स्वामी रामसुखदास जी के अनमोल वचन
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज)
मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है, सांसारिक कार्योंके लिये नहीं। परमात्मप्राप्तिका मौका मनुष्यशरीरमें ही है। मनुष्यशरीरमें भी सत्संगका मौका दुर्लभ है! जैसे मनुष्यशरीर बार-बार नहीं मिलता, ऐसे ही सत्संग भी बार-बार नहीं मिलता। यह भगवान्की विशेष कृपासे ही मिलता है। भगवान् अपनी तरफ खींचना चाहते हैं।
भक्ति सर्वश्रेष्ठ है-'भक्तिरेव गरीयसी' (नारद-भक्तिसूत्र ८१)। प्रेमका नाम भक्ति है- 'पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन'। प्रेम है-भगवान् और उनके गुण, लीला, चरित्र आदि अच्छे लगें। जैसे प्यास लगनेपर जलकी याद आती है, जल अच्छा लगता है, ऐसे भगवान् अच्छे लगें।
भक्तिसे भगवान् वशमें हो जाते हैं। मुक्ति तो पूतनाको भी मिल गयी! मुक्ति तो भगवान्की चरण-रजमें है। भक्ति बड़ी सुगम है। भगवान् प्यारे लगें, मीठे लगें—यह भक्ति है।
परमात्माकी प्राप्ति कठिन है तो सुगम क्या है ? इसीके लिये तो मानवशरीर मिला है ? खास काम परमात्माकी प्राप्ति करना है। दूसरा काम करें तो वह नया काम शुरू किया है! जो भी काम करें, भगवान्का ही काम समझकर करें-
स्वामी रामसुखदास जी के अनमोल वचन
भक्तिसे भगवान् वशमें हो जाते हैं। मुक्ति तो पूतनाको भी मिल गयी! मुक्ति तो भगवान्की चरण-रजमें है। भक्ति बड़ी सुगम है। भगवान् प्यारे लगें, मीठे लगें—यह भक्ति है।
स्वामी रामसुखदास जी के अनमोल वचन
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(गीता ९ । २७)
'हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।'
एक कामना होती है, एक आवश्यकता होती है। भूख लगनेपर अन्नकी आवश्यकता होती है। कामना शरीरकी आवश्यकता नहीं होती।
मिलनेवाली चीज तो अवश्य मिलेगी, पर अपने कर्तव्यका पालन न करनेका दण्ड होगा। प्रारब्धसे मिली चीजमें तो संतोष करो, पर नये कार्यमें संतोष मत करो। भगवत्सम्बन्धी बातोंमें संतोष मत करो; क्योंकि यह हमारी आवश्यकता है। सत्संग, भजन-ध्यान आदिकी आवश्यकता होती है, कामना नहीं।
पत्थर ढोनेवालेको जो मजदूरी मिलती है, वैसी ही सोना ढोनेवालेको भी मिलती है। तात्पर्य है कि सबको अपने प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है।
कोई कार्य अवश्यम्भावी नहीं है, पर मरना अवश्यम्भावी है। जो कार्य अवश्यम्भावी है, उसकी तैयारी सबसे पहले करनी चाहिये।
भगवान्का होकर भगवान्को पुकारो तो भगवान्पर असर पड़ेगा। संसारका होकर पुकारोगे तो असर नहीं पड़ेगा।
स्वामी रामसुखदास जी के अनमोल वचन
एक कामना होती है, एक आवश्यकता होती है। भूख लगनेपर अन्नकी आवश्यकता होती है। कामना शरीरकी आवश्यकता नहीं होती।
मिलनेवाली चीज तो अवश्य मिलेगी, पर अपने कर्तव्यका पालन न करनेका दण्ड होगा। प्रारब्धसे मिली चीजमें तो संतोष करो, पर नये कार्यमें संतोष मत करो। भगवत्सम्बन्धी बातोंमें संतोष मत करो; क्योंकि यह हमारी आवश्यकता है। सत्संग, भजन-ध्यान आदिकी आवश्यकता होती है, कामना नहीं।
पत्थर ढोनेवालेको जो मजदूरी मिलती है, वैसी ही सोना ढोनेवालेको भी मिलती है। तात्पर्य है कि सबको अपने प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है।
कोई कार्य अवश्यम्भावी नहीं है, पर मरना अवश्यम्भावी है। जो कार्य अवश्यम्भावी है, उसकी तैयारी सबसे पहले करनी चाहिये।
स्वामी रामसुखदास जी के प्रवचन
जो करना चाहिये और कर सकते हैं, उसे न करना भूल है। संतान पिण्ड-पानी देनेके लिये है। सम्पत्ति तो कोई भी संभाल सकता है!भगवान्का होकर भगवान्को पुकारो तो भगवान्पर असर पड़ेगा। संसारका होकर पुकारोगे तो असर नहीं पड़ेगा।
स्वामी रामसुखदास जी के प्रवचन
बहुत जन्मोंके बाद यह मनुष्यशरीर मिलता है। कल्याणमें खुदकी लगन काम आती है। खुदकी लगन, विचार न हो तो गुरु क्या करेगा? उपदेश क्या करेगा? जाननेका विचार ही नहीं हो तो शिक्षा क्या करेगी? साधु हो गये, फिर भी लगन नहीं है! मनमें कुछ भी लालसा हो तो उपाय किया जाय। इसलिये अपनी लालसा बढ़ाओ, भूख बढ़ाओ। भूख न हो तो बढ़िया भोजन किस कामका?स्वामी रामसुखदास जी के प्रवचन
परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्राप्तिकी लालसा कठिन है। भोग तथा संग्रहकी इच्छाका त्याग न हो सके तो भी 'परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो।' यह इच्छा रहनी चाहिये।हमारी तीव्र लालसा न हो तो भी सत्संगसे लाभ होता है, पर अपनी लालसा न होनेसे उतना लाभ दीखता नहीं। जिसको सत्संगका लाभ मालूम पड़ जाय, वह सत्संग छोड़ नहीं सकता। सत्संग करनेसे विवेक जाग्रत् होता है, सत्-असत् तथा कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान होता है, फिर तदनुसार कर्म होते हैं। सत्संगसे बड़ी विलक्षणता आती है, जिसका बाहरसे पता नहीं लगता। अच्छे-अच्छे शास्त्रीय विद्वान् भी जो बात नहीं कहते, वह बात सत्संग करनेवाले कह देते हैं।
प्रकृतिको साथ लेकर मनुष्य भगवान्के शरण तो हो सकता है, पर तत्त्वबोध नहीं प्राप्त कर सकता।
रामसुखदास जी की वाणी
परमात्मामें अनन्त शक्तियाँ हैं। सगुण-निर्गुण उसके विशेषण हैं, स्वरूप नहीं। संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना पड़ता है और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना पड़ता है। संसारका किंचिन्मात्र भी आकर्षण रहेगा तो उसे नहीं जान सकते।प्रकृतिको साथ लेकर मनुष्य भगवान्के शरण तो हो सकता है, पर तत्त्वबोध नहीं प्राप्त कर सकता।
रामसुखदास जी की वाणी
संसारकी सत्ता और महत्ताको मानना ही भूल है संसार न हमारे साथ रहनेवाला है, न हम संसारके साथ रहनेवाले हैं। जो चीज निरन्तर मिट रही है, उसे सत्ता और महत्ता देना कहाँतक उचित है?जिसको आप 'मेरी वस्तु' कहते हैं, वह क्या सदा आपके साथ रहेगी? क्या आप उसके साथ सदा रहेंगे? संसारका संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। अन्तमें वियोग ही बचेगा, संयोग नहीं। अतः संयोगमें ही वियोगका दर्शन कर लें।
अरब खरब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।
अरब खरब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है, तो आवहि किहि काज॥
उम्र निरन्तर 'नहीं' में जा रही है। मृत्यु निरन्तर समीप आ रही है। यह सच्ची बात है। जो सच्ची बातका आदर नहीं करता, उसको दुःख पाना ही पड़ेगा।
आप अच्छा काम करो या बुरा काम, उम्र तो प्रतिक्षण अपने धुनमें जा रही है। वास्तवमें सत्ता और महत्ता तो एकमात्र परमात्माकी ही है। वह बड़े-से-बड़े और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म सभी जीवोंका भरण-पोषण करता है, उनके कर्मोंका फल भुगताता है। उस परमात्माके समान कोई वक्ता, श्रोता, संत, है धनवान् आदि नहीं है।
परमात्माकी शक्ति ही मनुष्यमें आती है। परमात्माके वक्ता हुए बिना मनुष्य वक्ता कैसे हो सकता है? परमात्माके समान कोई वक्ता, श्रोता, संत, धनवान् आदि नहीं है। अगर रुपय बढ़िया चीज है तो फिर उसको खर्च क्यों करते हो?
रामसुखदास जी की वाणी
भोगोंमें प्रियता, रुचि होनेका कारण 'रस' है। परमात्माके सच्चे रसके सामने यह झूठा रस निवृत्त हो जाता है। साधनमें भी एक रसबुद्धि होती है, जिससे समाधिमें विघ्न होता है।रसास्वादसे साधक अटक जाता है। आप स्वयं टिक जाओ तो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ भी टिक जायँगे। स्वयंका टिकना हैरसबुद्धि निवृत्त होना। आप सब छोड़कर सत्संगमें आते होयह पारमार्थिक रसका नमूना है।
प्रेमके रसमें समाधिका रस भी छूट जाता है। उस रसमें कभी हँसी आती है, कभी रोना-
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
प्रेमके रसमें समाधिका रस भी छूट जाता है। उस रसमें कभी हँसी आती है, कभी रोना-
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भा० ११ । १४ । २४)
'जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारम्बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर (मेरे प्रेममें मग्न हुआ पागलकी भाँति) ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है।'
सांसारिक रस निवृत्त होनेसे पारमार्थिक रस मिलता है। प्रेममें ज्ञानियोंके 'अभेद' से भी विलक्षण 'अभिन्नता' होती है। प्रेममें एकदेशीयपना (मैं हूँ) मिट जाता है अर्थात् 'हूँ' 'है' में विलीन हो जाता है।
रामसुखदास जी के विचार
जैसे दर्पणमें विपरीत दीखता है, ऐसे ही मायारूप संसार भी विपरीत दीखता है। संसारसे कुछ लेनेकी इच्छा रखनेसे नुकसान होता है और देनेकी इच्छा रखनेसे लाभ होता है।दूसरोंका हित करनेसे हमारा हित होता है-'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता १२ । ४)। जैसे, बीज जमीनमें डाल दें तो खेती हो जाती है और खुद खा लें तो रेती हो जाती है! अपनी भूख मिटानेसे पहले दूसरोंकी भूख मिटाओ।
दूसरोंका हित कैसे हो-इसको सीखनेके लिये ही हम यहाँ एकत्र हुए हैं। माँ हमें अच्छी क्यों लगती है? कि वह हमारा पालन करती है। जो दूसरेके दुःखसे दुःखी होता है, उसको अपने दुःखसे दुःखी नहीं होना पड़ता। -
भगवान्को याद करना और सेवा करना-ये दो काम खास मनुष्यके लिये हैं। इनके बिना मनुष्यपना नहीं है। जैसे नामजप आदिसे कल्याण होता है, ऐसे ही दूसरोंका हित करनेसे भी कल्याण होता है। यह कर्मयोग है।
गृहस्थमें स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करनेसे परस्पर प्रेम बढ़ेगा। मोहका बन्धन संसारमें बाँध देता है। प्रेमका बन्धन मुक्त कर देता है।
आजकलके जमाने में दूसरेको दुःख न पहुँचाना भी बहुत बड़ा पुण्य है। पहले भलाई करनेपर भलाई होती थी, आज बुराई न करनेसे भलाई हो जाती है। गाड़ीमें चढ़ते समय कोई चढ़नेको अथवा बैठनेको मना न करे तो समझो कि भला आदमी है!
एक भारतीय संस्कृति ऐसी है, जो सबका हित चाहती है- 'अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा' (मानस २ । १८३।३), 'काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥' (मानस ६ । १७ । ४)। सबका हित मनुष्य ही कर सकता है।
रामसुखदास जी के विचार
रसबुद्धि किसमें है? रसबुद्धि भोक्तृत्वमें है और भोक्तृत्व होता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे–'पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्' (गीता १३ । २१)। परंतु इससे भी विलक्षण बात है कि रसबुद्धि स्वयंमें है। सांसारिक रस तो भोक्तृत्वमें है, पर परमात्माका अंश होनेसे पारमार्थिक रस स्वयंमें है। ज्ञानके अखण्डरसकी अपेक्षा प्रेमका अनन्तरस विलक्षण है।रामसुखदास जी के विचार
खास आवश्यकता व्यवहारके सुधारकी है। परमात्माकी प्राप्तिके बिना जन्मना-मरना बंद नहीं होगा। जन्म-मरणका चक्र चलता ही रहेगा। लम्बे रास्तेका अन्त आता है, गोल चक्रका अन्त कैसे आयेगा? परमात्माकी प्राप्तिके लिये अपना व्यवहार शुद्ध करना है। स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये चेष्टा करनी है। सबके हितकी भावनावाला सदा सुखी रहता है। जो किसीको भय नहीं देता, वह अभय हो जाता है।गृहस्थमें स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करनेसे परस्पर प्रेम बढ़ेगा। मोहका बन्धन संसारमें बाँध देता है। प्रेमका बन्धन मुक्त कर देता है।
आजकलके जमाने में दूसरेको दुःख न पहुँचाना भी बहुत बड़ा पुण्य है। पहले भलाई करनेपर भलाई होती थी, आज बुराई न करनेसे भलाई हो जाती है। गाड़ीमें चढ़ते समय कोई चढ़नेको अथवा बैठनेको मना न करे तो समझो कि भला आदमी है!
एक भारतीय संस्कृति ऐसी है, जो सबका हित चाहती है- 'अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा' (मानस २ । १८३।३), 'काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥' (मानस ६ । १७ । ४)। सबका हित मनुष्य ही कर सकता है।
रामसुखदास जी के विचार
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति॥
(लौगाक्षिस्मृति)
जैसे सभी देवताओंको किया गया नमस्कार भगवान्के पास पहुँचता है, ऐसे ही सबके साथ किया गया प्रेमका बर्ताव भी भगवान्के पास पहुँचता है। भगवान् सबके हृदयमें विराजमान हैं। अतः सबमें भगवान्को देखते हुए सबको नमस्कार करो, सबके साथ आदरका, प्रेमका बर्ताव करो। सब सुखी हो जायँ–यह व्यापक भाव है, जो व्यापक परमात्माको प्रकट करनेवाला है।
नमस्कार करनेसे लाभ-ही-लाभ है। रोजाना बड़ोंको नमस्कार करनेसे आयु, विद्या, यश और बल-ये चारों बढ़ते हैं। नमस्कार करनेसे मार्कण्डेयकी आयु बढ़ गयी, वे चिरंजीवी हो गये!
बहनोंको चाहिये कि सूई बनें, कतरनी (कैंची) मत बनें। सूई दोको एक कर देती है, कतरनी एकको दो कर देती है। वे ऐसा कोई काम न करें, जिससे कलह पैदा हो। घरमें प्रेम रखें। बालकोंको भोजन कराने में विषमता मत करें। सासको चाहिये कि बेटी और बहूमें लड़ाई तो बहूका पक्ष ले।
गरीब बच्चोंको मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायेंगे।
गृहस्थमें बड़ी सावधानीसे रहो। थोड़ी-सी गलतीसे भी बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। दूसरा कोई गलती भी कर दे तो उसको सह लो। गृहस्थ एक पाठशाला है, जिसमें प्रेमका पाठ पढ़ो।
रामसुखदास जी के प्रश्न उत्तर
गृहस्थाश्रम सबका मूल । गृहस्थाश्रममें बहनेंमाताएँ मुख्य हैं; क्योंकि उनके कारणसे ही गृहस्थ कहलाता है। साधुओंके मठ, आश्रम, धाम आदिको कोई घर नहीं कहता। स्त्रीके कारण ही घर कहलाता है, चाहे वृक्षके नीचे ही क्यों न रहें। 'न गृहं गृहमित्याहुहिणी गृहमुच्यते' (महाभारत, शान्तिपर्व १४४।६)। आज स्त्रियोंको केवल भोगसामग्री बना दिया है! स्त्रीको स्त्रीरूपसे देखना उसका निरादर है। उसको माँरूपसे देखना चाहिये। माँका दर्जा बहुत ऊँचा है-'सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते' (मनु० २ । १४५)बहनोंको चाहिये कि सूई बनें, कतरनी (कैंची) मत बनें। सूई दोको एक कर देती है, कतरनी एकको दो कर देती है। वे ऐसा कोई काम न करें, जिससे कलह पैदा हो। घरमें प्रेम रखें। बालकोंको भोजन कराने में विषमता मत करें। सासको चाहिये कि बेटी और बहूमें लड़ाई तो बहूका पक्ष ले।
गरीब बच्चोंको मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायेंगे।
गृहस्थमें बड़ी सावधानीसे रहो। थोड़ी-सी गलतीसे भी बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। दूसरा कोई गलती भी कर दे तो उसको सह लो। गृहस्थ एक पाठशाला है, जिसमें प्रेमका पाठ पढ़ो।