नीति श्लोक अर्थ सहित 150+Niti shlok arth sahit

 नीति श्लोक अर्थ सहित Niti shlok arth sahit

नीति श्लोक अर्थ सहित Niti shlok arth sahit

नीतिसूक्तिः 

विद्वत्त्वञ्च नृपत्वञ्च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥

विद्वत्ता और राजपद-इन दोनोंकी तुलना कदापि नहीं हो सकती; राजा अपने ही देशमें आदर पाता है, किन्तु विद्वान् सब जगह आदर पाता है॥ 


पण्डिते च गुणाः गुणाः सर्वे मूर्खे दोषा हि केवलम्। 
तस्मान्मूर्खसहस्त्रेभ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते॥
पण्डितोंमें सब गुण ही रहते हैं और मूों में केवल दोष ही; इसलिये एक पण्डित हजार मूल्से भी उत्तम है॥


परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भ पयोमुखम्॥
जो आँखके ओट होनेपर काम बिगाड़े और सम्मुख होनेपर मीठीमीठी बात बनाकर कहे, ऐसे मित्रको मुखपर दूध तथा भीतर विषसे भरे घड़ेके समान त्याग देना चाहिये॥


रूपयौवनसम्पन्ना विशाल कुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥

जो विद्याहीन हैं, वे यदि रूप और यौवनसे सम्पन्न हों तथा उच्च कुलमें उत्पन्न हुए हों तो भी गन्धहीन टेसूके फूलकी तरह शोभा नहीं पाते ॥


ताराणां भूषणं चन्द्रो नारीणां भूषणं पतिः।
पृथिव्या भूषणं राजा विद्या सर्वस्य भूषणम्॥
ताराओंका भूषण चन्द्रमा, स्त्रीका भूषण पति और पृथ्वीका भूषण राजा है, किन्तु विद्या सभीका भूषण है ॥


कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न भक्तिमान्।
काणेन चक्षुषा किं वा चक्षुः पीडैव केवलम्॥
जिसमें विद्या और भक्ति नहीं, ऐसे पुत्रके होनेसे क्या लाभ है? कानी आँखके रहनेसे क्या लाभ? उससे तो केवल नेत्रकी पीड़ा ही होती है।।


लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
पाँच वर्षकी अवस्थातक पुत्रकी लालना करनी चाहिये, उसके बाद दस वर्ष [अर्थात् पाँच वर्षसे पंद्रह वर्षकी अवस्था] तक उसे ताड़ना देनी चाहिये और जब वह सोलहवें वर्षकी अवस्थामें पहुंचे तो उससे मित्रके समान बर्ताव करना चाहिये ॥


एकेनापि सुवृक्षण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं स्याद् वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा॥
जैसे एक ही उत्तम वृक्ष विकसित होकर अपनी सुगन्धसे समस्त वनको सुवासित कर देता है, वैसे ही एक सुपुत्र समस्त कुलको यशका भागी बनाता है ॥


एकेन शुष्कवृक्षण दह्यमानेन वह्निना। 
दह्यते हि वनं सर्व कुपुत्रेण कुलं यथा ॥
जिस प्रकार एक ही सूखा वृक्ष स्वयं आगसे जलता हुआ समस्त वनको जला देता है, उसी प्रकार एक ही कुपुत्र अपने वंशके नाशका कारण होता है ।। 


निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः। 
न हि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनि॥
जैसे चन्द्रमा चाण्डालके घरको अपने किरणोंसे वञ्चित नहीं रखता; वैसे ही सज्जन पुरुष गुणहीन प्राणियोंपर भी दया करते हैं ॥

नीति श्लोक अर्थ सहित Niti shlok arth sahit


विद्या मित्रं प्रवासेषु माता मित्रं गृहेषु च। 
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥
परदेशमें विद्या मित्र है, घरमें माता मित्र है, रोगीका औषध मित्र है और मृत व्यक्तिका धर्म मित्र है॥
 

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचिद्रिपुः। 
व्यवहारेण जायन्ते मित्राणिमा रिपवस्तथा ॥
कोई किसीका मित्र नहीं और कोई किसीका शत्रु नहीं है। बर्तावसे ही मित्र और शत्रु उत्पन्न होते हैं ।।


दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम्। 
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम्॥
दुष्ट व्यक्ति मीठी बातें करनेपर भी विश्वास करने योग्य नहीं होता, क्योंकि उसकी जीभपर शहदके ऐसा मिठास होता है परन्तु हृदयमें हलाहल विष भरा रहता है ।। 


दुर्जनः परिहर्त्तव्यो विद्ययालङ्कतोऽपि सन्। 
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः॥
दुष्ट व्यक्ति विद्यासे भूषित होनेपर भी त्यागने योग्य है; जिस सर्पके मस्तकपर मणि होती है, वह क्या भयङ्कर नहीं होता? ॥ 


सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात क्रूरतरः खलः। 
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते॥
साँप निठुर होता है और दुष्ट भी निठुर होता है; तथापि दुष्ट पुरुष साँपकी अपेक्षा अधिक निठुर होता है, क्योंकि साँप तो मन्त्र और औषधसे वशमें आ सकता है, किन्तु दुष्टका कैसे निवारण किया जाय? ॥ 


धनानि जीवितञ्चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत्। 
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति॥
 बुद्धिमानोंको उचित है कि दूसरेके उपकारके लिये धन और जीवनतकको अर्पण कर दें, क्योंकि इन दोनोंका नाश तो निश्चय ही है, इसलिये सत्कार्यमें इनका त्याग करना अच्छा है ॥ 

आयुषः क्षण एकोऽपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः। 
स चेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोऽधिका॥
जीवनका एक क्षण भी कोटि स्वर्णमुद्रा देनेपर नहीं मिल सकता, वह यदि वृथा नष्ट हो जाय तो इससे अधिक हानि क्या होगी? ॥


शरीरस्य गुणानाञ्च दूरमत्यन्तमन्तरम्। 
शरीरं क्षणविध्वंसि कल्पान्तस्थायिनो गुणाः॥
 शरीर और गुण इन दोनोंमें बहुत अन्तर है, शरीर थोड़े ही दिनोंतक रहता है; परन्तु गुण प्रलयकालतक बने रहते हैं।


धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यश्च पञ्चमः। 
पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं कारयेत् ॥
जहाँ धनी, वेद जाननेवाला ब्राह्मण, राजा, नदी और वैद्य-ये पाँचों न हों, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये । 


मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम्। 
दम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता॥
 जहाँ मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहाँ धान सञ्चित रहता है, जहाँ पति-पत्नीमें कलह नहीं रहता, वहाँ लक्ष्मी स्वयं आ जाती है।। 

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अस्ति पुत्रो वशे यस्य भृत्यो भार्या तथैव च।
अभावेऽप्यतिसन्तोषः स्वर्गस्थोऽसौ महीतले॥
स्त्री, पुत्र और नौकर जिसके वशमें हैं और जो अभावमें भी अत्यन्त सन्तुष्ट रहता है, वह पृथ्वीपर भी रहकर स्वर्गका सुख भोगता है॥


माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। 
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम्॥
जिसके घरमें माता नहीं [अर्थात् जिसकी माता मर गयी है और जिसकी स्त्री कटुवचन बोलनेवाली है, उसको वनमें जाना ही उचित है, क्योंकि उसके लिये जैसा वन है वैसा ही घर भी है।। 


कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरूपं पतिव्रतम्। 
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥
कोयलोंकी सुन्दरता स्वर है, स्त्रीका सौन्दर्य सतीत्व है, कुरूपका रूप उसकी विद्या है और तपस्वीका सौन्दर्य क्षमा है॥ 


गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः॥
अग्नि द्विजाति (ब्राह्मण) का गुरु है, ब्राह्मण सब वर्णोंका गुरु है, स्त्रियोंका एकमात्र पति ही गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ॥ 


स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य च जीवति।
गुणधर्मविहीनस्य जीवनं निष्प्रयोजनम् ॥
जिसके गुण और धर्म जीवित हैं वह वास्तवमें जी रहा है, गुण और धर्मरहित व्यक्तिका जीवन निरर्थक है॥ 


दुर्लभं प्राकृतं मित्रं दुर्लभः क्षेमकृत्  सुतः।
दुर्लभा सदृशी भार्या दुर्लभः स्वजन: प्रियः॥
 स्वाभाविक मित्र, हितकारी पुत्र , मनके अनुकूल स्त्री और प्रियतम कुटुम्बी > मिलना दुर्लभ है॥


साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः। 
तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधुसमागमः॥
साधुओंका दर्शन पावन है, क्योंकि वे तीर्थस्वरूप होते हैं, तीर्थका फल तो देरसे मिलता है परन्तु साधुसमागमका फल तत्काल प्राप्त होता है ॥


सत्सङ्गः केशवे भक्तिर्गङ्गाम्भसि निमज्जनम्। 
असारे खलु संसारे त्रीणि साराणि भावयेत्॥
इस असार संसारमें साधु-सङ्गति, ईश्वर- भक्ति और गङ्गा-स्नान-इन तीनों को ही सार समझना चाहिये ॥


शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम्। 
न तृष्णायाः परो व्याधिन धर्मों दयासमः॥
 शान्तिके समान तप नहीं, सन्तोषके समान सुख नहीं, लोभके सदृश रोग नहीं और दयाके समान धर्म नहीं है ॥ 


अन्नदाता भयत्राता विद्यादाता तथैव च। 
जनिता चोपनेता च पञ्चैते पितरः स्मृताः॥
अन्न देनेवाला, भयसे बचानेवाला, विद्या पढ़ानेवाला, जन्म देनेवाला और यज्ञोपवीत आदि संस्कार करानेवाला-ये पाँच पिता कहे जाते हैं । 

नीति श्लोक अर्थ सहित Niti shlok arth sahit

आदौ माता गुरोः पत्नी ब्राह्मणी राजपत्निका। 
धेनुर्धात्री तथा पृथ्वी सप्तैता मातरः स्मृताः॥
अपनी जननी, गुरु-पत्नी, ब्राह्मण-पत्नी, राजपत्नी, गाय, धात्री (दूध पिलानेवाली दाई) और पृथ्वी-ये सात माताएँ कही गयी हैं ॥


आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः। 
तज्जयः सम्पदा मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम्॥
इन्द्रियोंको वशमें नहीं लाना सब विपत्तियोंका मार्ग बतलाया गया है और इनको जीत लेना सब प्रकारके सुखोंका उपाय है। इन दोनोंमें जो मार्ग उत्तम है उसीसे गमन करना चाहिये ॥ 


समुद्रावरणा भूमिः प्राकारावरणं गृहम्। 
नरेन्द्रावरणो देशश्चरित्रावरणाः स्त्रियः॥
पृथ्वीकी रक्षा समुद्रसे, गृहकी रक्षा चहारदिवारीसे, देशकी रक्षा राजासे और स्त्रीकी रक्षा उत्तम चरित्रसे है ॥ 


परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम्। 
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे॥
जिन सज्जनोंके मनमें सदा परोपकार करनेकी इच्छा बनी रहती है, उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और उन्हें पग-पगपर सम्पत्ति प्राप्त होती है ॥


नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः। 
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥
विद्याके समान नेत्र नहीं, सत्यके समान तप नहीं, [संसारकी वस्तुओंमें] आसक्तिके समान दु:ख नहीं और त्यागके समान सुख नहीं है।


पादपानां भयं वातात् पद्मानां शिशिराद्भयम्। 
पर्वतानां भयं व्रजात् साधूनां दुर्जनाद्भयम्॥
वृक्षोंको आँधीसे, कमलोंको ओससे, पर्वतोंको वज्रसे और साधुओंको दुर्जनसे डर है ॥ 


सुभिक्षं कृषके नित्यं नित्यं सुखमरोगिणः। 
भार्या भर्तुः प्रिया यस्य तस्य नित्योत्सवं गृहम्॥
जो कृषिकर्म करता है, उसके अन्नका अभाव नहीं रहता, जो नीरोग है वह सदा सुखी रहता है और जिस स्वामीकी स्त्री उसको प्यारी है उसके घरमें सदा आनन्द रहता है ।


प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम्। 
तृतीये नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किं करिष्यति॥
 जिसने प्रथम अवस्था (लड़कपन) में विद्या नहीं पढ़ी, दूसरी (युवा) अवस्थामें धन नहीं कमाया और तीसरी (प्रौढ़) अवस्थामें धर्म नहीं किया; वह चौथी अवस्था (बुढ़ापे) में क्या करेगा? ॥ 


क्षमया दयया प्रेम्णा सूनृतेनार्जवेन च। 
वशीकुर्याज्जगत् सर्वं विनयेन च सेवया॥
क्षमा, दया, प्रेम, मधुर वचन, सरल स्वभाव, नम्रता और सेवासे सब संसारको वशमें करना चाहिये ॥


अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्॥
 बुद्धिमान्को उचित है कि अपनेको अजर और अमर समझकर विद्या एवं धनका उपार्जन करे और मृत्यु केश पकड़े खड़ी है-यह सोचकर धर्म करे ॥

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अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शनम्। 
सर्वस्य लोचनं ज्ञानं यस्य नास्त्यन्ध एव सः॥
जो अनेकों सन्देहोंको दूर करनेवाला और परोक्ष अर्थको दिखानेवाला है, वह ज्ञान सभीका नेत्र है, जिसमें ज्ञान नहीं वह निरा अन्धा है॥ 


मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्। 
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्॥
दुष्टोंके मन, वचन एवं कर्ममें और-और भाव होते हैं, परन्तु सज्जनोंके मन, वचन एवं कर्म तीनोंमें एक ही भाव रहता है । 


प्रविचार्योत्तरं देयं सहसा न वदेत् क्वचित्। 
शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषास्त्याज्या गुरोरपि॥
किसी विषयमें] एकाएक न बोले, सोच-विचारकर जवाब देना उचित है। शत्रुमें भी यदि गुण रहें तो उन्हें लेना चाहिये और गुरुमें भी दोष हों तो उन्हें त्याग देना चाहिये॥


हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्। 
कर्णस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम्॥
दान हाथका भूषण है, सच बोलना कण्ठका भूषण है, शास्त्र-वचन कानका भूषण है, [फिर] दूसरे भूषणोंकी क्या आवश्यकता है? ॥ 


तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्। 
जिताक्षस्य तृणं नारी नि:स्पृहस्य तृणं जगत्॥
ब्रह्मज्ञानीके लिये स्वर्ग, वीरके लिये जीवन, जितेन्द्रियके लिये नारी और निर्लोभके लिये समस्त संसार तिनकेके बराबर है ॥


पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्द्धनम्।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये॥
जैसे साँपको दूध पिलाना उसका विष बढ़ानामात्र है, वैसे ही मूर्खको उपदेश देना उसके क्रोधको बढ़ाना है, शान्त करना नहीं ॥


षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। 
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता-ये छः दोष इस संसारमें ऐश्वर्य प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको छोड़ देने चाहिये ॥ 


उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी
र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति। 
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यले कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः॥
उद्योगी वीर पुरुषको लक्ष्मी मिलती है, कायर कहा करते हैं कि [जो मिलता है वह] 'भाग्यसे मिलता है', भाग्यकी बात छोड़कर अपनी शक्तिसे पुरुषार्थ करो; यत्न करनेपर भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो इसमें दोष ही क्या है? ।। 


परदारान् परद्रव्यं परीवादं परस्य च।
परीहासं गुरोः स्थाने चापल्यं च विवर्जयेत्॥
पर-स्त्री, परधन, पर-निन्दा, परिहास और बड़ोंके सामने चञ्चलता-इनका त्याग करना चाहिये ॥


वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तस्य भोजनम्।
वृथा दानं समर्थस्य वृथा दीपो दिवापि च॥
समुद्रमें वृष्टि, भर पेट खाये हुएको भोजन, समृद्धिमान्को दान और दिनमें दीपक-ये व्यर्थ ही होते हैं ।

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त्यज दुर्जनसंसर्ग भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं नित्यमनित्यताम्॥
 खलका सङ्ग छोड़, साधुकी सङ्गति कर, दिनरात पुण्य किया कर, संसार अनित्य है-इस प्रकार निरन्तर विचार करता रह ॥


दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।
सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥
देख-भालकर पैर रखना चाहिये, कपड़ेसे छानकर पानी पीना चाहिये, सच्ची बात कहनी चाहिये और जो मनको पवित्र जान पड़े वह आचरण करना चाहिये।। 


सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वायवो वान्ति सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्॥
सत्यने ही पृथ्वीको धारण कर रखा है, सत्यसे ही सूर्य तपता है और सत्यसे ही वायु चलती है, सब कुछ सत्यमें ही स्थित है ।। 


कोऽतिभार: समर्थानां किं दूरे व्यवसायिनाम्।
को विदेशः सविद्यानां  कःपरःप्रियवादिनाम्॥
 शक्तिशालीके लिये अधिक बोझ क्या है, व्यापारीके लिये दूर क्या है? विद्वान्के लिये विदेश और मधुरभाषीके लिये शत्रु कौन है? ॥ 


शोकस्थानसहस्त्राणि भयस्थानशतानि च। 
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥
मूर्खको प्रतिदिन सैकड़ों भयके और हजारों शोकके मौके आ पड़ते हैं, पर विद्वान्को नहीं॥ 


दरिद्रता धीरतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते। 
कुभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते ।।
दरिद्रता धीरजसे, कुरूपता अच्छे स्वभावसे, कुभोजन भी गर्म रहनेसे और पुराना कपड़ा भी स्वच्छ होनेसे शोभा पाता है ॥


यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः। 
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्मणा ॥
जिस प्रकार घिसने, काटने, तपाने और पीटने-इन चार प्रकारोंसे सुवर्णकी परीक्षा होती है उस प्रकार विद्या, कुल, शील और कर्म-इन चारोंसे ही पुरुषकी परीक्षा होती है ॥ 


अनभ्यासे विषं विद्या अजीर्णे भोजनं विषम्। 
विषं गोष्ठी दरिद्रस्य भोजनान्ते जलं विषम्॥
बिना अभ्यास किये पढ़ी हुई विद्या, बिना पचे ही किया हुआ भोजन, दरिद्रके लिये [धनिकोंकी] सभा और भोजनसमाप्तिके समय जल पीना-ये सब विषके समान हैं ॥


मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
जो पर-स्त्रियोंको माताके समान, पर-धनको मिट्टीके ढेलेके समान तथा समस्त प्राणियोंको अपने ही समान देखता है, वही वास्तवमें पण्डित है ॥


दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥
दान देनेसे ही हाथकी शोभा है, गहनोंसे नहीं, स्नान करनेसे ही शुद्धि होती है, चन्दनसे नहीं; सम्मानसे तृप्ति होती है, केवल भोजनसे नहीं और ज्ञानसे ही मुक्ति होती है, केवल वेषभूषा धारण करनेसे नहीं ॥

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कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ। 
कस्याहं का मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥
समय कैसा है? मित्र कौन हैं? देश कौन-सा है? आय और व्यय कितना है? मैं किसका हूँ? और मेरी शक्ति कितनी है? इसका बार-बार विचार करना चाहिये ॥


अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्। 
नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्॥
अति क्रोध, कटुवचन, दरिद्रता, आत्मीय जनोंसे वैर, नीचोंका सङ्ग और नीचकी सेवा-ये नरकमें रहनेवालोंके लक्षण हैं ॥


धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च। 
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलञ्जः सुखी भवेत्॥
अन्न-धनके उपभोगमें, विद्योपार्जनमें, भोजनमें और व्यवहारमें लज्जाको त्याग देनेवाला सुखी होता है ॥ 


गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थितः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते॥
 प्राणी गुणोंसे उत्तम होता है, ऊँचे आसनपर बैठकर नहीं, कोठेके कँगूरेपर बैठा हुआ कौआ क्या गरुड हो जाता है? ॥ 

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
मधुर वचनके बोलनेसे सब जीव सन्तुष्ट होते हैं, इस कारण वैसा ही बोलना चाहिये, वचनमें क्या दरिद्रता है?॥


पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु यद्धनम्। 
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम्॥
जो विद्या पुस्तकोंमें ही रहती है और जो धन दूसरोंके हाथोंमें रहता है, काम पड़ जानेपर न वह विद्या है और ने वह धन ही है।


सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः॥ 
अपनी स्त्री, भोजन और धन-इन तीनोंमें सन्तोष करना चाहिये। पढ़ना, जप और दान-इन तीनोंमें सन्तोष कभी नहीं करना चाहिये॥


विप्रयोर्विप्रवह्नयोश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः। 
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च॥
दो ब्राह्मणोंके, ब्राह्मण और अग्निके, पति-पत्नीके, स्वामी तथा भृत्यके एवं हल और बैलके बीचसे होकर नहीं जाना चाहिये ॥


पादाभ्यां न स्पृशेदग्नि गुरुं ब्राह्मणमेव च। 
नैव गां च कुमारी च न वृद्धं न शिशुं तथा॥
अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी, वृद्ध और बालक-इनको पैरसे न छूना चाहिये ॥


आप्तद्वेषाद्भवेन्मृत्युः     परद्वेषाद्धनक्षयः।
राजद्वेषाद्भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात्कुलक्षयः॥
बड़ोंके द्वेषसे मृत्यु, शत्रुके विरोधसे धनका क्षय, राजाके द्वेषसे नाश और ब्राह्मणके द्वेषसे कुलका क्षय होता है ॥

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सदा प्रसन्नं मुखमिष्टवाणी सुशीलता च स्वजनेषु सख्यम्। 
सतां प्रसङ्गः कुलहीनहानं चिह्नानि देहे त्रिदिवस्थितानाम्॥
सदा प्रसन्नमुख रहना, प्रिय बोलना, सुशीलता, आत्मीय जनोंमें प्रेम, सज्जनोंका सङ्ग और नीचोंकी उपेक्षा--ये स्वर्गमें रहनेवालोंके लक्षण हैं ॥ 


राजा धर्ममृते द्विजः पवमृते विद्यामृते योगिनः
कान्ता सत्त्वमृते हयो गतिमृते भूषा च शोभामृते। 
योद्धा शूरमृते तपो व्रतमृते गीतं च पद्यान्यते
भ्राता स्नेहमृते नरो हरिमृते लोके न भाति क्वचित्॥
धर्म बिना राजा, पवित्रताके बिना द्विज, ब्रह्मविद्याके बिना योगी, सतीत्वके बिना स्त्री, चाल बिना घोड़ा, सुन्दरताके बिना गहना, बिना वीरके योद्धा, बिना व्रतके तप, पद्यके बिना गान, स्नेहके बिना भाई और भगवत्प्रेमके बिना मनुष्य, संसारमें कहीं सुशोभित नहीं होते ॥


वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणा
न्मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते। 
व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति॥
जिसके शरीरमें समस्त लोकोंको प्रिय लगनेवाले शीलका विकास होता है उसके लिये आग शीतल हो जाती है, समुद्र छोटी नदी बन जाता है, मेरु छोटा-सा शिलाखण्ड प्रतीत होता है, सिंह सामने आते ही हिरन हो जाता है, साँप मालाका काम देता है और विष अमृत बन जाता है।


येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥
जिनमें न विद्या है, ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है, वे मृत्युलोकमें पृथ्वीके भार हुए मनुष्यरूपसे मानो पशु ही घूमते-फिरते हैं ॥


केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः। 
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥
पुरुषको न तो केयूर (बाजूबंद), न चन्द्रमाके समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न उबटन, न फूल और न सजाये हुए बाल ही सुशोभित कर सकते हैं, पुरुष यदि संस्कृत वाणीको धारण करे तो एकमात्र वही उसकी शोभा बढ़ा सकती है, इसके अतिरिक्त और जितने भूषण हैं, वे तो सब नष्ट हो जाते हैं, सच्चा भूषण तो वाणी ही है॥ 


विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः। 
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः॥
विद्या मनुष्यका एक विशेष सौन्दर्य है, छिपा हुआ सुरक्षित धन है, विद्या, भोग, यश और सुखको देनेवाली है, विद्या गुरुओंकी भी गुरु है, वह परदेशमें जानेपर स्वजनके समान सहायता करनेवाली है। विद्या ही सबसे बड़ी देवता है, राजाओंमें विद्याका ही सम्मान होता है, धनका नहीं, विद्याके बिना तो मनुष्य पशुके समान है॥


रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता-
मम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः। 
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥
 अरे मित्र पपीहे ! सावधान मनसे जरा एक क्षण सुन तो! अरे, आकाशमें मेघ तो बहुत हैं, किन्तु सब एक-से ही नहीं हैं, कोई तो बार-बार वर्षा करके पृथिवीको गीली कर देते हैं और कोई व्यर्थ ही गरजते हैं। तू जिस-जिसको देखे उसी-उसीके सामने दीन वचन मत बोल ॥ 


मौनान्मूकः प्रवचनपटुश्चाटुलो जल्पको वा
धृष्टः पार्वे वसति च तदा दूरतश्चाप्रगल्भः।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः 
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः॥
मनुष्य चुप रहनेसे गूंगा, चतुर वक्ता होनेसे चापलूस या बकवादी कहलाता है, इसी प्रकार यदि पासमें बैठे हो तो ढीठ, दूर रहे तो दब्बू,क्षमा रखे तो डरपोक और अन्याय न सह सके तो प्रायः बुरा समझा जाता है; इसलिये सेवाधर्म बहुत ही कठिन है, इसे योगी भी नहीं जान पाते ॥


गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ 
परिणतिरवधाया यत्नतः पण्डितेन। 
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते
र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः॥
अच्छा या बुरा किसी भी कामका आरम्भ करनेवाले विद्वान्को पहले ही यत्नपूर्वक उसके भले-बुरे परिणामका निश्चय कर लेना चाहिये; क्योंकि बहुत जल्दमें किये गये कर्मोंका दुष्परिणाम मरनेतक मनुष्यके हृदयमें जलन पैदा करनेवाला और शूलके समान चुभनेवाला होता है ॥


ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो 
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः। 
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता 
सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम्॥
ऐश्वर्यकी शोभा सुजनतासे है, शूरवीरताकी शोभा कम बोलना है, ज्ञानकी शान्ति, शास्त्राध्ययनकी नम्रता, धनकी सत्पात्रको दान करना, तपकी अक्रोध, समर्थकी क्षमा, धर्मकी दम्भहीनता और सबकी शोभा सुशीलता है, जो सभी सद्गुणोंकी हेतु है ॥

नीति श्लोक अर्थ सहित Niti shlok arth sahit


दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने 
प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वजनेष्वार्जवम्। 
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता 
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः॥
आत्मीय जनोंपर उदारता, दूसरोंपर दया, दुष्टोंसे शठता, साधुओंसे प्रीति, राजाओंसे नीति, विद्वानोंसे सरलता, शत्रुओंपर वीरता, बड़ोंपर क्षमा और स्त्रियोंसे चालाकी रखना-इन सब गुणोंमें जो निपुण हैं, उन्हींपर लोकमर्यादा निर्भर रहती है ॥


साधुस्त्रीणां दयितविरहे मानिनो मानभने
सल्लोकानामपि जनरवे निग्रहे पण्डितानाम्। 
अन्योद्रेके कुटिलमनसां निर्गुणानां विदेशे
भृत्याभावे भवति मरणं किन्तु सम्भावितानाम्॥
प्रियतम पतिके वियोगमें सती स्त्रियोंका, सम्मान-भङ्ग होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषोंका,लोकापवाद होनेपर सत्पुरुषोंका, शास्त्रार्थमें पराजय होनेपर पण्डितोंका, दूसरोंका उत्कर्ष देखकर कुटिल हृदयवालोंका, विदेशमें गुणहीन मनुष्योंका और नौकर न रहनेपर अमीर लोगोंका मरण-सा हो जाता है॥ 


क्वचिद्रुष्टः क्वचित्तुष्टो रुष्टस्तुष्टः क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयङ्करः॥
जो कभी रुष्ट होता है, कभी प्रसन्न होता है; इस प्रकार क्षण-क्षणमें रुष्ट और प्रसन्न होता रहता है, उस चञ्चलचित्त पुरुषकी प्रसन्नता भी भयङ्कर ही है। 


अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः।
स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञः कार्यध्वंसो हि मूर्खता॥
अपमानको आगे कर और सम्मानकी ओर दृष्टि न देकर बुद्धिमान्को अपना कार्य-साधन करना चाहिये; क्योंकि काम बिगाड़ना मूर्खता है॥


देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ। 
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥
देवता, तीर्थ, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, औषध और गुरुमें जिसकी जैसी भावना रहती है, उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥ 


नागो भाति मदेन कं जलरुहैः पूर्णेन्दुना शर्वरी
शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैर्मन्दिरम्।
वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैनद्यः सभा पण्डितैः
सत्पुत्रेण कुलं नृपेण वसुधा लोकत्रयं विष्णुना॥
गजराज मदसे, जल कमलोंसे, रात्रि पूर्ण चन्द्रसे, स्त्री शीलसे, घोड़ा वेगसे, मन्दिर नित्यके उत्सवोंसे, वाणी व्याकरणसे, नदी हंसके जोड़ेसे, सभा पण्डितोंसे, कुल सुपुत्रसे, पृथ्वी राजासे और त्रिलोकी भगवान् विष्णुसे सुशोभित होती है ॥


वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः शुष्कं सरः सारसाः
पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपा दग्धं वनान्तं मृगाः।

निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका भ्रष्टश्रियं मन्त्रिणः
सर्वः कार्यवशाज्जनोऽभिरमते कस्यास्ति को वल्लभः॥
पक्षी फल न रहनेपर वृक्षको छोड़ देते हैं, सारस जल सूख जानेपर सरोवरका परित्याग कर देते हैं, भौरे बासी फूलको, मृग दग्ध वनको,वेश्या निर्धन पुरुषको तथा मन्त्रीगण श्रीहीन राजाको छोड़ देते हैं, सब लोग अपनेअपने स्वार्थवश ही प्रेम करते हैं, वास्तवमें कौन किसका प्रिय है? ॥


मित्रं स्वच्छतया रिपुं नयबलैर्लुब्धं धनैरीश्वरं
कार्येण द्विजमादरेण युवतिं प्रेम्णा समैर्बान्धवान्। 
अत्युग्रं स्तुतिभिर्गुरुं प्रणतिभिर्मूर्ख कथाभिर्बुधं
विद्याभी रसिकं रसेन सकलं शीलेन कुर्याद्वशम्॥
मित्रको स्वच्छता (निष्कपट हृदय) से जीते, शत्रुको नीतिबलसे, लोभीको धनसे, स्वामीको कार्यसे, ब्राह्मणको आदरसे, युवतीको प्रेमसे, बन्धुओंको समभावसे, अत्यन्त क्रोधीको स्तुतिसे, गुरुको विनयसे, मूर्खको बातोंसे, बुद्धिमान्को विद्यासे, रसिकको रसिकतासे और सभीको सुशीलतासे वशीभूत करे ॥ 


गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी सुसम्भ्रमाद्यस्य। 
तेनाम्बा यदि सुतिनी वद वन्ध्या कीदृशी नाम॥
 गुणीजनोंकी गणना आरम्भ करते समय जिसके लिये लेखनी शीघ्रतासे नहीं चलती, उस पुत्रसे यदि माता पुत्रवती कही जाय तो कहो वन्ध्या कैसी स्त्री होगी? ॥ 


वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्तं यदनृतं
वरं क्लैब्यं पुंसां न च परकलत्राभिगमनम्। 
वरं प्राणत्यागो न च पिशुनवाक्येष्वभिरुचि
वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम्॥

चुप रहना अच्छा है पर मिथ्या वचन कहना अच्छा नहीं, पुरुषका नपुंसक हो जाना अच्छा है परन्तु परस्त्रीगमन अच्छा नहीं, प्राण परित्याग कर देना अच्छा है; परन्तु चुगुलोंकी बातों में रुचि रखना अच्छा नहीं, और भिक्षा माँगकर खा लेना अच्छा है; परन्तु दूसरोंके धनके उपभोगका सुख अच्छा नहीं है ।।
 

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पठतो नास्ति मूर्खत्वं जपतो नास्ति पातकम्। 
जाग्रतस्तु भयं नास्ति कलहो नास्ति मौनिनः॥
जो विद्याध्ययन करता है, उसमें मूर्खता नहीं रह सकती, जो जप करता है, उसके पाप नहीं रह सकते, जो जागरित है, उसको कोई भय नहीं सता सकता और जो मौनी है, उसका किसीसे कलह नहीं हो सकता॥ 


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्ते 
कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय खेदम्। 
लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति 
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या॥
 कल्पलताके समान विद्या संसारमें क्या-क्या सिद्ध नहीं करती? माताके समान वह रक्षा करती है, पिताके समान स्वहितमें नियुक्त करती है, स्त्रीके समान खेदका परिहार करके आनन्दित करती है, लक्ष्मीकी वृद्धि करती है और दिशा-विदिशाओं में कीर्तिका विस्तार करती है ॥ 


उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम्। 
विरक्तस्य तृणं भार्या नि:स्पृहस्य तृणं जगत्॥
उदारके लिये धन, शूरवीरके लिये मरण, विरक्तके लिये स्त्री और नि:स्पृहके लिये जगत् तिनकेके तुल्य है॥ 


ललितान्तानि गीतानि कुवाक्यान्तं च सौहृदम्। 
प्रणामान्तः सतां कोपो याचनान्तं हि गौरवम्॥
गानका समसे, प्रेमका कटुवचनसे, सज्जनोंके क्रोधका प्रणाम करनेसे और गौरवका याचना करनेसे अन्त हो जाता है।

स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। 
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
मूर्ख अपने घरमें, समर्थ पुरुष अपने गाँवमें, राजा अपने देशमें और विद्वान् सर्वत्र ही पूजा जाता है ॥


अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः कामातुराणां न भयं न लज्जा। 
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचिर्न वेला॥
अर्थातुरों (स्वार्थियों) को न कोई गुरु होता है न बन्धु, कामातुरोंको न भय रहता है न लज्जा, विद्यातुरों (विद्याप्रेमियों) को न सुख रहता है न नींद तथा क्षुधातुरोंके लिये न स्वाद होता है न भोजन करनेका कोई नियत समय ही ॥


न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्। 
धर्मो न वै यत्र च नास्ति सत्यं सत्यं न तद्यच्छलनानुविद्धम्॥
जिसमें वृद्ध न हों वह सभा नहीं, जो धर्मोपदेश नहीं करते वे वृद्ध नहीं, जिसमें सत्य न हो वह धर्म नहीं और जो छलयुक्त हो वह सत्य सत्य नहीं ।। 


मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणं चिन्तासमं नास्ति शरीरशोषणम्। 
भार्यासमं नास्ति शरीरतोषणं विद्यासमं नास्ति शरीरभूषणम्॥
माताके समान शरीरका पालन-पोषण करनेवाली, चिन्ताके समान देहको सुखानेवाली, स्त्रीके समान शरीरको सुख देनेवाली और विद्याके समान अङ्गका आभूषण दूसरा कोई नहीं है ॥ 


सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। 
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥
हठात् कोई कार्य न कर बैठे; क्योंकि नासमझीसे भारी विपत्तियाँ आ पड़ती हैं और सोच-विचारकर करनेवालेकी ओर उसके गुणोंसे मोहित हो सम्पत्ति स्वयं दौड़ आती है ॥


विद्यातीर्थे जगति विबुधाः साधवः सत्यतीर्थे
गङ्गातीर्थे मलिनमनसो योगिनो ध्यानतीर्थे । 
धारातीर्थे धरणिपतयो दानतीर्थे धनाढ्या 
लज्जातीर्थे कुलयुवतयः पातकं क्षालयन्ते॥
संसारमें बुद्धिमान् जन विद्यारूपी तीर्थमें, साधु सत्यरूपी तीर्थमें, मलिन मनवाले गङ्गातीर्थमें, योगिजन ध्यानतीर्थमें, राजा लोग पृथ्वीतीर्थमें, धनी जन दानतीर्थमें और कुल-स्त्रियाँ लज्जातीर्थमें अपने पापोंको धोती हैं ।।

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सुलभाः पुरुषा लोके सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥ 
इस दुनियाँ में मीठी-मीठी बातें बनानेवाले बहुत पाये जाते हैं पर कड़वी और हितकारक वाणीके कहने तथा सुननेवाले दोनों ही दुर्लभ हैं ॥


सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः
सुशासिता स्त्री नृपतिः सुसेवितः।

सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं 
सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम्
अच्छी प्रकार पचा हुआ अन्न, सुशिक्षित पुत्र, भली प्रकार शासनके अंदर रखी हुई स्त्री, अच्छी तरह सेवित राजा,विचारपूर्ण भाषण और समझ-बूझकर किया हुआ कर्म-इन सबमें बहुत काल बीत जानेपर भी दोष उत्पन्न नहीं होता ॥ 


उपकारः परो धर्मः परार्थं कर्म नैपुणम्। 
पात्रे दानं पर: कामः परो मोक्षो वितृष्णता॥
उपकार ही परमधर्म है, दूसरोंके लिये किया हुआ कर्म चातुर्य है, सत्पात्रको दान देना ही परम काम (काम्य वस्तु) है और तृष्णाहीनता ही परम मोक्ष है॥



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