राम कथा हिंदी में लिखी हुई-19 ram katha book in hindi
भगवान श्री राघवेंद्र सरकार अपने
भाइयों व सखाओं के साथ खेलते कूदते कुछ बड़े हो गए।
अब माता पार्वती के चौथे प्रश्न- कहो
यथा जानकी विवाही।। का उत्तर देते हुए शिवजी कहते हैं- विश्वामित्र महामुनि ज्ञानी मुनियों के
सहित सिद्धाश्रम को शुभ स्थान जानकर बसते थे। वहाँ मुनिजन जप, तप, योग, यज्ञ करते थे। परंतु
मारीच सुबाहु यज्ञ को देखते ही दौड़ पढ़ते थे और उपद्रव मचा देते थे जिससे मुनियों
को दुख होता था। इससे विश्वामित्र जी के मन में चिंता समायी।
गाधितनय
मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी।।
गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी के मन
में चिंता छा गई कि यह पापी राक्षष भगवान के मारे बिना ना मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि
ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरण करने के लिए अवतार अयोध्या
में लिया है। इसी बहाने से प्रभु के चरणों का दर्शन करूं और विनती करके दोनों
भाइयों को साथ लाकर इन निशाचारों का नाश कराऊँ। ऋषि विश्वामित्र जी अयोध्या में
जाते हैं। महाराज दशरथ जी ने उनका राजोचित ढंग से स्वागत सत्कार किया और उनसे
निवेदन किया कि महाराज आज्ञा कीजिए दास के लिए क्या सेवा है? तब
ऋषि विश्वामित्र जी महाराज दशरथ जी से कहने लगे-
अनुज
समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।
हे राजन राक्षसों के समूह मुझे बहुत
दुख देते हैं। इसीलिए मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूं! छोटे भाई सहित श्री रघुनाथ जी
को मुझे दे दो?
राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ हो जाऊंगा। महाराज दशरथ ने जैसे
ही विश्वामित्र जी के वचनों को सुना है उनका पूरा शरीर कांप गया। हाथ जोड़कर के
कहने लगे महाराज यह राम लक्ष्मण तो दुधमुहे बच्चे हैं यह क्या राक्षसों के सामने
युद्ध करेंगे। आप मुझे आज्ञा दीजिए मैं धनुष बाण लेकर अपनी पूरी सेना लेकर आपके
साथ चलता हूं। लेकिन हे मुनिराज-
राघव को मैं ना दूंगा मुनिनाथ मरते
मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
जल के बिना कदाचित मछली शरीर धारे,
पर मैं ना जी सकूंगा इनको बिना निहारे,
कौशिक सिहर रहे हैं मेरे अंग डरते डरते,
राघव को मैं ना दूँगा मुनिनाथ मरते मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
कर यत्न चौथेपन में सुत चार मैंने
पाये,
पितु मातु पुरजनों को रघुचंद्र ने जिलाया,
लोचन चकोर तन्मय छविपान करते करते,
राघव को मैं ना दूँगा मुनिनाथ मरते मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
चलते विलोक प्रभु को होगा उजाड़ कौशल,
मंगल भवन के जाते संभव कहाँ है मंगल,
सीचें कृपालु तरु को मृदुपात झरते झरते,
राघव को मैं ना दूँगा मुनिनाथ मरते मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
होवे प्रसन्न मुनिवर लै राजकोष सारा,
रानी सुतो के संग में वन में करूँ गुजारा,
ले गोद राम शिशु को सुख मोद भरते भरते,
राघव को मैं ना दूँगा मुनिनाथ मरते मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
लड़के है राम लक्ष्मण कैसे करे लड़ाई,
गिरिधर प्रभु को देते बनता नही गोसाईं,
कह यूँ पड़े चरण पर दृग नीर ढ़रते ढ़रते,
राघव को मैं ना दूँगा मुनिनाथ मरते मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
राघव को मैं ना दूंगा मुनिनाथ मरते
मरते,
मेरे प्राण ना रहेंगे यह दान करते करते।।
ऋषि विश्वामित्र जी के वाणी को सुनकर
राजा का हृदय कांप उठा और चेहरे का तेज जाता रहा। बोले विप्र वृद्धावस्था में चार
बेटे पाये हैं। आप विचार कर बात नहीं बोले। यहां पर ध्यान दें मांगने के कारण- जो विश्वामित्र महामुनि ज्ञानी, पूर्व
में कहा था। अब- बिप्र वचनहि रहेउ विचारी।। खाली विप्र रह गये। और कहा- भला यह राक्षसों से युद्ध
करने योग्य हैं? अतः याचना करने से मान, तेज और निष्प्रिहता की हानि होती है। विप्र का भाव ब्राह्मण जो मांगते हैं
उसे मांगिये! ब्राह्मण पृथ्वी, गौ, धन
और कोष यही चार वस्तु मांगते हैं। आप सर्वस्व मांग लीजिए मैं उत्साह के साथ दूंगा।
सर्वोपरि संसार में देह और प्राण हैं उसे पल भर में दे सकता हूं। देह और प्राण का
मोह छोड़ स्वयं राक्षसों से उत्साह के साथ युद्ध करूंगा। हे मुनिराज- मुझे सभी
बेटे प्राणों से प्यारे हैं लेकिन-
सब
सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनत गोसाईं।।
राम को देते नहीं बनता। कहां भयानक
राक्षष और कहां परम किशोर मेरा बेटा राम। तब मुनि विश्वामित्र जी ब्रह्मर्षि
वशिष्ठ के पास गए हैं उनके चरणों में प्रणाम किए हैं। कहने लगे आज मैं अपना सब कुछ
हार कर आपके श्री चरणों में आया हूं। मुझे संसार नहीं चाहिए, उच्चतम
पद भी नहीं चाहिए। मेरा सर्वस्व लेकर मुझे राम दे दो। यह सुनकर वशिष्ठ का हृदय
गदगद हो गया उन्होंने भी नेत्र की भाषा में कहा हे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र आज आप
सचमुच विश्व के मित्र बन गए। आपका नाम सार्थक हो गया। विश्व नाम तो श्री राम का ही
है। उनके मित्र बन गए। अपने बन गए।
वशिष्ठ जी ने राजा दशरथ जी को बहुत
विधि से समझाया है- तब वशिष्ठ बहुबिधि समुझावा।। माताओं से
उन्होंने कहा कि हे देवियों यह जा तो अकेले रहे हैं लेकिन आते वक्त बहूओं को साथ
लेकर के आएंगे। जैसे ही यह सुना है माताएं बड़ी प्रसन्न हुई हैं। वह महाराज को
मनाई हैं तब महाराज दशरथ जी ने विश्वामित्र जी के साथ श्री रघुनाथ जी और लक्ष्मण
जी को भेजने को तैयार हो गये। श्याम और गौर सुंदर दोनों भाइयों को पाकर
विश्वामित्र जी बड़ी भारी निधि प्राप्ति की। विश्वामित्र जी मार्ग में विचार करने
लगे मैं जान गया प्रभु राम ब्रह्मण्य हैं मेरे निमित्त भगवान ने पिता को छोड़
दिया।
इस प्रसंग का मर्म समझिए विश्वामित्र
जी के यज्ञ की रक्षा भगवान श्री राम लक्ष्मण जी ने किया इसको अगर हम आध्यात्मिक
दृष्टि से समझने का प्रयास करें तो हमारा जीवन रूपी यज्ञ की रक्षा भी भगवान श्री
राम और लक्ष्मण करेंगे। और कौन सी रक्षा? हमारे जीवन रूपी यज्ञ में
जो बाधा विघ्न डाल रहे हैं वे राक्षस कहीं बाहर नहीं वह हमारे भीतर ही हैं-
काम
क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
यही असली हैं काम, क्रोध,
मद, लोभ,मत्सर, ईर्ष्या, अहंकार, पाखंड इनसे
बचने के लिए राम और लक्ष्मण का सहारा लेना पड़ेगा राम यानी सत्य और लक्ष्मण यानी
वैराग्य। मार्ग में जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखा दिया। ताड़का उनकी तरफ
क्रोधित हो दौड़ी।
एकहिं
बान प्रान हरि लीन्हा।दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
श्री राम ने इसका एक ही बांण से
प्राण हरण कर लिया दीन जान अपना परम पद प्रदान किया। तब ऋषि विश्वामित्र ने अपने
स्वामी को हृदय से चिन्हा। एक ही बांण से वध तथा दिव्य दृष्टि से उसकी गति देखने
से मुनि जी को ज्ञान हो गया कि यह मेरे स्वामी हैं। हृदय से पहचान गए और अपनी
विद्या को सफल करने के लिए सभी बल और अतिबला विद्या दी है। इस विद्या को जानने
वाले को छुधा- पिपासा की बाधा नहीं रहती। मुनि ने बतलाया कि इस विद्या को प्राप्त
करने से भूख प्यास ना रहने पर भी बल तेज प्रकाश बढ़ता ही जाता है। निशाचारों के
समूह से युद्ध करना होगा,
यज्ञ में कई दिन लगते हैं ना जाने युद्ध में भोजन का अवसर मिले या
ना मिले क्योंकि निसचर अति घोर और बलवान होते हैं। आप इस विद्या के द्वारा कई दिन
तक बराबर लड़ सकते हैं और सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके प्रभु को अपने आश्रम में
लाकर भक्त हितकारी जानकर कंदमूल फल भोजन कराया।
श्री रघुनाथ जी ने मुनि से कहा आप
जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे श्री रघुनाथ जी और
लक्ष्मण दोनों भैया यज्ञ की रखवाली करने लगे। इसी समय असुरों का समूह मारीचि और
सुबाहु अपने सेना के साथ यज्ञ विध्वंस करने के लिए आए। प्रभु श्री राम ने मारीच को
ऐसा बांण मारा कि वह सौ योजन समुद्र के पार गिरा। फिर सुबाहु को अग्नि बाण से
मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की संपूर्ण सेना का संघार कर डाला। तब
सारे देवता मुनि स्तुति करने लगे।
मानस में वर्णित
यज्ञ - संस्कृति का मर्म
मानस में तो यज्ञ संस्कृति को देश, समाज
और व्यक्ति की उन्नति का मूलस्रोत माना गया है। सारी राम कथा ही यज्ञमय है।
श्रीराम का जन्म ही पुत्रेष्टि-यज्ञ से होता है। ऋषियों के यज्ञ के रक्षार्थ ही वे
अयोध्या से बनवास की यात्रा पर निकलते हैं। उनका विवाह भी धनुष यज्ञ के निमित्त
होता है। राम स्वयं भी अंत में अश्वमेध यज्ञ करते हैं।
राम कथा यज्ञमय है किन्तु यह क्रम जब
बिगड़ता है तो देश,
समाज और व्यक्ति का पतन भी होता है। आज के वातावरण में यज्ञ करने को
लोग इसलिए महत्व नहीं दे रहे हैं कि उनका स्वयं का जीवन यज्ञमय नहीं रहा। यज्ञ
कार्य में लीन व्यक्ति में त्याग और बलिदान की भावना रहना चाहिए किन्तु आज संग्रह
और विध्वंस वृत्ति की भावना प्रबल हो रही है। समाज में भी संगठन, सहकारिता, समता और सामूहिकता की भावना का धीरे-धीरे
लोप हो रहा है, ऐसे में यज्ञ कार्य कैसे संभव है? यज्ञ का प्रत्येक कर्म क्रिया प्रधान होता है । उसे पूरा करने के लिए राग
और द्वेष दोनों की निर्मिति होती है । यदि यज्ञ करते समय अंत:करण की शुद्धता पर
हमने ध्यान नहीं दिया, तो यज्ञ से हमारी कामनाएँ इतनी प्रबल
हो जाती हैं कि उसका दुष्परिणाम असुर भाव के विकास में मिलता है । फलस्वरूप जो
व्यक्ति अशांत भाव से यज्ञ करता है, वह आतंकवादी बनता है ।
अपने पद का दुरुपयोग करता है। जनता को परेशान करने लगता है। व्यक्तिगत स्वार्थ
सिद्धि में लग जाता है।
अतः मानस में जिस यज्ञ-पद्धति का
समर्थन तुलसी ने किया है,
वह स्थूल सामग्री को लेकर नहीं किया है, उसका
सात्विक - फल यज्ञ - कर्त्ता को मिले इसी भाव को रखकर किया है। भारतीय संस्कृति की
मूलभावना ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । " को लेकर यज्ञ करने की
थी किन्तु इसके लुप्त होने पर व्यक्ति में असुर भाव पनपता है। स्वयं रावण का
उदाहरण इसके लिए दिया जा सकता है। वह अपने अनुचरों से कहता है-
'द्विज भोजन मख होम सराधा । सब कै जाइ करहु तुम बाधा । । ' (बालकाण्ड दोहा १८१)
अर्थात् रावण का कार्य ही यज्ञ -
संस्कृति का विनाश करना था। ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध – इन चार कर्मों का वह घोर विरोधी था क्योंकि इनसे समाज को
बल मिलता है। फलस्वरूप समाज में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैला कि धर्म तो कानों में भी
सुनने नहीं आता था। इसके लिए उसने विधिवत् अभियान चलाया। इसके विपरीत भगवान राम का
जन्म कामेष्टि-यज्ञ द्वारा हुआ। इससे सिद्ध होता है कि यज्ञीय संस्कृति उस
जीवनक्रम की समर्थक है जो विनाश के बीज न बोए। यह इससे सिद्ध होता है कि किशोर
होते ही राम ने विश्वामित्र के साथ जाकर यज्ञ - संस्कृति की रक्षा का काम सबसे
पहले किया और उसमें ताड़का तथा सुबाहु को मारकर यज्ञीय भावना की पुनर्स्थापना का
परिचय दिया।