महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है shivratri kyon manae jaati hai

 महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है shivratri kyon manae jaati hai

महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है shivratri kyon manae jaati hai

सनत कुमार जी ने लिंगेश्वर की उत्पत्ति पूछीं तो नंदिकेश्वर ने कहा-
पुरा कल्पे महाकाले प्रपन्ने लोक विश्रुते।
अयुध्येतां महात्मानौ ब्रह्म विष्णु परस्परम्।। वि-5-27

कि पूर्व कल्प के बहुत काल बीत जाने पर जब ब्रह्मा और विष्णु में युद्ध हुआ तो उनके बीच निष्कल शिव जी ने स्तंभ रूप प्रकट होकर विश्व संरक्षण किया था और तभी से महादेव जी का निष्कल लिंग और शकल बेर जगत में प्रचलित हुए ।

बेर मात्र को देवताओं ने भी ग्रहण किया इससे शिवजी के अतिरिक्त बेर से देवताओं की पूजा होने लगी और उसका वही फल दाता हुआ ।

परंतु शिवजी के लिंग और बेर ( मूर्ति ) दोनों ही पूजनीय हुए।
नंदिकेश्वर बोले- पूर्व में जब श्री विष्णु जी अपने सहायकों सहित श्री लक्ष्मी जी के साथ शेषसैया पर लेटे थे,तब देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मा जी स्वयं ही वहां जा पहुंचे और विष्णु जी को पुत्र कहकर पुकारने लगे।

पुत्र उठ मुझे देख मैं तेरा ईश्वर यहां आया हूं । इस पर विष्णु जी को भी क्रोध आया परंतु वह उसे दबा लिये और ब्रह्मा जी से कहा कि पुत्र तुम्हारा कल्याण हो आओ बैठो । मैं तुम्हारा पिता हूं कहो क्या बात है ?


ब्रह्माजी बोले समय के फेर से तुम्हें अभिमान हो गया है, मैं तुम्हारा रक्षक ही हूं, समस्त जगत का पितामह हूं । भगवान विष्णु ने कहा चोर तू अपना बड़प्पन क्यों दिखाता है सारा जगत तो मुझमें निवास करता है तू मेरी नाभि कमल से प्रकट हुआ है और मुझसे ही ऐसी बातें करता है ।



नंदिकेश्वर बोले- जब इस प्रकार रजोगुण से मुग्ध हो दोनों में विवाद होने लगा, तब यह दोनों अपने अपने को प्रभु प्रभु कहते हुए एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए । युद्ध छिड़ गया हंस और गरुण पर बैठे दोनों ईश्वर शिव माया से मोहित होकर आपस में घोर युद्ध करने लगे । उनके वाहन भी लड़ने लगे।

ब्रह्मा जी के वक्षस्थल पर विष्णु जी ने अनेक अस्त्रों का प्रहार कर उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित होकर ब्रह्माजी ने भी उनके वक्ष स्थल पर भयानक प्रहार किया। एक दूसरे के प्रति युद्ध से श्रमित विष्णु जी हांफने लगे। उस भयंकर युद्ध को देखने के लिए सभी देवगण अपने अपने विमानों में बैठ युद्ध स्थल पर पहुंच गए ।

यहां युद्ध में तत्पर महा ज्ञानी विष्णु ने अतिशय क्रोध के साथ दीर्घ निश्वास लेते हुए ब्रह्मा जी को लक्ष्य कर भयंकर माहेश्वर अस्त्र का संधान किया। ब्रह्मा ने भी अतिशय क्रोध में आकर विष्णु के हृदय को लक्षकर ब्रह्मांड को कम्पित करने वाला भयंकर पाशुपत अस्त्र का प्रयोग किया ।

सूर्य के समान हजारों मुख वाले अत्यंत उग्र तथा प्रचंड आंधी के समान भयंकर दोनों अस्त्र आकाश में प्रगट हो गए । उस भयंकर युद्ध को देखकर देवता गण सभी बहुत दुखी हो गए और आपस में कहने लगे-
सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोप्यनुग्रहः।
यस्मात् प्रवर्तते तस्मै ब्रम्हणे च त्रिशूलिने।। वि-6-20

जिसके द्वारा सृष्टि ,स्थिति, प्रलय ,तिरोभाव तथा अनुग्रह होता है और जिसकी कृपा के बिना इस भूमंडल पर अपनी इच्छा से एक तृण का भी विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। उन त्रिशूलधारी ब्रह्म स्वरूप महेश्वर को नमस्कार है।

देवता गण जब कैलाश शिखर पर गए ,महादेव जी अपनी सभा में उमा सहित सिंहासन पर विराजमान थे। देवताओं ने साष्टांग दंडवत कर महादेव जी को नमस्कार किया। महादेव जी बोले पुत्रों- सब कुशल से तो है ना ? मैंने सुना है कि ब्रह्मा और विष्णु परस्पर युद्ध कर रहे हैं और तुम लोग बड़े दुखी हो, अच्छा तो मैं अपने गणों के साथ चलता हूं। तुम लोग भय ना करो।

यह कह कर शिव जी ने अपने गणों को वहां चलने की आज्ञा दी साथ ही स्वयं भी अपने भद्ररथ पर आरूढ़ हो चलने को तैयार हुए। शिवजी बादलों में छुप कर ब्रह्मा विष्णु का युद्ध देखने लगे । शिवजी ने देखा कि दोनों एक दूसरे के वध की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपत अस्त्र का प्रयोग कर रहे हैं ।

तब शिव जी कृपा करते हैं उनका युद्ध शांत करने के लिए-
महानलस्तम्भविभीषणाकृति
र्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः। । वि-7-11

निराकार भगवान शंकर इस अकाल प्रलय को आया देखकर एक भयंकर विशाल अग्नि स्तंभ के रूप में उन दोनों के बीच प्रकट हो गए ।

संसार को नाश करने में सक्षम वह दोनों महा दिव्यास्त्र अपने तेज सहित उस महान अग्नि स्तंभ के प्रगट होते ही अपने तेज सहित तत्क्षण शांत हो गए । उस अद्भुत दृश्य को देखकर ब्रह्मा विष्णु परस्पर कहने लगे यह इंद्रियातीत अग्नि स्वरूप स्तंभ क्या है ? हमें इसका पता लगाना चाहिए ।

ऐसा निश्चय करके दोनों वीर उसकी परीक्षा लेने के लिए बहुत ही शीघ्र वहां से चले । भगवान विष्णु ने शूकर का रूप धारण किया और स्तम्भ के जड़ की खोज में चले। ब्रह्मा भी हंस का रूप धारण करके उसका अंत खोजने के लिए चल पड़े।

विष्णु जी पाताल में बहुत दूर तक चले गए परंतु स्तंभ का अंत ना मिला तब वह पुनः युद्ध भूमि में लौट आए।

इधर आकाश मार्ग से जाते हुए ब्रह्मा जी ने मार्ग में अद्भुत केतकी (केवड़ा) के पुष्प गिरते देखा, अनेक वर्षों से गिरते रहने पर भी वह ताजा और सुगंध युक्त था।

ब्रह्मा विष्णु के विग्रह पूर्ण कृत्य को देखकर भगवान शंकर हंस पड़े जिसके कंपन के कारण उनका मस्तक हिला और वह श्रेष्ठ केतकी पुष्प उन दोनों के ऊपर कृपा करने के लिए गिरा था ।

ब्रह्माजी उससे पूछा- हे पुष्पराज तुम्हें किसने धारण कर रखा था और तुम क्यों कर रहे हो ? केतकी ने उत्तर दिया इस पुरातन और अप्रमेय स्तम्भ के बीच से मैं बहुत समय से गिर रहा हूं फिर भी इस के मध्य को ना देख सका अतः आप अंत देखने की आशा छोड़ दें।

ब्रह्मा जी ने कहा मैं तो हंस का रूप लेकर इसका अंत देखने के लिए यहां आया हूं। अब हे मित्र मेरा एक अभिलाषित काम तुम्हें करना पड़ेगा । विष्णु के पास मेरे साथ चलकर तुम्हें इतना कहना है कि ब्रह्मा ने इस स्तंभ का अंत देख लिया है । हे अच्युत मैं इसका साक्षी हूं ।

इधर ब्रह्मा केतकी के साथ युद्ध स्थल में आए और कहा हे हरे मैंने इस स्तंभ का अग्रभाग देख लिया है इसका साक्षी यह केतकी का पुष्प है। तब केतकी ने भी झूठा समर्थन कर दिया।


विष्णु जी उस बात को सत्य मानकर ब्रह्मा को स्वयं प्रणाम किया और उनका षोडशोपचार पूजन किया। उसी समय कपटी ब्रह्मा को दंडित करने के लिए उस प्रज्वलित स्तंभ लिंग से महेश्वर प्रगट हो गए-
विधिं प्रहर्तुं शठमग्निलिङ्गतः
स ईश्वरस्तत्र बभूव साकृतिः।
समुत्थितः स्वामिविलोकनात पुनः
प्रकम्प पाणिः परिगृह्य तत्पदम्।। वि-7-29


महेश्वर को प्रगट हुआ देखकर विष्णु उठ खड़े हुए और कांपते हुए हाथों से उनका चरण पकड़ कर कहने लगे- हे करुणाकर, आदि और अंत से रहित शरीर वाले आप परमेश्वर के विषय में मैंने मोह बुद्धि से बहुत विचार किया किंतु कामनाओं से उत्पन्न वह विचार सफल नहीं हुआ हमें क्षमा करें यह सब आपकी ही लीला से हुआ है।

ईश्वर बोले- हे वत्स मैं तुम पर प्रसन्न हूं तुम सत्यवादी हो अतः मैं तुम्हें अपनी समानता प्रदान करता हूं ।

नंदिकेश्वर बोले- महादेव जी ने ब्रह्माजी पर क्रोधित हो अपनी भौहों के मध्य से भैरव को प्रकट किया। जिसने नमस्कार कर उनसे आज्ञा मांगी, शिवजी ने आज्ञा दी कि तुम अपनी तलवार से ब्रह्मा की पूजा करो ।

यह आज्ञा पाते ही भैरव जी ने ब्रह्मा के सिर के केस जा पकड़े , ब्रह्मा थर थर कांपने लगे । ब्रह्मा जी का पांचवा मिथ्याभि सर काट डाला । भैरव जी ने और जब सिर काटना चाहा तब ब्रह्माजी भैरव के चरणों में गिर गए यह देखकर विष्णु जी ने भी भगवान शिव का आश्रय लिया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

कि आरंभ में आपने ही कृपा करके इन्हें सिर प्रदान किया था अतः इन्हें क्षमा करें । शिव जी की आज्ञा से भैरव ने ब्रह्मा जी को छोड़ दिया। शिवजी बोले तुमने अपनी प्रतिष्ठा और ईशत्व पाने के लिए छल किया था, झूठ बोला था इसलिए तुम सत्कार स्थान और उत्सव से बिहीन किए जाते हो।

इसलिए संसार में तुम्हारा सत्कार नहीं होगा और तुम्हारे मंदिर तथा पूजन उत्सव आदि नहीं होंगे । ब्रह्मा जी बोले हे महा विभूति संपन्न स्वामी आप मुझ पर प्रसन्न होइए मैं आपकी कृपा से अपने सिर के काटने को भी आज श्रेष्ठ समझता हूं ।

विश्व के कारण भगवान शिव को नमस्कार है। भगवान शिव बोले- हे पुत्र मैं जगत की स्थिति को ना बिगड़ने दूंगा, जो अपराधी हैं उन्हें तुम दंड दो और लोक मर्यादा का पालन करो। मैं तुम्हें वरदान देता हूं-

वरं ददामि ते तत्र गृहाण दुर्लभं परम्।
वैतानिकेषु गृह्येषु यज्ञेषु च भवान गुरुः।। वि-8-13

आज से तुम गणों के आचार्य हुए । अतः तुम्हारे बिना कोई भी यज्ञ पूर्ण ना होगा ।

ऐसा कहकर भगवान शिव केतकी के पुष्प से बोले अरे मिथ्या भाषी दुष्ट केतकी तू तुरंत यहां से भाग जा । तू मेरी पूजा के योग्य नहीं है। जब शिव गणों ने उसे दूर भगा दिया तब केतकी शिव जी की प्रार्थना करने लगा । हे नाथ मुझे कुछ तो सफल कीजिए तथा मेरे पापों को दूर कीजिए।

शिवजी ने कहा मेरा वचन मिथ्या नहीं होता तू मेरे भक्तों के योग्य है और इस प्रकार तेरा भी जन्म सफल हो जाएगा और मेरी मंडल रचना का सिरमौर तू ही बनेगा ।


( शिव जी का ज्ञानोपदेश)

नंदीकेश्वर बोले- हे सनत कुमार ब्रह्मा विष्णु हाथ जोड़कर शिवजी के अगल-बगल में जा बैठे और उनका पूजन करने लगे। तब शिव जी प्रसन्न हो उनसे कहने लगे हे वत्सों तुम्हारी पूजा से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं।

इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान से महान होगा-
दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्।
शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया।। वि-9-10

आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिए परम प्रिय होगी । शिवरात्रि के दिन जो मेरे लिंग बेर (शिव की पिंडी) की पूजा करेगा वह सृष्टि विधायक तक होगा ।

यदि कोई निराहार रहकर जितेन्द्रिय एक वर्ष तक निरंतर मेरी पूजा करेगा उसका जितना फल है वह मात्र एक दिन यह शिवरात्रि के पूजन करने पर प्राप्त हो जाएगा।

भगवान शिव ने कहा-
मद्धर्मवृद्धि कालोयं चन्द्रकाल इवाम्बुधेः। वि-9-14
जैसे- पूर्ण चंद्रमा उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है।

हे वत्सो पहले जब मैं ज्योतिर्मय स्तंभ रूप से प्रगट हुआ था उस समय मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र था। जो पुरुष मार्गशीर्ष में आर्द्रा नक्षत्र होने पर मुझ उमापति का दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी का दर्शन करता है वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है।

उस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है और दर्शन के साथ-साथ अगर पूजन भी किया जाए तो उसके फल का वर्णन वाणी द्वारा नहीं किया जा सकता। इस रणभूमि में मैं लिंग रूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था उस लिंग के कारण यह भूतल लिंग स्थान के नाम से प्रसिद्ध होगा।

हे पुत्रों जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें इसके लिए यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अत्यंत छोटा हो जाएगा । यह लिंग सब प्रकार के भोगों को सुलभ कराने वाला और भोग तथा मोक्ष का एकमात्र साधन होगा ।

इसका दर्शन स्पर्श तथा ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु से छुटकारा दिलाने वाला होगा। अग्नि के पहाड़ जैसा जो यह शिवलिंग यहां प्रकट हुआ है इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नाम से प्रसिद्ध होगा । यहां अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रगट हो जाएंगे। इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवो का मोक्ष हो जाएगा।

ब्रह्मा विष्णु के युद्ध में जितनी सेना मारी गई थी उन सबको शिव जी ने अमृत वर्षा कर जीवनदान प्रदान किया और उन दोनों की परस्पर शत्रुता को यह कह कर समाप्त कर दिया कि मेरे ही शकल और निष्कल दो स्वरूप हैं और किसी के नहीं ।

बड़ा आश्चर्य है कि तुम लोग अज्ञान वश अपने को ईश्वर मान लिया था उसे नष्ट करने के लिए ही मैं युद्ध भूमि में आया था । अतः तुम अहंकार त्याग कर मेरी आराधना करो, मैं ही परम ब्रह्म हूँ और मेरी ही सब कलाएँ हैं।

मुझ गुरुदेव के वाक्य ही तुम्हारे लिए सदा प्रमाण है यह मैंने तुम्हारी प्रीति देख कर के ही कहा है । पहले मेरी ब्रह्म रूपता का बोध कराने के लिए निष्कल लिंग प्रकट हुआ था फिर तुम दोनों को अज्ञात ईश्वरत्व का स्पष्ट साक्षात्कार कराने के लिए मैं साक्षात जगदीश्वर ही शकल रूप में तत्काल प्रगट हो गया ।

अतः मुझ में जो ईशत्व है उसे ही मेरा शकल रूप जानना चाहिए तथा जो यह मेरा निष्कल स्तंभ है वह मेरे ब्रह्म स्वरूप का बोध कराने वाला है ।

हे पुत्रों लिंग लक्षण युक्त होने के कारण ये मेरा ही लिंग चिन्ह है, तुम लोगों को यहां रहकर प्रतिदिन इस का पूजन करना चाहिए। यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे समीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

महत्पूज्यमिदं नित्यमभेदा ल्लिङलिग्ङिनोः।। वि-9-43
लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान पुरुषों को भी पूजन करना चाहिए। जहां जहां जिस किसी ने मेरे लिंग को स्थापित कर लिया वहां मैं अप्रतिष्ठित होने पर भी प्रतिष्ठित हो जाता हूं।

मेरे लिंग की स्थापना करने का फल मेरी समानता की प्राप्ति बताया गया है । एक के बाद दूसरे शिवलिंग की स्थापना कर दी गई तब फल रूप से मेरे साथ एकत्व ( सायुज्य मोक्ष ) रूप फल प्राप्त होता है ।

प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिए । मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण है। शिवलिंग के अभाव में सब ओर से मूर्ति युक्त होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।

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