F प्रकृतिका बन्धन - bhagwat kathanak
प्रकृतिका बन्धन

bhagwat katha sikhe

प्रकृतिका बन्धन

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 प्रकृतिका बन्धन

प्रकृतिका बन्धन
ब्रह्मनिष्ठ वीतराग स्वामी श्रीदयानन्दगिरिजी महाराज

मनुष्यको प्रकृतिका बन्धन जन्मसे ही प्राप्त होता है। उस प्रकृतिके बन्धनसे मनुष्यके अंदरकी ज्ञानशक्ति और उसके साथ क्रियाशक्ति (प्राणशक्ति)-दोनों बाहर इतनी अधिक बिखर जाती हैं कि अन्तमें अपनी देह और मनमें इनसे सुख होनेकी बजाय, दुःख ही उत्पन्न होने लग जाते हैं। 

इसलिये यह बाहरी संसारका जीवन यदि विचारके साथ या धर्मके नियमोंके अनुसार नहीं चला गया तो यह बाहर भटकता-भटकता इतना ज्यादा भटक जाता है कि अन्तमें यह जीवन दु:खोंमें ही समाप्त होता है। बाह्य (बाहरका) ( जीवन हमेशा किसीके लिये भी आनन्दरूप (सुखदायी) नहीं रहता है। 

इसलिये बाहरके जीवनमें शरीरकी आवश्यकताओं और अपने कर्तव्योंको विचारपूर्वक इस ढंगसे आप नियममें बाँधे कि बाहरी संसारके बन्धन इतने पक्के न हो जायँ कि जिस समय आप उनको छोड़ना चाहें तो उस समय भी मन उन्हींमें चिपका रहे अर्थात् बाहरी जीवन रखते हुए ऐसे दृढ़ बन्धन न होने दें, जिससे वे अन्तमें त्यागे ही न जा सकें। 

अपने सिरपर पड़ी जिम्मेवारियोंके निर्वाहके लिये तो उचित रीतिसे संसारमें चलना ठीक है। परंतु इसके अतिरिक्त जो मन केवल अपने ही सुखके लिये बाहर भागता है, वह मन धर्मके मार्गके लिये ठीक नहीं है। वह मन तो उन देवताओं अथवा सृष्टि उत्पन्न करनेवाली अंदरकी शक्तियोंका रचा हुआ है।

बहुत दिनोंके बाद शुरू हुआ है। बच्चेके अंदर जब सुख होता है, उस समय एक प्रकारसे उसके चित्तमें विकास होनेसे प्रसन्नता भी होती है और जब दुःख होता है तो रोना आता है और रोनेके साथसाथ अश्रुपात (आँसू गिरना) होता है तो यह सब कोई जान करके करनेवाला नहीं है। इसी प्रकारसे अन्नका पाचन होना एवं देहके अंदर रक्त आदिका संचार होना आदि भी कोई मनुष्य अपने संकल्प, इरादे, इच्छा या शक्तिसे नहीं करता है।

ये जो अपने अंदर शक्तियाँ हैं-ये मुख्यतः दो प्रकारकी हैं १-ज्ञानशक्ति और २-क्रियाशक्ति। जैसा अंदर ज्ञान होगा वैसी ही क्रिया होगी। यदि भयका ज्ञान है तो उसके पीछे-पीछे क्रिया भी वैसी ही बहेगी। यदि खुशीका ज्ञान है तो उसके पीछे-पीछे अपने ढंगका ही प्राण चलेगा। यदि नाना प्रकारकी शंकाका ज्ञान हो रहा है तो उसीके ढंगका श्वास चलेगा। राग, द्वेष, मान, मोह आदिका जो भी मनमें भाव आयेगा, उसी ढंगकी प्राणकी क्रिया होगी। जैसा प्राण है वैसी ही अङ्गोंमें क्रिया (हरकत) होगी। जैसी अङ्गोंकी क्रिया (हरकत) है, वही निश्चय करेगी कि देहके अंदर सुख होना है या दुःख होना है।

अब आप यदि चिन्ता (फिकर)-में पड़े हुए हैं और वैसे ही अपने जीवनको बनाये रखनेके लिये जो विपरीत है उसीका यदि भय भी है तो ऐसी अवस्थामें आपका मन ठीक कैसे होगा? अर्थात् मन ठीक नहीं होगा, श्वास भी सुखपूर्वक नहीं चलेगा या घुट-घुटकर चलेगा, आप कभी भी आनन्दमें नहीं हो सकते। 

यदि बेफ़िक्री है, कोई चिन्ता नहीं है, मन खुला है, खाया-पिया हुआ है, उस अवस्थामें आपके शरीरमें भी शक्ति होती है और मनमें भी सुख होता है। जैसा ज्ञान वैसी उसकी प्राणकी क्रिया होगी। जैसी क्रिया, वैसे ही देहके अंदर सारे अङ्ग अपना-अपना काम करते हैं । 

हृदय धड़कन भी वैसी ही करेगा, फेफड़े भी वैसे ही श्वास खीचेंगे और भी सब अङ्ग अर्थात् गुर्दे, तिल्ली, जिगर आदि सबका काम उसी तरीकेसे होगा, जैसे मन या ज्ञान है। यदि ज्ञान बाहर संसारमें बँधा है तो समझो मन भी बँधा हुआ है। ज्ञान और मनका बँधा हुआ होनेसे प्राणकी शक्तिका संचार (प्रवाह) भी बँधा हुआ ही होगा। यदि प्राण बँधा हुआ है तो देह (शरीर)में सुख कहीं भी नहीं होगा और जब शरीरमें सुख नहीं होगा तो मनमें भी सुख नहीं होगा।


ऋषि-मुनियोंने इसी सुख पानेके मार्गके बारेमें विचार किया और अपने जीवनमें प्रत्यक्ष देखा कि इस मनको इतना अधिक बन्धनोंमें नहीं डालना चाहिये कि यह अपने जीवनका रास्ता ही बिगाड़ ले और अपना सुख तथा शान्ति ही समाप्त कर बैठे। प्रत्येक मनुष्य अपने सुखके लिये जीता है। 

यदि सुख नहीं मिलता है तो कई मनुष्य आत्महत्यातक करना चाहते हैं। यह सुख ही एक ऐसा निमित्त (शर्त) है जो कि जीवन रचनेके लिये मनुष्य अपने अंदर बनाये रखना चाहता है। 

सुख तब होगा जब दुःख न हो। दुःख इन्हीं राग, द्वेष, मान, मोह आदि बन्धनोंसे होता है। यदि ज्ञान बँधा है तो क्रियाशक्ति भी बँधी है। बँधी हुई क्रिया और ज्ञानशक्तिके साथ जो भी परिणाम (नतीजा) होगा, वह मनुष्यके लिये हितकर (भलाई करनेवाला) नहीं होगा।

इसके लिये ऋषियोंने बताया कि मुक्तिका मन साधो अर्थात् बन्धनोंसे छुटकारा पानेका मन साधो। सुख एवं दुःखके संवेदन (महसूस करने)-से हम बचपनसे इस संसारमें बँध गये हैं। कोई वस्तु अपनेको अच्छी लगती है, कोई बुरी लगती है। यही सुख-दुःखका अनुभव कीट, पतंग, पशु, पक्षी और मनुष्य सबको समान रीतिसे होता है।

 जब सुख-दुःखका अनुभव सबको होता है तो उसीके पीछे-पीछे प्राण भी उसी तरहसे चलेगा। जिधर सुख होता है, उधर प्राण भी बड़े आरामसे चलता है। जैसे विद्युत्की एक तरंग होती है, उसी तरह अपने अंदर काम करती हुई यह रागकी ही एक तरंग है। जिधर सुख होता है उसी ओर राग, विद्युत्की तरंगके समान धक्का देकर प्रेरित करता है अर्थात् जिससे सुख होता है उसीके लिये मनुष्य हाथ-पाँव पटकता है। 

यह सब कोई भी मनुष्य जान-बूझकर नहीं करता है। यह देव की ही अंदर बैठी हुई शक्ति है, जो यह सब कर्म करवाती है। इसी तरह जिससे दुःख होता है, उससे मन सिकुड़ता है अर्थात् दूर भागता है। उसी दुःखसे ही मनमें द्वेष और क्रोध होता है और उसी दुःखका प्रतिरोध करना है।

यह सारा जितना-जितना कार्य है, यह उसी दैवी शक्तिका ही है। सारे ही प्राणी इस दैवीशक्तिके अधीन हैं। इस देहमें जो मैं-मैं करके प्रकटरूपसे भासता है, यह केवल अहंकार ही है। यह 'मैं' सच्चा नहीं है, किंतु इसके अतिरिक्त जो सबके देहोंमें सब कार्य चला रहा है, उसका 'मैं' सच्चा है।

सबके अंदर बैठा हुआ मायाशक्तिके साथ एक व्यापक चेतन ही है। वही देहके अंदर रक्तसंचार आदि कर रहा है। अन्नका पाचन, श्वासका लेना, छोड़ना, नींद इत्यादिमें भी सब कार्य चलानेवाली शक्ति उसी ज्ञानरूप चेतनभगवान्की है अर्थात् क्रियाशक्ति (प्राणशक्ति)-को चलानेवाला वही ज्ञानदेव (चेतन) है। 

जैसे-जैसे वह जानता है, वैसे-वैसे क्रियाशक्ति उत्पन्न होती है। जानना उस ज्ञानदेवका कभी समाप्त नहीं होता है तो यह क्रियाशक्ति (प्राणशक्ति) भी कभी समाप्त नहीं होती है। इसलिये यह संसार भी कभी नष्ट होनेवाला नहीं है। परंतु इतना अवश्य है कि नींदमें इस संसारका कोई पता ही नहीं लगता कि यह कहाँ है? इसी तरह आप अपने ज्ञानप्रवाह (धारा)को ऐसी अवस्थामें जागते-जागते भी ले जा सकते हैं, जहाँपर इस संसारका कोई पता ही न लगे और भगवान्की परम शान्ति वहाँ मिलती है।

जैसा हम चाहते हैं, वह होता नहीं और जो हो रहा है वह हमारेसे विपरीत (उलटा) है अर्थात् हमारी इच्छाके अनुकूल नहीं है तो इसका तात्पर्य यही है कि आपके जीवनका रास्ता ठीक नहीं है। यदि हम मिथ्या रीतिसे चलते हैं तो दुःख-ही-दुःख है, शोक-ही-शोक है। 

जैसे अधिक खाना खाया तो बीमारी आ गयी, हमने किसीसे खोटा वचन बोला तो उसको भी क्रोध होनेसे लड़ाई-झगड़ा हो गया और भी अपने स्वार्थके लिये कई प्रकारसे किसी दूसरेको नुकसान पहुँचाया तो बताओ आप कैसे शान्त जीवन व्यतीत कर सकेंगे? अर्थात् ऐसी अवस्थामें आपका जीवन भी सुख और शान्तिवाला नहीं होगा। 

यदि आपको अपने जीवनमें कल्याण साधना है तो अपने अंदर यह ज्ञान जगायें कि क्या मेरे हित (भलाई)-का है और क्या मेरे अहित (बुराई)-का है अर्थात् यह समझें कि मेरे जीवनके लिये अन्तिम कल्याणका मार्ग कौन-सा है, जो दुःख एवं पतनसे भी बचाये। जब यह पता लग गया तो समझो ज्ञानरूपसे भगवान् कृष्णजी मनमें बैठ गये और अब इस देहरूपी रथको वही चलायेंगे। 

जिस मार्गमें अन्तमें पहुंचकर अहित होता है, आपको उधर नहीं चलना है, चाहे दिखावटमें वहाँ कितना ही सुख हो अर्थात् आपको प्रकृति (आदतोंकी शक्ति)-के रास्तेपर नहीं चलना है जो ऊपरसे (बाहरसे) सुख दिखलाकर अपने मार्गमें प्रेरित करती है। इस प्रकृतिके मार्गपर चलनेमें अन्तमें दुःख ही मिलता है। यदि आप थोड़ा विचार करके अपने अंदर ज्ञान उपजा लेते हैं तो ज्ञानरूपी भगवान् इस शरीररूपी रथको चलायेंगे।

 प्रकृतिका बन्धन


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