इदं शरीरं कौन्तेय bhagavad gita in hindi shlok
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥
(गीता १३।१)
अर्थात् 'यह' रूपसे कहे जानेवाले शरीरको 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीजन 'क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं; अतः क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ - ये दो चीजें हैं। जैसे 'मैं' खम्भेको जानता हूँ तो खम्भा जाननेमें आनेवाली चीज हुई और मैं खम्भेको जाननेवाला हुआ। जो जाननेवाला होता है, वह जाननेमें आनेवाली वस्तुसे अलग होता है—यह नियम है। हम शरीरको जानते हैं; अतः शरीरसे अलग हुए। हम कहते हैं - यह मेरा पेट है, यह मेरा पैर है, यह मेरी गर्दन है, यह मेरा मस्तक है, ये मेरी इन्द्रियाँ हैं, यह मेरा मन है, यह मेरी बुद्धि है आदि-आदि। जो 'यह' है, वह मैं (स्वरूप) कैसे हो सकता है ? 'अहम्' अर्थात् मैं पन भी 'यह' है।
जिस प्रकाशमें शरीर - इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि दीखते हैं, उसी प्रकाशमें 'अहम्' भी दीखता है। जो दीखनेवाला है, वह अपना स्वरूप कैसे हो सकता है ?
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