man ko vash me kaise kare असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (६ | ३६)
'जिसका मन वशमें नहीं है, उच्छृङ्खल है अर्थात् सांसारिक भोगोंमें जिसकी रुचि है, उसके द्वारा योग प्राप्त करना कठिन है। परंतु जिसका मन वशमें है, ऐसे यत्न करनेवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है।'
'जिसका मन वशमें नहीं है, उच्छृङ्खल है अर्थात् सांसारिक भोगोंमें जिसकी रुचि है, उसके द्वारा योग प्राप्त करना कठिन है। परंतु जिसका मन वशमें है, ऐसे यत्न करनेवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है।'
मनको वशमें करनेका अर्थ यह नहीं है कि मनको मैं पकड़ लूँ, एकाग्र कर लूँ। मनके वशमें न होना ही मनको वशमें करना है। इसी तरह भगवान्ने इन्द्रियोंके तथा राग-द्वेषके वशमें न होनेकी बात कही है—'
वशमें न होनेका अर्थ है कि उसके कहनेके अनुसार काम न करे और उसकी दशा देखकर चिन्तित न हो । वह ज्यों बहता है, त्यों बहता रहे। स्वयं उससे अलग रहे, तटस्थ रहे। वास्तवमें आप उससे तटस्थ ही हो। आप उसके साथ रहते नहीं हो। वह तो बदलता है, पर आप नहीं बदलते हो। आप बिलकुल उससे अलग हो। इस तरह उसको अपनेसे अलग जानना है |