F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-11 ram katha audio in hindi

ब्रह्मा विष्णु और शिव उनका अपार तप देखकर उनके पास बहुत बार आए और त्रिदेवों ने उन्हें बहुत लालच दिया कि वर मागो पर वे परम धीर उनके डिगाए से नहीं डिगे। शरीर में केवल हड्डी मात्र शेष रह गई।

अस्थिमात्र होइ रहे शरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।।

तब भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं हुई सर्वज्ञ प्रभु ने जान लिया कि निजदास हैं मुझे छोड़ इन्हें दूसरे की गति नहीं तब अत्यंत गंभीर कृपा अमृत से सनी हुई आकाशवाणी हुई। वर मांगो क्या चाहते हो?

मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी।।

मांगू मांगू दो बार कहने का तात्पर्य हम दोनों राम सीता है दोनों से वर मांगने को कहा जिसके आधार का पता नहीं कि यह कहां से उठ रही है यह वाणी बाकी इंद्रियों से उच्चारित नहीं है-  सर्वेन्द्रिय गुणाभास सवोन्द्रिय विवर्जितः। की वाणी है उसकी कृपा ही अमृत है, उसी से सनी है। यद्यपि स्वामी सर्वत्र है, सर्वज्ञ है जानते हैं कि इनको क्या चाहिए। तो भी सेवक के मुख से कहलवाकर किस रूप में चाहते हैं तब प्रकट होंगे। वह मरे हुए को जिलाने वाली वाणी जब कर्णक्षेत्र से होकर मनु शतरूपा के हृदय में आई तब दोनों का शरीर ऐसा हष्ट पुष्ट हो गया मानो अभी-अभी घर से चले आ रहे हों। अर्थात राम जी से हस्ट और सीता जी से पुस्ट हुए।

शब्द आकाश गुण है। आकाश सर्व व्यापक है। इस प्रकार आकाश तत्व को अमृत में सानकर वह कर्ण मार्ग से हृदय में पहुंचाया गया। सुनते ही शरीर पुलक से प्रफुल्लित हो गया। हर्ष से रोमांचित हुए। मनु शतरूपा दंडवत करके बोले उनके हृदय में प्रेम नहीं समाता। राजा रानी मन वचन कर्म तीनों से शरण हुए। तन में - रोमांच व पुलकित, मन में हर्ष, दंडवत से कर्म और बोले से वचन। हे अनाथों का कल्याण करने वाले यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिव जी के मन में बसता है और जिसकी प्राप्ति के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं। जो कागभूसुंडी के मन रूपी मानसरोवर में बिहार करने वाला हंस है। सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं हे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभु ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्रभर कर देखें। महारानी शतरूपा और महाराज मनु के प्रेम और कोमल बिनय युक्त वचनों को सुनकर भगवान बडे़ ही प्रसन्न हुए सर्व समर्थ भगवान वहीं पर उनके समक्ष प्रकट हो गए भगवान का सौंदर्य वर्णन से परे है।

नील सरोरुह नील मणि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन शोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।

भगवान के नील कमल, नीलमणि और नील मेघ के समान कमल प्रकाशमय श्याम वर्ण शरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं।
छवि के समुद्र हरि रूप को देखकर मनु शतरूपा अपने पलक गिरना बंद करके एकटक देखते रह गए। अघीते नहीं। हर्ष के विवश शरीर की शुध नहीं रही। चरणों को हाथों से पकड़ दंडवत किया। प्रभु ने अपने कर कमल से उनके सिर का स्पर्श किया और तुरंत उठा लिया।

कृपा निधान बोले मुझे बहुत प्रसन्न जानकर और महादानी अनुमान कर जो जी चाहे सो मांग लो। प्रभु श्री राम के वचन सुनकर हाथ जोड़कर और धैर्य धारणकर कोमल वाणी से बोले- हे नाथ आपके चरण कमल का दर्शन से अब हमारी सब मनोकामनाएं पूर्ण हो गई। पर मन में एक बड़ी बात है वह सुगम भी है अगम भी है। पर कहते नहीं बन रहा है। हे अंतर्यामी आप उसे जानते हो मनोरथ को पूरा करो। भगवान ने कहा- हे राजन संकोच छोड़कर मुझसे मांगो तुम्हें ना दे सकूं ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है। राजा बोले-

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहिं समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।

हे दानियों के शिरोमणि कृपा निधान मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूं कि मैं आपके सामान पुत्र चाहता हूं।

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले।।
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।

महाराज मनु और शतरूपा की प्रति देखकर करुणा निधान भगवान ने कहा कि हे राजन मैं अपने समान दूसरा कहां जाकर खोजूं मेरे समान कोई दूसरा है ही नहीं। मैं ही हूं मेरे सामान। तो मैं स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनुंगा।
तब फिर मनु महाराज ने चरण वंदन करके कहा कि हे प्रभु मेरी एक और विनती है। चाहे मुझे कोई मूढ़ भले ही कहे पर मुझे आपके चरणों में प्रेम पुत्र विषयक ही हो। और प्रभु जैसे मणि बिना सर्प, जल बिन मछली की गति होती है वैसे ही मेरे जीवन की अवधि आपके दर्शन के अधीन रहे। करुणानिधि ने एवमस्तु कह दिया और कहा। अब तुम मेरा अनुशासन मानकर अमरावती में बसों वहां विशाल ऐश्वर्य भोग कर कुछ समय बाद तुम अवध के राजा होगे और तब मैं अपने अंशो के साथ देह धारण करके भक्तों को सुख देने वाला चरित्र करूंगा।

मेरे उस शरीर का रूप यद्यपि दूसरों के समान ही दीखेगा, इच्छामय यानी मेरी इच्छा का ही होगा। वह देहादि चिदानंदमय ही रहेगा। मैं जन्म लेकर तुम्हारे घर में प्रकट होउंगा। अकेले नहीं, मेरे अंश भी तुम्हारे घर में पुत्र रूप से प्रकट होंगे। जिसे आदर के साथ सुनकर बड़भागी लोग ममता मद त्याग करके भवसागर से पार हो जाएंगे। जिसने संसार को उत्पन्न किया है वह मेरी माया भी अवतार धारण करेंगी। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूंगा मेरा प्रण सत्य है सत्य है कृपा निधान ऐसा कह कर अंतर्ध्यान हो गए।

तीन बार सत्य कह कर अपने प्रण का तीनों कालों में सिद्ध होना जनाया।
वह तीनों प्रण कौन-कौन से हैं-
1- इच्छामय नरबेष सँवारे। होइहउँ प्रकट निकेत तुम्हारें।।
2- अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।
3- आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।
ये तीनों प्रण सत्य होंगे। वे दोनों प्राणी भक्त के ऊपर कृपा करने वाले को हृदय में धारण करके। उस आश्रम में कुछ काल रहे समय पाकर अनायास शरीर त्याग कर जाकर अमरावती में वास किया। इस अति पवित्र इतिहास को महादेव ने उमा से कहा था। हे भारद्वाज अब राम जन्म का दूसरा कारण सुनो!

(भानु प्रताप प्रकरण प्रारंभ)

सुनि मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी।।
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू।।

हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है वहां सत्यकेतु नाम का राजा रहता था। वह धर्म की धुरी को धारण करने वाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था। उसके दो वीर पुत्र हुए जो सब गुणो के भंडार थे। नाम था पुत्रों का प्रताप भानु और अरिमर्दन जिनमें आपस में बड़ा प्रेम था।
राजा सत्यकेतू ने अपने जेठ पुत्र प्रतापभानु को राज्य देकर स्वयं भगवान का भजन करने के लिए वन को चले गए।

राजा प्रतापभानु धर्म पूर्वक अपने राज्य का पालन करने लगे राज्य में पाप का लेश मात्र भी नहीं रहता था। उसका सयाना मंत्री जिसका नाम धर्मरूचि जो नीति जानने को शुक्र के समान था। राजा अपनी भुजाओं के बल से सातों दीपों को बस में कर लिया। वेद पुराणों में जहां तक एक-एक बार यज्ञ करने को कहा है उन्हें सहस्त्र सहस्त्र बार राजा ने अनुराग के साथ किया। एक बार राजा प्रतापभानु एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर शिकार हेतु विंध्याचल के घने वन में गए। बहुत से हिरणों को मार वहां घूमते हुए वन में एक सूअर देख पीछा किया। तो वह अत्यंत घने वन में प्रवेश कर गया। राजा पछताते हुआ लौटने लगा, पर भारी वन में रास्ता भूल भूख प्यास से व्याकुल हो जल के लिए नदी तालाब ढूंढता अचेत हो रहा था।

वन में फिरते हुए उसे एक आश्रम नजर आया जहां एक राजा कपट से मुनि बेस में रहता था। उसके देश को इसी राजा भानु प्रताप ने छीन लिया था क्योंकि वह समर में हार कर सेना को छोड़कर वन में भाग कर आश्रम बनाकर रहने लगा था। राजा अधिक प्यासा होने कारण मुनि वेश में उसे नहीं पहचान सका, सुंदर वेष जान समझा कि कोई बड़ा मुनि है। घोड़े से उतरकर प्रणाम किया। फिर भी चतुर राजा ने अपना नाम नहीं बताया। मुनि के पूंछने पर अपने को राजा प्रताप भानु का मंत्री बताया। मुनि ने कहा तुम्हारा नगर यहां से बहुत दूर है रात्रि को जाना कोई ठीक नहीं है।

प्रातः होते ही चले जाना। उस कपटी मुनि ने अनेक प्रकार से राजा को अपने झूठी भक्ति, भजन, धर्म की वाणी कहकर राजा को प्रभावित कर लिया। उसने कहा कि हे राजन तुम पवित्र और सुंदर बुद्धि वाले हो यदि मैं तुमसे कुछ छुपाता हूं तो मुझे बहुत भयानक दोष लगेगा इसीलिए मैं अब वास्तविक स्वरूप तुम्हारे सामने प्रकट करता हूं। मेरा नाम एकतनु है। जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई तब मेरी भी उत्पत्ति हुई। तब से मैं फिर दूसरी देह नहीं धारण किया इसलिए मेरा नाम एकतनु है। मन में आश्चर्य मत करो तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका।।
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी।।

वह कपटी मुनि कर्म धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह बैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संघार की अपार आश्चर्य भरी कथाएं उसने विस्तार से कहीं। राजा उस कपटी के वचन सुनकर उसके वश में हो गया। अपना नाम बताने लगा तब उस तपस्वी ने कहा राजन में तुमको जानता हूं तुमने कपट किया वह मुझे अच्छा लगा।
हे राजन सुनो ऐसी नीति है कि राजा लोग जहां तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रताप भानु है , महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन गुरु कृपा से मैं सब जानता हूं पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं। अब हमें प्रसन्न हूं जो कुछ चाहिए मांगो राजा प्रताप भानु बोला-

जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ।।

मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत ना सके और पृथ्वी पर मेरा 100 कल्प तक एक छत्र अकंटक राज्य हो। तपस्वी ने कहा ऐसा ही होगा एक ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल भी तुम्हारे चरणों में सर झुकाएगा। राजा बोला कि ब्राह्मण किस प्रकार वश में होंगे। तो उसने कहा कि अगर 1 वर्ष तक तुम ब्राह्मण को भोजन परोसो और वह रसोई मैं बनाऊं कोई इस बात को न जाने तो जो अन्न भोजन तुम्हारे यहां ब्राह्मण करेंगे वे सब तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे और उन ब्राह्मणों के यहां भी जो खाएगा वह भी तुम्हारे वश में हो जाएगा। 1 वर्ष तक एक लाख प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराओ तो पूरे पृथ्वी के ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएंगे।

यहां जब राजा सोने लगा तब वह कालकेतु राक्षस आया जिसने सूअर का भेष बनाकर राजा को भटकाया था। वह उस तपस्वी का मित्र था। उस मायावी राक्षस ने भानु प्रताप को घोड़े समेत एक क्षण में उसके महल पर पहुंचा दिया। उसके राज्य में इस रहस्य को कोई भी नहीं जान पाया। योजना के अनुसार वह कालकेतु राक्षस तीसरे दिन उसके पुरोहित का भेष धारण करके उसके राज्य में आ गया। भ्रम के कारण राजा भी पहचान नहीं पाया कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया। पुरोहित वेशधारी राक्षस ने अनेक प्रकार के व्यंजनों को बनाए जिसमें पशुओं का मांस मिलाया और उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस भी मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया ज्यों ही राजा परोसने लगा। आकाशवाणी हुई हे ब्राह्मण उठकर अपने घर जाओ यह अन्न मत खाओ इसके खाने से बड़ी हानि होगी। रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। आकाशवाणी का विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया उसके मुंह से कुछ निकल ना पाया। तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे-

बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होउ नृप मूढ़ सहित परिवार।।

उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया और बोले- अरे मूर्ख राजा तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो जा। 1 वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक ना रहेगा। ब्राह्मणों के श्राप देने के बाद पुनः एक बार आकाशवाणी हुई कि आप सब ब्राह्मण बिना विचार किये ही राजा को श्राप दे दिए इसमें राजा का कोई दोष नहीं है। राजा व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। ब्राह्मण बोले यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं पर ब्राह्मणों का श्राप अन्यथा नहीं हो सकता। ऐसा कहकर ब्राह्मण चले गए। 

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