राम कथा हिंदी में लिखी हुई-16 ram katha hindi book
अब आप चारों भाइयों की माताओं के नाम
का अर्थ देखिए । इनके नाम इनके देशों के आधार पर रखे गए हैं। कौसल देश की कन्या 'कौशल्या'
और कैकय देश की कन्या ‘कैकेयी’। सुमित्रा का नाम गुणों के आधार पर
रखा गया है क्योंकि सुमित्रा कौशल देश की कन्या कौशल्या की छोटी बहन थीं।
राक्षस संस्कृति तथा वानर संस्कृति
में नाम रखने की प्रथा शरीर को प्रधानता देने वाले गुणों पर आधारित थी। 'रावण'
शब्द का अर्थ है - जो सबको रुलाए । सब जगह कोलाहल मचा दे। रावण जहाँ
जहाँ जाता था, वहाँ की प्रजा उसको देखकर भय के मारे चिल्लाने
लगती थी कि रावण आया। सब लोग अपने-अपने घरों में छुप जाओ। दरवाजे बंद कर लो और
सावधान हो जाओ। मेघनाद, कुंभकर्ण, मंदोदरी,
विभीषण, बालि, सुग्रीव
ये सभी नाम शारीरिक गुणों पर आधारित थे।
आप सोच रहे होंगे कि सीता, पार्वती
के नामों का क्या अर्थ है, तो यह भी जान लें। सीता की
उत्पत्ति अपने माता-पिता के रज-तेज से नहीं हुई। वह जनक को खेत में हल चलाते समय
मिली थीं। इसलिए उसे सीता (हल से निकलने वाली कन्या) कहा गया। पार्वती पर्वतराज
हिमालय की पुत्री हैं, इसलिए पार्वती कहलाई । पर्वत भी भूमि
पर होते हैं, इसलिए सीता और पार्वती दोनों ही भूमि-सुता हैं।
तात्पर्य यह है कि ये दोनों भी परमात्मा से जुड़ी हैं, इसलिए
इनकी पूजा होती है । शक्ति के संयोग के बिना परमात्मा में कर्त्ता, भर्त्ता और हर्त्ता का भाव नहीं आता ।
थोड़ा विभीषण के नाम पर भी चर्चा
करना आवश्यक लगता है। 'विभीषण' शब्द शरीर से जुड़कर भी किस अर्थ में विशेष
है, यह जानना जरूरी है। विभीषण शब्द का अर्थ है— जो न किसी
से डरे और न किसी को डराये । विभीषण के इस गुण के कारण ही वह रावण की लंका में
निर्भय होकर रहता था। उसने अपनी पुत्री त्रिजटा को सीता की सुरक्षा में भी लगा रखा
था। इस प्रकार विभीषण सतोगुणी होने का द्योतक है। व्याकरण की दृष्टि से समझें तो
बहुब्रीहि समास होने से विभीषण किसी को डराता नहीं और तत्पुरुष समास होने से वह
किसी से डरता नहीं। सत्वगुणी विभीषण इसीलिए भयरहित रह सका।
इस प्रकार किसी नाम-विशेष को इन
गुणों के आधार पर भी समझा जा सकता है। देखो 'राम' शब्द
में संस्कृत व्याकरण के अनुसार अधिकरण घञ् प्रत्यय लगाने से राम शब्द बना है,
इसका अर्थ होता है, जिसमें लोग रमें, आराम करें। यह रमना दो प्रकार से हो सकता है— एक प्रकार है जिसमें हम
प्रवेश करें और दूसरा प्रकार है- जो हमारे अन्दर प्रवेश करे, वह 'राम' है। तुलसी जी ने इसी
गुण को 'विनय पत्रिका में इस प्रकार दोहराया है-
रघुवर
रावरि यहै बड़ाई ।
निदरि गनी आदर गरीब पर करतकृपा अधिकाई ।
अर्थात् राम गणमान्य लोगों का इतना
सम्मान नहीं करते,
जितना दीनहीन गरीबों पर। वे गीध को अपनी गोद में उठा लेते हैं। कपटी
मारीच को सद्गति देते हैं। केवट से मित्रता करते हैं । शबरी के आश्रम में जाकर
खातेपीते हैं। इस प्रकार 'राम' अपने
नाम के साथ इतने सद्गुण लेकर पैदा हुए थे कि उनमें मानवोचित आचरण की झलक देखी जा
सके। हम केवल उसे ही ईश्वर मानते हैं, जो सृष्टि का स्वामी
है । किन्तु हमें तुलसीदास जी ने ऐसे ईश्वर के दर्शन कराए जो हमारे साथ हँसे खेले
और बोले ।
अब 'रावण के गुणों की
चर्चा भी कर लेना उपयुक्त होगा । रावण पूर्व जन्म में केकय देश के राजा सत्यकेतु
का पुत्र था। उसका नाम प्रतापभानु था। उसकी चर्चा मानस के बालकाण्ड में प्रारम्भ
में विस्तार से की गई है। यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है। तुलसीदास जी ने
इस प्रसंग को क्यों दिया है? इस पर विचार करें तो स्पष्ट
होता है कि प्रतापभानु राजा का नाम था। वैसा प्रतापी भी वह था । प्रतापभानु को
राज्य सौंप कर उसके पिता वन में जाकर भगवान का भजन करने लगे। इस प्रकार प्रतापभानु
एक संस्कारी पिता के सन्तान थे।
राज्य पाकर प्रतापभानु भी वेद -
सम्मत उत्तम रीति से प्रजा पालन करने लगा। तुलसी लिखते हैं- उसके राज्य में पाप का
लेश भी नहीं था किन्तु विश्व विजयी बनने के स्वप्न से ग्रसित उसके मन ने उसे
ब्राह्मणों के श्राप से राक्षसराज रावण के रूप में जन्म लेने को विवश किया और शरीर
को सत्ता और महत्ता देकर अत्यधिक महत्वाकांक्षी बनने से वह आतंकवादी बन गया । शरीर
को महत्व देकर रखे गये अपने नाम की महत्ता को अमर होने के भाव ने उसे कहीं का नहीं
रखा।
आज के संदर्भ में देखें तो हमारी
प्रवृत्ति भी इसी प्रकार की बनती जा रही है। शरीर को महत्व देकर लड़कियों का नाम
ऐश्वर्या रखा जाता है। लड़कों के नाम फिल्मी दुनिया के नायक के नाम पर रखे जा रहे
हैं। ऐसा करके वे यह भूल जाते हैं कि जिस शरीर के सुख, समृद्धि,
कीर्ति को भोगने की आकांक्षा लेकर वे जी रहे हैं, वह व्यर्थ है। नाशवान है। , वे अपने जीवन की घटनाओं
को बढ़ा-चढ़ा कर जीवनी, संस्मरण आदि प्रकाशित कराते हैं
किन्तु समाज के अन्तराल में लोग उन्हें भूल जाते हैं। क्योंकि कारण शरीर में जो
चेतन तत्व है उसकी 'सेल्फी' तो ली जा
नहीं सकती। इसलिए केवल शरीर के चित्र मूर्ति को पूजना 'असत्'
की पूजा है। यही सब आज चल रहा है।
प्रश्न उठता है, तो
क्या भगवान के चित्र की पूजा करना भी व्यर्थ है? तो यह कहना
उचित नहीं । कारण भगवान के शाश्वत्, दिव्य, अलौकिक श्री विग्रह के पीछे भगवान के नाम में सर्वव्यापक होने का भाव है।
एक भगवान के पूजन से समस्त ब्रह्माण्ड की पूजा हो जाती है। इसी कारण अवतारी पुरुष
स्वयं की पूजा कराने की आशा भी नहीं करते। उनकी पूजा के पीछे उनके नाम का भाव तथा
कर्म जुड़े रहते हैं। वे कर्म भी ऐसे कि बाहरी क्रियाओं को देखकर नहीं, उनके चरित्र को देखकर स्मरण किए जाते हैं।
तुलसीदास जी ने बालकांड के प्रारंभ
में ही नाम वंदना तथा नाम महिमा को उन्होंने रखकर नाम की महत्ता का मानस में वर्णन
किया है। वह कहते हैं-
चहुँ
जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव विसोका।।
केवल कलियुग की ही बात नहीं कह रहे
चारों युगों में,
तीनों कालों में और तीनों लोकों में नाम को जपने वाले शोक रहित हो
गए। स्वयं शिवजी, गणेश जी, आदि कवि
वाल्मीकि जी भी राम नाम की महत्ता को स्वीकार करके राम का नाम जपते हैं। तुलसी जी
की दृष्टि में नाम और रूप दोनों में ही ईश्वर की उपाधि है किंतु नाम के बिना रूप
की पहचान नहीं होती। निर्गुण और सगुण दोनों ही ब्रह्म के दो स्वरूप हैं किंतु नाम
इन दोनों में बड़ा है क्योंकि बिना नाम दिए उनकी पहचान संभव नहीं।
एक
राम तापस तियतारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
यह चौपाई नाम की महिमा को प्रकट कर
रही है कि राम जी तो एक तपस्विनी अहिल्या का उद्धार किया। लेकिन नाम ने कइयों का
कल्याण किया। सुखदेव,
सनकादि, योगी, मुनि,
नारद, प्रहलाद, ध्रुव,
हनुमान, अजामिल, गणिका
आदि के उदाहरण देकर नाम की महिमा का कुशलता का प्रतिपादन करते हैं।
कहने का आशय यही है कि भारतीय संस्कृति में नाम संस्कार को इसीलिए
प्रधानता दी गई है कि हर समय हर परिस्थिति में हर स्थान पर हर एक के साथ परमात्मा
की उपस्थिति की अनुभूति हो। जिसने अपने मन की शक्ति को अपने नाम से जुड़कर देखा,
किंतु परमात्मा को नहीं देखा वह ना तो स्वयं को पहचान सकता है और ना
अपनी शक्ति को। बुद्धिमान वही है जो हर नाम में परमात्मा को पूर्ण रूप में
अभिव्यक्त होता देखे। जो लोग शरीर को लेकर अपने नाम रख रहे हैं या पिता द्वारा
भौतिक सौंदर्य को देखकर अपने पुत्र के नाम रखे जा रहे हैं। वहां जीवात्मा की अभिव्यक्ति
हो रही है इसलिए वहाँ परिछिन्नता है, दुख है, तनाव है।
परमात्मा के नाम की अभिव्यक्ति वाले
नाम में परिपूर्णता है,
आनंद है, उल्लास है। इसके लिए हमें ना तो देश
का त्याग करना है। ना काल के परिवर्तन की अपेक्षा रखनी है और ना परिस्थितियों के
बदलने का विचार करना है। जहां हम हैं वहीं से नाम के माध्यम से परमात्मा का स्मरण
करना है। योग्य प्रकार से जीवन का यही विनियोग है। मानस में तुलसीदास जी द्वारा
प्रारंभ में ही नाम की महत्ता पर बल इसी आधार पर दिया गया है कि राम के चरित्र को
नाम से जोड़कर उसे पढ़ें सुनें और उसके अनुसार अपने जीवन का यथार्थ समझ सकें।
आप स्वयं विचार कीजिए इस देश का नाम
भारत क्यों रखा गया है?
यह काल सूचक तो है ही किंतु गुण सूचक भी है। भारत यानी जो ज्ञान
प्रकाश में सदैव लीन रहता है वह देश भारत है।
धरे
नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥
गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम
रखे (और कहा-) हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात् परात्पर
भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण
हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस
में सुख माना है। बचपन से ही श्री रामचंद्र जी को अपना परम हितेषी स्वामी जानकर
लक्ष्मण जी उनके चरणों में प्रेम जोड़ लेते हैं। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में
स्वामी और सेवक की प्रीति बन गई।
सज्जनो माता कौशल्या का कितना बड़ा
सौभाग्य है जो सर्वव्यापक,
निरंजन, माया रहित, निर्गुण,
विनोद रहित और अजन्मा ब्रह्म है वही प्रेम और भक्ति के वश में
कौशल्या जी के गोद में खेल रहे हैं। बड़ी सुंदर भगवान की शोभा का वर्णन यहां पर
बाबा जी कर रहे हैं-
काम
कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।।
बड़ा सुंदर हमारे रामलला का स्वरूप
है मेघ के समान श्यामल वर्ण है, घुंघराले बाल हैं। उनका स्वरूप इतना
सुंदर है कि करोड़ों कामदेवों को भी लज्जित करने वाला है। प्रभु के सुंदर चरण कमल
पर वज्र ध्वजा और अंकुश के चिन्ह शोभित है। उनके पैरों पर जो पैजनिया बंधी हुई है
उनकी ध्वनि सुनकर मुनियों का मन भी मोहित हो जाता है। कमर में करधनी पहने हुए हैं,
विशाल भुजाएं हैं और जब वह मधुर मधुर तोतली वाणी में बोलते हैं तब
बहुत ही प्यारे लगते हैं। हमारे रामलला सरकार कैसे हैं आइए एक भाव के माध्यम से
जानते हैं-
अधुरं
मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं संख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतिरखिलं मधुरम् ॥
गोपा मधुरा गावो मथुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मथुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतिरखिलं मधुरम् ।।
सब कुछ मधुर है हमारे प्रभु का। भगवान थोड़े बड़े हो गए और उनकी बाल लीलाएं सबको आती आनंदित करने लग गई।