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शिव पुराण कथा हिंदी में-11 sampurna shiv puran in hindi pdf

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शिव पुराण कथा हिंदी में-11 sampurna shiv puran in hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-11 sampurna shiv puran in hindi pdf

 शिव पुराण कथा हिंदी में-11 sampurna shiv puran in hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-11 sampurna shiv puran in hindi pdf

( रूद्र संहिता- सृष्टि खंड )
वन्देन्तरस्थं निजगूढरूपं , शिवं स्वतः स्तष्टुमिदं विचष्टे।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति, यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवत्तम्।। रु•सृ•1-3
जिस प्रकार लोहा चुंबक के आकर्षित होकर उसके पास ही लटकता रहता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व और सदाशिव जिसके आसपास भ्रमण करते हैं , जिन्होंने स्वयं ही उस प्रपंच को रचने की विधि बतलाई, जो सब के अंतः करण में अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं तथा जिन का स्वरूप जानना अत्यंत दुर्लभ है, मैं उन भगवान शंकर जी की आदर सहित वंदना करता हूं ।

( ऋषिगणों की वार्ता )

ऋषि बोले- हे सूत जी अब आप कृपा करके शिव का प्राकट्य, उमा की उत्पत्ति, शिव उमा का विवाह के अनंत चरित्र है उन्हें सुनाइए!

सूतजी बोले- हे ऋषियों आप लोगों के प्रश्न ही पतित पावनी श्री गंगा के समान हैं, ये सुनने कहने व पूछने वालों को तीनों को पवित्र करने वाले हैं। आपके प्रश्नों के अनुसार ही नारद जी ने अपने पिता श्री ब्रह्मा जी से प्रश्न किया था ,तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर शिवचरित्र सुनाया था।
एकस्मिन्समये विप्रा नारदो मुनिसत्तमः।
ब्रह्मपुत्रो विनीतात्मा तपोर्थं मन आदधे।। रु•सृ•2-1
हे मुनिवर एक समय की बात है ब्रह्मा जी के पुत्र मुनि शिरोमणि विनीत चित्त नारद जी ने तपस्या के लिए मन में विचार किया। हिमालय पर्वत में कोई एक परम शोभा संपन्न गुफा थी जिसके निकट देव नदी गंगा निरंतर बहती थी।

वहां एक महान दिव्य आश्रम था जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था, वे दिव्यदर्शी नारद जी तपस्या करने के लिए वहां गए। हिमालय पर्वत की एक गुफा में मौन होकर बैठे बहुत दिनों में पूर्ण होने वाला तप कर रहे थे।

उनके उग्र तप को देखकर इन्द्र डर गया और विचार करने लगा कहीं ऐसा ना हो कि मेरे राज सिंहासन को पाने के लिए यह तप कर रहे हों। यह विचार कर इन्द्र ने कामदेव को बुलाया और कहने लगा हे कामदेव तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। देखो नारद हिमालय पर्वत पर गुफा में बैठकर दृढ़ासन से तप कर रहा है कहीं ऐसा ना हो कि वह वरदान में ब्रह्मा जी से मेरा राज्य सिंहासन ही मांग बैठे।

अतः तुम आज ही वहां जाकर उसके तप को भंग कर दो इंद्र की आज्ञा पाते ही कामदेव वहां पहुंच गया। उसने नारद जी का मन विचलित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए परंतु नारद जी पर कोई असर नहीं पड़ा, यह तो सदाशिव की कृपा ही थी क्योंकि-

अत्रैव शम्भुनाकारि सुतपश्च स्मरारिणा।
अत्रैव दग्धस्तेनाशु कामो मुनितपोपहः।। रु•सृ•2-18
पहले उसी स्थान पर काम शत्रु भगवान शिव ने उत्तम तपस्या की थी और वहीं पर उन्होंने मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को शीघ्र ही भस्म कर डाला था।

वैसे भी कामदेव की माया इस स्थान पर नहीं चल सकती थी क्योंकि जब सदा शिव ने कामदेव को भस्म किया था तो उसकी पत्नी रति ने पति के जीवित होने के लिए प्रार्थना की थी, देवताओं ने भी श्री महादेव जी से प्रार्थना की तब महादेव जी ने कहा था-
जब यदुवंश कृष्ण अवतारा, होइहिं हरण महा महिभारा।
कृष्ण तनय होइहिं पति तोरा, बचन अन्यथा होहिं न मोरा।।
कि कामदेव कुछ काल पर्यंत जीवित हो जाएगा किंतु इस स्थान पर और इसके अलावा जहां तक यह भस्म होता दिखाई देता है वहां तक कि पृथ्वी में इसकी माया एवं कामबांण सफल नहीं हो सकेंगे।

जब इधर कामदेव का अपना प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ वह शीघ्र ही स्वर्ग लोक में इंद्र के पास लौट आए, वहां कामदेव ने अपना सारा वृत्तांत और मुनि का प्रभाव कह दिया तत्पश्चात इंद्र की आज्ञा से वे वसंत के साथ अपने स्थान को लौट गए ।

उस समय देवराज इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने नारद जी की भूरि भूरि प्रशंसा की, परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण वे उस पूर्व वृतांत का स्मरण ना कर सके।
दुर्ज्ञेया शाम्भवी माया सर्वेषांप्राणिनामिह।
भक्तं विनार्पितात्मानं तया सम्मोह्यते जगत्।। रु•सृ•2-25
वास्तव में इस संसार में सभी प्राणियों के लिए शंभू की माया को जानना अत्यंत कठिन है । जिसने अपने आपको शिव को समर्पित कर दिया है उस भक्त को छोड़कर संपूर्ण जगत उनकी माया से मोहित हो जाता है ।

सदाशिव की कृपा से नारद जी ने बहुत काल तक तपस्या की अपने तप को पूर्ण हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान आया।
तब उन्हें अपने मन में अभिमान हो गया कि मैं कामदेव को जीत लिया हूं। इस प्रकार के अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया तभी वे अपने काम विजय की कथा श्री महादेव जी को सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे।

वहां जाकर नारद जी ने शिव जी को प्रणाम करके अपनी तपस्या की सफलता का समाचार तथा कामदेव पर विजय पाने का सब समाचार कह सुनाया।
मार चरित संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेश सिखाए।।
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।।
तिमि जनि हरिहिं सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूं।।

तब भक्तवत्सल महादेव जी ने नारद जी की प्रशंसा करते हुए कहा हे नारद जी तुम धन्य हो। परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह सब समाचार अन्य किसी भी देवता को ना सुनाना अर्थात विशेषकर विष्णु भगवान से इस बात को भूल कर ना कहना।

शिवजी के इस प्रकार समझाने पर भी होनहार वश नारद जी ने वह बात श्री विष्णु जी भगवान से जाकर कह सुनाई।
संभु दीन्ह उपदेश हित नहिं नारदहिं सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।
भगवान शिव के मना करने के बाद भी नारद जी ब्रह्मलोक पहुंचे और वहां ब्रह्मा जी को नमस्कार कर के अपने तपोबल से कामदेव पर विजय प्राप्ति का समाचार कह सुनाया ।

ब्रह्मा जी ने भी शिव का स्मरण करके सब कुछ जान लिया और कहा हे पुत्र इस बात को किसी से मत कहना। परंतु नारद जी ने ब्रह्मा जी के वचनों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया यह सब सदाशिव की ही माया का प्रभाव था ।
नारदोथ ययौ शीघ्रं विष्णुलोकं विनष्टधीः।
मदाङ्कुरमना वृत्तं गदितुं स्वं तदग्रतः।। रु•सृ•2-41
अभिमान से बुद्धि विपरीत होने के कारण नारद जी अपना सारा वृत्तांत गर्व पूर्वक भगवान विष्णु के सामने कहने के लिए वहां से शीघ्र ही विष्णु लोक में गए।

नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु बड़े आदर से उठकर शीघ्र ही आगे बढ़े और उन्होंने मुनि को हृदय से लगा लिया।
छीर सिंधु गवने मुनि नाथा। जहं बस श्री निवास श्रुतिमाथा।।
हरषि मिले उठि रमा निकेता। बैठे आसन रिषिहिं समेता।।
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनिदाया।।
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिव राखे।।
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।

भगवान श्री हरि नारद जी को अपने आसन पर बिठाया और भगवान शिव का ध्यान कर हरी ने उनसे यथार्थ गर्वनाशक वचन कहने लगे - हे तात आप कहां से आ रहे हैं ? यहां किस लिए आपका आगमन हुआ है ? हे मुनि श्रेष्ठ आप धन्य हैं आपके शुभागमन से मैं पवित्र हो गया।

भगवान विष्णु के यह वचन सुनकर गर्व से भरे हुए नारद मुनि ने मद से कहा- कि किस प्रकार मैंने काम पर विजय प्राप्त की सारा वृत्तांत कह सुनाया ।
विश्व पालक हरि शिव जी द्वारा जो होना था उसे हृदय से जानकर शिव के आज्ञानुसार मुनि श्रेष्ठ नारद जी से कहने लगे-
धन्यस्त्वं मुनिशार्दूल तपोनिधि रूदारधीः।
भक्तित्रिकं न यस्यास्ति काममोहादयो मुने।। रु•सृ•2-51

हे मुनि श्रेष्ठ! आप धन्य हैं ; आप तपस्या के भंडार हैं और आपका हृदय भी बड़ा उदार है। हे मुने जिसके भीतर भक्ति ज्ञान और वैराग्य नहीं होते उसी के मन में समस्त दुखों को देने वाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं।

आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं और सदा ज्ञान वैराग्य से युक्त रहते हैं फिर आप में काम विकार कैसे आ सकता है । आप तो जन्म से निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धि वाले हैं ।

श्रीहरि की कही हुई बहुत सी बातें सुनकर मुनि शिरोमणि नारदजी जोर-जोर हंसने लगे और मन ही मन भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे- हे स्वामी यदि मुझ पर आपकी कृपा है तो कामदेव का मेरे ऊपर क्या प्रभाव हो सकता है । ऐसा कहकर भगवान के चरणों में मस्तक झुकाकर इच्छानुसार बिचरने वाले नारद मुनि वहां से चले गए।

सूत जी बोले- हे द्विजवरों नारद जी के चले जाने पर शिव की इच्छा से विष्णु भगवान ने एक अद्भुत माया रची जिस ओर नारद जी जा रहे थे उसी मार्ग मे एक सुंदर नगर बना दिया ।
भगवान ने उसे अपने बैकुंठ लोक से भी अधिक रमणीय बनाया था, नाना प्रकार की वस्तुएं उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। वहां स्त्रियों और पुरुषों के लिए बहुत से बिहार स्थल थे । वह नगर चारों वर्णों के लोगों से युक्त था ।
तत्र राजा शीलनिधिर्नामैश्वर्य समन्वितः।
सुतास्वयम्बरोद्युक्तो महोत्सव समन्वितः।। रु•सृ•3-7
वहां शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वह अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिए उद्यत थे। अतः उन्होंने महान उत्सव का आयोजन किया था , उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत से राजकुमार आए थे।

जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुंदर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे, उन राजकुमारों से वह नगर भरा पड़ा दिखाई देता था । ऐसे राजनगर को देख नारद जी मोहित हो गए ।

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