( भागवत कथा,भाग-1 )
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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भागवत सप्ताहिक कथा PDF
( भागवत कथा,भाग-1 )माहात्म्य[ अथ प्रथमो अध्यायः ]
अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक परम ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा भगवान नारायण की असीम अनुकंपा से आज हमें श्रीमद् भागवत भगवान श्री गोविंद का वांग्मय स्वरूप के कथा सत्र में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है | निश्चय ही आज हमारे कोई पूर्व जन्म के पुण्य उदय हुए हैं |
नैमिषारण्य नामक वन में श्री सूत जी महाराज हमेशा श्री सौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों को पुराणों की कथा सुनाते रहते हैं | आज की कथा में श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने जा रहे हैं , ऋषि गण कथा सुनने के लिए उत्सुक हो रहे हैं | नियम के अनुसार सर्वप्रथम मंगलाचरण कर रहे हैं |
सूतोवाच- मा• 1.1
यह मंगलाचरण भी कोई साधारण नहीं है , इस श्लोक के चारों चरणों में भगवान के नाम रूप गुण और लीला का वर्णन है | जो समस्त भागवत का सार है |
प्रथम चरण में भगवान के स्वरूप का वर्णन है भगवान का स्वरूप है सत यानी प्रकृति तत्व समस्त जड़ जगत भगवान का ही रूप है |
चिद् चैतन समस्त सृष्टि के जीव मात्र ये भी भगवान का ही रूप हैं
स्वयं भगवान आनंद स्वरूप हैं इस प्रकार भगवान श्रीमन्नारायण चैतन की अधिष्ठात्री श्री देवी तथा जड़त्व की अधिष्ठात्री भू देवी दोनों महा शक्तियों को धारण किए हुए हैं यह भगवान का स्वरूप है |
दूसरे चरण में भगवान के गुणों का वर्णन है विश्वोत्पत्यादि हेतवे समस्त सृष्टि को बनाने वाले उसका पालन करने वाले तथा अंत में उसे समेट लेने वाले भगवान श्रीमन्नारायण है यह भगवान का गुण है |
तीसरे चरण में तापत्रय विनाशाय आज सारा संसार दैहिक दैविक भौतिक इन तीनों तापों से त्रस्त है और कोई शारीरिक व्याधियों से घिरा है , कोई दैविक विपत्तियों में फंसा है तो कोई भौतिक सुख सुविधाओं के अभाव में जल रहा है |
किंतु परमात्मा- भगवान श्रीमन्नारायण अपने भक्तों के तापों को दूर करते हैं
यही भगवान की लीला है | चौथे चरण में भगवान का नाम है श्री कृष्णाय वयं नुमः हम सब उस परमात्मा भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं |
इस प्रकार श्री सूतजी ने कथा से पूर्व भगवान का स्मरण किया तो उन्हें याद आया कि बिना गुरु के तो भगवान भी कृपा नहीं करते तो उन्होंने अगले श्लोक में गुरु को स्मरण किया |
यही भगवान की लीला है | चौथे चरण में भगवान का नाम है श्री कृष्णाय वयं नुमः हम सब उस परमात्मा भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं |
इस प्रकार श्री सूतजी ने कथा से पूर्व भगवान का स्मरण किया तो उन्हें याद आया कि बिना गुरु के तो भगवान भी कृपा नहीं करते तो उन्होंने अगले श्लोक में गुरु को स्मरण किया |
श्लोक- मा• 1.2
जिस समय श्री सुकदेव जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा सांसारिक तथा वैदिक कर्म का भी समय नहीं था , तभी उन्हें अकेले घर से जाते देख उनके पिता व्यास जी कातर होकर पुकारने लगे हा बेटा हा पुत्र मत जाओ रुक जाओ, सुकदेव जी को तन्मय देख वृक्षों ने उत्तर दिया , ऐसे सर्वभूत ह्रदय श्री सुकदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं |
सूत जी द्वारा इस प्रकार मंगलाचरण करने के बाद श्रोताओं में प्रमुख श्रीसौनक जी बोले--
हे सूत जी आपका ज्ञान अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए करोड़ों सूर्यो के समान है हमारे कानों को अमृत के तुल्य सारगर्भित कथा सुनाइए |
इस घोर कलयुग में जीव सब राक्षस वृत्ति के हो जाएंगे उनका उद्धार कैसे होगा , ऐसा भक्ति ज्ञान बढ़ाने वाला कृष्ण प्राप्ति का साधन बताएं क्योंकि पारस मणि व कल्पवृक्ष तो केवल संसार व स्वर्ग ही दे सकते हैं किंतु गुरु तो बैकुंठ भी दे सकते हैं |
इस प्रकार सौनक जी का प्रेम देखकर सूत जी बोले सबका सार संसार भय नाशक भक्ति बढ़ाने वाला भगवत प्राप्ति का साधन तुम्हें दूंगा जो भागवत कलयुग में श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को दी थी, वही भागवत तुम्हें सुनाऊंगा |
उस समय देवताओं ने अमृत के बदले इसे लेने के लिए प्रयास किया था किंतु सफल नहीं हुए भागवत कथा देवताओं को भी दुर्लभ है एक बार विधाता ने सत्य लोक में तराजू बांधकर तोला तो भागवत के सामने सारे ग्रंथ हल्के पड़ गए |
यह कथा पहले शनकादि ऋषियों ने नारदजी को सुनाई थी, इस पर शौनक जी बोले संसार प्रपंचो से दूर कभी एक जगह नहीं ठहरने वाले नारद जी ने कैसे यह कथा सुनी |
सो कृपा करके बताएं तब सूतजी बोले एक बार विशालापुरी में शनकादि ऋषियों को नारद जी मिले, नारदजी को देखकर बोले आपका मुख उदास है क्या कारण है ?
इतनी जल्दी कहां जा रहे हैं इस पर नारद बोले-- मैं पृथ्वी पर गया था वहां पुष्कर ,प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरी क्षेत्र ,कुरुक्षेत्र, श्रीरंग ,रामेश्वर आदि स्थानों पर गया किंतु कहीं भी मन को समाधान नहीं हुआ |
कलयुग ने सत्य , शौच,तप, दया, दान सब नष्ट कर दिए हैं , सब जीव अपने पेट भरने के अलावा कुछ नहीं जानते, संत महात्मा सब पाखंडी हो गए हैं |
इन सब में घूमता हुआ मैं वृंदावन पहुंच गया वहां एक बड़ा ही आश्चर्य देखा- एक युवती वहां दुखी होकर रो रही थी उसके पास ही दो वृद्ध सो रहे थे मुझे देखकर वह बोली--
श्लोक- मा• 1.42
हे साधो थोड़ा ठहरिये मेरी चिंता दूर कीजिए | तब नारद बोले हे देवी आप कौन हैं आपको क्या कष्ट है बता दें , इस पर वह बाला बोली मैं भक्ति हूं, यह दोनों मेरे पुत्र ज्ञान बैराग हैं जो समय पाकर वृद्ध हो गए हैं |
मेरा जन्म द्रविड़ देश में हुआ था , कर्नाटक में बड़ी हुई ,थोड़ी महाराष्ट्र में तथा गुजरात में वृद्ध हो गई और यहां वृंदावन में पुनः तरुणी हो गई और मेरे पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्ध हो गए | नारद बोले हे देवी यह घोर कलयुग है यहां सब सदाचार लुप्त हो गए हैं |
श्लोक- मा• 1.61
इस बृंदावन को धन्य है जहां भक्ति नृत्य करती हैं | वृंदावन की महिमा महान है | भक्ति बोली अहो इस दुष्ट कलयुग को परिक्षित ने धरती पर क्यों स्थान दिया ? नारद बोले दिग्विजय के समय यह दीन होकर परीक्षित से बोला मुझे मारे नहीं मेरा एक गुण है उसे सुने---
श्लोक- मा• 1.68
जो फल ना तपस्या से मिल सकता तथा ना योग और ना समाधि से वह फल इस कलयुग में केवल नारायण कीर्तन से मिलता है |
आज कुकर्म करने वाले चारों ओर हो गए हैं , ब्राम्हणो ने थोड़े लोभ के लिए घर-घर में भागवत बांचना शुरू कर दिया है | भक्ति बोली हे देव ऋषि आपको धन्य है आप मेरे भाग्य से आए हैं , मैं आपको नमस्कार करती हूँ |
इति प्रथमो अध्यायः
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[ अथ द्वितीयो अध्यायः ]श्लोक- मा• 2.13
नारद जी बोले हे भक्ति कलयुग के समान कोई युग नहीं है, मैं तेरी घर-घर में स्थापना करूंगा भक्ती बोली हे नारद आपको धन्य है मेरे में आपकी इतनी प्रीति है |
इसके बाद नारदजी ने ज्ञान बैराग को जगाने का प्रयास किया उनके कान कान के पास मुंह लगाकर बोले-- हे ज्ञान जागो , हे वैराग्य जागो और उन्हें वेद और गीता का पाठ सुनाया, किंतु ज्ञान बैराग कुछ जमुहायी लेकर वापस सो गए तभी आकाशवाणी हुई |
हे मुनि सत्कर्म करो संत जन तुम्हें इसका उपाय बताएंगे , तभी से मैं तीर्थों में भ्रमण करता हुआ संतो से पूछता हुआ यहां आया हूं, यहां सौभाग्य से आपके दर्शन हुए अब आप कृपा करके बताएं ज्ञान बैराग व भक्ति का दुख कैसे दूर होगा ?
कुमार बोले हे नारद आप चिंता ना करें उपाय तो सरल है उसे आप जानते भी हैं इस कलयुग में ही श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को श्रीमद् भागवत कथा सुनाई थी वही ज्ञान बैराग के लिए उपाय है |
इस पर नारद जी बोले सारे ग्रंथों का मूल तो वेद है , फिर श्रीमद्भागवत से उनके कष्ट की निवृत्ति कैसे होगी ? कुमार बोले--
मूल धूल में रहत है , शाखा में फल फूल
फल फूल तो शाखा में ही लगते हैं यह सुन नारद जी बोले---
श्लोक- मा• 2.13
अनेक जन्मों के पुण्य उदय होने पर सत्संग मिलता है तब उसके अज्ञान जनित मोह और मद रूप अहंकार का नाश होकर विवेक उदय होता है |
इति द्वितीयो अध्यायः
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
( अथ तृतीयो अध्यायः )
नारद जी बोले मैं !ज्ञान बैराग और भक्ति के कष्ट निवारण हेतु ज्ञान यज्ञ करूंगा , हे मुनि आप उसके लिए स्थान बताएं कुमार बोले गंगा के किनारे आनंद नामक तट है वहीं ज्ञान यज्ञ करें इस प्रकार कह कर सनकादि नारद जी के साथ गंगा तट पर आ गए, इस कथा का भूलोक में ही नहीं बल्कि स्वर्ग तथा ब्रह्म लोक तक हल्ला हो गया।
और बड़े-बड़े संत भ्रुगू वशिष्ठ च्यवन गौतम मेधातिथि देवल देवराज परशुराम विश्वामित्र साकल मार्कंडेय पिप्पलाद योगेश्वर व्यास पाराशर छायाशुक आदि उपस्थित हो गए |
व्यास आसन पर श्री सनकादिक ऋषि विराजमान हुए तथा मुख्य श्रोता के आसन पर नारद जी विराजमान हुए, आगे महात्मा लोग ,एक ओर देवता बैठे पूजा के बाद श्रीमद्भागवत का महात्म्य सुनाने लगे |
श्लोक- मा• 3.42
जिसने श्रीमद् भागवत कथा को थोड़ा भी नहीं सुना उसने अपना सारा जीवन चांडाल और गधे के समान खो दिया तथा जन्म लेकर अपनी मां को व्यर्थ मे कष्ट दिया , वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है |
जब भगवान पृथ्वी को छोड़कर गोलोकधाम जा रहे थे दुखी उद्धव के पूछने पर बताया था कि मैं अपने स्वरूप को भागवत में रखकर जा रहा हूं अतः यह भागवत कथा भगवान का वांग्मय स्वरूप है | श्री सूतजी कहते हैं ---
श्लोक- मा• 3.66.67.68
इसी बीच में एक महान आश्चर्य हुआ , हे सोनक उसे तुम सुनो भक्ति महारानी अपने दोनों पुत्रों के सहित-- श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव गाती हुई सभा में आ गई और सनकादिक से बोली मैं इस कलयुग में नष्ट हो गई थी, आपने मुझे पुष्ट कर दिया अब आप बताएं मैं कहां रहूं ? कुमार बोले तुम भक्तों के हृदय में निवास करो |
इति तृतीयो अध्यायः
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( अथ चतुर्थो अध्यायः )गोकर्ण उपाख्यान--- जो मानव सदा पाप में लीन रहते हैं दुराचार करते हैं क्रोध अग्नि में जलते रहते हैं ! इस भागवत के सुनने से पवित्र हो जाते हैं |
श्लोक- मा• 4.11
अब आपको एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण एक नगरी में रहा करता था, उसके धुंधली नाम की पत्नी थी ब्राह्मण विद्वान एवं धनी था उसकी पत्नी झगड़ालू एवं दुष्टा थी।
ब्राह्मण के कोई संतान न थी अतः दुखी रहता था कयी उपाय करने के बाद भी उसके संतान नहीं हुई तो अंत में दुखी होकर आत्महत्या करने के लिए जंगल में गया वहां वह एक महात्मा से मिला ब्राम्हण उसके चरणों में गिर गया और कहने लगा कि---
मुझे संतान दो नहीं तो आपके चरणों में ही आत्महत्या कर लूंगा महात्मा ने उसे समझाया कि तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है किंतु उसने एक नहीं सुनी और आत्महत्या के लिए तैयार हो गया तब दया करके महात्मा ने उसे एक फल दिया और कहा इसे अपनी पत्नी को खिला देना तुम्हें संतान हो जाएगी |
ब्राह्मण फल को लेकर प्रसन्नता पूर्वक अपने घर को आ गया और वह फल अपनी पत्नी को खाने के लिए दे दिया पत्नी ने वह फल बाद में खा लूंगी कह कर ले लिया और सोचने लगी अहो इस फल के भक्षण से तो मेरे गर्भ रह जाएगा उससे तो मेरा पेट भी बढ़ जाएगा |
उससे मैं ठीक से भोजन भी नहीं कर पाऊंगी यदि कहीं गांव में आग लग गई तो सब लोग तो भाग जाएंगे मैं भाग भी नहीं पाऊंगी ऐसे कुतर्क कर उस फल को नहीं खाया , इतने में उसकी छोटी बहन आ गई धुंधली ने अपना सारा दुख छोटी बहन को सुनाया और कहा कि बता मैं क्या करूं ?
छोटी बहन बोली इस फल को गाय को खिला दें वह भी बांझ है परीक्षा हो जाएगी और तुम अपने पति को बता देना कि फल मैंने खा लिया और मैं गर्भवती हो गई हूं ,और मुझे सेवा के लिए एक दासी की जरूरत है और मैं आपकी दासी बनकर आ जाऊंगी और आपकी सेवा करूंगी।
क्योंकि मैं गर्भवती हूं मेरा जो बच्चा होगा उसे आपका बता दूंगी इसके बदले आप मुझे थोड़ा धन दे देना जिससे मेरा भी काम चल जाएगा |
यह सब बातें धुंधली ने अपने पति को बता दी और फल गाय को खिला दिया ,समय पाकर बहन को बालक हुआ उसे धुंधली ने मेरे बच्चा हुआ ऐसा कह दिया , धुंधली ने उसका नाम धुंधकारी रख दिया , कुछ समय बाद गाय के भी अद्भुत बालक हुआ जिसके कान गाय के जैसे तथा सारा शरीर मानव का था |आत्म देव ने उनका नाम गोकर्ण रखा----
श्लोक- मा• 4.66
बड़े होकर गोकर्ण महान ज्ञानी हुए तथा धुंधकारी महा दुष्ट हुआ हिंसा, चोरी, व्यभिचाऱ मदिरापान करने वाला जिसे देखकर आत्म देव बड़े दुखी हुए कहने लगे कुपुत्रो दुखदायक इससे तो बिना पुत्र ही ठीक था | पिता को दुखी देखकर गोकर्ण बोले----
श्लोक- मा• 4.79
गौकर्ण जी ने पिता को समझाया इस मांस मज्जा के शरीर के मोह को त्याग पुत्र घर से आसक्ति को छोड़ वन में जाकर भगवान का भजन करें | इतना सुनकर आत्मदेव वन में जाकर भजन करने लगे, गौकर्ण जी तीर्थाटन को चले गए |
इति चतुर्थो अध्यायः
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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( अथ पंचमो अध्यायः )
पिता के वन चले जाने पर धुंधकारी अपनी मां को पीटने लगा और कहने लगा कि बता धन कहां रखा है और माता भी उसके दुख से दुखी होकर कुएं में गिरकर समाप्त हो गई अब तो धुंधकारी अकेला ही पांच वेश्याओं के साथ अपने घर में रहने लगा और चोरी करके उन्हें बहुत सा धन चोरी कर के लाकर देने लगा |
एक दिन वैश्याओं ने मन में विचार किया कि यह चोरी करके धन लाता है यह तो मरेगा ही साथ में ही हम भी मारी जाएंगी अतः इसे अब समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि अब हमारे पास धन तो पर्याप्त हो ही गया है।
रात्रि में उसे खूब शराब पिलाई जब वह बेसुध हो गया तब उसके गले में फंदा लगाकर उसे मारने के लिए खींचने लगी तब भी नहीं मरने पर उसके मुंह में जलते हुए अंगारे ठूस दिए और वह समाप्त हो गया |
पिता के वन चले जाने पर धुंधकारी अपनी मां को पीटने लगा और कहने लगा कि बता धन कहां रखा है और माता भी उसके दुख से दुखी होकर कुएं में गिरकर समाप्त हो गई अब तो धुंधकारी अकेला ही पांच वेश्याओं के साथ अपने घर में रहने लगा और चोरी करके उन्हें बहुत सा धन चोरी कर के लाकर देने लगा |
एक दिन वैश्याओं ने मन में विचार किया कि यह चोरी करके धन लाता है यह तो मरेगा ही साथ में ही हम भी मारी जाएंगी अतः इसे अब समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि अब हमारे पास धन तो पर्याप्त हो ही गया है।
रात्रि में उसे खूब शराब पिलाई जब वह बेसुध हो गया तब उसके गले में फंदा लगाकर उसे मारने के लिए खींचने लगी तब भी नहीं मरने पर उसके मुंह में जलते हुए अंगारे ठूस दिए और वह समाप्त हो गया |
उसे वही गड्ढा खोदकर गाड़ दिया और वेश्याएं धन लेकर चंपत हो गई और धुंधकारी एक महान प्रेत बन गया कभी कोई ग्रामवासी के तीर्थ जाने पर उसे गोकर्ण जी मिले तो उन्हें धुंधकारी के मारे जाने की खबर ग्रामवासी ने सुनाई तो गोकर्ण जी ने उसका गया में जाकर श्राद्ध किया और अपने ग्राम में आ गये |
अभी वे रात्रि को अपने घर में सो रहे थे कि धुंधकारी उन्हें कभी भैंसा कभी बकरा बन कर डराने लगा गोकर्ण जी ने देखा यह निश्चय कोई प्रेत है तो उन्होंने गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर उस पर जल छिड़का उस प्रेत में बोलने की शक्ति आ गई और कहने लगा--
हे भाई मैं तुम्हारा भाई धुधंकारी हूं , मेरे पापों से मेरी यह दुर्गति हुई है | गौकर्ण जी बोले मैंने तुम्हारे लिए गया में श्राद्ध करा दिया था फिर भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुयी धुंधकारी बोला----
श्लोक- मा• 5.33
हे भाई सौ गया श्राद्ध से भी मेरी मुक्ति संभव नहीं है कोई अन्य उपाय करें | गोकर्ण जी ने धुंधकारी को कहा मैं तुम्हारे लिए अन्य उपाय सोचता हूं और प्रातः काल भगवान सूर्य से प्रार्थना की और मुक्ति का उपाय पूछा ? भगवान सूर्य बोले---
श्लोक- मा• 5.41
सूर्य ने कहा कि इन्हें श्रीमद् भागवत की कथा सुनावें, गोकर्ण जी ने कथा का आयोजन किया अनेक श्रोता आने लगे भागवत प्रारंभ हुई धुंधकारी भी एक बांस में बैठ गया, प्रथम दिन की कथा के बाद बांस की एक गांठ फट गई दूसरे दिन दूसरी इस प्रकार सात दिन में बांस की सातों गांठ फट गई और उसमें से एक दिव्य पुरुष निकला और हाथ जोड़कर गौकर्ण जी से कहने लगा |
श्लोक- मा• 5.53
हे भाई आपने मेरी प्रेत योनी छुड़ा दी इस प्रेत पीडा छुडाने वाली भागवत कथा को धन्य है और इतना कहते ही एक विमान आया और उसमें सबके देखते-देखते धुंधकारी बैठ गया | गोकर्ण जी ने पार्षदों से पूछा कि कथा तो सबने सुनी है विमान केवल धुंधकारी के लिए ही क्यों आया ?
पार्षदों ने बताया कि सुनने के भेद से ऐसा हुआ धुंधकारी ने कथा मन लगाकर सुना इसीलिए उसके लिए विमान आया |
दूसरी बार गोकर्ण जी ने पुनः कथा की और सबने मन लगाकर सुनी तो सभी के लिए अनेक विमान आकाश में छा गए और जिस प्रकार भगवान राम सभी अयोध्या वासियों को लेकर बैकुंठ गए उसी प्रकार सभी श्रोता विमान में बैठकर जय-जय करते हुए वैकुंठ को चले गए |
इति पंचमो अध्यायः
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( अथ षष्ठो अध्यायः )
कुमार बोले अब भागवत श्रवण की विधि बताई जा रही है पहले किसी ज्योतिषी से शुभ मुहूर्त पूंछना चाहिए , एक विवाह में जितना खर्च हो उतने धन की व्यवस्था करनी चाहिए, भाद्रपद अश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष आषाढ़ श्रावण यह महीनों में भागवत का वाचन मोक्ष को देने वाला कहा गया है |
कथा की सूचना दूर-दूर तक देना चाहिए , अपने सगे संबंधियों मित्रों को भी आमंत्रित करना चाहिए |
भागवत जी के लिए ऊंचा सुंदर मंच बनाना चाहिए |
( अथ षष्ठो अध्यायः )
कुमार बोले अब भागवत श्रवण की विधि बताई जा रही है पहले किसी ज्योतिषी से शुभ मुहूर्त पूंछना चाहिए , एक विवाह में जितना खर्च हो उतने धन की व्यवस्था करनी चाहिए, भाद्रपद अश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष आषाढ़ श्रावण यह महीनों में भागवत का वाचन मोक्ष को देने वाला कहा गया है |
कथा की सूचना दूर-दूर तक देना चाहिए , अपने सगे संबंधियों मित्रों को भी आमंत्रित करना चाहिए |
भागवत जी के लिए ऊंचा सुंदर मंच बनाना चाहिए |
चार अन्य ब्राह्मणों को मूल पाठ , द्वादश अक्षर मंत्र जप आदि के लिए बैठाना चाहिए कथा में सीमित अहार करना चाहिए , धरती पर ही सोना चाहिए, सनकादि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभा में -- प्रहलाद ,बलि, उद्धव ,अर्जुन सहित भगवान प्रकट हो गए |
नारद जी ने उनकी पूजा की तथा भगवान को एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान किए और सब लोग कीर्तन करने लगे, कीर्तन देखने के लिए शिव पार्वती और ब्रम्हा जी भी आये |
प्रहलाद जी करताल बजाने लगे, उद्धव जी मंजीरे बजाने लगे ,नारद जी वीणा बजाने लगे, अर्जुन गाने लगे , इंद्र मृदंग बजाने लगे सनकादि बीच-बीच में जय-जय घोष करने लगे लगे , सुखदेव भाव दिखाने लगे ,भक्ति ज्ञान वैराग्य नृत्य करने लगे इस कीर्तन से भगवान बड़े प्रसन्न हुए और सब को कहा वरदान मांगो सब ने कहा जहां कहीं भगवान जी कथा हो आप वहां विद्यमान रहें , एव मस्तु कहकर भगवान अंतर्धान हो गए |
इति षष्ठो अध्यायः
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इति माहात्म्य संपूर्ण
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
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प्रथम स्कन्ध
( अथ प्रथमो अध्यायः )
मंगलाचरण
श्लोक- 1,1,1-2-3
सृष्टि की रचना उसका पालन तथा संघार करने वाला परमात्मा जो कण-कण में विद्यमान है जो सबका स्वामी है जिसकी माया से बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित हो जाते हैं | जैसे तेज के कारण मिट्टी में जल का आभास होता है उसी तरह परमात्मा के तेज से यह मृषा संसार सत्य प्रतीत हो रहा है |
उस स्वयं प्रकाश परमात्मा का हम ध्यान करते हैं | सभी प्रकार की कामनाओं से रहित जिस परमार्थ धर्म का वर्णन इस भागवत महापुराण में हुआ है , जो सत पुरुषों के जानने योग्य है फिर अन्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन-
जो भी इसका श्रवण की इच्छा करते हैं भगवान उसके ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं |
यह भागवत वेद रूपी वृक्षों का पका हुआ फल है तथा सुखदेव रूपी तोते की चोंच लग जाने से और भी मीठा हो गया है ,इस फल में छिलका गुठली कुछ भी नहीं है इस रस का पान आजीवन बार-बार करते रहें |
एक समय की बात है कि नैमिषारण्य नामक वन में सोनकादि अठ्ठासी हजार ऋषियों ने भगवत प्राप्ति के लिए एक महान अनुष्ठान किया और उसमें श्री सूत जी महाराज से प्रश्न किया कि हे ऋषिवर आप सभी पुराणों के ज्ञाता हैं, उन शास्त्रों में कलयुग के जीवों के कल्याण के लिए सार रूप थोड़ी में क्या निश्चय किया है |
उसे सुनाइए भगवान श्री कृष्ण बलराम ने देवकी के गर्भ से अवतरित होकर क्या लिलायें कि उनका वर्णन कीजिए |
इति प्रथमो अध्यायः
( अथ दुतीयो अध्यायः )
सौनकादिक ऋषियों का यह प्रश्न सुनकर सूत जी श्री सुखदेव जी व्यास जी नरनारायण ऋषि एवं सरस्वती देवी को प्रणाम कर कहने लगे- हे ऋषियों आपने संसार के कल्याण के लिए यह बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है क्योंकि यह प्रश्न भगवान श्री कृष्ण के संबंध में है |
इति प्रथमो अध्यायः
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
bhagwat katha book in hindi( अथ दुतीयो अध्यायः )
सौनकादिक ऋषियों का यह प्रश्न सुनकर सूत जी श्री सुखदेव जी व्यास जी नरनारायण ऋषि एवं सरस्वती देवी को प्रणाम कर कहने लगे- हे ऋषियों आपने संसार के कल्याण के लिए यह बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है क्योंकि यह प्रश्न भगवान श्री कृष्ण के संबंध में है |
आपकी मती भगवत भक्ति में लगी है | पवित्र तीर्थों का सेवन भगवान की कथाएं में रुचि भगवान का कीर्तन यह सभी आत्मा को शुद्ध करते हैं | उनके ह्रदय में स्वयं भगवान आकर विराजमान हो जाते हैं |
श्लोक- 1,2,23
प्रकृति के तीन गुण हैं सत रज तम इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति उत्पत्ति और प्रलय के लिए परमात्मा ही विष्णु ब्रह्मा रुद्र यह तीन रूप धारण करते हैं | फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्व गुण धारी श्रीहरि ही करते हैं |
इति द्वितीयो अध्याय:
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( अथ तीसरा अध्याय )
भगवान के अवतारों का वर्णन----
श्लोक- 1,3,4-5
योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के जिस रूप का दर्शन करते हैं , भगवान का वह रूप हजारों पैर जंघे, भुजाएं और मूखों के कारण अत्यंत विलक्षण है | उसमें हजारों सिर कान आंखें और नासिकाएं हैं, मुकुट वस्त्र कुंडल आदि आभूषणों से सुसज्जित रहता है |
भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है इसी से सारे अवतार प्रगट होते हैं | इस रूप के छोटे से छोटे अंश से देवता मनुष्य पशु पक्षी आदि योनियों की सृष्टि होती है |
उसी प्रभु ने क्रमशः सनकादिक , वाराह , नर नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, यज्ञ ,ऋषि पृथु , मत्स्य , कच्छप , धनवंतरी , मोहिनी, नरसिंह, बामन ,परशुराम, व्यास, राम, बलराम ,कृष्ण, बुद्ध इस प्रकार और भी अनेक अवतार भगवान धारण किए है |
इति: तृतीयो अध्याय:
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इति: तृतीयो अध्याय:
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( अथ चतुर्थो अध्यायः )महर्षि व्यास का असंतोष--- सरस्वती नदी के किनारे विराजमान महर्षि व्यास के मन में आज बड़ा ही असंतोष है , अहो मैंने सहस्त्र पुराणों की रचना की एक ही वेद के चार भाग किए , महाभारत जैसे बडे ग्रंथ की रचना करके तो मैंने पांचवा वेद ही लिख दिया |
यद्यपि मैं ब्रह्म तेज से संपन्न एवं समर्थ हूँ तथा फिर भी मेरे ह्रदय अपूर्ण काम सा जान पड़ता है | निश्चय ही मैंने भगवान को प्राप्त करने वाले धर्मों का निरूपण नहीं किया वे ही धर्म परमहंसो को तथा भगवान को प्रिय हैं | व्यास जी इस प्रकार खिन्न हो रहे थे तभी वहां नारद जी आए | व्यास जी खड़े हो गए और नारद जी की पूजा की |
इति चतुर्थो अध्यायः
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( अथ पंचमो अध्याय: )
भगवान के यश कीर्तन की महिमा |
देवऋषि नारद जी का पूर्व चरित्र ||
नारदजी ने व्यास जी से पूछा अनेक पुराणों के रचयिता भगवान के अंशावतार व्यास जी इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी ऐसा लगता है कि आपके मन को समाधान नहीं है | व्यास जी बोले आप सत्य कह रहे हैं अनेकों रचना के बाद भी मेरे मन संतुष्ट नहीं है |
इति चतुर्थो अध्यायः
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( अथ पंचमो अध्याय: )
भगवान के यश कीर्तन की महिमा |
देवऋषि नारद जी का पूर्व चरित्र ||
नारदजी ने व्यास जी से पूछा अनेक पुराणों के रचयिता भगवान के अंशावतार व्यास जी इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी ऐसा लगता है कि आपके मन को समाधान नहीं है | व्यास जी बोले आप सत्य कह रहे हैं अनेकों रचना के बाद भी मेरे मन संतुष्ट नहीं है |
कृपया आप बता दें मेरे प्रयास में कहां क्या कमी है | नारद जी बोले व्यास जी आपने भगवान नारायण के निर्मल यस का वर्णन जितना होना चाहिए नहीं किया पुराणों में भी आपने देवताओं के ही गुण गाए हैं---
श्लोक- 1,5,13
इसलिए हे महाभाग व्यास जी आपकी दृष्टि अमोघ है, आपकी कीर्ति पवित्र है , आप सत्य पारायण एवं द्रढवृत हैं | इसलिए आप संपूर्ण जीवो को बंधन से मुक्त करने के लिए समाधि के अचिंत्य शक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिए और उनका वर्णन कीजिए |
पिछले कल्प मै एक वेद वादी ब्राह्मणों की दासी का पुत्र था |
वे योगी वर्षा ऋतु में चातुर्मास कर रहे थे मैं बचपन से ही उनकी सेवा में था उनका उच्चिष्ट भोजन एक बार खा लेता था और उनसे भगवान श्री कृष्ण की कथाएं सुनता रहता था जिससे मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया भगवान में मेरी रुचि हो गई | चातुर्मास की समाप्ति पर जाते समय वे संत मुझे नारायण मंत्र प्रदान कर गए मेरा जीवन बदल गया |
इति पंचमो अध्याय:
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
bhagwat katha book in hindi( अथ षष्ठो अध्याय: )
नारद जी का शेष चरित्र-- उनके चले जाने के बाद मैं भगवान का भजन करता रहा इसी अवधि में मेरी माता का स्वर्गवास हो गया | मैं अकेला रह गया मैंने उसे भगवान की कृपा समझा और उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया और हिमालय में जाकर भगवान का भजन करने लगा |
भगवान ने मुझे दर्शन दिया और कहा अगले जन्म में तुम ब्रह्मा की गोद से जन्म लेकर मुझे पूर्ण रूप से प्राप्त करोगे , वही नारद आपके सामने हैं अब आप अपने कार्य में जुट जाएं |
इति षष्ठो अध्यायः
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( अथ सप्तमो अध्याय: )
अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों का मारा जाना अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा का मान मर्दन-- नारद जी के चले जाने के बाद व्यास जी ने सरस्वती नदी के किनारे पर बैठकर आचमन कर अपने मन को समाहित किया और भगवान का ध्यान कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की | सूत जी बोले हे सोनक सर्वप्रथम मैं भागवत के श्रोता श्री परीक्षित जी के जन्म की कथा कहता हूं |
इति षष्ठो अध्यायः
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( अथ सप्तमो अध्याय: )
अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों का मारा जाना अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा का मान मर्दन-- नारद जी के चले जाने के बाद व्यास जी ने सरस्वती नदी के किनारे पर बैठकर आचमन कर अपने मन को समाहित किया और भगवान का ध्यान कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की | सूत जी बोले हे सोनक सर्वप्रथम मैं भागवत के श्रोता श्री परीक्षित जी के जन्म की कथा कहता हूं |
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
श्लोक- 1,7,13जिस समय धृतराष्ट्र के निन्यानवे पुत्रों के मारे जाने के बाद और दुर्योधन की जंघा टूट जाने के बाद अश्वत्थामा अपने मित्र दुर्योधन का प्रिय करने के लिए रात्रि में चोरी से पांडवों के शिविर में घुसकर पांडव समझ कर सोते हुए द्रोपती के पांच पुत्रों के सिर काट ले लाया |
जब द्रोपती को पता चला वह बिलख उठी अर्जुन ने उसे सांत्वना दिलाई की अधम ब्राह्मण का सिर अभी लाता हूं कहकर भगवान् को सारथी बना अश्वत्थामा का पीछा किया अर्जुन को पीछे आते हुए देख अपने प्राणों को संकट में समझ अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा |
उधर ब्रह्मास्त्र को आते देख अपनी रक्षा के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चला दिया
दोनों ब्रह्मास्त्र आपस में टकराए जिनकी ज्वाला से त्रिलोकी भस्म होने लगी तो अर्जुन ने दोनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा लिया और अश्वत्थामा को पकड़ लिया |
अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए भगवान बोले अर्जुन इसे छोड़ना नहीं मार डालो किंतु अर्जुन उसे मारना नहीं चाहता थे द्रोपती को ले जाकर सौंप दिया | द्रोपदी बोली इसके मारे जाने से मेरे पुत्र तो जीवित होंगे नहीं इसे छोड़ दो भीमसेन कहते हैं यह आतताई है इसको मारना उचित है |भगवान बोले-----
श्लोक- 1,7,53
पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहये और आततायी को मार ही डालना चाहिए | इसलिए मेरी दोनों आज्ञा का पालन करो ? अर्जुन समझ गए उन्होंने अश्वत्थामा के सिर की मणि तलवार से बालों सहित निकाल ली वह ब्रम्ह तेज से हीन हो गया और उसे वहां से निकाल दिया और अपने पुत्रों की अंत्येष्टि की |
इति सप्तमो अध्याय:
अपमानित हुए अश्वत्थामा चले जाने के बाद भी शांत नहीं हुआ उन्होंने उत्तरा के गर्भ को लक्षित कर जिसमें कि पांडवों के पुत्र अभिमन्यु का अंश पल रहा था ब्रह्मास्त्र का संधान किया | भगवान द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे थे उत्तरा ब्रह्मास्त्र के भय से व्याकुल होकर दौड़ती हुई आई और कहने लगी |
पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहये और आततायी को मार ही डालना चाहिए | इसलिए मेरी दोनों आज्ञा का पालन करो ? अर्जुन समझ गए उन्होंने अश्वत्थामा के सिर की मणि तलवार से बालों सहित निकाल ली वह ब्रम्ह तेज से हीन हो गया और उसे वहां से निकाल दिया और अपने पुत्रों की अंत्येष्टि की |
इति सप्तमो अध्याय:
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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( अथ अष्टमो अध्याय: )
अपमानित हुए अश्वत्थामा चले जाने के बाद भी शांत नहीं हुआ उन्होंने उत्तरा के गर्भ को लक्षित कर जिसमें कि पांडवों के पुत्र अभिमन्यु का अंश पल रहा था ब्रह्मास्त्र का संधान किया | भगवान द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे थे उत्तरा ब्रह्मास्त्र के भय से व्याकुल होकर दौड़ती हुई आई और कहने लगी |
श्लोक- 1,8,9
हे देवाधि देव जगतपति भगवान मेरी रक्षा करें रक्षा करें | यह ब्रह्मास्त्र मेरे गर्भ को नष्ट ना करे इसी समय पांच बाण पांचों पांडवों की ओर भी आ रहे थे भगवान ने सब को अपने सुदर्शन चक्र से शांत कर दिया | इस समय कुंती भगवान की स्तुति करने लगी |
हे देवाधि देव जगतपति भगवान मेरी रक्षा करें रक्षा करें | यह ब्रह्मास्त्र मेरे गर्भ को नष्ट ना करे इसी समय पांच बाण पांचों पांडवों की ओर भी आ रहे थे भगवान ने सब को अपने सुदर्शन चक्र से शांत कर दिया | इस समय कुंती भगवान की स्तुति करने लगी |
श्लोक- 1,7,18
कुंती की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवान जब द्वारिका के लिए चलने लगे तो युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और कहने लगे प्रभु महाभारत में मैंने अपने ही स्वजनों को मारकर प्राप्त किया हुआ राज्य मुझे अच्छा नहीं लगता इस खून से सने हुए राज्य को भोगने की मेरी इच्छा नहीं है | यद्यपि भगवान ने उन्हें समझाया किंतु युधिष्ठिर को उस से समाधान नहीं हुआ ड
इति अष्टमो अध्याय:
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श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ नवमो अध्याय: )
भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि बहुत समझाने के बाद भी युधिष्ठिर का शोक दूर नहीं हो रहा है बे उन्हें लेकर पितामह भीष्म के पास गए, अन्य ऋषि गण भी वहां आए पितामह ने ऋषियों को तथा भगवान को प्रणाम किया | पांडवों को भगवान की महिमा बताई कि जिन्हें वे ममेरा भाई समझ रहे हैं, वह साक्षात परमात्मा है | महाभारत के नाम पर जो कुछ हुआ वे सब उनकी लीला मात्र थी पितामह ने भगवान की स्तुति की---
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
श्लोक-1.9.33जिनका शरीर त्रिभुवन सुंदर है श्याम तमाल के समान सांवला है , जिन पर सूर्य के समान पीतांबर लहरा रहा है , मुख पर घुंघराले अलकें लटकी हैं, उन अर्जुन सखा श्री कृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो इस प्रकार स्तुति करते हुए उनके प्राण परमात्मा मैं विलीन हो गये, वे शांत हो गए | आकाश में बाजे बजने लगे फूलों की वर्षा होने लगी पांडव हस्तिनापुर लौट आए तथा युधिष्ठिर धर्म पूर्वक राज्य करने लगे |
इति नवमो अध्यायः
अथ दसमो अध्यायः
द्वारिका गमन-- पितामह भीष्म से ज्ञान प्राप्त कर युधिष्ठिर समस्त पृथ्वी का धर्म पूर्वक एक छत्र राज्य करने लगे महाभारत का उद्देश्य पूर्ण कर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से द्वारिका चलने की आज्ञा ली, सबने अश्रु पूरित नेत्रों से भगवान को विदा किया |
अर्जुन सारथी बन रथ में बैठा भगवान को पहुंचाने चले, रास्ते में स्थान स्थान पर उनका स्वागत हुआ जहां रात्रि हो जाती वही स्नान संध्या कर विश्राम करते |
इति दशमो अध्यायः
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अथ एकादशो अध्यायः
द्वारका में श्री कृष्ण का राजोचित स्वागत--
द्वारका में प्रवेश करते समय भगवान ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, शंख की ध्वनि सुनते ही द्वारका बासी भगवान के दर्शनों के लिए दौड़ पढ़े और बाहर भगवान की अगवानी करने आए और अनेक भेंट रखकर भगवान का भव्य स्वागत किया | सर्वप्रथम भगवान अपने माता-पिता से मिले फिर अपने परिवार जनों से मिले |
इति एकादशो अध्यायः
अथ द्वादशो अध्यायः
परीक्षित का जन्म-- अश्वत्थामा के अस्त्र से अपनी मां के गर्भ में ही जब परीक्षित जलने लगे तब गर्भ में ही रक्षा करते हुए भगवान के दर्शन उन्हें हो गए थे ! एक अगुंष्ट मात्र ज्योति उनके चारों ओर घूम रही शुभ समय पाकर वे गर्भ से बाहर आए |
इति दशमो अध्यायः
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अथ एकादशो अध्यायः
द्वारका में श्री कृष्ण का राजोचित स्वागत--
द्वारका में प्रवेश करते समय भगवान ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, शंख की ध्वनि सुनते ही द्वारका बासी भगवान के दर्शनों के लिए दौड़ पढ़े और बाहर भगवान की अगवानी करने आए और अनेक भेंट रखकर भगवान का भव्य स्वागत किया | सर्वप्रथम भगवान अपने माता-पिता से मिले फिर अपने परिवार जनों से मिले |
इति एकादशो अध्यायः
अथ द्वादशो अध्यायः
परीक्षित का जन्म-- अश्वत्थामा के अस्त्र से अपनी मां के गर्भ में ही जब परीक्षित जलने लगे तब गर्भ में ही रक्षा करते हुए भगवान के दर्शन उन्हें हो गए थे ! एक अगुंष्ट मात्र ज्योति उनके चारों ओर घूम रही शुभ समय पाकर वे गर्भ से बाहर आए |
युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने ब्राह्मणों को बुलवाकर स्वस्तिवाचन करवाया और बालक के भविष्य को पूछा ब्राह्मणों ने बताया बड़ा तेजस्वी होगा इसका नाम विष्णुरात होगा इसे परीक्षित के नाम से भी जानेंगे |
श्लोक-1.12.30
ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर विदा किया |
इति द्वादशो अध्यायः
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श्लोक-1.12.30
ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर विदा किया |
इति द्वादशो अध्यायः
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अथ त्रयोदषो अध्यायः
विदुर जी के उपदेश से धृतराष्ट्र गांधारी का वन गमन-- विदुर जी तीर्थ यात्रा कर हस्तिनापुर लौट आए उन्हे देख युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए पांचों भाई पांडव कुंती द्रोपती धृतराष्ट्र गांधारी भी उन्हें देखकर बड़ा प्रसन्न हुए | विदुर जी ने अपनी तीर्थ यात्रा के समाचार सुनाएं, वे धृतराष्ट्र से बोले--
श्लोक-1.13,21-22
आपके पिता भ्राता पुत्र सगे संबंधी सभी मारे जा चुके हैं आप की अवस्था भी ढल चुकी पराए घर में पड़े हुए हैं , यह जीने की आशा कितनी प्रबल है जिसके कारण भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते के समान जीवन जी रहे हैं ,निकलो यहां से |
वन में जा कर भगवान का भजन करो | यह सुनते हि धृतराष्ट्र गांधारी विदुर के साथ रात्रि में वन में चले गए , आज जब युधिष्ठिर को पता चला तो वह बड़े दुखी हुए वन में धृतराष्ट्र ने अपने प्राण त्याग दिए गांधारी सती हो गई |
इति त्रयोदशो अध्यायः
अथ चतुर्दशो अध्यायः
अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना अर्जुन का द्वारका से लौटना--- एक समय अर्जुन भगवान से मिलने द्वारका गए थे, बहुत समय बाद भी जब वे नहीं लौटे तो युधिष्ठिर को अपशकुन होने लगे दिन में उल्लू बोल रहे हैं , उल्कापात हो रहे हैं, गाय दूध नहीं देती, इन्हें देख वे बड़े चिन्तित हुए लगता हैं, बहुत खराब समय आ गया है लगता है हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आने वाली है |
इति त्रयोदशो अध्यायः
अथ चतुर्दशो अध्यायः
अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना अर्जुन का द्वारका से लौटना--- एक समय अर्जुन भगवान से मिलने द्वारका गए थे, बहुत समय बाद भी जब वे नहीं लौटे तो युधिष्ठिर को अपशकुन होने लगे दिन में उल्लू बोल रहे हैं , उल्कापात हो रहे हैं, गाय दूध नहीं देती, इन्हें देख वे बड़े चिन्तित हुए लगता हैं, बहुत खराब समय आ गया है लगता है हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आने वाली है |
इस प्रकार युधिष्ठिर चिंतित हो रहे थे इतने में कांति हीन होकर नेत्रों से अश्रु पात्र गिराते हुए अर्जुन उनके चरणों में अ पड़े हैं, उसकी यह दशा देख युधिष्ठिर ने पूछा द्वारका में सब कुशल है से हैं ना, और तुम कुशल हो , तुम कोई पाप करके तो नहीं आये हो श्री हीन कैसे हो गए हो |
इति चतुर्दशो अध्यायः
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
bhagwat katha book in hindiअथ पंचदशो अध्यायः
कृष्ण विरह व्यथित पाण्डवों का परिक्षित को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना-- इस प्रकार युधिष्ठिर के पूछने पर अर्जुन बोले-- हे भाई भगवान श्री कृष्ण हमें छोड़ कर चले गए इसलिए मैं तेज हीन हो गया, अब हमारा कोई नहीं रहा |
भगवान के गोलोक धाम जाने की बात सुनकर पांडवों ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया उन्होंने परिक्षित को राज्य सिहांसन पर बिठालकर रिमालय की ओर प्रस्थान किया- केदारनाथ, बद्रीनाथ होते हुए सतोपथ पहुंचे वहीं से क्रमशः द्रौपदी, सहदेव, नकुल ,अर्जुन, भीम गिरते गए पर किसी ने भी मुडकर नहीं देखा |
युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग को चले गये, विदुर ने भी प्रभास क्षेत्र में अपना शरीर छोड़ दिया, पांडवों की यह महाप्रयाण कथा बडी पुण्य दायी है |
इति पंचदशो अध्यायः
(अथ षोडषो अध्याय: )
परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद--- पांडवों के महाप्रयाण के पश्चात परीक्षित धर्म पूर्वक राज्य करने लगे उन्होंने कई अश्वमेघयज्ञ किए | जब दिग्विजय कर रहेथे तब उनके शिविर के पास एक अद्भुत घटना घटी वहां धर्म एक बैल के रूप में एक पैर से घूम रहा था वहां उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली जो दुखी होकर रो रही थी |
धर्म ने पृथ्वी से पूछा कल्याणी तुम क्यों रो रही हो तुम्हारा स्वामी कहीं दूर चला गया है अथवा तुम मेरे लिए दुखी हो रही हो कि मेरा पुत्र एक पैर से है | पृथ्वी बोली धर्म तुम जानते हो कि जब से भगवान गोलोक धाम गए हैं तुम्हारे एक ही चरण रह गया संसार कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया है बस इसी का मुझे दुख है |
इति षोडशो अध्यायः
( अथ सप्तदशो अध्यायः )
महराजा परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन- दिग्विजय करते हुए परीक्षित जब पूर्व वाहिनी सरस्वती के तट पर पहुंचे तो देखा कि एक राजवेश धारी शूद्र गाय बैल के एक जोड़े को मार रहा है !
इति षोडशो अध्यायः
( अथ सप्तदशो अध्यायः )
महराजा परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन- दिग्विजय करते हुए परीक्षित जब पूर्व वाहिनी सरस्वती के तट पर पहुंचे तो देखा कि एक राजवेश धारी शूद्र गाय बैल के एक जोड़े को मार रहा है !
उसे परीक्षित ने ललकारा और कहा ठहर दुष्ट तुझे मैं अभी देखता हूं , हाथ में तलवार ली राजा को आते देख कलियुग बोला - हे राजन् मैं जहां जहां जाता हूं आप सामने दिखते हैं कृपया मुझे रहने को स्थान बताइए |
राजा ने कहा-----
श्लोक-1.17.38-39
मदिरा पान, जुआ, स्त्री संग,हिंसा इन चार स्थानों के बाद और मागने पर स्वर्ण में भी स्थान दे दिया |
इति सप्तदशो अध्याय:
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ अष्टादशो अध्याय: )
राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप--एक दिन राजा परीक्षित वन में शिकार के लिए गए वहां हिरणों के पीछे दौड़ते दौड़ते वे बहुत थक गए उन्हें भूख और प्यास लगी इधर-उधर जलाशय देखने पर भी नहीं मिला वह पास ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गए, वहां एक मुनि ध्यान में बैठे थे उनसे राजा ने जल मांगा जब मुनि ने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने अपने को अपमानित समझ क्रोध से मुनि के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया और अपनी राजधानी को लौट आए |
राजा ने कहा-----
श्लोक-1.17.38-39
मदिरा पान, जुआ, स्त्री संग,हिंसा इन चार स्थानों के बाद और मागने पर स्वर्ण में भी स्थान दे दिया |
इति सप्तदशो अध्याय:
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ अष्टादशो अध्याय: )
राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप--एक दिन राजा परीक्षित वन में शिकार के लिए गए वहां हिरणों के पीछे दौड़ते दौड़ते वे बहुत थक गए उन्हें भूख और प्यास लगी इधर-उधर जलाशय देखने पर भी नहीं मिला वह पास ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गए, वहां एक मुनि ध्यान में बैठे थे उनसे राजा ने जल मांगा जब मुनि ने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने अपने को अपमानित समझ क्रोध से मुनि के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया और अपनी राजधानी को लौट आए |
उन शमीक मुनि का पुत्र श्रृंगी तेजस्वी बालक ने जब देखा कि राजा परीक्षित ने मेरे पिता के गले में सांप डाल दिया है वे क्रोधित होकर बोले----
श्लोक-1,18,37
कौशिकी नदी का जल शाप दे दिया इस मर्यादा उल्लंघन करने वाले कुलांगार को आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा वह पिता के पास आकर जोर जोर से रोने लगा इससे मुनि की समाधि खुल गई पिता को श्राप सहित सारी बात बता दी जिसे सुनकर ऋषि को बड़ा दुख हुआ बे बोले परीक्षित श्राप योग्य नहीं थे, वह बड़े धर्मात्मा राजा हैं |
इति अष्टादशो अध्यायः
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( अथैकोनविंशो अध्यायः )
परीक्षित का अनशन ब्रत और शुकदेव जी का आगमन---- राजधानी में पहुंचने पर राजा परीक्षित को अपने उस निंदनीय कर्म का बड़ा पश्चाताप हुआ और सोचने लगा मुझे इसका बड़ा दंड मिलना चाहिए इतने में उसे ज्ञात हुआ कि ऋषि कुमार ने उन्हें तक्षक द्वारा डसे जाने का श्राप दे दिया है |
सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए कि मेरे पाप का प्रायश्चित हो गया उन्होंने अपने पुत्र जन्मेजय को राज्य का भार देकर स्वयं अनशन व्रत लेकर गंगा तट पर जाकर बैठ गए वहां अन्य ऋषि मुनि लोग भी आने लगे-----
श्लोक-1,19,9-10
यह सब ऋषि भी गंगा तट पर आ गए राजा ने सब को प्रणाम किया और सब का आशीर्वाद प्राप्त किया और पूछा अल्पायु व्यक्ति के लिए क्या करना योग्य है ?
श्लोक-1,19,9-10
यह सब ऋषि भी गंगा तट पर आ गए राजा ने सब को प्रणाम किया और सब का आशीर्वाद प्राप्त किया और पूछा अल्पायु व्यक्ति के लिए क्या करना योग्य है ?
प्रश्न का उत्तर देने के अधिकारी तो अभी आने की तैयारी में है , जब श्रोता परीक्षित के जन्म की कथा भागवत में है | वक्ता श्री सुकदेव जी के जन्म की कथा नहीं है , फिर भी विद्वान जन अन्य संहिताओं के आधार पर सुनाते हैं जो यहां दी जा रही है |
गोलोक धाम में राधा जी का पालतू सुक, जब जब भगवान के साथ माता जी अवतार लेती हैं उनका प्रिय सुक भी अवतार लेकर धरती पर आता है | एक समय कैलाश पर नारद जी पधारे शिवजी तो कहीं भ्रमण पर गए थे अकेली पार्वती मिली नारद बोले माता जी आपका भी क्या जीवन है केवल शिवजी के लिए सारा संसार छोड़कर जंगल में रहती हैं-
वह भी आपको अकेली छोड़कर ना जाने कहां चले जाते हैं,
लगता है आपके प्रति उनका सच्चा प्रेम नहीं है | पार्वती बोली यह बात मैंने उन से पूछी थी उन्होंने बताया कि वे मुझे इतना चाहते हैं कि मेरे एक सौ आठ जन्मों के सिरों की माला बनाकर अपने गले में धारण करते हैं |
नारद बोले यह तो सत्य है किंतु क्या आपने यह रहस्य पूछा कि क्यों आपके तो एक सौ आठ जन्म हो गए और उनका एक भी जन्म नहीं हुआ ?
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बोली यह बात तो कभी मेरे ध्यान में ही नहीं आई अब मैं इस रहस्य को जानकर रहूंगी नारद जी तो चले गए | शिव जी के आने पर यह रहस्य शिव जी से पूछा पहले तो शिव जी ने बताने मैं आना कानी की किंतु जब पार्वती ने हट किया तो उन्होंने अमर कथा सुनाने का निश्चय किया और पार्वती को लेकर अमरनाथ क्षेत्र में आ गए।
उन्होंने तीन ताली बजाकर पशु ,पक्षी को वहां से भगा दिया और पार्वती वहां अमर कथा सुनने लगी शिव जी ने समाधि लगाकर ज्यों ही कथा कहना प्रारंभ किया पार्वती को नींद आ गई पेड़ में तोते का अंडा था जिसमें से बच्चा निकल कर सुनने लगा और बीच-बीच मे हूंकार भी भरने लगा | कथा पूर्ण हुई शिव जी की समाधि खुली देखा पार्वती तो सो रही हैं,
फिर कथा किसने सुनी इतने में तोते का बच्चा पंख फड़फड़ कर उड़ गया |
श्री सुकदेव जी कथा सुनकर सीधे वृंदावन भगवान के दर्शन के लिए गए जहां एक कदम के नीचे भगवान बैठे थे ,पेड़ पर तोता कृष्ण कृष्ण करने लगा भगवान बोले मुझे प्राप्त करने के लिए पहले राधा जी की कृपा प्राप्त करनी होगी , वहां से उड़कर राधा जी की शरण मैं गया माता अपने बिछड़े हुए पुत्र को पहचान गई अपने हस्त कमल पर बैठाया और कृपा कर कृष्ण मंत्र दिया सुकदेव सनाथ हो गए वे वहां से उड़कर व्यास आश्रम में जहां व्यास पत्नी चतुर्थ दिन का स्नान कर बैठी थी |
उन्हें जम्हाई आई और सुकदेव मुख मार्ग से उनके गर्भ मैं प्रवेश कर गए और बारह वर्ष तक गर्भ से बाहर नहीं आए |
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जब भगवान की आज्ञा हुई सुकदेव गर्भ से बाहर आए और जन्म लेते ही वन की ओर चल दिए, व्यास जी हे पुत्र पुत्र कहते हुए पीछे पीछे दौड़े किंतु सुकदेव नहीं रुके निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने लगे | उनको लाने के लिए व्यास जी ने अपने कुछ शिष्यों को आज्ञा दी वे शिष्य सुकदेव जी के समीप गए और सगुण भक्ति का गान करने लगे और भगवान के गुणों का वर्णन करने लगे |
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श्लोक- (सौन्दर्य)-वर्हा पीडं• (माधुर्य)-नौमिड्यते• (शौर्य)-कदा वृन्दा• (दयालुता)-अहो वकीयं• !
भगवान के इन गुणों को सुनकर श्री सुकदेव उठकर उनके पास आ गए और बोले और सुनायें, शिष्यों ने कहा और सुनना है तो हमारे साथ चलें ऐसे अठारह हजार श्लोक की भागवत आपकी प्रतीक्षा कर रही है |
इस प्रकार श्री सुकदेव जी को लेकर शिष्य आश्रम आ गये, पिताजी को प्रणाम कर भागवत का अध्ययन किया अध्ययन के पश्चात परीक्षा के लिए उन्हें जनक जी के पास भेजा गया वे जनक जी के यहां गए द्वारपाल ने जनक जी को खबर दी की सुकदेव जी पधारे हैं |
जनक बोले खड़े रहें जब समय होगा बुला लेंगे सात दिन तक वे द्वार पर खड़े रहे जरा भी विचलित नहीं हुए , अंत में जनक आकर उनके चरणों में गिर गए आप परमहंस आपकी कोई क्या परीक्षा ले सकता है | इस प्रकार परीक्षा में सफल होकर पिता के पास आ गए |
गंगा तट पर जहां मुनियों के साथ परीक्षित बैठे हैं वहां के लिए प्रस्थान किया वहां पहुंचने पर सब खड़े हो गए श्री सुकदेव जी को ऊंचे आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की सब लोग गाने लगे | सबने सुकदेव जी की इस प्रकार स्तुति की हाथ जोड़कर परीक्षित बोले---
श्लोक-1,19,37
मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और के संबंध में प्रश्न कर रहा हूं , जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है उसे क्या करना चाहिए ? साथ ही यह भी बतावे मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिए ? किसका श्रवण ,जप, स्मरण और किस का भजन करें ?किस का त्याग करें ?
इति एकोनविंशो अध्यायः
✳ इति प्रथम स्कन्ध सम्पूर्णम् ✳
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ द्वितीयो स्कन्ध प्रारम्भ )
अथ प्रथम अध्याय:
भागवत,श्लोक-2.1.1
हे राजा परीक्षित लोकहित में किया हुआ प्रश्न बहुत उत्तम है , मनुष्य के लिए जितनी भी बातें सुनने स्मरण करने कीर्तन करने की है उन सब में यहीश्रेष्ठ है | आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं |
भागवत,श्लोक-2.1.2
राजन जो गृहस्थ घर के काम धंधे में उलझे रहते हैं अपने स्वरूप को नहीं जानते उनके लिए हजारों बातें कहने सुनने सोचने करने की रहती है |
भागवत,श्लोक-2.1.3
उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है उनकी रात नींद या स्त्री प्रसंग में कटती है तथा दिन धन की हाय हाय या कुटुंब के भरण-पोषण में बीतता है|
भागवत,श्लोक-2.1.4
संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वह शरीर पुत्र स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत्य है ! परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात दिन उसकी मृत्यु का भास हो जाने पर भी चेतना नहीं--
भागवत,श्लोक-2.1.5
इसलिए परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करना चाहिए !
भागवत,श्लोक-2.1.6
मनुष्य जन्म का यही लाभ है कि चाहे जैसे भी ज्ञान से भक्ति से अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति बनी रहे , भगवान के स्थूल स्वरूप का ध्यान करें---
भागवत,श्लोक-2.1.26
पाताल हि जिन के तलवे हैं एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, एडी के ऊपर की गांठें महातल, पिंडली तलातल है, दोनों घुटने सुतल हैं, जंघे अतल वितल हैं, पेडू भूतल नाभि आकाश है | आदि पुरुष परमात्मा की छाती स्वर्ग, गला महर्लोक मुख जनलोक, ललाट तप लोक, उनका मस्तक सत्य लोक है | सभी देवी देवता उनके अंग है यही भगवान का स्थूल स्वरूप हैं |
इति प्रथमो अध्यायः
भागवत,श्लोक-2.2.1
सुकदेव जी कहते हैं सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से यह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलय काल मैं विलुप्त हो गई थी | इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गई तब उन्होंने इस जगत को उसी प्रकार रचा जैसे कि वह प्रलय के पहले था |
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श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ द्वितीयो स्कन्ध प्रारम्भ )
अथ प्रथम अध्याय:
भागवत,श्लोक-2.1.1
हे राजा परीक्षित लोकहित में किया हुआ प्रश्न बहुत उत्तम है , मनुष्य के लिए जितनी भी बातें सुनने स्मरण करने कीर्तन करने की है उन सब में यहीश्रेष्ठ है | आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं |
भागवत,श्लोक-2.1.2
राजन जो गृहस्थ घर के काम धंधे में उलझे रहते हैं अपने स्वरूप को नहीं जानते उनके लिए हजारों बातें कहने सुनने सोचने करने की रहती है |
भागवत,श्लोक-2.1.3
उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है उनकी रात नींद या स्त्री प्रसंग में कटती है तथा दिन धन की हाय हाय या कुटुंब के भरण-पोषण में बीतता है|
भागवत,श्लोक-2.1.4
संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वह शरीर पुत्र स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत्य है ! परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात दिन उसकी मृत्यु का भास हो जाने पर भी चेतना नहीं--
भागवत,श्लोक-2.1.5
इसलिए परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करना चाहिए !
भागवत,श्लोक-2.1.6
मनुष्य जन्म का यही लाभ है कि चाहे जैसे भी ज्ञान से भक्ति से अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति बनी रहे , भगवान के स्थूल स्वरूप का ध्यान करें---
भागवत,श्लोक-2.1.26
पाताल हि जिन के तलवे हैं एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, एडी के ऊपर की गांठें महातल, पिंडली तलातल है, दोनों घुटने सुतल हैं, जंघे अतल वितल हैं, पेडू भूतल नाभि आकाश है | आदि पुरुष परमात्मा की छाती स्वर्ग, गला महर्लोक मुख जनलोक, ललाट तप लोक, उनका मस्तक सत्य लोक है | सभी देवी देवता उनके अंग है यही भगवान का स्थूल स्वरूप हैं |
इति प्रथमो अध्यायः
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( अथ द्वितीयो अध्यायः )भागवत सप्ताहिक कथा PDF
भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रम और सद्योमुक्ति का वर्णन---भागवत,श्लोक-2.2.1
सुकदेव जी कहते हैं सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा जी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से यह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलय काल मैं विलुप्त हो गई थी | इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गई तब उन्होंने इस जगत को उसी प्रकार रचा जैसे कि वह प्रलय के पहले था |
कुछ भक्त अपने हृदय में परमात्मा के अंगूठे मात्र स्वरूप का ध्यान करते हैं, कुछ अपनी वासनाओं का त्याग करके अपने शरीर को छोड़ आत्मा को परमात्मा में लीन कर देते हैं ,कुछ पहले स्वर्ग लोग को ब्रह्म लोक होते हुए बैकुंठ जाते हैं , यह क्रम मुक्ति है | कुछ सीधे ही परमात्मा का ध्यान कर उन्हें प्राप्त हो जाते हैं यह सद्योमुक्ति है |
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवत भक्ति के प्राधान्य का निरूपण---
भागवत,श्लोक-2.3.3-10-12
सांसारिक कामना रखने वाले ब्रह्म तेज के लिए बृहस्पति की उपासना करें , इंद्रियों की शक्ति के लिए इंद्र की , संतान के लिए प्रजापतियों की, लक्ष्मी के लिए शिव जी की करें, मोक्ष चाहने वाले तीव्र भक्ति योग द्वारा भगवान नारायण की उपासना करें |
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
राजा का श्रष्टि विषयक प्रश्न शुकदेव जी का कथारंभ-----
भागवत,श्लोक-2.4.12
परीक्षित ने पूछा परमात्मा इस संसार की रचना कैसे करते हैं ! सुकदेव जी ने मंगलाचरण पूर्वक कथा प्रारंभ कि |उन पुरुषोत्तम भगवान को मैं कोटी कोटि प्रणाम करता हूं जो संसार की रचना पालन और संहार के लिए रजोगुण सतोगुण और तमोगुण को धारण कर ब्रह्मा विष्णु शंकर अपने तीन रूप बनाते हैं | हे परीक्षित नारद जी के प्रश्न करने पर वेद गर्भ ब्रह्मा ने जो बात कही थी जिसका स्वयं नारायण ने उन्हें उपदेश किया था और वही मैं तुम से कह रहा हूं |
इति चतुर्थो अध्यायः
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( अथ पंचमो अध्यायः )सृष्टि वर्णन-----
भागवत,श्लोक-2.5.22-23-24-25
( पद )
निर्गुण निराकार निरलेप ब्रम्ह ही बने सगुणसाकार
एकबार उस परब्रह्मने मनमे कियो विचार
एकहुं मै बहु बनू करूम निज माया का विस्तार
तब माया के उदर मे दिया बीज निज डार
महत्तत्व उपजाया सारी श्रृष्टि का आधार
महत्तत्व विक्षिप्त हुआ तब प्रकटाया अहंकार
तामस राजस सात्विक देखो इसके तीन प्रकार
सात्विक अहंकार से सृष्टि देवन उपजाइ
राजस अहंकार से इन्द्रिय एकादशप्रकटाइ
तन्मात्रा के साथ बनाकर सबको दिया मिलाइ
विराट पुरुष प्रकटे तबहि पर खडेहुए वेनाही
खडे हुए जब प्रविशे प्रभुजी उस विराट केमाही
माया मण्डल की रचना कर हर्षित हुये प्रभु भारी
दास भागवत गाय सुनाइ सृष्टि रचना सारी
इति पंचमो अध्यायः
( अथ षष्ठो अध्यायः )
विराट स्वरूप की विभूतियों का वर्णन----
भागवत,श्लोक-2.6.1
ब्रह्मा जी कहते हैं उन्ही विराट पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठाता देवता अग्नि उत्पन्न हुई हैं | सातों छंद उनकी सात धातुओं से निकले हैं | मनुष्यों पितरों और देवताओं के भोजन करने योग्य अमृत मय छंद सब प्रकार के रस रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठाता देवता वरुण उनकी जिह्वा से उत्पन्न हुए हैं |
उनके नासा छिद्रों से पान अपान व्यान उदान समान यह पांचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्वनी कुमार समस्त औषधियां साधारण तथा विशेष गंध उत्पन्न हुए हैं |
भागवत,श्लोक-2.6.31
उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूं , उन्हीं के अधीन होकर रुद्र उसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु रूप से इसका पालन करते हैं | क्योंकि उन्होंने सत रज तम तीन शक्तियां स्वीकार कर रखी हैं | बेटा नारद जो कुछ तुमने पूछा था उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया भाव या आभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान से भिन्न हो |
इति षष्ठो अध्यायः
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( अथ सप्तमो अध्यायः )भगवान के लीला वतारों की कथा----
भागवत,श्लोक-2.7.1
ब्रह्माजी बोले , अनंत भगवान ने प्रलय काल में जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिए यज्ञमय वाराह रूप धारण किया था, आदि दैत्य हिरण्याक्ष जल के अंदर ही उनसे लड़ने आया जैसा इंद्र ने पर्वतों के पंख काट डाले थे वैसे ही वाराह भगवान ने अपनी डाढों से उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए और भी भगवान के अनेक अवतार हुए हैं रुचि प्रजापति से यज्ञावतार, कर्दम प्रजापति के यहां कपिल अवतार ,अत्री के यहां दत्तात्रेय अवतार लिया तथा वामन हंस धनवंतरी परशुराम राम कृष्ण आदि अनेक अवतार भगवान के हैं |
इति सप्तमो अध्याय:
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
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सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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श्री मद भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ अष्टमो अध्यायः )
राजा परीक्षित के विविध प्रश्न---
भागवत,श्लोक-2.8.1-2
राजा परीक्षित ने पूछा - भगवन आप वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं | मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि जब ब्रह्माजी ने निर्गुण भगवान के गुणों का वर्णन करने को कहा तब उन्होंने किन किन को किस रूप में कहा |
एक तो अचिंत्य शक्तियों के आश्रय भगवान की कथाएं ही लोगों का मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवत दर्शन कराने का स्वभाव है अवश्य ही उनकी बात मुझे सुनाइए |
सूत जी कहते हैं- हे ऋषियों जब संतों की सभा में राजा परीक्षित ने भगवान की लीला कथा सुनाने के लिए प्रार्थना की सुकदेव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई उन्होंने वही वेद तुल्य श्रीमद् भागवत कथा सुनाई जो स्वयं भगवान ने ब्रह्मा को सुनाया था|
इति अष्टमो अध्यायः
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( अथ नवमो अध्यायः )ब्रह्मा जी का भगवत धाम दर्शन और भगवान के द्वारा उन्हें चतुश्लोकी भागवत का उपदेश---
भगवान की नाभि से निकले कमल से प्रगट ब्रह्मा जी ने जब अपने आपको सृष्टि करने में असमर्थ पाया तो भगवान ने उन्हें तप करने को कहा ब्रह्मा की तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपने धाम का दर्शन कराया और उन्हें चतुश्लोकी भागवत प्रदान की---
भागवत,श्लोक-2.9.32-33-34-35
( पद्य के माध्यम से )
सृष्टि से पहले केवल मुझको ही जान , नहीं स्थूल नहीं सूक्ष्म जगत या ना ही था अज्ञान | जहां सृष्टि नहीं वहां मैं ही हूं सृष्टि के रूप में भी मैं ही हूं, जो बचा रहेगा वह मैं हूं सर्वत्र सर्वदा मैं ही हूं | मेरे सिवा जो दीख रहा है मिथ्या सकल जहान सृ, जैसे नक्षत्र मंडल में राहु की प्रतीत नहीं होती | वैसे इस माया के बीच मेरी भी प्रतीति नहीं होती , मेरे ही इस दृश्य जगत को मेरी माया पहचान सृ | जैसे जीवो की देही में पंचभूत तत्व है विद्यमान , वैसे ही मुझको आत्म रूप बाहर भीतर सर्वत्र जान | मैं ही मैं हूं और ना कोई मुझको मुझ में जान , ब्रह्मा जी को चार श्लोक में दान किया श्री नारायण , ब्रह्मा नारद से ब्यास किया वेदव्यास ने पारायण | दास भागवत तत्व यही है ये ही सच्चा ज्ञान ||
इति नवमो अध्यायः
( अथ दशमो अध्यायः )
भागवत के दस लक्षण--
भागवत,श्लोक-2.10.1-2
सुकदेव जी कहते हैं परीक्षित इस भागवत पुराण में सर्ग , विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वंतर, इषानु कथा, निरोध, मुक्ति, आश्रय इन दस विषयों का वर्णन है | इसमें जो दशवां आश्रय तत्व है उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिए कहीं श्रुति कहीं तात्पर्य से कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से, महात्माओं ने अन्य नो विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है |
इति दशमो अध्यायः
✳ इति द्वितीय स्कन्ध समाप्त ✳
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✳ अथ तृतीय स्कन्ध प्रारम्भ ✳( अथ प्रथमो अध्यायः )
उद्धव और विदुर की भेंट-- महाभारत के युद्ध के समय हस्तिनापुर छोड़ निकले विदुर जी सब तीर्थों में भ्रमण करते हुए जब प्रभास क्षेत्र में पहुंचे तब तक समस्त यादव कुल समाप्त हो चुका था ! यह जानकर उन्हें कुछ दुख हुआ किंतु उन्होंने इसे भगवान की इच्छा ही समझा उसके बाद उन्हें यह भी ज्ञात हो गया कि महाभारत में धृतराष्ट्र को छोड़ सभी कौरव समाप्त हो गए और युधिष्ठिर एकछत्र राजा हो गए हैं |
इस होनी को भी भगवान की इच्छा समझ वृंदावन आ गए परमात्मा के परम भक्त बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी से वहां विदुर जी मिले दोनों भक्त परस्पर आलिंगन कर मिले , विदुर जी पूछने लगे उद्धव जी बताएं द्वारका में भगवान श्री कृष्ण बलराम समस्त यादवों के सहित कुशल से हैं ना , धर्मराज युधिष्ठिर धर्मपूर्वक राज्य कर रहे हैं न , आदि बातें पूछी |
इति प्रथमो अध्यायः
उद्धव जी द्वारा भगवान की बाल लीलाओं का वर्णन----
भागवत,श्लोक-3.2.7
उद्धव उद्धव जी बोले- विदुर जी श्री कृष्ण रूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को काल रूप अजगर ने खा डाला है | वे श्री हीन हो गए हैं अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊं---
इति प्रथमो अध्यायः
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
( अथ द्वितीयो अध्यायः )उद्धव जी द्वारा भगवान की बाल लीलाओं का वर्णन----
भागवत,श्लोक-3.2.7
उद्धव उद्धव जी बोले- विदुर जी श्री कृष्ण रूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को काल रूप अजगर ने खा डाला है | वे श्री हीन हो गए हैं अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊं---
भागवत,श्लोक-3.2.8
अहो यह मनुष्य लोग बड़ा ही अभागा है, जिसमें यादव तो नितांत ही भाग्य हीन हैं जिन्होंने निरंतर श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना | जैसे समुद्र में अमृतमय चंद्रमा के साथ रहती हुई मछलियां उसे नहीं पहचानी |
विदुर जी भगवान का मथुरा में वसुदेव जी के यहां जन्म लेना, गोकुल में नंद के यहां रहकर अनेक लीलाएं करना , माखन चोरी , ग्वाल बालों के साथ वन में गाय चराना, पूतना को माता की गति प्रदान करना ,सकटासुर, तृणावर्त, बकासुर, व्योमासुर, कंस आदि राक्षसों का संहार याद आता है | काली मर्दन गोवर्धन पूजा रासबिहारी सब याद आते हैं|
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
भगवान के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन-- ब्रज में बाल लीला कर मथुरा में कंस का संहार करता कर तथा जरासंध की सेनाओं का संघार कर द्वारिका में भगवान ने कई विवाह किए रुक्मणी सत्यभामादिक सोलह हजार एक सौ रानियों के साथ भगवान ने विवाह किए।
इति द्वितीयो अध्यायः
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भगवान के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन-- ब्रज में बाल लीला कर मथुरा में कंस का संहार करता कर तथा जरासंध की सेनाओं का संघार कर द्वारिका में भगवान ने कई विवाह किए रुक्मणी सत्यभामादिक सोलह हजार एक सौ रानियों के साथ भगवान ने विवाह किए।
और प्रत्येक महारानी से दस दस पुत्र उत्पन्न हुये, जरासंध शिशुपाल का संघार किया महाभारत के नाम पर दुष्टों का संहार किया और ब्राह्मणों के श्राप के बहाने अपने यदुवंस को भी समेट लिया |
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
उद्धव जी से विदा होकर विदुर जी का मैत्रेय जी के पास जाना-- उद्धव जी कहते हैं प्यारे विदुर समस्त यदुवंश का संघार के बाद भगवान ने स्वयं अपने लोक पधारने की इच्छा की वह सरस्वती के तट पर एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, मैं भी पीछे पीछे उनके पास पहुंच गया और मैत्रेय ऋषि भी वहां आ गए | उन्होंने स्वधाम गमन के बारे में मुझे बताया मैंने उनसे प्रार्थना की---
इति तृतीयो अध्यायः
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
उद्धव जी से विदा होकर विदुर जी का मैत्रेय जी के पास जाना-- उद्धव जी कहते हैं प्यारे विदुर समस्त यदुवंश का संघार के बाद भगवान ने स्वयं अपने लोक पधारने की इच्छा की वह सरस्वती के तट पर एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, मैं भी पीछे पीछे उनके पास पहुंच गया और मैत्रेय ऋषि भी वहां आ गए | उन्होंने स्वधाम गमन के बारे में मुझे बताया मैंने उनसे प्रार्थना की---
भागवत,श्लोक-3.4.18
स्वामिन अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्मा जी को बताया था वहीं यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइए जिससे मैं संसार दुख को सुगमता से पार कर जाऊं |
मेरे इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान ने वह तत्वज्ञान मुझे दिया जिसे सुनकर मैं यहां आया हूं और अब भगवान की आज्ञा से मैं बद्रिकाश्रम जा रहा हूं | विदुर जी बोले उद्धव जी परमज्ञान जो आप भगवान से सुनकर आए हैं हमें भी सुनाएं |
उद्धव जी बोले विदुर जी आपको वह ज्ञान मैत्रेय जी सुनायेंगे ऐसी भगवान की आज्ञा है | ऐसा कहकर उद्धव जी बद्रिकाश्रम चल दिए और विदुर जी भी गंगा तट पर मैत्रेय जी के आश्रम पर जा पहुंचे |
इति चतुर्थो अध्यायः
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
श्री मद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ पंचमो अध्यायः )
विदुर जी का प्रश्न और मैत्रेय जी का सृष्टि क्रम वर्णन---
भागवत,श्लोक-3.5.2
संसार में सब लोग सुख के लिए ही कर्म करते हैं किंतु ना उन्हें सुख ही मिलता है और ना दुख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुख की वृद्धि हि होती है !
इति चतुर्थो अध्यायः
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श्री मद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
( अथ पंचमो अध्यायः )
विदुर जी का प्रश्न और मैत्रेय जी का सृष्टि क्रम वर्णन---
भागवत,श्लोक-3.5.2
संसार में सब लोग सुख के लिए ही कर्म करते हैं किंतु ना उन्हें सुख ही मिलता है और ना दुख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुख की वृद्धि हि होती है !
अतः इसके विषय में क्या करना उचित है यह आप मुझे बताइए ? उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति स्थिति और संहार करने के लिए अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर रामकृष्ण अवतारों द्वारा जो अनेक अलौकिक लीलाएं की है वह मुझे सुनाइए ! मैत्रेय मुनि कहते हैं----
भागवत,श्लोक-3.5.23
सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एवं एक पूर्ण परमात्मा ही थे ना दृष्टा ना दृश्य सृष्टि काल में अनेक व्यक्तियों के भेद से जो अनेकता दिखाई पड़ती है वह भी नहीं थी क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी !
इसके पश्चात भगवान की एक से अनेक होने की इच्छा हुई तो सामने माया देवी प्रकट हुई भगवान ने माया के गर्भ में अपना अंश स्थापित किया उससे महतत्व उत्पन्न हुआ महतत्ऩ के विच्छिप्त होने पर सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार के अहंकार प्रगट हुए।
भगवान ने सात्विक अहंकार से देवताओं की सृष्टि की, राजसी अहंकार से इंद्रियों की दस इंद्रियों को प्रकट किया, तामस अहंकार से क्रमसः शब्द, आकाश, स्पर्श, वायु ,रूप, अग्नि, रस, जल, गंध, पृथ्वी, पांच तन्मात्रा सहित पंच भूतों को उत्पन्न किया, किंतु वे सब मिलकर भी जब सृष्टि रचना में असमर्थ रहे तो भगवान से प्रार्थना की , प्रभु हम सृष्टि रचना करने में असमर्थ हैं |
इति पंचमो अध्यायः
विराट शरीर की उत्पत्ति-- मैत्रेय जी बोले भगवान ने जब देखा कि मेरी महतत्व आदि शक्तियां असंगठित होने के कारण विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हैं, तब उन्होंने उन सब को मिलाकर एक कर दिया जिससे विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई |
इति पंचमो अध्यायः
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( अथ षष्ठो अध्यायः )विराट शरीर की उत्पत्ति-- मैत्रेय जी बोले भगवान ने जब देखा कि मेरी महतत्व आदि शक्तियां असंगठित होने के कारण विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हैं, तब उन्होंने उन सब को मिलाकर एक कर दिया जिससे विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई |
जिसमें चराचर जगत विद्यमान है सब जीवो को साथ लेकर विराट पुरुष एक हजार दिव्य वर्षों तक जल में पड़ा रहा फिर भगवान के जगाने पर उसके प्रथम मुख प्रकट हुआ जिसमें अग्नि ने प्रवेश किया, जिससे वाक इंद्री प्रगट हुई |
फिर विराट पुरुष के तालू उत्पन्न हुआ जिसमें वरुण ने प्रवेश किया जिससे रसना पैदा हुई | उसके बाद नथुने पैदा हुए जिसमें दोनों अश्विनी कुमारों ने प्रवेश किया जिससे घ्राणेन्द्रिय पैदा हुई | उसके बाद आंखें पैदा हुई जिसमें सूर्य ने प्रवेश किया जिससे नेत्रेद्रिंय प्रगट हुई |
फिर त्वचा पैदा हुई जिसमें वायु ने प्रवेश लिया जिससे स्पर्श शक्ति पैदा हुई | फिर कान पैदा हुये है जिसमें दिशाओं ने प्रवेश किया, जिससे शब्द प्रगट हुआ | फिर हाथ पैर लिंग गुदा आदि पैदा हुए फिर बुद्धि, हृदय आदि पैदा हुए |
इति षष्ठो अध्यायः
( अथ सप्तमो अध्यायः )
विदुर जी के प्रश्न-- विदुर जी बोले भगवन भगवान तो अवाप्त काम हैं, माया के साथ उनका संबंध कैसे संभव है , वे सृष्टि को रचते हैं पालन करते हैं और अंत में संघार भी करते हैं | ऐसा खेल वे क्यों खेलते हैं , आप अपनी ब्रह्मादिक विभूतियों का वर्णन भी सुनाइए |
इति सप्तमो अध्यायः
( अथ अष्टमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी की उत्पत्ति--- सृष्टि से पूर्व में जब भगवान समस्त सृष्टि को अपने उदर में लेकर योगनिद्रा में शेष शैया पर शयन कर रहे थे भगवान की काल शक्ति ने उन्हें जगाया तो उनकी नाभि से रजोगुण रूपी कमल निकला उस कमल नाल से स्वयं भगवान ही ब्रह्मा के रूप में प्रगट हुए, जब ब्रह्माजी ने चारों ओर दृष्टि डाली तो उनके चार मुख हो गए।
इति षष्ठो अध्यायः
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विदुर जी के प्रश्न-- विदुर जी बोले भगवन भगवान तो अवाप्त काम हैं, माया के साथ उनका संबंध कैसे संभव है , वे सृष्टि को रचते हैं पालन करते हैं और अंत में संघार भी करते हैं | ऐसा खेल वे क्यों खेलते हैं , आप अपनी ब्रह्मादिक विभूतियों का वर्णन भी सुनाइए |
इति सप्तमो अध्यायः
( अथ अष्टमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी की उत्पत्ति--- सृष्टि से पूर्व में जब भगवान समस्त सृष्टि को अपने उदर में लेकर योगनिद्रा में शेष शैया पर शयन कर रहे थे भगवान की काल शक्ति ने उन्हें जगाया तो उनकी नाभि से रजोगुण रूपी कमल निकला उस कमल नाल से स्वयं भगवान ही ब्रह्मा के रूप में प्रगट हुए, जब ब्रह्माजी ने चारों ओर दृष्टि डाली तो उनके चार मुख हो गए।
जब ब्रह्मा जी को चारों और कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे मैं कौन हूं कहां से आया हूं यह सोच वह कमल नाल से अपने आधार को खोजते हुए नीचे गए किंतु बहुत काल तक भी वे उसे खोज नहीं पाए तब वह वापस स्थान पर आ गए और अपने आधार का ध्यान करने लगे , तो शेषशायी नारायण के दर्शन हुए ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे |
इति अष्टमो अध्यायः
( अथ नवमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति समस्त जगत के रचयिता पालक और संघार करता भगवान मैं आपको पहचान नहीं सका मैं ही क्या बड़े-बड़े मुनि जी आप के मर्म को नहीं जान पाते मैं आपको नमस्कार करता हूं |
इति नवमो अध्याय:
( अथ दसमो अध्यायः )
दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन-- विदुर जी के पूछने पर मैत्रेय जी ने दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया | पहली सृष्टि महतत्व की, दूसरी अहंकार की , तीसरी भूत वर्ग ,चौथी इंद्रियों की, पांचवी देवताओं की ,छठी अविद्या कि यह प्राकृतिक हैं | अब चार विकृत सृष्टियां हैं उनमें पहली वृक्षों की , दूसरी पशु पक्षियों की, नवी सृष्टि मनुष्यों की , दसवीं सृष्टि देवताओं की है |
इति दसमो अध्यायः
इति अष्टमो अध्यायः
( अथ नवमो अध्यायः )
ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति समस्त जगत के रचयिता पालक और संघार करता भगवान मैं आपको पहचान नहीं सका मैं ही क्या बड़े-बड़े मुनि जी आप के मर्म को नहीं जान पाते मैं आपको नमस्कार करता हूं |
इति नवमो अध्याय:
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दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन-- विदुर जी के पूछने पर मैत्रेय जी ने दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया | पहली सृष्टि महतत्व की, दूसरी अहंकार की , तीसरी भूत वर्ग ,चौथी इंद्रियों की, पांचवी देवताओं की ,छठी अविद्या कि यह प्राकृतिक हैं | अब चार विकृत सृष्टियां हैं उनमें पहली वृक्षों की , दूसरी पशु पक्षियों की, नवी सृष्टि मनुष्यों की , दसवीं सृष्टि देवताओं की है |
इति दसमो अध्यायः
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-
( अथ एकादशो अध्यायः )
मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन--- मैत्रेय जी बोले सृष्टि का सबसे सूक्ष्म अंश परमाणु होता है , दो परमाणु को एक अणु, तीन अणु का एक त्रसरेणु होता है , जाली के छिद्र में से आने वाले सूर्य के प्रकाश में उड़ते हुए जो कड़ दिखाई पड़ते हैं वे त्रसरेणु हैं,एक त्रसरेणु को पार करने में सूर्य को जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं , सौ त्रुटि का एक वेध है , तीन वेध का एक लव, तीन लव का एक निमेश , तीन निमेश का एक क्षण, पांच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक लघु, पन्द्रह लघु का एक दंड , दो दंड का एक मुहूर्त होता है।
मन्वंतरादि काल विभाग का वर्णन--- मैत्रेय जी बोले सृष्टि का सबसे सूक्ष्म अंश परमाणु होता है , दो परमाणु को एक अणु, तीन अणु का एक त्रसरेणु होता है , जाली के छिद्र में से आने वाले सूर्य के प्रकाश में उड़ते हुए जो कड़ दिखाई पड़ते हैं वे त्रसरेणु हैं,एक त्रसरेणु को पार करने में सूर्य को जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं , सौ त्रुटि का एक वेध है , तीन वेध का एक लव, तीन लव का एक निमेश , तीन निमेश का एक क्षण, पांच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक लघु, पन्द्रह लघु का एक दंड , दो दंड का एक मुहूर्त होता है।
छः या सात नाडी का एक प्रहर होता है, रात दिन में आठ पहर होते हैं, पन्द्रह दिन का एक पक्ष होता है, दो पक्ष का एक मास , दो मास का एक ऋतु, छः मास का एक अयन , दो अयन का एक वर्ष , पितरों का एक दिन एक मास का , देवताओं का एक दिन एक वर्ष का, एक सौ वर्ष की आयु मनुष्य की मानी गई है , एक वर्ष में सूर्य इस भूमंडल की परिक्रमा करता है |
हे विदुर-- कलियुग का प्रमाण चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का है, द्वापर का प्रमाण आठ लाख चौंसढ हजार वर्ष का है , त्रेता का प्रमाण बारह लाख छ्यान्नवे हजार वर्ष का है और सतयुग का प्रमाण सत्रह लाख अठ्ठाइस हजार वर्ष का है |
यह चतुर्युगी लगभग इकहत्तर बार घूम जाती है वह एक मनु का कार्यकाल है | ऐसे चौदह मनु के कार्यकाल का ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात होती है जो प्रलय काल है | ब्रह्मा जी की आधी आयु को परार्ध कहते हैं अभी तक पहला परार्ध बीत चुका है दूसरा चल रहा है |
इति एकादशो अध्यायः
( अथ द्वादशो अध्यायः )
सृष्टि का विस्तार-- सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने सनक , सनंदन सनातन, सनतकुमार चार ऋषि प्रगट हुए | ब्रह्मा जी ने इन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया अतः ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया वह रूद्र रूप में प्रगट हो गया , ब्रह्मा जी ने उन्हें भी सृष्टि की आज्ञा दी उन्होंने अपने अनुरूप भूत प्रेतों की सृष्टि करदी जो स्वयं ब्रह्मा जी को ही खाने को उद्यत हो गई।
इति एकादशो अध्यायः
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सृष्टि का विस्तार-- सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने सनक , सनंदन सनातन, सनतकुमार चार ऋषि प्रगट हुए | ब्रह्मा जी ने इन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया अतः ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया वह रूद्र रूप में प्रगट हो गया , ब्रह्मा जी ने उन्हें भी सृष्टि की आज्ञा दी उन्होंने अपने अनुरूप भूत प्रेतों की सृष्टि करदी जो स्वयं ब्रह्मा जी को ही खाने को उद्यत हो गई।
तब ब्रह्मा बोले देव तुम्हारी सृष्टि इतनी ही बहुत है , फिर ब्रह्मा जी ने दस पुत्र मरीचि, अत्रि ,अंगिरा, पुलह, पुलस्त्य, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद पैदा किए, उनके हृदय से धर्म, पीठ से अधर्म प्रकट हुआ |
छाया से कर्दम पैदा हुए , इसके पश्चात स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ | जिसका नाम स्वयंभू मनु शतरूपा रानी था | स्वयंभू मनु के तीन कन्या दो पुत्र पैदा हुए, देवहूति, आकूति ,प्रसूति तीन कन्या उत्तानपाद, प्रियव्रत दो पुत्रों से सारा संसार भर गया |
इति द्वादशो अध्यायः
वराह अवतार की कथा
ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर मनु बोले प्रभु मैंश्रृष्टि तो रचूंगा पर उसे रखूंगा कहां क्योंकि पृथ्वी तो जल से डूबी है , इतने में ब्रह्मा जी की नाक से अंगूठे के आकार का एक वराह शिशु निकला वह क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया।
इति द्वादशो अध्यायः
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अथ त्रयोदशोअध्यायःवराह अवतार की कथा
ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर मनु बोले प्रभु मैंश्रृष्टि तो रचूंगा पर उसे रखूंगा कहां क्योंकि पृथ्वी तो जल से डूबी है , इतने में ब्रह्मा जी की नाक से अंगूठे के आकार का एक वराह शिशु निकला वह क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया।
ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की वे सबके देखते देखते समुद्र में घुस गया वहां उन्होंने पृथ्वी को देखा जिसे लीला पूर्वक अपनी दाढ़ पर रख लिया और उसे लेकर ऊपर आए रास्ते में उन्हें हिरण्याक्ष दैत्य मिला जिसे मार कर पृथ्वी को जल के ऊपर स्थापित किया | ऋषियों ने उनकी प्रार्थना की
इति त्रयोदशो अध्यायः
इति त्रयोदशो अध्यायः
दिति का गर्भ धारण- एक समय की बात है संध्या के समय जब कश्यप जी अपनी सायं कालीन संध्या कर रहे थे उनकी पत्नी दिती उनसे पुत्र प्राप्ति की कामना करने लगी कश्यप जी बोले देवी यह संध्या का समय है !
भूतनाथ भगवान शिवजी अपने गणों के साथ विचरण कर रहे हैं यह समय पुत्र प्राप्ति के लिए अनुकूल नहीं है ! दिती नहीं मानी वह निर्लज्जता पूर्वक उनसे आग्रह करने लगी |
भगवान की ऐसी ही इच्छा है ऐसा समझ कश्यप जी ने गर्भाधान किया और कहा तेरे दो महान राक्षस पुत्र पैदा होंगे जिन्हें मारने के लिए स्वयं भगवान आएंगे, यह सुन दिति बहुत घबराई और अपने किए पर पश्चाताप भी करने लगी,तब कश्यप जी ने कहा घबराओ नहीं तुम्हारा एक पुत्र का पुत्र भगवत भक्त होगा जिसकी कीर्ति संसार में होगी यह जान दिती को संतोष हुआ।
इति चतुर्दशो अध्यायः
इति चतुर्दशो अध्यायः
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जय विजय को सनकादिक का श्राप- एक समय की बात है चारों उर्धरेता ऋषि भ्रमण करते हुए भगवान के बैकुंठ धाम में भगवान के दर्शन की अभिलाषा से गए वहां उन्होंने छः द्वार पार कर जब वे सातवें द्वार पर पहुंचे तो जय विजय ने उन्हें रोक दिया इससे कुपित होकर ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया जाओ तुम दोनों राक्षस हो जाओ |
जय विजय उनके चरणों में गिर गए और श्राप निवारण की प्रार्थना की तब ऋषि बोले तीन जन्मों तक तुम राक्षस रहोगे प्रत्येक जन्म में स्वयं भगवान के हाथों तुम मारे जाओगे |
तीन जन्मों के बाद तुम भगवान के पार्षद बन जाओगे, इतने में स्वयं भगवान ने आकर उन्हें दर्शन दिए और ऋषियों ने बैकुंठ धाम के दर्शन किए भगवान बोले ऋषियों यह सब मेरी इच्छा से हुआ है। ऋषियों ने भगवान को प्रणाम किया और प्रस्थान किया |
इति पंचदशोअध्यायः
इति पंचदशोअध्यायः
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जय विजय का बैकुंठ से पतन अपने पार्षदों को भगवान ने समझाया और कहा यह ब्राह्मणों का श्राप है ब्राह्मण सदा ही मुझे प्रिय हैं इनके श्राप को मैं भी नहीं मिटा सकता | ब्राह्मणों के क्रोध से कोई बच नहीं सकता फिर भी आप चिंता ना करें मैं शीघ्र ही तुम्हारा उद्धार करूंगा।
ऐसा कहकर भगवान अपने अन्तःपुर में चले गए और जय विजय का बैकुंठ से पतन हो गया वे वहां से गिरकर सीधे दिति के गर्भ में प्रवेश कर गए उनके गर्भ में आते ही सर्वत्र अंधकार छा गया जिससे सब भयभीत हो गए |
ब्रह्मा जी ने सबको समझाया दिति के गर्भ में कश्यप जी का तेज है इसी के कारण ऐसा है आप निश्चिंत रहें सब ठीक हो जाएगा दिती ने सौ वर्ष पर्यंत पुत्रों को जन्म नहीं दिया
इति षोडषोअध्यायः
इति षोडषोअध्यायः
( अथ सप्तदशोअध्यायः )
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म समय पाकर दिती ने दो पुत्रों को जन्म दिया उनके जन्म लेते ही सर्वत्र उत्पात होने लगे सनकादिक के सिवा सारा संसार भयभीत होने लगा मानो प्रलय होने
वाली है जन्म की तत्काल बाद ही उनका शरीर बड़ा विशाल हो गया।
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म समय पाकर दिती ने दो पुत्रों को जन्म दिया उनके जन्म लेते ही सर्वत्र उत्पात होने लगे सनकादिक के सिवा सारा संसार भयभीत होने लगा मानो प्रलय होने
वाली है जन्म की तत्काल बाद ही उनका शरीर बड़ा विशाल हो गया।
कश्यप जी ने उनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रखा एक बार हिरण्याक्ष हाथ में गदा लेकर युद्ध के लिए निकला पर उसके सामने कोई नहीं आया तो वे स्वर्ग में पहुंच गए उसे देख कर सब देवता भाग गए हिरण्याक्ष कहने लगा अरे ये महा पराक्रमी देवता भी मेरे सामने नहीं आते।
तब वह महा विशाल समुद्र में कूद गया और वरुण की राजधानी विभावरी पुरी में पहुंच गया और वरुण से युद्ध की भिक्षा मांगी इस पर वरुण बोले वीर आप से युद्ध करने योग केवल एक ही हैं अभी वे समुद्र से पृथ्वी को निकाल कर ले जा रहे हैं आप उनसे युद्ध करें |
इति सप्तदशोअध्यायः
इति सप्तदशोअध्यायः
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हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान का युद्ध- वरुण के कथनानुसार वह दैत्य हाथ में गदा लेकर भगवान को ढूंढने लगा और ढूंढते ढूंढते वह वहां पहुंच गया जहां वराह भगवान पृथ्वी को लेकर जा रहे थे | हिरण्याक्ष ने भगवान को ललकारा और कहा अरे जंगली शूकर यह ब्रह्मा द्वारा हमें दी गई पृथ्वी को लेकर तुम कहां जा रहे हो इस प्रकार चुरा कर ले जाते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती |
भगवान ने उसकी इस बात की कोई परवाह नहीं की और वे पृथ्वी को लेकर चलते रहे दैत्य ने उनका पीछा किया और कहा अरे निर्लज्ज कायरों की भांति क्यों भागा जा रहा है इतने में धरती को जल के ऊपर स्थापित कर दिया ब्रह्मा ने दैत्य के सामने ही भगवान की प्रार्थना की भगवान दैत्य से बोले हम जैसे जंगली पशु तुम जैसे ग्रामसिंह ( कुत्ता) को ही ढूंढते फिरते हैं। दैत्य ने गदा से भगवान पर प्रहार किया और इस प्रकार दोनों में घोर युद्ध होने लगा।
इति अष्टादशोअध्यायः
इति अष्टादशोअध्यायः
हिरण्याक्ष वध दैत्यराज हिरण्याक्ष और भगवान वराह का घोर युद्ध होने लगा हिरण्याक्ष की छाती में भगवान ने गदा का प्रहार किया गदा , जैसे कोई लोहे के खंभे से टकराई हो हाथ झन्ना कर भगवान के हाथ से छूट कर गदा नीचे गिर गई | यह बताने के लिए कि मेरे हाथ गदा से कम नहीं छाती में एक घूंसा मारा जिससे राक्षस वमन करता हुआ गिर गया और समाप्त हो गया।
इति एकोनविंशोअध्यायः
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ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन ब्रह्मा जी ने अविद्या आदि की श्रृष्टि की उससे उन्हें ग्लानि पैदा हुई उस शरीर को त्याग दिया जिससे संध्या बन गई जिससे राक्षस मोहित हो गए | इसके अलावा पितृगण, गंधर्व, किन्नर आदि पैदा किए। सिद्ध विद्याधर सर्प मनुओं की रचना की |
इति विंशोअध्यायः
कर्दम जी की तपस्या और भगवान का वरदान ब्रह्मा जी ने जब कर्दम ऋषि को श्रृष्टि करने की आज्ञा दी तो वे श्रृष्टि के लिए भगवान की तपस्या करने लगे भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए कर्दम जी ने उनकी स्तुति की और कहा प्रभु में ब्रह्मा जी की आज्ञा से श्रृष्टि करना चाहता हूं मेरी यह कामना पूर्ण करें तब भगवान बोले स्वायंभुवमनु अपनी कन्या देवहूति के साथ चल कर आपके यहां आ रहे हैं आप देवहूति से विवाह करें |
उससे आपके नव कन्या होंगी जिन्हें आप मरिच्यादी ऋषियों को ब्याह दें उनसे श्रृष्टि का विस्तार होगा। मैं स्वयं आपके यहां कपिल अवतार धारण करूंगा और सांख्य शास्त्र को कहूंगा, ऐसा वरदान देकर भगवान तो अंतर्ध्यान हो गए और कर्दम जी उस काल की प्रतीक्षा करने लगे।
और जो समय भगवान ने बताया था उसके अनुसार मनु महाराज अपनी कन्या के साथ आये कर्दम जी ने उनका स्वागत किया और बोले नर श्रेष्ठ आप अपनी प्रजा की रक्षा के लिए ही सेना सहित विचरण करते हैं मुझे क्या आज्ञा है उसे बताएं।
इति एकविंशो अध्यायः
इति एकविंशो अध्यायः
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( अथ द्वाविंशो अध्यायः )
देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह- मनु जी बोले- हे मुनि ब्राह्मणों को ब्रह्मा ने अपने मुख से प्रगट किया है फिर आपकी रक्षा के लिए अपनी भुजाओं से हम क्षत्रियों को उतपन्न किया है, इसलिए ब्राम्हण उनका हृदय और छत्रिय शरीर हैं |
मैं अपनी सर्वगुण संपन्न यह कन्या आपको देना चाहता हूं आप इसे स्वीकार करें , कर्दम जी के स्वीकार कर लेने पर मनु जी अपनी कन्या का दान कर्दम जी को कर दिया और मनु जी अपने घर आ गये |
इति द्वाविंशोध्यायः
इति द्वाविंशोध्यायः
कर्दम और देवहूति का विहार- अपने पिता के चले जाने के बाद देवहुति ने कर्दम जी की खूब सेवा कि, वह रात और दिन उनकी सेवा में ही लगी रहती अपने खाने पीने की चिंता भी नहीं करती, इससे इनका शरीर क्षीण हो गया |
यह देखकर कर्दम जी देवहूती पर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने देव हूती को आज्ञा दी कि हे मनु पुत्री आप इस बिंदु सरोवर में स्नान करें | देवहूति ने ज्यों ही सरोवर में गोता लगाया एक सुंदर महल में पहुंच गई वहां 1000 कन्याएं थी वह सब देवहूति को देखते ही खड़ी हो गई और बोली हम सब आपकी दासी हैं हमें आज्ञा करें हम आपकी क्या सेवा करें ?
दासियों ने देवहूति को सुगंधित उबटनों से स्नान कराया और सुगंधित तेल लगाकर उन्हें सुन्दर वस्त्र धारण कराए , आभूषणों से सजाया | देवहूति ने जब अपने पति का स्मरण किया वह सखियों सहित उनके पास पहुंच गई, उनकी सुंदरता महान थी उसे देख कर्दम जी ने एक दिव्य विमान मन की गति से चलने वाले विमान की रचना की और उसमें बैठाया और अनेकों लोकों में भ्रमण किया और विमान में ही नव कन्याओं को जन्म दिया |
देवहूति अपने पति से बोली देव हमारा कितना समय संसार सुख में बीत गया और हम भगवान को भूल गए अब आप इन कन्याओं के लिए योग्य वर देखकर इनका पाणिग्रहण संस्कार करके कर्तव्य मुक्त हों |
इति त्रयविंशो अध्यायः
इति त्रयविंशो अध्यायः
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श्री कपिल जी का जन्म- देवहूति के ऐसे विरक्ति पूर्ण वचन सुनकर कर्दम जी ने कहा देवी जी आप के गर्भ में स्वयं भगवान आने वाले हैं | अतः आप उनका ध्यान करें, देवहूति भगवान का ध्यान करने लगी और भगवान कपिल के रूप में उनके यहां प्रकट प्रगट हुए, देवता पुष्पों की वर्षा करने लगे |
इसी समय ब्रह्माजी मरीच आदि ऋषियों को साथ ले उनके आश्रम पर आए और कर्दम जी से कहा अपनी नव कन्याएं मरीच आदि ऋषियों को दे दें | तो कर्दम जी ने- कला मरीचि को, अनुसुइया अत्रि को , श्रद्धा अंगिरा को, हविर्भू पुलस्त्य को, गति पूलह को, किया क्रतु को, ख्याति भ्रुगू को, अरुंधति वशिष्ठ को, शांती अथर्वा को दे दी |
तथा पूर्ण दहेज के साथ सब को विदा किया और कर्दम जी भगवान के पास आए और उनकी स्तुति की प्रभो मैं आपकी शरण में हूं, भगवान बोले वन में जाकर मेरा भजन करें , भगवान की आज्ञा पाकर कर्दम जी वन में चले गए |
इति चतुर्विशों अध्यायः
इति चतुर्विशों अध्यायः
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देवहुति का प्रश्न तथा भगवान कपिल द्वारा भक्ति योग की महिमा का वर्णन- पति के वन चले जाने पर देवहूति भगवान कपिल के सामने जाकर बोली- प्रभु इंद्रिय सुखों से अब मेरा मन ऊब गया है, अब आप मेरे मोहअन्धकार को दूर कीजिए|
भगवान बोले माताजी सारे बंधनों का कारण यह मैं ही है | मैं और मेरा ही बंधन है | सबको छोड़ परमात्मा के भजन में लग जाना ही इसके मोक्ष का कारण है | योगियों के लिए भगवान की भक्ति ही श्रेयस्कर है, जो व्यक्ति मेरी कथाओं का श्रवण, मेरे नाम का संकीर्तन करते हैं परम कल्याणकारी हैं | माता जी इस लोक परलोक के सांसारिक दुखों से मन को हटा कर परमात्मा में मन को लगा देता है वह मुझे प्राप्त कर लेता है |
इति पंचविंशो अध्यायः
इति पंचविंशो अध्यायः
महदादि भिन्न-भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन- देवहूति बोली प्रभु प्रकृति पुरुष के लक्षण मुझे समझावें भगवान बोले माता जो त्रिगुणात्मक अव्यक्त नित्य और कार्य कारण रूप है स्वयं निर्विशेष होकर भी संपूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है |
उस प्रधान नामक तत्व को ही प्रकृति कहते हैं , पंचमहाभूत, पांच उनकी तनमात्राएं, दस इन्द्रिय, चार अंतःकरण इन चौबीस तत्वों को ही प्रकृति का कार्य मानते हैं | प्रकृति को गति देने वाले हैं वो ही पुरुष कहे जाते हैं |
प्रकृति के चौबीस तत्वों को मिलाकर एक पिंड बनाया और उनमें इंद्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने भी उस पिण्ड में प्रवेश किया फिर भी वह विराट पुरुष नहीं उठा |तब परमात्मा ने क्षेत्रज्ञ के रूप में उस विराट में प्रवेश किया, तब वह विराट उठ कर खड़ा हो गया | हे माता जी उसी का चिंतन करना चाहिए |
इति षड्विंशो अध्यायः
इति षड्विंशो अध्यायः
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प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन- भगवान बोले हे माताजी प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना हुआ यह शरीर ही क्षेत्र है तथा इसके भीतर बैठा परमात्मा का अंश आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है यद्यपि आत्मा अकर्ता निर्लेप है, तो भी वह शरीर के साथ संबंध कर लेने पर- मैं कर्ता हूं ! इस अभिमान के कारण देह के बंधन में पड़ जाता है और जिसने आत्मा के स्वरूप को जान लिया वही मोक्ष का अधिकारी है |
इति सप्तविंशो अध्यायः
अष्टांग योग की विधि- भगवान बोले माताजी योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि | योग साधना के लिए प्रथम आसन को जीतें कुशा मृगचर्म आदि के आसन पर सीधा पद्मासन लगाकर जितना अधिक देर बैठ सकें उसका अभ्यास करें |
फिर पूरक, कुंभक, रेचक प्राणायाम करें, उसके बाद विपरीत प्राणायाम करें | पश्चात भगवान के सगुण रूप अंग प्रत्यगों का तथा उनके गुणों का ध्यान करें | जिस स्वरुप का ध्यान किया था उसे अपने हृदय में दृढ़ता पूर्वक धारण कर लें | भगवान के नाम, रूप, गुण, लीलाओं का गान करते हुए समाधिस्थ हो जावें |
इति अष्टाविंशो अध्यायः
इति अष्टाविंशो अध्यायः
shrimad bhagwat mahapuran book in hindi
भक्ति का मर्म और काल की महिमा- भगवान बोले माताजी गुण और स्वभाव के कारण भक्ति का स्वरूप भी बदल जाता है | क्रोधी पुरुष ह्रदय में हिंसा दम्भ, मात्सर्य का भाव रहकर मेरी भक्ति करता है वह मेरा तामस भक्त है |
विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से भक्ति करने वाला मेरा राजस भक्त है, कामना रहित होकर प्रेम पूर्वक जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा सात्विक भक्त है | काल भगवान की ही शक्ति का नाम है- ऋषि, मुनि, देवता सभी काल के अधीन हैं काल के आधीन ही सृष्टि और प्रलय होती है | ब्रह्मा, शिवादि देवता भी काल के अधीन हैं |
इति एकोनत्रिशों अध्यायः
इति एकोनत्रिशों अध्यायः
( अथ त्रिंशो अध्यायः )
देह-गेह में आशक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन- भगवान बोले माताजी अनेक योनियों में भटकता हुआ यह जीव भगवान की कृपा से यह मानव जीवन प्राप्त करता है | मानव शरीर पाकर भी जो परमात्मा को भूलकर अपने शरीर के पालन पोषण तथा परिवार के निर्माण में ही लगा रहता है और परमात्मा को नहीं जानता, केवल इंद्रियों के भोग में ही आसक्त रहता है।
देह-गेह में आशक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन- भगवान बोले माताजी अनेक योनियों में भटकता हुआ यह जीव भगवान की कृपा से यह मानव जीवन प्राप्त करता है | मानव शरीर पाकर भी जो परमात्मा को भूलकर अपने शरीर के पालन पोषण तथा परिवार के निर्माण में ही लगा रहता है और परमात्मा को नहीं जानता, केवल इंद्रियों के भोग में ही आसक्त रहता है।
अवांछित तरीके से धन संग्रह करता है, दूसरों के धन की इच्छा करता है , जब वृद्ध हो जाता है तब उसके पुत्रादि ही उसका तिरस्कार करते हैं तो उसे बड़ा दुख होता है | और जब शरीर छोड़ता है तब वह घोर नरक में जाता है , वहां यम यातना भोगता है |
इति त्रिंशो अध्यायः
इति त्रिंशो अध्यायः
shrimad bhagwat mahapuran book in hindi
मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन- भगवान बोले हे माता जी यह जीव पिता के अंश से जब माता के गर्भ में प्रवेश होता है, एकरूप कलल बन जाता है, पांच रात्रि में बुद बुद रूप हो जाता है , दस रात्रि में बेर के समान कठोर हो जाता है, उसके बाद मांस पेशी एक महीने में उसके सिर निकल आते हैं, दो माह में हाथ पैर निकल आते हैं।
तीन माह में नख, रोम, अस्थि, स्त्री पुरुष के चिन्ह बन जाते हैं | चार मास में मांस आदि सप्तधातुएं बन जाती हैं, पांच मास में भूख प्यास लगने लगती है , छठे माह में झिल्ली में लिपटकर माता की कुक्षि में घूमने लगता है, ( कोख में घूमने लगता है ) उस समय माता के खाए हुए अन्न से उसकी धातु पुष्ट होने लगती हैं , वहां मल मूत्र के गड्ढे में पड़ा वह जीव कृमियों के काटने से बड़ा कष्ट पाता है |
तब वह भगवान से बाहर आने की प्रार्थना करता है, कि प्रभु मुझे बाहर निकालें, मैं आपका भजन करूंगा दशम मास में जब वह गर्भ से बाहर आता है, बाहर की हवा लगते ही वह सब कुछ भूल जाता है | और रोने लगता है, जब कुछ बड़ा होता है बालकपन खेलकूद में खो देता है, जवानी में स्त्री संग तथा दूसरों से बैर बांधने में खो देता है और अंत में जैसा आया था वैसे ही चला जाता है |
इति एकोत्रिंशो अध्यायः
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
[ अथ द्वात्रिंशो अध्यायः ]
धूम मार्ग और अर्चरादि मार्ग से जाने वालों की गति का वर्णन, भक्ति योग की उत्कृष्टता का वर्णन-- भगवान बोले- हे माताजी जीव संसार में जिसकी उपासना करता है , उसी को प्राप्त होता है |
इति एकोत्रिंशो अध्यायः
सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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[ अथ द्वात्रिंशो अध्यायः ]
धूम मार्ग और अर्चरादि मार्ग से जाने वालों की गति का वर्णन, भक्ति योग की उत्कृष्टता का वर्णन-- भगवान बोले- हे माताजी जीव संसार में जिसकी उपासना करता है , उसी को प्राप्त होता है |
पितरों की पूजा करने वाला पितृ लोक, देवताओं की पूजा करने वाला देव लोक में जाता है , भूत प्रेतों का उपासक भूत प्रेत बनता है, पाप कर्मों में रत पापी धूम मार्ग से यमराज के लोक को जाकर नर्क आदि भोगता है और वह पाप पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में वापस आ जाता है |
किंतु माताजी जो निष्काम भाव से परमात्मा की अनन्य भक्ति करता है, वह महापुरुष अर्चरादिमार्ग से देव आदि लोकों को पार करता हुआ, देवताओं का सम्मान प्राप्त करता हुआ बैकुंठ को जाता है | जहां से वह कभी लौटता नहीं | इसीलिए माताजी प्राणी मात्र का कर्तव्य है कि वह परमात्मा की अनन्य भक्ति करें,
इति द्वात्रिंशो अध्यायः
इति द्वात्रिंशो अध्यायः
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
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देवहुति को तत्वज्ञान एवं मोक्ष पद की प्राप्ति-- मैत्रेय उवाच--
एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री
सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः |
विस्रस्त मोहपटला तवभि प्रणम्य
तुष्टाव तत्वविषयान्कित सिद्धिभूमिम् ||
मैत्रेय जी कहते हैं- कि हे विदुर जी, कपिल भगवान के वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूती के मोंह का पर्दा फट गया और वे तत्व प्रतिपादक सांख शास्त्र ज्ञान की आधार भूमि भगवान श्री कपिल जी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगी |
देवहूति उवाच--
अथाप्यजोनन्तः सलिले शयानं
भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते |
गुणप्रवाहं सद शेष बीजं
दध्यौ स्वयं यज्जठराब्जः ||
देवहुति ने कहा-- कपिल जी ब्रह्मा जी आपके ही नाभि कमल से प्रकट हुए थे, उन्होंने प्रलय कालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत इंद्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का जो सत्वादि गुणों के प्रभाव से युक्त, सत्य स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है का ही ध्यान किया था |
आप निष्क्रिय सत्य संकल्प संपूर्ण जीवो के प्रभु तथा सहस्त्रों अचिंत्य शक्तियों से संपन्न हैं, अपनी शक्ति को गुण प्रवाह रूप से ब्रह्मादिक अनंत विभूतियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना करते हैं |
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-
माता जी की ऐसी स्तुति सुनकर भगवान बोले- माताजी मैंने तुम्हें जो ज्ञान दिया है इससे तुम शीघ्र ही परम पद को प्राप्त करोगी, ऐसा कह कर माता जी से आज्ञा लेकर वहां से चल दिए और समुद्र में आकर तपस्या करने लगे | देवहूति ने भी तीव्र भक्ति योग से परम पद को प्राप्त कर लिया |
इति त्रयोस्त्रिंशो अध्यायः
इति तृतीय स्कन्ध सम्पूर्णम्
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( अथ प्रथमो अध्यायः )
स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन-- स्वायंभू मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत के अलावा तीन पुत्रियां भी थी देवहूति, आकूति और प्रसूति | आकूति रुचि प्रजापति को पुत्रिका धर्म के अनुसार ब्याह दी जिससे यज्ञ नारायण भगवान का जन्म हुआ दक्षिणा देवी से इनको बारह पुत्र हुये |
तीसरी कन्या प्रसूति दक्ष प्रजापति को ब्याह दी जिससे शोलह पुत्रियां हुई, जिनमें तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक पितृ गणों को और एक शिव जी को ब्याह दी | धर्म की पत्नी मूर्ति से नर नारायण का अवतार हुआ, अग्नि के पर्व, पवमान आदि अग्नि पैदा हुए, पितृगण से धारण और यमुना दो पुत्रियां हुई |
इति प्रथमो अध्यायः
इति प्रथमो अध्यायः
भगवान शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य- एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में बड़े-बड़े देवता ऋषि देवता आदि आए, उसी समय प्रजापति दक्ष ने सभा में प्रवेश किया उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और शिव जी के अलावा सब ने उठकर उनका सम्मान किया |
दक्ष ने ब्रह्मा जी को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया , किंतु शिवजी को बैठा देख वह क्रोधित हो उठा और कहने लगा देवता महर्षियों मेरी बात सुनो मैं कोई ईर्ष्या वश नहीं कह रहा हूं , यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की कीर्ति को धूमिल कर रहा है |
इस बंदर जैसे मुंह वाले को मैंने ब्रह्मा जी के कहने पर मेरी कन्या दे दी थी, इस तरह यह मेरे पुत्र के समान है इसने मेरा कोई सम्मान नहीं किया , अस्थि चर्म धारण करने वाला , श्मशान वासी को मैं श्राप देता हूं आज से इसका यज्ञ में भाग बंद हो जाए |
यह सुन शिवजी के जो गण थे , नंदी ने भी दक्ष को श्राप दे दिया इसका मुंह बकरे का हो जाए, साथ ही उन ब्राह्मणों को भी श्राप दिया जिन्होंने दक्ष का समर्थन किया था , कि वे पेट पालने के लिए ही वेद आदि पड़े | इस प्रकार जब भृगु जी ने सुना तो उन्होंने भी श्राप दे दिया कि शिव के अनुयाई शास्त्र विरुद्ध पाखंडी हों यह सुन शिवजी उठकर चल दिए |
इति द्वितीयो अध्यायः
इति द्वितीयो अध्यायः
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सती का पिता के यहां यज्ञोउत्सव में जाने के लिए आग्रह करना-- ब्रह्मा जी ने दक्ष को प्रजापतियों का अधिपति बना दिया, तब तो दक्ष और गर्व से भर गए और उन्होंने शिव जी का यज्ञ भाग बंद करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया, बड़े-बड़े ऋषि देवता उसमें आने लगे, किंतु शिव जी को निमंत्रण नहीं था अतः वे नहीं गए |
जब सती ने देखा कि उसके पिता के यहां यज्ञ है जिसमें सब जा रहे हैं, तो शिवजी से उन्होंने भी जाने का आग्रह किया | सती जानती थी कि उनके यहां निमंत्रण नहीं है फिर भी पिता के यहां बिना बुलाए भी जाने का दोष नहीं है, ऐसा कह कर आग्रह करने लगी , शिव जी ने सती को समझाया कि आपस में द्वेष होने की स्थिति में ऐसा जाना उचित नहीं है, क्योंकि तुम्हारा वहां अपमान होगा उसे तुम सहन नहीं कर सकोगी |
इति तृतीयो अध्यायः
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सती का अग्नि में प्रवेश-- शिवजी के इस प्रकार मना कर देने के बाद भी वह कभी बाहर कभी भीतर आने जाने लगी, और अंत में शिव जी की आज्ञा ना मान पिता के यज्ञ की ओर प्रस्थान किया | जब शिवजी ने देखा कि सती उनकी आज्ञा की अनदेखी करके जा रही हैं, होनी समझ नंदी के सहित कुछ गण उनके साथ कर दिए, सती नंदी पर सवार होकर गणों के साथ दक्ष के यहां पहुंची |
वहां उससे माता तो प्रेम से मिली किंतु पिता ने कोई सम्मान नहीं किया, फिर यज्ञ मंडप में जाकर देखा कि यहां शिवजी का कोई स्थान नहीं है, सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया | शिव के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे तो भृगु जी ने यज्ञ की रक्षा की और शिव गणों को भगा दिया |
इति चतुर्थो अध्यायः
इति चतुर्थो अध्यायः
वीरभद्र कृत दक्ष यज्ञ विध्वंस और दक्ष वध-- जब शिवजी को ज्ञात हुआ कि सती ने अपने प्राण त्याग दिए और उनके भेजे हुए गणों को भी मार कर भगा दिएं, तब उन्होंने क्रोधित होकर वीरभद्र को भेजा |
लंबी चौड़ी आकृति वाला वीरभद्र क्रोधित होकर अन्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ में पहुंचकर यज्ञ विध्वंस करने लगे | मणिमान ने भृगु जी को बांध लिया, वीरभद्र ने दक्ष को कैद कर लिया, चंडीश ने पूषा को पकड़ लिया , नंदी ने भग देवता को पकड़ लिया |
दक्ष का सिर काट दिया और उसे यज्ञ कुंड में हवन कर दिया , भृगु की दाढ़ी मूछ उखाड़ ली, पूषा के दात तोड़ दिए यज्ञ में हाहाकार मच गया सब देवता यज्ञ छोड़कर भाग गए वीरभद्र कैलाश को लौट आए |
इति पंचमो अध्यायः
इति पंचमो अध्यायः
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ब्रह्मादिक देवताओं का कैलाश जाकर श्री महादेव को मनाना-- जब देवताओं ने देखा कि शिवजी के गणों ने सारे यज्ञ को विध्वंस कर दिया वह ब्रह्मा जी के पास गए और जाकर सारा समाचार सुनाया , ब्रह्मा जी और विष्णु भगवान यह सब जानते थे इसलिए वे यज्ञ में नहीं आए थे |
ब्रह्माजी बोले देवताओं शिव जी का यज्ञ भाग बंद कर तुमने ठीक नहीं किया अब यदि तुम यज्ञ पूर्ण करना चाहते हो तो शिवजी से क्षमा मांग कर उन्हें मनावे , ऐसा कहकर ब्रह्माजी सब देवताओं को साथ लेकर कैलाश पर पहुंचे, जहां शिवजी शांत मुद्रा में बैठे थे |
ब्रह्मा जी को देखकर वे उठकर खड़े हो गए और ब्रह्मा जी को प्रणाम किया ब्रह्मा जी ने शिव जी से कहा देव बड़े लोग छोटों की गलती पर ध्यान नहीं देते , अतः चलकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें , दक्ष को जीवनदान दें, भृगु जी की दाढ़ी मूंछ, भग को नेत्र, पूषा को दांत प्रदान करें , यज्ञ के बाद जो शेष रहे आपका भाग हो |
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[ अथ सप्तमो अध्यायः ]
दक्ष यज्ञ की पूर्ति- ब्रह्मा जी के कहने पर शिवजी दक्ष यज्ञ में पहुंचे और बोले भग देवता मित्र देवता के नेत्रों से अपना यज्ञ भाग देखें, पूषा देवता यजमान के दातों से खाएं, दक्ष का सिर जल गया है अतः उसे बकरे का सिर लगा दिया जाए |
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[ अथ सप्तमो अध्यायः ]
दक्ष यज्ञ की पूर्ति- ब्रह्मा जी के कहने पर शिवजी दक्ष यज्ञ में पहुंचे और बोले भग देवता मित्र देवता के नेत्रों से अपना यज्ञ भाग देखें, पूषा देवता यजमान के दातों से खाएं, दक्ष का सिर जल गया है अतः उसे बकरे का सिर लगा दिया जाए |
ऐसा करते ही दक्ष उठ कर खड़ा हो गया, उसे सती के मरण से बड़ा दुख हुआ उसने शिवजी की स्तुति की , यज्ञ प्रारंभ हुआ जो ही भगवान नारायण के नाम से आहुति दी वहां भगवान नारायण प्रगट हो गए | जिन्हें देख सब देवता खड़े हो गए और सब ने भगवान की अलग-अलग स्तुति की |
मैत्रेय जी बोले विदुर जी शिव जी का यह चरित्र बड़ा ही पावन है |
इति सप्तमो अध्यायः
मैत्रेय जी बोले विदुर जी शिव जी का यह चरित्र बड़ा ही पावन है |
इति सप्तमो अध्यायः
( अथ अष्टमो अध्यायः )
ध्रुव का वन गमन- स्वयंभू मनु की तीन पुत्रियों की कथा आप सुन चुके हैं , उनके दो पुत्र हैं उत्तानपाद और प्रियव्रत ! उत्तानपाद के दो रानियां हैं सुरुचि और सुनीति , राजा को सुरुचि अधिक प्रिय है जिनका पुत्र है उत्तम |
सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव है , एक समय राजा सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर राज सिंहासन पर बैठे थे कि ध्रुव खेलते खेलते कहीं से आ गए राजा ने उन्हें भी उठाकर राज सिंहासन पर बैठा लिया, यह देख सुरुचि ने उसे सिंहासन से खींच कर नीचे डाल दिया और कहा तुम राज सिंहासन के अधिकारी नहीं हो , यदि तुम राज सिंहासन पर बैठना चाहते हो तो वन में जाकर नारायण की उपासना करो और मेरे गर्भ में आकर जन्म लो, तब तुम सिंहासन पर बैठ सकते हो |
चोट खाए हुए सांप की तरह बालक ,वह रोता हुआ बालक ध्रुव अपनी माता के पास आया रोते-रोते सारी बात माता को बता दी, माता ने बालक को कहा बेटा विमाता ने जो कुछ कहा वह सत्य है, एकमात्र नारायण ही सब की मनोकामना पूर्ण करते हैं |
माता के ऐसे वचन सुनकर वह वन को चल दिए, रास्ते में नारद जी मिले ,नारद जी ध्रुव से बोले बेटा अभी तो तेरे खेलने के दिन हैं, भजन तो चौथे पन में किया जाता है फिर वन में हिंसक पशु रहते हैं वह तुम्हें खा जाएंगे | ध्रुव बोले चौथापन नहीं आया तो भजन कब करेंगे और जब भगवान रक्षक हैं तो हिंसक पशु कैसे खा जाएंगे |
ध्रुव का अटल विश्वास देख नारद जी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र दिया और कहा यमुना तट पर मधुबन में जाकर इसका जाप करें , वह मधुवन में पहुंचकर उपासना में लीन हो गए |
तीन-तीन दिन में केवल कैथ और बैल खाकर भजन करने लगे , दूसरे महीने में छः छः दिन में केवल सूखे पत्ते खाकर भजन किया, तीसरे महीने में नव नव दिन में केवल जल पीकर भजन किया, चौथे महीने में बारह बारह दिन में वायु पीकर भजन किया।
पांचवे महीने में ध्रुव ने स्वास को जीतकर भगवान की आराधना शुरू की, जिससे संसार की प्राणवायु रुक गई , सब लोग संकट में पड़ गए तो भगवान की शरण में गए और भगवान से बोले हमारा श्वास रुक गया है हमारी रक्षा करें | भगवान बोले देवताओं यह उत्तानपाद पुत्र ध्रुव की तपस्या का प्रभाव है, मैं अभी जाकर उसे तपस्या से निवृत्त करता हूं |
इति अष्टमो अध्यायः
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ध्रुव का अटल विश्वास देख नारद जी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र दिया और कहा यमुना तट पर मधुबन में जाकर इसका जाप करें , वह मधुवन में पहुंचकर उपासना में लीन हो गए |
तीन-तीन दिन में केवल कैथ और बैल खाकर भजन करने लगे , दूसरे महीने में छः छः दिन में केवल सूखे पत्ते खाकर भजन किया, तीसरे महीने में नव नव दिन में केवल जल पीकर भजन किया, चौथे महीने में बारह बारह दिन में वायु पीकर भजन किया।
पांचवे महीने में ध्रुव ने स्वास को जीतकर भगवान की आराधना शुरू की, जिससे संसार की प्राणवायु रुक गई , सब लोग संकट में पड़ गए तो भगवान की शरण में गए और भगवान से बोले हमारा श्वास रुक गया है हमारी रक्षा करें | भगवान बोले देवताओं यह उत्तानपाद पुत्र ध्रुव की तपस्या का प्रभाव है, मैं अभी जाकर उसे तपस्या से निवृत्त करता हूं |
इति अष्टमो अध्यायः
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भागवत सप्ताहिक कथा PDF
( अथ नवमो अध्यायः )ध्रुव का वर पाकर घर लौटना- मैत्रेय जी बोले विदुर जी जिस समय ध्रुव जी भगवान का हृदय में ध्यान कर रहे थे भगवान उनके सामने आकर खड़े हो गए किंतु ध्रुव जी की समाधि नहीं खुली तो भगवान ने अपना स्वरूप हृदय से खींच लिया, व्याकुल होकर उनकी समाधि खुल गई सामने भगवान को देख वे दंड की तरह भगवान के चरणों में गिर गए |
भगवान ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ध्रुव जी कुछ स्तुति करना चाहते थे , पर वे जानते नहीं कि कैसे करें तभी भगवान ने अपना शंख ध्रुव जी के कपोल से छू दिया वे स्तुति करने लगे----
योन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीव यत्यखिल शक्ति धरः स्वधाम्ना |
अन्यांश्च हस्त चरण श्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ||
ध्रुव बोले हे प्रभो आपने मेरे हृदय में प्रवेश कर मेरे सोती हुई वाणी को जगा दिया , आप हाथ पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों एवं प्राणों को चेतना देते हैं | मैं आपको प्रणाम करता हूं |
ध्रुव के इस प्रकार स्तुति सुनी तो भगवान बोले भद्र तेजो मय अविनाशी लोक जिसे अब तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके ग्रह नक्षत्र और तारागण, रूप ज्योति चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है |
जिस प्रकार मेंढी के चारों और देवरी के बैल घूमते रहते हैं , एक कल्प तक रहने वाले लोकों का नाश हो जाने पर भी स्थिर रहता है, तथा तारा गणों के शहीद धर्म अग्नि कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्त ऋषि गण जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं |
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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ध्रुव जी ने अपने नगर की ओर प्रस्थान किया राजा उत्तानपाद को नारद जी के द्वारा जब यह मालूम हुआ कि उनका पुत्र ध्रुव लौटकर आ रहा है |
आश्चर्य और प्रसन्नता हुई और एक पालकी लेकर स्वयं रथ में बैठकर ध्रुव जी अगवानी के लिए चले रास्ते में आते हुए राजा को ध्रुव जी मिले, राजा ने उन्हें अपने अंक में भर लिया ध्रुव जी ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और पालकी में बैठकर नगर में प्रवेश किया राजा ने उन्हें राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त कर स्वयं भजन करने चल दिए |
इति नवमो अध्यायः
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उत्तम का मारा जाना और ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध-- ध्रुव जी ने शिशुमार की पुत्री भ्रमी से विवाह किया जिससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए | दूसरी स्त्री वायुमती से उत्कल नामक पुत्र हुआ, छोटे भाई का अभी विवाह भी नहीं हुआ था कि एक यक्ष द्वारा मारा गया, भाई के मारे जाने की खबर सुनकर ध्रुव ने यक्षों पर चढ़ाई कर दी और यक्षों का संघार करने लगे |
इति दशमो अध्यायः
स्वायंभू मनु का ध्रुव को युद्ध बंद करने के लिए समझाना- अत्यंत निर्दयता पूर्वक यक्षों का संहार करते देख ध्रुव जी के दादा, स्वयंभू मनु उनके पास आए और उन्हें समझाया कि बेटा तुम्हारे भाई को किसी एक यक्ष ने मारा फिर बदले में यह हजारों यक्षों का संघार क्यों कर रहे हो ?
तुम अभी अभी भगवान की तपस्या करके आए हो तुम्हारे लिए यह बात उचित नहीं है | अतः शीघ्र ही यह युद्ध बंद कर दो ध्रुव जी ने दादा की बात मानकर युद्ध बंद कर दिया |
इति एकादशो अध्यायः
( अथ द्वादशो अध्यायः )
ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णु लोक की प्राप्ति- मैत्रेय जी बोले ही विदुर जी ध्रुव जी का क्रोध शांत हो जाने पर कुबेर जी वहां आए कुबेर बोले अपने दादा की बात मानकर आपने युद्ध बंद कर दिया इसलिए मैं बहुत प्रसन्न हूं, आप वरदान मांगे , ध्रुव जी बोले भगवान के चरणों में मेरी मति बनी रहे यही वरदान दीजिए |
कुबेर जी ने एवमस्तु कहा, वर पाकर ध्रुव घर आ गए और भगवान को ह्रदय में रखकर 36000 बरस तक राज किया और अंत में अपने पुत्र उत्कल को राज्य देकर वन में भगवान का भजन करने के लिए चले गए |
वहां उन्होंने भगवान की उत्कट भक्ति की , नेत्रों में अश्रुपात ढर रहे हैं , भगवान से मिलने की तीव्र उत्कंठा में छटपटा रहे हैं तभी आकाश मार्ग से एक सुंदर विमान धरती पर उतरा उसमें से चार भुजा वाले दो पार्षद निकले , ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया |
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितंत्वया यत्सूरयो अप्राप्य विचक्षते परम् |
आतिष्ठ तच्चंद्र दिवाकरादयो ग्रहर्क्ष ताराः परियन्ति दक्षिणम् ||
नंद सुनंद बोले हे ध्रुव आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णु लोक का अधिकार प्राप्त कर लिया है जो औरों के लिए बड़ा दुर्लभ है , सप्त ऋषि, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र जिसकी परिक्रमा किया करते हैं ,
आप उसी विष्णु लोक में निवास करें।
इति द्वादशो अध्यायः
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ध्रुव वंश का वर्णन- यद्यपि ध्रुव जी अपने बड़े पुत्र उत्कल को राज्य देकर गए थे फिर भी परमात्मा की भक्ति में लीन होने के कारण वह राज्य नहीं लिया और अपने छोटे भाई वत्सर को राजा बना दिया |
इसी के वंश में राजा अंग हुए अंग के कोई पुत्र नहीं था, तब उन्होंने पुत्र कामेष्टि यज्ञ किया जिससे उनके यहां बेन नाम का पुत्र हुआ | वह मृत्यु की पुत्री सुनीथा का पुत्र था वह पुत्र बड़ा दुष्ट स्वभाव का था , क्योंकि नाना के गुण उसमें आ गए थे , वह खेलते हुए बालकों को मार देता था पुत्र दुख से दुखी होकर अंग वन में भजन करने चला गये |
इति त्रयोदशो अध्यायः
( अथ चतुर्दशो अध्यायः )
राजा बेन की कथा- पिता के वन चले जाने पर मुनियों ने बेन को राजा बना दिया तो वह और उन्मत्त हो गया, प्रजा को कष्ट देने लगा धर्म-कर्म यज्ञ आदि बंद करवा दिया, इस पर ऋषियों नें उसे समझाया तो कहने लगा--
बालिशावत यूयं वा अधर्मे धर्म मानिनः |
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पति मुपासते ||
बेन बोला तुम बड़े मूर्ख हो अधर्म को ही धर्म मानते हो, तभी तो जीविका देने वाले पति को छोड़कर जारपति की उपासना करते हो सारे देवता राजा के शरीर में निवास करते हैं |
ऋषियों का इस प्रकार अपमान करने पर उन्होंने उसे हुंकार से समाप्त कर दिया | किंतु दूसरा कोई राजा ना होने पर उसके शरीर का मंथन किया उससे निषाद की उत्पत्ति हुई |
इति चतुर्दशो अध्यायः
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महाराज पृथु का आविर्भाव और राज्याभिषेक- मैत्रेय जी बोले विदुर जी निषाद की उत्पत्ति के बाद बेन की भुजाओं का मंथन किया गया जिनमें से एक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ | ऋषियों ने कहा यह साक्षात लक्ष्मी नारायण हैं, अतः उनका राज्याभिषेक कर दिया गया बंदी जनों ने उनकी स्तुति कि इस पर पृथु जी बोले-
, हे सूत मागध अभी तो हमारे कोई गुण प्रकट भी नहीं हुए हैं, फिर यह गुण किसके गाए जा रहे हो, गुण केवल भगवान के गाए जाते हैं अतः उन्हें के गुण गाओ |
इति पंचदशो अध्यायः
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( अथ षोडषो अध्यायः )
बन्दी जन द्वारा महाराज पृथु की स्तुति-- मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ऋषियों की प्रेरणा से बदींजन फिर इस प्रकार स्तुति करने लगे- हे प्रभु आपने कहा कि स्तुति तो भगवान की करनी चाहिए |
आप साक्षात नारायण ही तो हैं हम तो आपकी स्तुति करने से असमर्थ हैं, इस सृष्टि के रचयिता पालन करता और संहार करता आप ही हैं , हम आपको नमस्कार करते हैं |
इति षोडशो अध्यायः
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महाराजा पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना और पृथ्वी के द्वारा उनकी स्तुति करना- मैत्रेय जी बोले हे विदुर जब ब्राह्मणों ने पृथु जी को राजा बनाया था तब उस समय पृथ्वी अन्नहीन हो गई थी |
अतः प्रजाजन भूख से व्याकुल थे वे प्रभु जी से बोले प्रभु हम प्रजा जन भूख से व्याकुल आप की शरण में आए हैं आप हमारी रक्षा करें , प्रथु जी ने विचार किया कि इस पृथ्वी ने सारे अन्न को छुपा लिया है | अतः उसे मारने के लिए धनुष पर बांण चढ़ा लिया पृथ्वी उनकी शरण में आ गई और बोली--
नम: परस्मै पुरुषाय मायया विन्यस्त नानातनवे गुणात्मने |
नमः स्वरूपानुभवेन निर्धुत द्रव्य क्रियाकारक विभ्रमोर्मये ||
आप साक्षात परम पुरुष एवं आप अपनी माया से अनेक रूप धारण करते हैं, आप अध्यात्म अद्भुत आदिदेव हैं मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूं |
इति सप्तदशो अध्यायः
( अथ अष्टादशो अध्यायः )
पृथ्वी दोहन- पृथ्वी बोली ब्रह्मा जी के द्वारा बनाए अन्मादि को दुष्ट लोग नष्ट कर रहे थे अतः मैंने उनको अपने उदर में रखा है, अब आप योग्य बछड़ा और दोहन पात्र बनाकर उन्हें दुह लें।
पृथ्वी के वचन सुनकर प्रभु जी ने मनु को बछड़ा बनाकर सारे धान्य को दुह लिया अन्य लोगों ने भी योग्य बछड़ा और दोहन पात्र लेकर अभिष्ट वस्तु दुह ली और उसके पश्चात पृथु जी ने अपने धनुष नोक से उसे समतल बना दिया |
इति अष्टादशो अध्यायः
महाराज पृथु के सौ अश्वमेघ यज्ञ- मैत्रेय जी बोले विदुर जी , सरस्वती नदी के किनारे पर पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किए इससे इंद्र को बड़ी ईर्ष्या हुई, अतः यज्ञ के घोड़े का हरण कर लिया प्रथु जी के पुत्र ने इंद्र का पीछा किया, बचने के लिए इंद्र ने साधु का भेष बना लिया |
कुमार उस पर शस्त्र नहीं चलाया इस पर पृथु को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने इंद्र को मारने के लिए धनुष पर बांण उठा लिया, किंतु ऋत्यजों ने उन्हें ऐसा करने को मना कर दिया | तब ऋत्विजों ने इंद्र को भस्म करने के लिए आवाहन किया तब ब्रह्माजी ने उन्हें रोक दिया |
इति एकोनविंशो अध्यायः
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( अथ विंशो अध्यायः )
महाराज पृथु की यज्ञशाला में भगवान विष्णु का प्रादुर्भाव- ब्रह्मा जी के कहने पर पृथु की यज्ञशाला में इंद्र को लेकर भगवान विष्णु प्रकट हो गए , महाराज पृथु ने उन्हें प्रणाम किया |
भगवान ने इंद्र के अपराध क्षमा करवाए पृथु ने भगवान की प्रार्थना की और उनसे वरदान में हजार कान मागे, और कहा प्रभु आप की महिमा सुनने के लिए दो कान कम पड़ते हैं |भगवान उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोग चले गए |
इति विंशो अध्यायः
महाराजा पृथु का अपनी प्रजा को उपदेश- महाराज पृथु ने अपनी प्रजा को उपदेश दिया कि चारों वर्णों को अपने अपने कर्तव्यों का पालन यथोचित करना चाहिए परमात्मा को कभी ना भूलें, साधु संतों का सम्मान करना चाहिए अपने राजा के उपदेश से प्रजाजन बड़े प्रसन्न हुए और उनके उपदेशों को शिरोधार्य किया |
इति एकविंशो अध्यायः
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महाराजा पृथु को सनकादिक का उपदेश- अपनी प्रजा को उपदेस देने के बाद महाराज पृथु के यहां सनकादि ऋषि पधारे राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया उनकी पूजा की सनकादि ऋषियों ने राजा को परमात्मा को तत्व का ज्ञान दिया | महाराज पृथु के पांच पुत्र हुए- विजिताश्व धूम्र केश हर्यक्ष द्रविण और बृक ये सभी पराक्रमी हुए |
इति द्वाविंशो अध्यायः
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( अथ त्रयोविंशो अध्यायः )
राजा पृथु की तपस्या और परलोक गमन- चौथेपन में राजा पृथु ने समस्त पृथ्वी का भार अपने पुत्रों को सौंपकर वन के लिए प्रस्थान किया और वहां परमात्मा का भजन करते हुए अपने धाम को पधार गए |
इति त्रयोविंशो अध्यायः
( अथ चतुर्विंशो अध्यायः )
पृथु की वंश परंपरा और प्रचेताओं को भगवान रुद्र का उपदेश- मैत्रेय जी कहते हैं कि हे विदुर जी पृथु जी के पुत्र विजितास्व तथा उनके पुत्र हविर्धान के बर्हिषद नामक पुत्र हुआ, जिसका दूसरा नाम प्राचीनबर्हि था उनके प्रचेता नाम के 10 पुत्र हुए |
पिता की आज्ञा से सृष्टि रचना हेतु तपस्या करने के लिए समुद्र में गए रास्ते में उन्हें शिवजी मिले उन्हें प्रणाम किया शिव जी ने प्रसन्न होकर उन्हें नारायण उपासना का ज्ञान दिया उसका भी अनुसंधान करने लगे |
इति चतुर्विंशो अध्यायः
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[ चतुर्थ स्कंध ]
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सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
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( अथ पंचविंशति अध्यायः)
पुरंजन उपाख्यान का प्रारंभ- शिवजी से नारायण स्तोत्र प्राप्त कर प्रचेता समुद्र में उसका जप करने लगे ! उन्हीं दिनों राजा प्राचीनबर्हि कर्मकांड में रम गए थे नारद जी ने उन्हें उपदेश दिया, नारदजी बोले राजा इन यज्ञो में जो निर्दयता पूर्वक जिन पशुओं की कि तुमने बलि दी है उन्हें आकाश में देखो यह सब तुम्हें खाने को तैयार हैं |
अब तुम एक उपाख्यान सुनो प्राचीन काल में एक पुरंजन नाम का एक राजा था उसके अभिज्ञात नाम का एक मित्र था, हिमालय के दक्षिण भारत वर्ष में नव द्वार का नगर देखा उसने उस में प्रवेश किया वहां उसने एक सुंदरी को आते हुए देखा उसके साथ दस सेवक हैं, जो सौ सौ नायिकाओं के पति थे , एक पांच फन वाला सांप उनका द्वारपाल था, पुरंजन ने उस सुंदरी से पूछा देवी आप कौन हैं ?
उसने बताया कि मेरा नाम पुरंजनी है तब तो पुरंजन बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला देवी मेरा नाम भी पुरंजन है आप भी अविवाहिता हैं और मैं भी , क्यों ना हम एक हो लें विवाह करके दोनों विवाह सूत्र बंंध गए और सौ वर्ष तक रहकर उस पूरी में उन्होंने भोग भोगा।
नव द्वार कि उस पूरी से राजा पुरंजन अलग-अलग द्वारों से अलग-अलग देशों के लिए भ्रमण करता था और पुरंजनी के कहने के अनुसार चलता था | वह कहती थी बैठ जाओ तो बैठ जाता था, कहती थी उठ जाओ तो उठ जाता था इस प्रकार पुरंजन पुरंजनी के द्वारा ठगा गया |
इति पंचविंशोअध्यायः
( अथ षड्विंशो अध्यायः )
राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना- एक दिन राजा पुरंजन के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई, यद्यपि वह अपनी पत्नी को एक पल भी नहीं छोड़ता था पर आज वह बिना पत्नी को पूंछे शिकार के लिए चला गया |
वहां वन में निर्दयता पूर्वक जंगली जीवो का शिकार किया अंत में जब थक कर भूख प्यास लगी तो वह घर को लौट आया वहां उसने स्नान भोजन कर विश्राम करना चाहा उसे अपने पत्नी की याद आई वह उसे ढूंढने लगा नहीं मिलने पर उसने दासियों से पूछा , दासियों बताओ तुम्हारी स्वामिनी कहां हैं, दासिया बोली स्वामी आज ना जाने क्यों वह बिना बिछौने कोप भवन पर धरती पर पड़ी है |
पुरंजन समझ गया कि आज मैं बिना पूछे शिकार को चला गया यही कारण है , वह उसके पास गया क्षमा याचना की खुशामद की हाथ जोड़े पैर छुए और अंत में अपनी प्रिया को मना लिया |
इति षड्विंशो अध्यायः
पुरंजन पुरी पर चंडवेग की चढ़ाई तथा काल कन्या का चरित्र- अपनी प्रिया को इस तरह मना कर वह उसके मोंह फांस में ऐसा बंध गया कि उसे समय का कुछ भान ही नहीं रहा उसके ग्यारह सौ पुत्र एक सौ दस कन्याएं हुई |
इन सब का विवाह कर दिया और उनके भी प्रत्येक के सौ सौ पुत्र हुए उसका वंश खूब फैल गया , अंत में वृद्ध हो गया चण्डवेग नाम के गंधर्व राज ने तीन सौ साठ गंधर्व और इतनी ही गंधर्वियां के साथ पुरंजन पुर पर चढ़ाई कर दी वह पांच फन का सर्प अकेले ही उन शत्रुओं का सामना करते रहा | अंत में उसे बल हीन देख पुरंजन को बड़ी चिंता हुई |
नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि राजा, एक समय काल की कन्या जरा घूमते घूमते हुए मुझे मिली वह मुझसे विवाह करना चाहती थी कि मेरे मना करने पर मेरी प्रेरणा से वह यवनराज भय के पास गई, यवन राज भय ने उससे एक बात कही मेरी सेना को साथ लेकर तुम बल पूर्वक लोगों को भोगो |
इति सप्तविंशो अध्यायः
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( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )
पुरंजन को स्त्री योनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना- काल कन्या जरा ने यमराज की सेना के साथ पुरंजन पूरी को घेर लिया, चंडवेग पहले से ही उसे लूट रहा था अंत में पुरंजन घबराया और अपनी पत्नी से लिपट कर रोने लगा और अंत में स्त्री के वियोग में अपना शरीर छोड़ दिया उसे दूसरे जन्म में स्त्री योनि में जन्म लेना पड़ा, वहां उसका एक राजा के साथ विवाह हो गया काल बस कुछ समय पश्चात उसका पति शांत हो गया वे नितांत अकेली रह गई।
शरीर कृष हो गया वह पति के लिए रोती रहती थी कि एक बार एक ब्राह्मण उसे समझाने लगे देवी तुम कौन हो किसके लिए रो रही हो मुझे पहचानती हो मैं वही पुराना तुम्हारा अभिज्ञात सखा हूं , नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि इस उपाख्यान से पता चलता है, एक मात्र परमात्मा का भजन ही सार है |
इति अष्टाविंशो अध्यायः
( अथ एकोनत्रिंशो अध्यायः )
पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य- नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि अब इस पुरंजन उपाख्यान का तात्पर्य सुनो यह जीव ही पुरंजन है, नौ द्वार वाला यह शरीर ही पुरंजन की पूरी है, बुद्धि ही पुरंजनी है, दस इंद्रियां ही दस सेवक हैं, एक एक के सौ सौ सेविकाएं इंद्रियों की वृत्तियां है, पंञ्च प्राण हि पांच फन का सांप है , ईश्वर ही अभिज्ञात सखा है |
इस शरीर पूरी को तीन सौ साठ दिन उतनी ही रात्रियां लूट रहे हैं , काल कन्या जरा बुढ़ापा है जो बलपूर्वक आता है | अंत में पुरी नष्ट होना ही मर जाना है | जिसकी याद में मरता है वहीं योनि दूसरे जन्म मे मिलती है, ईश्वर ही अंत में मुक्ति देता है |
इति एकोनत्रिंशो अध्यायः
( अथ अष्टाविंशो अध्यायः )
पुरंजन को स्त्री योनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना- काल कन्या जरा ने यमराज की सेना के साथ पुरंजन पूरी को घेर लिया, चंडवेग पहले से ही उसे लूट रहा था अंत में पुरंजन घबराया और अपनी पत्नी से लिपट कर रोने लगा और अंत में स्त्री के वियोग में अपना शरीर छोड़ दिया उसे दूसरे जन्म में स्त्री योनि में जन्म लेना पड़ा, वहां उसका एक राजा के साथ विवाह हो गया काल बस कुछ समय पश्चात उसका पति शांत हो गया वे नितांत अकेली रह गई।
शरीर कृष हो गया वह पति के लिए रोती रहती थी कि एक बार एक ब्राह्मण उसे समझाने लगे देवी तुम कौन हो किसके लिए रो रही हो मुझे पहचानती हो मैं वही पुराना तुम्हारा अभिज्ञात सखा हूं , नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि इस उपाख्यान से पता चलता है, एक मात्र परमात्मा का भजन ही सार है |
इति अष्टाविंशो अध्यायः
( अथ एकोनत्रिंशो अध्यायः )
पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य- नारद जी बोले हे प्राचीनबर्हि अब इस पुरंजन उपाख्यान का तात्पर्य सुनो यह जीव ही पुरंजन है, नौ द्वार वाला यह शरीर ही पुरंजन की पूरी है, बुद्धि ही पुरंजनी है, दस इंद्रियां ही दस सेवक हैं, एक एक के सौ सौ सेविकाएं इंद्रियों की वृत्तियां है, पंञ्च प्राण हि पांच फन का सांप है , ईश्वर ही अभिज्ञात सखा है |
इस शरीर पूरी को तीन सौ साठ दिन उतनी ही रात्रियां लूट रहे हैं , काल कन्या जरा बुढ़ापा है जो बलपूर्वक आता है | अंत में पुरी नष्ट होना ही मर जाना है | जिसकी याद में मरता है वहीं योनि दूसरे जन्म मे मिलती है, ईश्वर ही अंत में मुक्ति देता है |
इति एकोनत्रिंशो अध्यायः
( अथ त्रिंशो अध्यायः )
प्रचेताओं को भगवान विष्णु का वरदान- अपने पिता की आज्ञा से प्रचेताओं ने समुद्र में दस हजार वर्ष तक शिवजी के दिए हुए स्तोत्र से भगवान नारायण की उपासना की, भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और कहा राजपुत्रो तुम्हारा कल्याण हो, तुमने पिता की आज्ञा से सृष्टि रचना करने के लिए तपस्या की है |
अतः तुम कण्व ऋषि के तप को नष्ट करने के लिए भेजी प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न कन्या, जिसे छोड़कर स्वर्ग चली गई और जिसका पालन पोषण वृक्षों ने किया तुम उससे विवाह करो, तुम्हारे एक बड़ा विख्यात पुत्र होगा जिसकी संतान से सारा विश्व भर जाएगा, अब तुम अपनी इच्छा का वरदान मांग लो |
प्रचेताओं नें भगवान की स्तुति की और कहा प्रभु जब हम एक संसार में रहें आपको नहीं भूले यही वरदान आप दीजिए, भगवान एवमस्तु कहकर अपने धाम को चले गए और प्रचेताओं ने वृक्षों की कन्या मारीषा से विवाह किया जिससे उनके दक्ष नामक एक तेजस्वी पुत्र हुआ जिन्हें ब्रह्मा जी ने प्रजापतियों का अधिपति नियुक्त किया |
इति त्रिशों अध्यायः
( अथ एकत्रिंशो अध्यायः )
प्रचेताओं को नारद जी का उपदेश और उनका परम पद लाभ- एक लाख वर्ष बीत जाने पर प्रचेताओं को भगवान के भजन का ध्यान आया और वह ग्रहस्थी छोड़ वन में भगवान के भजन को चल दिए वहां उन्हें नारद जी मिले जिन्होंने प्रचेताओं को परमात्म तत्व का उपदेश दिया जिसका भजन कर प्रचेता परमधाम को चले गए और मैत्रेय जी ने भी विदुर जी को विदा कर दिया |
इति एकत्रिशों अध्यायः
इति चतुर्थ स्कन्ध समाप्त
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अथ पंचमः स्कन्ध प्रारम्भ
( अथ प्रथमो अध्यायः )
प्रियव्रत चरित्र- स्वायंभू मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत परमात्मा के परम भक्त थे, मनु जी ने जब उन्हें राज्य देना चाहा तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया , इस पर उन्हें समझाने के लिए स्वयं ब्रह्मा नारद आदि आए और उन्हें समझाया कि सीधे-सीधे सन्यास लेने की अपेक्षा ग्रहस्थ धर्म के बाद जो सन्यास लिया जाता है वह अधिक उत्तम है |
इसलिए पहले राज्य कर लें, फिर सन्यास लें पितामह ब्रह्माजी की बात प्रियव्रत ने शिरोधार्य की और उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति से विवाह किया उनके दस पुत्र हुए जो उन्हीं के समान प्रतापी थे | उनके एक छोटी कन्या भी हुई जिनका नाम उर्जस्वती था पुत्रों में सबसे बड़े आग्नीध्र थे |
एक बार उन्होंने देखा कि सूर्य का प्रकाश आधे पृथ्वी पर ही रहता है आधे में अंधेरा रहता है तो उन्होंने संकल्प पूर्वक एक प्रकाशमान रथ बनाया जिसमें बैठकर सूर्य के पीछे पीछे सात परिक्रमा लगा दी।
उनके रथ के पहिओं से जो गढ्ढे हुए वे सात समुद्र बन गए जो भाग बीच में रहा वहाँ सात द्वीप बन गए ब्रह्मा जी के कहने से प्रियव्रत की यह रथ यात्रा सात दिन बाद पूर्ण हो गई | इस प्रकार कई वर्षों तक राज्य किया अन्त में उसका मन भगवान की ओर गया और अपने पुत्र को राज्य दे और वे वन गए भगवान का भजन करने के लिए वहां भगवान को प्राप्त कर लिया |
इति प्रथमो अध्यायः
( अथ द्वितीयो अध्यायः )
आग्नीध्र चरित्र- अपने पिता प्रियव्रत के वन चले जाने के बाद उनके पुत्र आग्नीध्र ने अपने पिता के सतांन नही हुई तो पित्रेश्वरों की उपासना की, ब्रह्मा जी ने उनके आशय को समझ अपनी पूर्वचित्ती अप्सरा को भेजा वह वहां पहुंची जहां अग्नीन्ध्र उपासना कर रहे थे।
अप्सरा ने उनके चित्त को मोहित कर लिया, उससे उनके नौ पुत्र हुए | पूर्वचित्ति उन्हें वहीं छोड़कर ब्रह्मलोक चली गई , आग्नीध्र ने समस्त पृथ्वी के नौ भाग कर उन्हें अपने पुत्रों को सौंपा आप भी अपने पिता की तरह बन में भजन करने चले गए |
इति द्वितीयो अध्यायः
( अथ तृतीयो अध्यायः )
राजा नाभि का चरित्र- अपने पिता के वन गमन के बाद उनके पुत्र नाभि ने राज्य संभाला उनके भी कोई संतान न होने पर भगवान नारायण का यजन किया , यज्ञ में भगवान नारायण प्रकट हुए और राजा को वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान के सामान पुत्र मांगा।
भगवान बोले मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, मैं स्वयं तुम्हारे यहां आऊंगा ऐसा कर भगवान अंतर्धान हो गए | समय पाकर राजा नाभि के यहां अवतरित हुए |जिनका नाम ऋषभदेव रखा गया |
इति तृतीयो अध्यायः
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( अथ चतुर्थो अध्यायः )
ऋषभदेव जी का राज्य शासन- साक्षात भगवान को पुत्र रूप में पाकर नाभि बड़े प्रसन्न हुए कुछ समय के लिए ऋषभदेव जी ने गुरुकुल में निवास किया जहां अल्पकाल में सभी विद्याओं का अध्ययन कर लिया !
( अथ चतुर्थो अध्यायः )
ऋषभदेव जी का राज्य शासन- साक्षात भगवान को पुत्र रूप में पाकर नाभि बड़े प्रसन्न हुए कुछ समय के लिए ऋषभदेव जी ने गुरुकुल में निवास किया जहां अल्पकाल में सभी विद्याओं का अध्ययन कर लिया !
उनके गुणों की चारों ओर चर्चा होने लगी तो इंद्र ने परीक्षा के लिए उनके राज्य में वर्षा नहीं की तो ऋषभदेव जी ने अपने योग बल से वर्षा करा ली , इससे इंद्र बड़ा लज्जित हुआ और उसने अपनी जयंती नाम की पुत्री उन्हें ब्याह दी | राजा नाभि ने अपने पुत्र को सब तरह योग्य समझ उन्हें राजा बना , आप वन में चले गए भजन करने के लिए |
ऋषभदेव ने जयंती से सौ पुत्र उत्पन्न किए जिनमें सबसे बड़े भरत हुए जिनके नाम पर अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष हुआ, इनसे छोटे नौ भी भरत के समान ही महान हुए, उनसे छोटे नो योगी जन हुए जिनका वर्णन एकादश स्कंध में होगा , शेष इक्यासी कर्मकांडी हुए जो अंत में ब्राम्हण बन गए उन्होंने कयी यज्ञ किए |
इति चतुर्थो अध्यायः
ऋषभदेव ने जयंती से सौ पुत्र उत्पन्न किए जिनमें सबसे बड़े भरत हुए जिनके नाम पर अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष हुआ, इनसे छोटे नौ भी भरत के समान ही महान हुए, उनसे छोटे नो योगी जन हुए जिनका वर्णन एकादश स्कंध में होगा , शेष इक्यासी कर्मकांडी हुए जो अंत में ब्राम्हण बन गए उन्होंने कयी यज्ञ किए |
इति चतुर्थो अध्यायः
( अथ पंचमो अध्यायः )
ऋषभ जी का अपने पुत्रों को उपदेश तथा स्वयं अवधूत वृत्ति धारण करना- ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया कि मनुष्य का कर्तव्य केवल विषय वासनाओं की पूर्ति नहीं है, बल्कि उनसे दूर रहकर भगवान का भजन करने में उनकी सार्थकता है |
विषय भोग तो कूकर सूकर भी भोंगते हैं, वहां बैठे हुए ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले- मुझे ब्राह्मणों से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, जो उनके मुख में अन्न डालता है उससे मेरी तृप्ती होती है |
इस प्रकार उपदेश देकर भरत को राज्य दे स्वयं वन में चले गए , वहां उन्होंने अवधूत वृत्ति धारण कर ली, पागलों की तरह रहते, वस्त्र नहीं पहनते, अपने ही मल में लोट जाते पर उसमें दुर्गंध नहीं सुगंध आती थी | उनके पास कई रिद्धि-सिद्धि आई उन्होंने स्वीकार नहीं किया |
इति पंचमो अध्यायः
( अथ षष्ठो अध्यायः )
ऋषभदेव जी का देह त्याग- अवधूत वृत्ति में घूमते घूमते ऋषभदेव जी ने अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देह को दावाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया |
जिस समय कलयुग में अधर्म की बुद्धि होगी उस समय कोंक वेंक और कुटक देश का मंदमति राजा अर्हत वहां के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृत्तांत सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्व संचित पाप फल रूप होनहार के वशीभूत होकर भय रहित स्वधर्म पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखंड पूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा | उसे कलयुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्र विहित शौच आचार को छोड़ बैठेंगे |
अधर्म बाहुल्य कलयुग के प्रभाव से बुद्धि हीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखंड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राम्हण और भगवान यज्ञ पुरुष की निंदा करने लगेंगे |
इति षष्ठो अध्यायः
भरत चरित्र- अपने पिता के चले जाने के बाद भरत जी राज्य सिंहासन पर बैठे, विश्वरूप भ
की कन्या पंचजनी से विवाह किया, जिससे पांच पुत्र हुए, वे उन्हीं के समान थे | धर्म पूर्वक राज्य करने के बाद वे वन में भजन करने को गण्डकी के तीर पर पुलह आश्रम पर चले गए और भगवान का भजन करने लगे |
इति सप्तमो अध्यायः
( अथ अष्टमो अध्यायः )
भरत जी का मृग मोह में फंसकर मृग योनि में जन्म लेना- एक दिन भरत जी गंडकी नदी के किनारे भजन कर रहे थे, सहसा एक सिंह की दहाड़ हुई उससे घबराकर एक हिरनी ने नदी को पार करने के लिए छलांग लगाई , जिससे उसका गर्भ का बच्चा नदी में गिर गया और हिरणी दूसरी तरफ जाकर मर गई , भरत जी ने देखा कि हरनी का बालक पानी में बह रहा है, दया बस दौड़कर उसे उठा लिया और उसका पालन-पोषण करने लगे |
धीरे-धीरे उनका भजन छूटता गया और मृग में मोह बढ़ता गया, एक दिन मृग समाप्त हो गया और उसके बिरह में भरत जी ने भी शरीर त्याग मृग योनि में जन्म लिया, किंतु उन्हें पूर्व जन्म की स्मृति थी वे पुनः आसक्ती ना हो जाए मृगों से भी दूर ही रहने लगे और अंत में गंडकी में अपने शरीर को छोड़ दिया |
इति अष्टमो अध्यायः
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( अथ नवमो अध्यायः )
भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म- आंगीरस गोत्र के एक ब्राम्हण परिवार में आपका दूसरा जन्म हुआ , वहां भी आप की पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही, उनकी बड़ी माता से उनके पांच भाई थे और कहीं पुनः आसक्ती ना हो जाए इस भय से वे पागलों की तरह रहते थे , पिता ने उनका यगोपवित संस्कार कर दिया बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया | विमाता कुछ दे देती उसे ही खाकर वे संतुष्ट रहते , चारों ओर भ्रमण करते रहते थे |
एक बार डाकू ने ने पकड़ लिया और भद्रकाली की भेंट चढ़ाने को इन्हें ले गए अपनी पद्धति के अनुसार उन्हें पहले स्नान करवाया फिर मधुर भोजन करवाया और फिर भद्रकाली के सामने बलि देने के लिए ले गए वे हर परिस्थिति में प्रसन्न थे।
तलवार निकालकर जब उन्हें मारने को उद्यत हुए फिर भी वह प्रसन्न थे, किंतु परमात्मा के भक्तों का अपने सामने वध देवी को स्वीकार नहीं हुआ, देवी ने चोरों के हाथ से तलवार छीन ली और उन्हें मौत के घाट उतार कर भगवान के भक्तों की रक्षा की |
इति नवमो अध्यायः
जड़ भरत और राजा रहूगण की भेंट- एक समय सिंधुसौवीर्य देश का राजा रहूगण अपनी पालकी में बैठकर कहीं जा रहा था, रास्ते में उसकी पालकी का एक कहार बीमार हो गया तो उसे उसने पास ही खड़े भरत जी को पालकी में जोत लिया |
उसका भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया किंतु वे रास्ते के जीवो को बचाते हुए टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलने लगे तो पालकी डोलने लगी रहूगण ने कहारों को डांटते हुए कहा यह कौन मूर्ख है जो पालकी को ठीक से नहीं ढोता |
कहार बोले यह नया कहार ठीक से नहीं चलता, राजा ने भरत जी को डांटते हुए कहा अरे तू मेरे राज्य का अन्न खाकर मोटा हो रहा है और काम नहीं करता, डंडे से तेरी इतनी मार लगाऊंगा कि ठीक हो जाएगा |
भरत जी ने मौन तोड़ा और बोले मोटा ताजा शरीर है आत्मा सबकी समान है फिर मार भी यह शरीर खाएगा , मैं तो सुख दुख से परे हूँ, यह सुन कर रहूगण ने देखाकि अरे यह तो कोई संत है , पालकी से नीचे उतर भरत जी के चरणों में गिर गया |
इति दशमो अध्यायः
( अथ एकादशो अध्यायः )
राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश- भरत जी बोले राजा आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं जिन्होंने इस शरीर को ही आत्मा समझा है वह ठीक नहीं है शरीर तो जड़ है जो मरता रहता है किंतु आत्मा कभी नहीं मरती , आत्मा परमात्मा का ही अंश अविनाशी तत्व है |
इति एकादशो अध्यायः
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सम्पूर्ण भागवत महापुराण कथा स्टोरी इन हिंदी
भागवत सप्ताहिक कथा PDF
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