics in Hindi - गोपी गीत लिरिक्स अर्थ सहित
कपटी ! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन त्याग सकता है ॥ १६॥

प्यारे ! एकान्तमें तुम मिलनकी आकाङ्क्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्षःस्थल, जिसपर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ।। १७ ॥

प्यारे ! तुम्हारी' यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दुःख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मङ्गल करनेके लिये है । हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है । कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोगको सर्वथा निर्मूल कर दे ॥ १८ ॥

तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकुमार है । उन्हें हम अपने कठोर स्तनोंपर भी डरते-डरते बहुत धीरेसे रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । चरणोंसे तुम रात्रिके समय घोर जंगलमें छिपे-छिप म रहे हो ! क्या कंकड़, पत्थर आदिकी चोट लगनेसे उनम पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी सम्भावनामात्रसे ही चकर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं । श्रीकृष्ण श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिय । हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ॥१९॥
 Gopi Geet Lyrics in Hindi - गोपी गीत लिरिक्स अर्थ सहित


गोपी गीत श्रीमद् भागवत

श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि भगवान ने उस रात्रि में चारों ओर पुष्प खिला दिए वृन्दावन महक उठा अब उन्होंने रास का मन बनाया और अपनी प्रिय गोपियों को बुलाने के लिए बंशी बजाई। 

भगवान का वंशी वादन सुन कर बृज गोपी जल्दी में लहगा ओढ लिया ओढनी को पहन ली कान में नथ पहन ली नाक में झुमकी डालली उल्टे सीधे भंगार कर भगवान के पास पहुच गई। भगवान बोले गोपियों आपका स्वागत कहिए आपका क्या प्रिय करु कैसे आपका पधारना हआ। 

तम्हे अपने पतियों को छोड़कर पर पुरुष के पास नहीं आना चाहिए यह सन गोपियां हत प्रभ रह गई देखो भगवान ने एक-एक को वंशी में नाम लेकर बलाया और अब पूछ रहे हैं कैसे आई वे बोली संसार के विषय सुखों को छोड़ हम आपके चरणों की शरण आई है।

 

उन्होंने कहा हमें अपने पतियों को छोड़ कर नही आना चहिए प्रभो हम आपको एक कहानी सुनाती हैं एक पतिव्रता स्त्री थी वह नित्य अपने पति की पूजा कर उसे भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करती थी एक दिन पति को कहीं बाहर जाना था वह अपने पति से बोली आप कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं ऐसे में मैं आपकी पूजा किए बिना भोजन कैसे करूँगी पति ने कहा हम भगवान की पूजा मूर्ति में कर लेते हैं तुम भी मेरी एक मूर्ति बना लो उसकी पूजा कर भोजन कर लेना स्त्री ने ऐसा ही किया मिट्टी की पति की मूर्ति बना वह पूजा करने लगी एक दिन जब वह पूजा कर रही थी उसका पति आ गया और उसने दरवाजा खट खटाया अब वह पूजा छोड़ दरवाजा खोलने जाती है तो पति पूजा खण्डित होती हैं और नहीं जाती है तो पति आज्ञा भंग होती है।

 

गोविन्द आप बताएं उसे क्या करना चहिए भगवान बोले जब उसका साक्षात् पति आ गया तो उसे पहले दरवाजा खोलना चहिए। गोपियां बोली ठीक है हम भी आप से यही सुनना चाहती थी हम जिन पतियों को छोड कर आई हैं वे सब मिट्टी के पति हैं आप साक्षात् पति हैं उनका संबंध जब तक शरीर है तब तक है लेकिन आत्मा परमात्मा का संबंध जन्म जन्मान्तर का है। 

भगवान बोले गोपियों मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। अब तुम्हारे साथ रास करूंगा सब गोपियां गोलाकार खड़ी हो गई बीच में राधागोविन्द नृत्य करने लगे अनेक हाव-भाव दिखाने लगे करते-करते गोपियों के मन में अहंकार आ गया हम कितनी भाग्यशाली हैं परमात्मा हमारे इशारे पर नाच रहा है इतने में भगवान अन्तर ध्यान हो गए गोपियां बिलख उठी रोने लगी।

इति एकोनत्रिशोऽध्यायः

अथ त्रिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण के विरह मे गोपियों की दशा-लता वृक्षों से पूछती हुई ढूढ़ने लगी चरण चिह्नों से पता चला कि राधा महारानी उनके साथ है गोपियां कृष्ण लीला करने लगी एक गोपी पूतना बन गई दूसरी कृष्ण ने पूतना को मार दिया ऐसे लीला करने लगी उधर भगवान राधा महारानी के साथ विहार करते करते राधाजी मानवती हो गई कहने लगी प्रभो अब मुझसे नहीं चला जाता मुझे कंधे पर चढा लें। 

भगवान बोले ठीक है कहकर वहां से भी अन्तरध्यान हो गए वह सखी भी मूर्च्छित होकर गिर गई जब अन्य गोपियां भगवान को ढूंढती हुई वहां पहुंची तो वहां राधा महारानी भी बेसुध पड़ी है वे समझ गई कि इनके साथ भी वही हुआ है जो हमारे साथ हुआ है।

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ये सातं बातें मनुष्यको उन्नत करनेवाली हैं-

उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् । 
शूरं कृतज्ञं दृढसौहदं च सिद्धिः स्वयं याति निवासहेतोः | । 

उत्साही, अदीर्घसूत्री, क्रियाकी विधिको जाननेवाले, व्यसनोंसे दूर रहनेवाले, शूर, कृतज्ञ तथा स्थिर मित्रतावाले मनुष्यको सिद्धि स्वयं अपने निवासके लिये ढूँढ़ लेती है।' इन सात बातोंका विस्तार इस प्रकार है-

(१) विद्यार्थीमें यह उत्साह होना चाहिये कि मैं विद्याको पढ़ सकता हूँ, क्योंकि उत्साही आदमीके लिये कठिन काम भी सुगम हो जाता है और अनुत्साही आदमीके लिये सुगम काम भी कठिन हो जाता है।

(२) हरेक कामको बड़ी तत्परता और सावधानीके साथ करना चाहिये। थोड़े समयमें होनेवाले काममें अधिक समय नहीं लगाना चाहिये। जो थोड़े समयमें होनेवाले काममें अधिक समय लगा देता है, उसका पतन हो जाता हैं'दीर्घसूत्री विनश्यति' ।

(३) कार्य करनेकी विधिको ठीक तरहसे जानना चाहिये। कौन-सा कार्य किस विधिसे करना चाहिये, इसको जानना चाहिये। शौच-स्नान, खाना-पीना, उठना-बैठना, पाठपूजा आदि कार्योंकी विधिको ठीक तरहसे जानना चाहिये और वैसा ही करना चाहिये ।

(४) व्यसनोंमें आसक्त नहीं होना चाहिये। जूआ खेलना, मदिरापान, मांसभक्षण, वेश्यागमन, शिकार (हत्या) करना, चोरी करना और परस्त्रीगमन – ये सात व्यसन तो घोरातिघोर नरकोंमें ले जानेवाले हैं * । 

इनके सिवाय चाय, काफी, अफीम, बीड़ी-सिगरेट आदि पीना और ताश-चौपड़, खेल-तमाशा, सिनेमा देखना, वृथा बकवाद, वृथा चिन्तन आदि जो भी पारमार्थिक उन्नतिमें और न्याय-युक्त धन आदि कमानेमें बाधक हैं, वे सब-के-सब व्यसन हैं। विद्यार्थीको किसी भी व्यसनके वशीभूत नहीं होना चाहिये।

(५) हरेक काम करनेमें शूरवीरता होनी चाहिये । अपनेमें कभी कायरता नहीं लानी चाहिये ।

(६) जिससे उपकार पाया है, उसका मनमें सदा एहसान मानना चाहिये, उसका आदर-सत्कार करना चाहिये, कभी कृतघ्न नहीं बनना चाहिये।

(७) जिसके साथ मित्रता करे, उसको हर हालत में निभाये ।

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विद्यार्थीक पाँच लक्षण बताये गये हैं

काकचेष्टा बकध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च । 
स्वल्पाहारी ब्रह्मचारी विद्यार्थिपञ्चलक्षणम् ।। 

(१) काकचेष्टा-जैसे, कौआ हरेक चेष्टामें सावधान रहता है। वह इतना सावधान रहता है कि उसको जल्दी कोई पकड़ नहीं सकता। ऐसे ही विद्यार्थीको विद्याध्ययनके विषयमें हर समय सावधान रहना चाहिये। विद्याध्ययनके बिना एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाना चाहिये।

(२) बकध्यान-जैसे, बगुला पानीमें धीरेसे पैर रखकर चलता है, पर उसका ध्यान मछलीकी तरफ ही रहता है। ऐसे ही विद्यार्थीको खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ करते हुए भी अपना ध्यान, दृष्टि विद्याध्ययनकी तरफ ही रखनी चाहिये ।

(३) श्वाननिद्रा-जैसे, कुत्ता निश्चिन्त होकर नहीं सोता। वह थोड़ी-सी नींद लेकर फिर जग जाता है । ऐसे ही विद्यार्थीको आरामकी दृष्टिसे निश्चिन्त होकर नहीं सोना चाहिये, प्रत्युत केवल स्वास्थ्यकी दृष्टिसे थोड़ा सोना चाहिये।

(४) स्वल्पाहारी - विद्यार्थीको उतना ही आहार करना चाहिये, जिससे आलस्य न आये, पेट याद न आये; क्योंकि पेट दो कारणोंसे याद आता है- अधिक खानेपर और बहुत कम खानेपर ।

(५) ब्रह्मचारी - विद्यार्थीको ब्रह्मचर्यका करना चाहिये।

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विद्यार्थीको सुखकी आसक्तिका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये-

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् । 
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥
(चाणक्यनीति१० । ३)

'यदि सुखकी इच्छा हो तो विद्याको छोड़ दे और यदि विद्याकी इच्छा हो तो सुखको छोड़ दे; क्योंकि सुख चाहने वालेको विद्या कहाँ और विद्या चाहनेवालेको सुख कहाँ ?' विद्याध्ययन करना भी तप है और तपमें सुखका भोग नहीं होता।

गोपी गीत - जयति तेऽधिकं जन्मना gopi geet jayati te dhikam janmana

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