kahani sangrah hindi
(भिखारी कौन)
महर्षि कणाद का नाम आध्यात्मिक जगत में पर्याप्त प्रसिद्ध है। उन्होंने वैशेषिक दर्शन की रचना की थी। वे जंगल में रहते थे। शरीर को सुरक्षित रखने के लिए भोजन के नाम पर या तो वे कन्द-मूल खाते या फिर अन्न के कण खोजकर लाते और उनसे अपनी भूख मिटाते।
उनका कणाद नाम ही इसलिए पड़ा था क्योंकि वे अन्न के कणों से ही अपना जीवन-निर्वाह करते थे।
एक बार किसी व्यक्ति ने वहाँ के राजा से कहा-“आपके राज्य में एक ऐसा भिखारी भी मौजूद है जो खेतों में से अन्न के कण एकत्रित करके अपना पेट भरता है।"
यह सुनते ही राजा ने तत्काल राज्यमंत्री को बुलाकर निर्देश दिया-“जंगल में एक भिखारी है जो अन्न के कण इकट्ठे करके अपनी भूख मिटाता है। तुम तुरन्त भोजन बनवाकर वहाँ ले जाओ और उसे भरपेट भोजन कराके तृप्त करो।"
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मंत्री ने तत्काल राजा के निर्देश पर अमल किया और भोजन बनवाकर कणाद के पास जा पहुँचा। उसने कणाद से भोजन करने का आग्रह किया लेकिन कणाद ने उसकी बात नहीं मानी और भोजन करने से इनकार कर दिया।
मंत्री ने पूरा समाचार जाकर राजा को सुना दिया। मंत्री की बात सुनकर राजा दुविधा में पड़ गया। वह सोचने लगा-“आखिर वह कौन भिखारी है जो विनीत आग्रह करने पर भी कुछ स्वीकार नहीं करता।" रानी को भी यह बात मालूम हो गई।
तभी किसी ने राजा को एक सूचना और दे दी। उसने कहा-“राजन्! कणाद अलौकिक प्रभाव वाले सिद्ध पुरुष हैं और वे सोना बनाने का हुनर भी जानते हैं।"
इस प्रसंग ने राजा की नींद खो दी। उसकी व्याकुलता बढ़ गई। और अन्तत: वह कणाद के पास जा पहुँचा। महर्षि को प्रणाम करके बोला-“बह्मर्षे! मैंने आपके लिए भोजन देकर मंत्री को आपकी सेवा में भेजा था।
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पर आपने उसे नहीं स्वीकारा। ऐसा क्यों? यदि आप अनुग्रह करके भोजन स्वीकार कर लेते तो यह दास धन्य हो जाता।"
राजा का कथन जैसे ही समाप्त हुआ, कणाद मुस्करा पड़े। पर वाणी से उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। कुछ क्षण बीत गये तो राजा ने पुनः कहा- 'ऋषिवर! मैंने सुना है कि आप स्वर्ण-सिद्धि की कला में पारंगत हैं।
कृपया वह विद्या मुझे प्रदान कर दीजिए। मेरा उद्धार हो जायेगा और मैं आपका अत्यधिक आभार मानूँगा।
आप जानते ही हैं कि राज्य के संचालन के लिए स्वर्ण का कितना महत्त्व है। आप तो भिखारी हैं। भिखारी को स्वर्ण से क्या लेना-देना!"
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कणाद ने मन्द-मन्द मुस्कराते हुए कहा-“राजन्! बताओ तो भिखारी कौन है? भीख माँगने मैं आपके पास गया या आप भीख माँगने मेरे पास आये?"
यह सुन राजा के मुँह से कोई उत्तर नहीं निकल सका, वह मौन ही रहा। ऋषि कणाद ही बोले-“राजन्! जिसके पास किसी वस्तु का अभाव होता है वह भिखारी नहीं होता।
भिखारी वह होता है जो सब कुछ होने के बावजूद असन्तुष्ट ही रहता है। अत: मेरा परामर्श है कि आप संतोष धारण करें। आज तक धन से किसी की भी तृप्ति नहीं हुई। धन सुख की नहीं, पापों और अनर्थों की जड़ है।"
राजा को अपनी भूल की अनुभूति हुई और उसने मुनिवर कणाद से क्षमा की याचना की।