F Vritrasura Stuti /वृत्रासुर स्तुति - bhagwat kathanak
Vritrasura Stuti /वृत्रासुर स्तुति

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Vritrasura Stuti /वृत्रासुर स्तुति

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अहं हरे तव पादैकमूल-
          दासा नुदासो भवितास्मि भूयः |
मनः स्मरेता सुपतेर्गुणांस्ते
          गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ||
( 6.11.24 )

प्रभु मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं आपके चरण कमलों पर आश्रित रहने वाले भक्तों का सेवक बनू मेरा मन सदा आपके ही चरणों का स्मरण करें वाणी से मै निरंतर आप के नामों का संकीर्तन करूं और मेरा शरीर सदा आपकी ही सेवा में लगा रहे ,,,,

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 न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठयम्
          न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् |
न योगसिद्धी रपुनर्भवं वा
          समंजस त्वा विरहय्य काङ्क्षे ||
( 6.11.25 )

तथा मुझे आपको छोड़कर स्वर्ग ,ब्रह्म लोक, पृथ्वी का साम्राज्य, रसातल का राज्य ,योग की सिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिए |

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अजातपक्षा इव मातरं खगाः
           स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः |
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
           मनोरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ||
( 6.11.26 )

प्रभु जैसे पंख विहीन पक्षी दाना लेने गई हुई अपनी मां की प्रतीक्षा करता है | जैसे भूखा बछडा मां के दूध के लिए आतुर रहता है | जैसे विदेश गए हुए पति की पत्नी प्रतीक्षा करती है ठीक उसी प्रकार मेरा मन आपके दर्शनों के लिए छटपटा रहा है |

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ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं 
            संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः |
त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे-
            ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात ||
( 6.11.27 )
प्रभु मेरा मेरे कर्मों के अनुसार जहां कहीं भी जन्म हो वहां मुझे आप के भक्तों का आश्रय प्राप्त हो देह गेह में आसक्त विषयी पुरुषों का संग मुझे कभी ना मिले इस प्रकार भगवान की स्तुति कर वृत्रासुर ने त्रिशूल उठाया और इंद्र को मारने के लिए दौड़ा इंद्र ने वज्र के प्रहार से वृत्रासुर की दाहिनी भुजा काट दिया भुजा के कट जाने पर क्रोधित हो वृत्तासुर अपने बाएं हाथ से परिघ उठाया और इंद्र पर ऐसा प्रहार किया कि इंद्र के हाथ से वज्र गिर गया यह देख इंद्र लज्जित हो गया क्योंकि इंद्र का वज्र वृत्रासुर के पैरों के पास गिरा था |

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विद्यार्थीक पाँच लक्षण बताये गये हैं

काकचेष्टा बकध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च । 
स्वल्पाहारी ब्रह्मचारी विद्यार्थिपञ्चलक्षणम् ।। 

(१) काकचेष्टा-जैसे, कौआ हरेक चेष्टामें सावधान रहता है। वह इतना सावधान रहता है कि उसको जल्दी कोई पकड़ नहीं सकता। ऐसे ही विद्यार्थीको विद्याध्ययनके विषयमें हर समय सावधान रहना चाहिये। विद्याध्ययनके बिना एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाना चाहिये।

(२) बकध्यान-जैसे, बगुला पानीमें धीरेसे पैर रखकर चलता है, पर उसका ध्यान मछलीकी तरफ ही रहता है। ऐसे ही विद्यार्थीको खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ करते हुए भी अपना ध्यान, दृष्टि विद्याध्ययनकी तरफ ही रखनी चाहिये ।

(३) श्वाननिद्रा-जैसे, कुत्ता निश्चिन्त होकर नहीं सोता। वह थोड़ी-सी नींद लेकर फिर जग जाता है । ऐसे ही विद्यार्थीको आरामकी दृष्टिसे निश्चिन्त होकर नहीं सोना चाहिये, प्रत्युत केवल स्वास्थ्यकी दृष्टिसे थोड़ा सोना चाहिये।

(४) स्वल्पाहारी - विद्यार्थीको उतना ही आहार करना चाहिये, जिससे आलस्य न आये, पेट याद न आये; क्योंकि पेट दो कारणोंसे याद आता है- अधिक खानेपर और बहुत कम खानेपर ।

(५) ब्रह्मचारी - विद्यार्थीको ब्रह्मचर्यका करना चाहिये।

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विद्यार्थीको सुखकी आसक्तिका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये-

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् । 
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥
(चाणक्यनीति१० । ३)

'यदि सुखकी इच्छा हो तो विद्याको छोड़ दे और यदि विद्याकी इच्छा हो तो सुखको छोड़ दे; क्योंकि सुख चाहने वालेको विद्या कहाँ और विद्या चाहनेवालेको सुख कहाँ ?' विद्याध्ययन करना भी तप है और तपमें सुखका भोग नहीं होता।

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