F bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद) - bhagwat kathanak
bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

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bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

 bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

bhagwat katha in hindi audio भागवत कथा-6 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

"सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्"

 ( अर्थात देवता लोग स्वर्ग से अमृत कलश लेकर कथा के बदले में राजा परीक्षित् को पिलाना चाहा तथा कथा को स्वयं देवताओं ने अपने कानरूपी प्याले से पीना या सुनना चाहा ) इधर राजा परीक्षित की मुक्ति के बाद स्वयं ब्रह्माजी को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा वह ब्रह्मा जी ने तराजु के एक पलड़े पर समस्त साधन जैसे यज्ञ, दान, तप, जप, ध्यान आदि को रखा एवं दूसरे पलड़े पर श्रीमद्भागवत महापुराण को रखा तो तराजू के भागवत वाला पलड़ा सबसे भारी सिद्ध हुआ।

मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ।।

उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है

श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को पहले ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को सुनाया परन्तु सप्ताह विधि से इस कथा को श्री नारदजी ने सनक - सनन्दन - सनातन सनत्कुमार अर्थात् सनकादि ऋषियों से सुना था। वह सप्ताह कथा जो सनकादियों ने श्री नारदजी को सुनायी थी। वही कथा को एक बार मैं ( श्रीसुतजी) श्री शुकदेवजी से सुनी थी उसी कथा को हे शौनकजी मैं आपलोगों के बीच आज नैमिषारण्य में सुनाऊँगा। इस प्राचीन कथा को कहने और सुनने की परम्परा को सुनकर श्री शौनकजी ने कहा कि हे सूतजी ! यह कथा कब और कहाँ पर श्री नारदजी ने सनकादियों से सुनी थी इसको विस्तार से बतलायें ? तब श्री सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! एक समय श्री बद्रीनारायण की तपोभूमि विशालापुरी में एक बड़े ज्ञान यज्ञ का आयोजन हुआ था जिसमें बहुत से ऋषियों सहित सनकादि ऋषि भी पधारे थे। संयोग से उस समय उस स्थल पर श्री नारदजी ने सनकादियों को देखा तो प्रणाम किया एवं मन ही मन वे उदासी का अनुभव कर रहे थे।

कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ।।

यह देखकर सनकादियों ने नारदजी से उदासी का कारण पूछा तो श्री नारदजी ने कहा-

अहं तु प्रथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति

 हे मुनीश्वरों मैं अपनी कर्मभूमि तथा सर्वोत्तम लोक समझकर एवं वहाँ के पवित्र तीर्थों का दर्शन करने पृथ्वी लोक पर आया था । परन्तु इस पृथ्वी के तीर्थों को भ्रमण करते हुए मैंने अनुभव किया कि सम्पूर्ण तीर्थ जैसे काशी, प्रयाग, गोदावरी, पुष्कर में भी कलियुग का प्रभाव है जिससे इन तीर्थों में नास्तिकों, भ्राष्टचारियों का बोलबाला एवं अधिकांशतः वास हो गया है। जिससे तीर्थ का सारतत्त्व प्रायः नष्ट हो गया है। अतः मुझे तीर्थों में जाने से भी शान्ति नहीं मिली। इस कलियुग के प्रभाव से सत्य, तप, दया, दान आदि सद्गुणों का लोप हो गया है। सबकोई अपना ही पेट भरने या अपना पोषण में लगा है।

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पाखण्ड निरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ।।

साधु-सन्त विलासी, पाखण्डी, दम्भी, कपटी आदी हो गये हैं।

तपसि धनवंत दरिद्र गृही कलि कौतुक तात न जात कही ।।

इधर गृहस्थ भी अपने धर्म को भूल गये हैं तथा घर में बूढ़े बुजुर्गों का सेवा आदर नहीं है। पुरुषलोग स्त्री के वश में होकर धर्म-कर्म एवं माता-पिता. भाई-बन्धु आदि को त्याग कर केवल साले साहब से सलाह एवं रिश्ता जोड़े हुए हैं। प्रायः स्त्रियों का ही शासन घर परिवार एवं पति पर चल रहा है एवं तीर्थों-मन्दिरों में विद्यर्मियों ने अधिकार जमा लिया है।

इस प्रकार सर्वत्र कलियुग का कौतूहल चल रहा है-

"तरुणी प्रभूता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः”।

यानि घर में स्त्रीयों का शासन चल रहा है एवं साले साहब सलाहहकार बने हुये है। आगे श्री नारद जी कहते हैं कि मैं यह सर्वत्र कौतूहल देखते हुए प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि जब व्रज में यमुना के तट पर पहुँचा तो वहाँ मैंने एक आश्चर्य घटना देखा कि एक युवती के दो बूढ़े पुत्र अचेत पड़े हैं तथा वह युवती आर्त भाव से रो रही है और उस युवती को धैर्य धारण कराने के लिए बहुत सी स्त्रियाँ उपस्थित हैं।

"घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति ।

जगत् में यह देखा जाता है कि माता बूढ़ी होती है और पुत्र युवा होते हैं। इस प्रकार श्री नारद जी को देखकर वह रोती हुई स्त्री ने आवाज लगाते हुये कहा कि हे महात्मा जी !

भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ।।

आप थोडा रूककर मेरी चिन्ता एवं दुख को दूर करे तब श्रीनारद जी वहाँ पहुँचकर कहा कि हे देवी तुम्हारा परिचय क्या है ? और यह घटना कैसे घटी ? आगे उस देवी ने कहा-

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ।।

 महात्मन् ! मेरा नाम भक्ति देवी है तथा ये दोनों वृद्ध मेरे पुत्र ज्ञान - वैराग्य हैं और ये सभी स्त्रियाँ अनेक पवित्र नदियाँ हैं।

उत्पन्ने द्रविणेसाहं वृध्दिं कर्णाटके गता   क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ।।

हे महात्मन् ! मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई एवं कर्णाटक देश में मेरी और मेरे वंश की वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र में कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ एवं गुजरात देश में मेरे और मेरे पुत्रों को बुढ़ापे ने घेर लिया और मैं वृन्दावन में आकर स्वस्थ्य तथा युवती हो गयी लेकिन मेरे पुत्र यहाँ आने पर भी वे अस्वस्थ्य और बूढ़े ही रह गये । अतः मैं इसी चिन्ता में रो रही हूँ। उस भक्ति देवी के कष्ट को सुनकर श्री नारद जी ने कहा कि हे देवि ! भगवान् श्री कृष्ण के जाते ही जब कलियुग पृथ्वी पर आया तो राजा परीक्षित ने कलियुग के केवल एक गुण की महिमा के कारण (कलियुग में केवल प्रभु के नाम आदि का कीर्तन करने से अन्य तीनों युगों का फल और अनेक धर्म के साधन का फल प्राप्त हो जाता है) कलियुग को मारा नहीं या अपने राज्य से निकाला नहीं ।

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