kahani sangrah pdf (लोभ पाप का गुरु)

 kahani sangrah pdf

kahani sangrah pdf (लोभ पाप का गुरु)

(लोभ पाप का गुरु) 

एक गाँव में एक पंडित जी रहते थे। एक बार उनकी इच्छा हुई कि कर्मकाण्ड का अध्ययन करने के लिए काशी चलना चाहिए ताकि लौटकर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जा सके। 


बस वह काशी चले गये। वहाँ रहकर उन्होंने बड़े परिश्रम से कर्मकाण्ड एवं शास्त्रों का अध्ययन किया। जब उन्हें यह भरोसा हो गया कि उनकी इच्छा पूरी हो गई है तो अपने गाँव लौट आये। 


गाँव में आकर अपने अध्ययन की चर्चा लोगों के सामने की। तभी एक किसान ने उनसे एक प्रश्न पूछा-“पंडित जी! पाप का गुरु कौन है?" 


पंडित जी ने बहुत सोचा पर किसान के प्रश्न का उत्तर उन्हें नहीं सूझा। उन्होंने मन में सोचा कि अभी मेरा अध्ययन अधूरा है, अतः पुनः काशी जाकर अध्ययन करना चाहिए।

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अतः वे पुन: काशी आ गये और अध्ययन करने लगे। पर किसान के द्वारा किया गया प्रश्न अभी भी अनुत्तरित था। उन्होंने कई विद्वानों से भी इस प्रश्न का समाधान जानना चाहा पर सफलता

नहीं मिली।


संयोगवश एक दिन उन पंडित जी की भेंट एक वेश्या से हो गई। पंडित जी ने अपना प्रश्न उसके आगे भी दुहरा दिया और उत्तर जानने की जिज्ञासा की।


वेश्या ने तुरत-फुरत ही उत्तर दिया-“यह तो बहुत ही सरल-सा प्रश्न है। पर इसके उत्तर के लिए कुछ दिन आपको मेरे यहाँ रहना पडेगा।” पंडित जी तैयार हो गये।


वेश्या ने अलग से पंडित जी के रहने की व्यवस्था कर दी। पंडित जी कर्मकाण्डी थे अतः स्वयं पानी लाते और अपने हाथ से भोजन बनाते। एक दिन वेश्या ने कहा- “यदि आपको स्वीकार हो तो मैं रोज आपका भोजन बना दिया करूँगी।

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यहाँ कोई देखने वाला नहीं है कि पंडित जी वेश्या के हाथ का बनाया भोजन कर रहे हैं। इससे मुझ अत्यन्त पापिनी का भी उद्धार हो जाएगा। इसके लिए मैं आपको प्रतिदिनि पाँच स्वर्ण-मुद्राएँ भी दक्षिणा के रूप में दिया करूंगी।"


____पंडित जी ने वेश्या की बात सुनी और सोचा कि इसमें हर्ज ही क्या है? वे तैयार हो गये। पहले ही दिन वेश्या ने कई प्रकार के व्यंजन बनाये।


थाली पंडित जी के आगे सरका दी। पर जैसे ही पंडित जी ने भोजन की थाली में हाथ डालना चाहा, वेश्या ने थाली अपनी ओर खींच ली। उसने कहा-“पंडित जी! आप कर्मकाण्डी ब्राह्मण हैं।


मैं आपका धर्म भ्रष्ट करना नहीं चाहती। मैं तो आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहती थी, सो अब आपको मिल गया है। आप दूसरों का लाया हुआ पानी भी नहीं पीते थे।


मुझ जैसी वेश्या को छू-भर लेना भी आप पाप समझते थे। लेकिन जब आप लोभ के वश में हो गये तो मेरे हाथ का बनाया हुआ भोजन करने को तैयार हो गये।,


. बस, यह लोभ ही पाप का गुरु है। सारी बुराइयों की जड़ यही है।" पंडित जी को किसान के प्रश्न का उत्तर मिल गया था।

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