वैराग्य भावना सुनाएं -ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।

 वैराग्य भावना सुनाएं -ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय । 

शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, वैभव आदिको अपने साथ न मानें; क्योंकि ये सब तो बदलनेवाले हैं और मैं निरन्तर रहनेवाला हूँ ! बालकपन, जवानी, बुढ़ापा, रोग-अवस्था, नीरोग- अवस्था—ये सब अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों रहता हूँ।

शरीर बदलनेके साथ आप अपना बदलना भी मान लेते हैं, पर वास्तवमें आप बदलते नहीं हैं। आपके बचपनका अभाव हो गया; तो आपका अभाव भी हो गया क्या? जैसे 'मैं हूँ'- इसका कभी अभाव नहीं होता, ऐसे ही भगवान्का कभी अभाव नहीं होता। वे सदासे हैं और सदा रहेंगे। सन्तोंके, शास्त्रोंके कहनेसे पता लगता है कि 'सदा' तो मिट जायगा, पर भगवान् रहेंगे। कारण कि 'सदा' नाम कालका है और भगवान् कालको भी खा जाते हैं-

ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय । 
उलट कालको खात है, हरिया गुरुगन होय ॥ 
नवग्रह चौंसठ जोगनी, बावन वीर पर्जन्त ।
काल भक्ष सबको करे, हरि शरणे डरपन्त ।।
तात्पर्य है कि काल भी नष्ट हो जाता और परमात्मा रहते।

'मैं हूँ—इसमें हूँ'- '-पना शरीरको लेकर है। यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे तो है'-पना ही रहेगा 'तू है', 'यह है', 'वह है' और 'मैं हूँ'- इन चारोंके सिवाय कुछ है ही नहीं। इनके सिवाय पाँचवाँ कोई हो तो बताओ? इन चारोंमें केवल 'मैं' के साथ ही हूँ', आया है, बाकी तीनोंके साथ है' आया है। 'मैं' लगानेसे ही हूँ' हुआ है—'अस्मद्युत्तमः' । यदि 'मैं' को साथमें नहीं लगायें तो 'है' ही रहेगा। इस 'है' में कभी कमी नहीं आती। कारण कि सत्में कभी अभाव नहीं होता- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २ । १६) वह नित्य-निरन्तर रहता है। उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वमें ही मैं हूँ-केवल इतनी बात आप मान लो। इसके सिवाय और आपको कुछ नहीं करना है। -

 वैराग्य भावना सुनाएं -ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय । 

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