F गीता बेस्ट श्लोक इन हिंदी best shlokas of bhagavad gita in hindi - bhagwat kathanak
गीता बेस्ट श्लोक इन हिंदी best shlokas of bhagavad gita in hindi

bhagwat katha sikhe

गीता बेस्ट श्लोक इन हिंदी best shlokas of bhagavad gita in hindi

गीता बेस्ट श्लोक इन हिंदी best shlokas of bhagavad gita in hindi

 गीता बेस्ट श्लोक इन हिंदी best shlokas of bhagavad gita in hindi


तेरहवें अध्यायमें श्रीभगवान्ने ज्ञानके बीस साधनोंका नाम 'ज्ञान' बताकर उन साधनोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह ज्ञेय-तत्त्व परमात्मा है-यह बात स्पष्ट कही है- 


ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। 
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ (गीता १३ । १२)

इस श्लोकके पहले चरणमें वे ज्ञेय-तत्त्वको बतलानेकी प्रतिज्ञा करते हैं, दूसरे चरणमें उसके जाननेका अमृतकी प्राप्ति बतलाते हैं, तीसरे चरणमें उसका नाम लक्षणके साथ बतलाते हैं और चौथे चरणमें उस ज्ञेय-तत्त्वकी अलौकिकताका कथन करते हैं कि वह न सत् कहा जा सकता है न असत् ! इस प्रकार इस श्लोकके द्वारा परमात्माके निर्गुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं। अगले श्लोकमें परमात्माके सगुण-निराकार रूपका वर्णन करते हैं-

सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ (गीता १३।१३

'सब जगह उनके हाथ-पैर हैं, सब जगह उनकी आँखें, सिर और मुँह हैं और सब जगह वे कानवाले हैं तथा सबको- घेरकर वे स्थित हैं।

जैसे सोनेके ढेलेमें सब जगह सब गहने हैं, जैसे रंगमें सब चित्र होते हैं, जैसे स्याहीमें सब लिपियाँ होती हैं, जैसे बिजलीके एक होनेपर भी उससे होनेवाले विभिन्न कार्य यन्त्रोंकी विभिन्नतासे विभिन्न रूप धारण करते हैं- एक ही बिजली बर्फ जमाती है, अँगीठी जलाती है, लिफ्टको चढ़ाती-उतारती है, ट्राम तथा रेलको चलाती है, शब्दको प्रसारित करती तथा रेकार्ड में भर देती है, पंखा चलाती है तथा प्रकाश करती है-इस प्रकार उससे अनेकों परस्पर विरुद्ध और विचित्र कार्य होते देखे जाते हैं। 

इसी प्रकार संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आदि अनेक परस्पर विरुद्ध और विचित्र कर्म एक ही परमात्मासे होते हैं; पर वे परमेश्वर एक ही हैं इस तत्त्वको न समझनेके कारण | ही लोग कहते हैं कि जब परमात्मा एक है, तब संसारमें कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों है? उन्हें पता नहीं कि जो ब्रह्म निर्गुण, निराकार तथा मन-वाणी और बुद्धिका अविषय हैं, वही सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला सगुण-निराकार परमेश्वर है। इनकी एकताका प्रतिपादन करते हुए ही गीता कहती है-

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। 
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ (गीता १३ । १४))
'सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होते हुए भी वे सम्पूर्ण इन्द्रियोंका कार्य करते हैं और आसक्तिरहित होते हुए भी सबका धारण-पोषण करते हैं। सर्वथा निर्गुण होते हुए भी सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं।'

तथा-

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् 
(गीता १३ । १5)

वे सब प्राणियोंके बाहर-भीतर हैं और चर-अचर प्राणिमात्र भी वे ही हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे वे अविज्ञेय हैं; | क्योंकि वे 'अणोरणीयान्' -अणुसे भी अणु हैं। जाननेमें आनेवाले जड पदार्थोंकी अपेक्षा उनका ज्ञान सूक्ष्म है और । ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञाता अत्यधिक सूक्ष्म है। फिर वह जाननेमें कैसे आ सकता है ? श्रुति भी कहती है-

विज्ञातारमरे केन विजानीयात् 

उसीकी चित्-शक्तिसे बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयोंको जाननेमें समर्थ होती हैं। वह ज्ञेय-तत्त्व दूर-से-दूर और समीप-से-समीप है। 

देशकी दृष्टिसे देखनेपर पृथ्वीसे समीप शरीर, शरीरसे समीप प्राण, प्राणसे समीप इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे समीप मन, मनसे समीप बुद्धि, बुद्धिसे समीप जीवात्मा तथा उसका भी प्रेरक और प्रकाशक सर्वव्यापी परमात्मा है और दूर देखनेपर शरीरसे दूर पृथ्वी, पृथ्वीसे दूर जल, जलसे दूर तेज, तेजसे दूर वायु, वायुसे दूर आकाश, आकाशसे दूर समष्टि मन, मनसे दूर महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे दूर परमात्माकी प्रकृति तथा प्रकृतिसे अति दूर स्वयं । 

अतः देशकी दृष्टिसे परमात्मा दूर-से-दूर है। इसी प्रकार कालकी दृष्टिसे परमात्मा दूर-से-दूर तथा समीप-से- समीप है। 

वर्तमान कालमें तो वह परमात्मा है; क्योंकि जड वस्तुमात्र प्रत्येक क्षण नाशको प्राप्त हो रही है; अतएव उनकी तो सत्ता है ही नहीं। यदि सत्ता मानें भी तो उससे भी समीप वह सत्य-तत्त्व है और भूतकालकी ओर देखें तो दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, चतुर्युग, कल्प, परार्ध, ब्रह्माकी आयु तथा उससे भी पूर्व-

'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्

वे सजातीय, विजातीय तथा स्वगत-भेदसे शून्य सत्स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही थे तथा भविष्यमें भी उसी प्रकार क्षण, पल, दण्ड, घड़ी, प्रहर, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, चतुर्युग, कल्प, परार्ध तथा ब्रह्माकी आयुके बाद भी वे ही परमात्मा रहेंगे– 'शिष्यते शेषसंज्ञः ।' अतएव दूर से दूर भी वही तत्त्व विद्यमान है। -

जिस ज्ञानके अन्तर्गत देश-काल-वस्तुकी प्रतीति होती है, वह चित्स्वरूप ज्ञान ही है तथा उसके अन्तर्गत आनेवाले देश-काल-वस्तुमात्र क्षणभर भी स्थिर न रहकर केवल परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं। 

परिवर्तनशीलतामें वस्तु न होकर केवल क्रिया है और वह क्रिया भी केवल प्रतीत होती है, वस्तुत: वहाँ क्रिया भी न टिककर केवल ज्ञानमात्र ही है। वह ज्ञानचिन्मात्र है, ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। वही अवश्य जाननेयोग्य वस्तु है-

यन्त्रात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

उसके जान लेनेके बाद ज्ञात- ज्ञातव्य, प्राप्त प्राप्तव्य होकर कृतकृत्यता हो जाती है, अर्थात् न कुछ जानना बाकी
 रह जाता है और न पाना बाकी रहता है, न करना ही बाकी रहता है । वह ज्ञेय-तत्त्व - 
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । 
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥(गीता १३ | १६)

अनेक आकारोंके विभक्त प्राणियों में अविभक्त है अर्थात् विभागरहित एक ही तत्त्व विभक्तकी तरह प्रतीत होता है। अनेक व्यक्तियोंमें सत्ता- स्फूर्ति प्रदान करनेवाला एक ही तत्त्व विद्यमान है। 

वही जगत्‌की उत्पत्ति करनेवाला होनेके कारण ब्रह्मा कहलाता है, पालन करनेवाला होनेके कारण विष्णु कहलाता है और संहार करनेवाला होनेके कारण महादेवरूपसे विराजमान है 1

'ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः' -

वह ज्योतियोंका भी ज्योतिःस्वरूप है। अर्थात् जैसे घट-पट आदि भौतिक पदार्थोंका प्रकाशक सूर्य है तथा वह सूर्य घट-पट आदिके भाव और अभाव दोनोंको प्रकाशित करता है, जैसे सूर्यके प्रकाश-अप्रकाशको निर्विकाररूपसे नेत्र प्रकाशित करता है, नेत्रके देखनेकी क्रिया तथा नेत्रकी ठीक-बेठीक अवस्थाको एकरूप रहता हुआ मन प्रकाशित करता है, मनकी शुद्धाशुद्ध अनेक विकारयुक्त क्रियाको बुद्धि निर्विकाररूपसे प्रकाशित करती है तथा बुद्धिके भी ठीक-वेठीक कार्यको आत्मा प्रकाशित करता है, उसी प्रकार समष्टि सृष्टि, उसकी नाना क्रियाओं तथा अक्रिय अवस्थाओंको शुद्ध चेतनरूप परमात्मा प्रकाशित करता है। 

अतः वह ज्योतियोंका भी ज्योति है तथा अज्ञान-रूप अन्धकारसे अत्यन्त भिन्न है। वह केवल ज्ञानरूप है, वही जाननेयोग्य है तथा गीतामें अ० १३, इलो० ७ से ११ तक बतलाये हुए अमानित्व, अदम्भित्व आदि बीस साधनोंसे प्राप्त किया जा सकता है। वह सबके हृदय में सदा सर्वदा विद्यमान रहता है। 

भगवान्ने स्पष्ट कहा है- 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः । (गीता १५/१५)
तथा-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।(गीता १८ / ६१)


वही सर्वव्यापक, सर्वाधिष्ठान, सर्वरूप परमात्मा है, वही सर्वथा जाननेयोग्य है । वही परब्रह्म परमात्मा, जहाँ जगत् तथा जगदाकाररूपमें परिणत होनेवाली प्रकृतिका अत्यन्त अभाव है, वहाँ 'निर्गुण-निराकार' कहलाता है। 

उसी परमात्माको जब प्रकृतिसहित जगत्के कारणरूपमें देखते हैं, तब वह सगुण निराकाररूपसे समझमें आता है तथा जब उसे हम सम्पूर्ण संसारके स्रष्टा, पालक और संहारकके रूपमें देखते हैं, तब वही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव-इन त्रिदेवोंके रूपमें ज्ञात होता है। 

वही परमात्मा जब धर्मका नाश और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंके विनाश और धर्मकी स्थापनाके लिये राम-कृष्ण आदि विविध रूपोंमें अवतार लेते हैं तथा संत-मतके अनुसार वे ही परमात्मा ज्योतिरूपमें साधकोंके अनुभवमें आते हैं। 

उनका वर्णन संतोंने पतिरूपमें तथा अमरलोकके अधिपतिके रूपमें किया है तथा यह भी बतलाया है कि 'वे ही हंसरूप संतोंको अमरलोकसे संसारमें भक्तिका प्रचार तथा संसारका उद्धार करनेके लिये भेजते हैं।' 

वे ही दिव्यवैकुण्ठाधिपति, दिव्यगोलोकाधिपति, दिव्यसाकेताधिपति, दिव्यकैलासाधिपति, दिव्यधामके अधिपति, सत्यलोकके अधिपति आदि विभिन्न नामोंसे पुकारे जाते हैं तथा इनकी प्राप्तिका ही परमात्माकी प्राप्ति, मोक्षकी प्राप्ति, परमस्थानकी प्राप्ति, परमधामकी प्राप्ति, आद्यस्थानकी प्राप्ति, परम शान्तिकी प्राप्ति, अनामय पदकी प्राप्ति, निर्वाण – परम शान्तिकी प्राप्ति आदि-आदि अनेक नामोंसे गीतामें तथा अन्यान्य ग्रन्थों में निरूपण किया गया है। वही सर्वोपरि परमतत्त्व श्रीगीताजीका ज्ञेय-तत्त्व प्राप्तिके स्वरूपका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं-

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । 
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचायते ॥(गीता ६ । २२

जिसकी स्थितिकी प्राप्तिके बाद वह कभी विचलित नहीं होता। मनुष्यके विचलित होनेके दो कारण होते हैं— एक तो जब वह प्राप्त वस्तुसे अधिक पानेकी आशा करता है; दूसरे, जहाँ वह रहता है, वहाँ यदि कष्ट आ पड़ता है तो वह विचलित होता है। 

इन दोनों कारणोंका निराकरण करते हुए भगवान् कहते हैं कि उस ज्ञेय - तत्त्वकी प्राप्तिसे बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उसकी दृष्टिमें भी उससे बढ़कर कोई अधिक लाभ नहीं दीखता; क्योंकि उससे बढ़कर कोई तत्त्व है ही नहीं तथा तत्त्वज्ञ महापुरुषमें सुखका भोक्तापन रहता नहीं। अतएव व्यक्तित्वके अभाव में भारी-से-भारी दुःख आ पड़नेपर भी विचलित कौन हो और कैसे हो ? वह महापुरुष तो सदा निर्विकार-रूपमें स्थित रहता है। वह गुणातीत हो जाता है। भगवान् कहते हैं—

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । 
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ 
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । 
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ 
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । 
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ 
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । 
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥
(गीता १४ । २२-२५) 
अर्थात् हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको, रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होनेपर बुरा मानता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकाङ्क्षा करता है; जो मनुष्य उदासीन (साक्षी) के समान स्थित हुआ गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा 'गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं'–यों समझकर जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है एवं उस स्थितिसे चलायमान नहीं होता; जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित हुआ सुख-दुःखको समान समझता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाव रखता है, धैर्यवान् है, प्रिय और अप्रियको समान देखता है तथा अपनी निन्दा और स्तुतिमें भी समान भाववाला है; जो मान और अपमानको समान समझता है, मित्र और शत्रुके पक्षमें समभाव रखता है, | वह सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित पुरुष गुणातीत कहलाता है।

गीताके ज्ञेय-तत्त्वकी अनुभूतिका यही फल है।

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