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शिव पुराण कथा हिंदी में-18 shiv mahapuran hindi anuvad

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शिव पुराण कथा हिंदी में-18 shiv mahapuran hindi anuvad

शिव पुराण कथा हिंदी में-18 shiv mahapuran hindi anuvad

 शिव पुराण कथा हिंदी में-18 shiv mahapuran hindi anuvad

शिव पुराण कथा हिंदी में-18 shiv mahapuran hindi anuvad

नारद में ऐसा अपने पुत्रों से कहीं रहा था कि रति सहित कामदेव वहां आ पहुंचा तब मैंने उसकी भी बहुत प्रशंसा की और कहा तुम जगत के हित के लिए शिवजी को मोहित करो, तुम्हारे सिवा दूसरा उन्हें मोहित नहीं कर सकता।

महादेव जी पर अनुराग करने से तुम्हारे श्राप की भी शांति होगी और जगत का कल्याण भी। क्योंकि जब शिवजी को स्त्री से अनुराग होगा तब वे महादेव जी तुम्हें तार देंगे।
तब मदन ने कहा कि मैं आपका वचन पालन कर शिवजी को मोहित तो अवश्य कर दूंगा, किंतु स्त्री का निर्माण तो आप ही करें। तब कन्दर्प के ऐसा कहने पर प्रजापति दक्ष इस चिंता में पड़ गए कि किसके द्वारा मोहित करें ?

फिर तो चिंता ग्रस्त मेरी और उनकी सांसो से जो सुरभित वायु निकली उसने पुष्प समूहों से भूषित ताम्ररस से नेत्र, संध्या के उदित चंद्र खंड सा मुख और सुंदर नासिका थी ऐसे श्रेष्ठ को आभिर्भूत हुआ देखकर मैं हिरण्यगर्भ मदन से कोमल वचनों में कहा- कि हे मन्मथ तुम सर्वदा काम के सहचर हो सब देवता तुम्हारी अनुकूलता करेंगे ।

यह रमण का हेतु होने से इसका नाम बसंत है और यह लोगों को रंजित करेगा। काम तुम अपने इस बसंत आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर शिवजी को मोहित करने का उपयोग करो।

फिर सपत्नीक काम ने प्रसन्न हो मेरे चरणों में प्रणाम किया और शिव के स्थान को चला गया। ब्रह्माजी बोले काम ने प्राणियों को मोहित करने वाला अपना प्रभाव फैलाया, वसंत ने भी उसका साथ दिया, रति के साथ कामदेव ने शिवजी को मोहित करने के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए।

जिससे सब जीव मोहित हो गए परंतु गणों सहित शिवजी वश में ना आए , उसके सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गए । तब उसने उदास भाव से मेरे पास आ प्रणाम कर मुझसे कहा- कि ब्रह्मन मैं शंभू को मोहने के योग्य नहीं हूं और किसी की शक्ति नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।

उसकी बात सुनकर मैं चिंता मग्न हो गया और बड़े दुख की सांस लेने लगा। उससे बहुत से बली भयंकर गण प्रकट हो गए। उन्होंने भेरी, मृदंग आदि अनेकों प्रकार के असंख्य विकराल बाजे बजाना प्रारंभ किया।

मेरे निःश्वास से उत्पन्न हुए वे गण मुझ ब्रह्मा के सामने ही मारय- मारय ऐसा बोलने लगे । मैंने कहा तुम उत्पन्न होते ही मारय मारय करने लगे इससे तुम्हारा नाम मार होगा और तुम सदा कामदेव के बस में रहोगे।

यह देख रति और काम कुछ प्रसन्न हुए तब मैंने कहा कि अब तुम फिर शिवजी को मोहित करने के लिए जाओ। काम ने कहा कि मैं आपकी आज्ञा को अपना गौरव समझ कर जाऊंगा अवश्य किंतु यह निश्चित है कि उनको मोह नहीं होगा और मुझे भय है कि कहीं वे मेरे शरीर को भस्म ना कर दें।

यह कहकर काम अपने बसंत और मार आदि को साथ लेकर शिव जी के स्थान में आ गया और उन्हें मोहित करने के लिए पहले के ही समान अपना प्रभाव दिखाया तथा बसंत ने भी अनेक प्रकार की बुद्धि का प्रयोग करते हुए बहुत उपाय किए।

किंतु परमात्मा शंकर को कुछ भी मोह ना हुआ तब काम लौट कर पुनः मेरे पास आया, समस्त मार गण भी अभिमान रहित तथा उदास होकर मेरे सामने खड़े हो गए। उन्होंने कहा हे विधे हमने बहुत प्रकार से प्रयत्न किए लेकिन शिवजी को मोहित ना कर सके और मुझे प्रणाम कर वह गणों सहित चला गया ।

ब्रह्माजी बोले- नारद काम के चले जाने पर महादेव को जो मोहित करा देने का मेरा अहंकार था वह भी चूर्ण हो गया । परंतु मैं यह विचार करता ही रहा कि क्या युक्ति करूं कि जिससे महात्मा शिवजी स्त्री ग्रहण करें ।

मैनें विष्णु का स्मरण किया पीतांबर धारी शीघ्र ही मेरे पास प्रकट हो गए, मैंने उनकी गदगद वाणी में स्तुति कि। उससे प्रसन्न हो भगवान विष्णु मुझसे बोले कि- हे विधे कहो किस लिए मेरा स्मरण किया है?

तब एक दीर्घ निश्वास लेकर हाथ जोड़ प्रणाम कर मैंने देवाधिदेव विष्णु जी से कहा-
देव देव रमानाथ मद्वार्तां शृणु मानद।
श्रुत्वा चकरुणां कृत्वा हर दुःखं कमावह।। रु•स• 10-15

हे देव देव, रमानाथ मेरी बात सुनिए और हे मानंद उसे सुनकर दया करके मेरा दुख दूर कीजिए तथा मुझे सुखी कीजिए । मैंने रुद्र के सम्मोहनार्थ सपरिवार मार गण और वसंत के साथ काम को भेजा था, परंतु सब निष्फल हुआ। तब हरि ने पूछा तुम ऐसा क्यों करना चाहते हो ?

तो ब्रह्मा जी ने पूर्व की बात बताई जब कन्या की कुदृष्टि पर शिवजी ब्रह्मा जी को बहुत धिक्कारा था। वह स्त्री ग्रहण कर ले तब मैं सुखी हो जाऊंगा । नारद मेरी ऐसी बात सुनकर मधुसूदन हंसे और बोले-
शंकर सुरसामान्यं मत्वा द्रोहं करोषि हि।
सुबुद्धिं र्विगता तेद्याविर्भूता कुमतिस्तथा।। रु•स• 10-33
ब्रह्मा जी ऐसा ज्ञात होता है कि इस समय आपकी सुबुद्धि नष्ट हो गई है और आप में कुमति उत्पन्न हो गई है । जो आप शंकर को सामान्य देवता समझ कर उनसे द्रोह कर रहे हैं ।

शिव जी समस्त सृष्टि के कर्ता,धर्ता ,हर्ता, परात्पर ब्रह्म, परेश, निर्गुण, नित्य, निर्विकार तथा सदैव दीनों पर दया करने वाले हैं । हे ब्रह्मा आु शिवजी से ईर्ष्या त्याग दो। यदि तुम्हारे विचार से शिवजी को स्त्री ग्रहण करना ही है तो, पार्वती के उद्देश्य से शिवजी का स्मरण कर तप करो।

यदि वह भगवती प्रसन्न हो जाएंगी तो तुम्हारे सब काम पूर्ण हो जाएंगे, वह सर्वगुण संपन्न भगवती अवतार ले किसी की कन्या हो जाएंगी और वह शीघ्र ही शिव जी की पत्नी होंगी। इसलिए दक्ष को आज्ञा दो कि वह तप करे जिसके भक्ति से भगवती उसके यहां अवतीर्ण हों। यह कहकर विष्णु जी अंतर्ध्यान हो गए।

नारद जी बोले- विष्णु जी के चले जाने पर क्या हुआ ?
ब्रह्मा जी कहने लगे - तब मैं भगवती दुर्गा देवी का स्मरण करने लगा मेरी स्तुति से वह मेरे सामने प्रकट हो गई । तब मैंने उनसे कहा शिवजी को मोहिने की शक्ति आपके सिवा किसी में नहीं है अतः आप दिव्य रूप धारण कर दक्ष की कन्या बन और योगी शंकर की पत्नी बन जाइए।

दुर्गा बोलीं -ब्रह्मन शिवजी को मोहने वाला कोई नहीं है ,मैं भी उसकी शक्ति नहीं रखती। लेकिन मैं प्रयत्न अवश्य करूंगी जिससे शिवजी मोहित हो स्वयं भी विवाह कर लेवें। मैं सती का रूप धारण कर शिवजी की अर्धांगिनी होउगी। ऐसा कहकर जगदंबिका अन्तर्धान हो गई। यहाँ दक्ष के आराधना से भी भगवती प्रसन्न होकर वर दिया कि मैं तुम्हारी पुत्री रूप में उत्पन्न होंऊगी और कठिन तप कर शिव जी की पत्नी बनूगी और अंतर्ध्यान हो गई।

इधर ब्रह्मा जी की आज्ञा से मैथुन सृष्टि के हेतु दक्ष ने पंचजन की पुत्री अस्किनी से विवाह किया और वीरण की कन्या वीरणी के साथ विवाह हुआ। प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी उस वीरणी के गर्भ से हर्यश्व नामक दस हजार पुत्रों को उत्पन्न किया । वे सभी पुत्र वेद मार्ग का अनुसरण करने वाले थे। दक्ष ने जब इनको सृष्टि बढ़ाने को कहा तब वे पुत्र समुद्र संगम पर तप करने चले गए, परंतु नारद जी के उपदेश से सब त्याग कर वे उपासक बन गये।

तब दक्ष ने पंचजन्या से सवलाश्व नामक हजारों पुत्रों को उतपन्न किया लेकिन वे भी पूर्व भाइयों के ही अनुवर्ती हुए । उस समय दक्ष दुखी होकर नारद जी को श्राप दिया कि आज से नारद जी के चरण कुछ देर से अधिक कहीं पर स्थिर ना रहेंगे।

तब मैं ब्रह्मा अपने पुत्र दक्ष के पास गया समझाकर उनका शोक और तुम्हारे प्रति क्रोध को शांत किया । फिर दक्ष की साठ कन्याएं हुईं। भगवती भी उसके घर अवतीर्ण हुयीं, दक्ष ने उनका नाम उमा रखा ।

ब्रह्माजी बोले- जब सती कुमारावस्था को त्याग यूवावस्था को प्राप्त हुई, तब उनके पिता दक्ष उनके विवाह की चिंता करने लगे । उमा शिवजी की प्राप्ति के लिए उनकी अराधना करने लगी ।
इधर ब्रह्मा विष्णु आदि देवता भगवान शंकर के कैलाश पहुंचे और असुरों के सघांर निमित्त जगत कल्याण हेतु विवाह करने का निवेदन करने लगे। तब भक्तवत्सल सु विज्ञानी शंकर जी तथास्तु कहकर सबको विदा किया।

( उमा को वर प्राप्ति )
ब्रह्माजी बोले- सती ने फिर नंदा का व्रत किया तब शंकर जी प्रसन्न हो उसे दर्शन देने गए। शंकर जी को देख सती ने किंचित लज्जा से सिर झुका उनके चरणों में प्रणाम किया ,तब शिवजी बोले सुव्रते मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ, तब सती और भी लज्जित हो गई और उनके हृदय में जो था वह कह ना सकी ।

वह शिव जी के वचन सुन प्रेम मगन हो गई, शिव जी ने फिर कहा- वर मागो-वर मागो तब सती ने अपनी लज्जा त्याग कर कहा- हे वरद आप वही वर दीजिए जो आपको अच्छा लगे।
सती का वचन पूरा भी ना हुआ था कि भक्तवत्सल शिव ने तुम मेरी अर्धांगिनी बनो कहकर उन्हें यह वर दे दिया । मनोवांछित वर पाकर सती मौन हो गई । वर देकर शिव अंतर्ध्यान हो गए ।

उमा भी अपने घर आकर शिव प्राप्ति का समाचार जब कहा माता-पिता प्रसन्न हो गए। इधर भगवान शिव से सभी देवता शुभ लग्न में विवाह करने की प्रार्थना की तो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, रविवार के दिन फाल्गुनी नक्षत्र में शिव जी ने यह यात्रा की ।

ब्रह्मा जी बोले- नारद मैं ब्रह्मा ,विष्णु और सभी देवता मुनि उनके साथ हुए। नन्दी में बैठे शिवजी शीघ्र ही दक्ष के घर पहुंचे। दक्ष ने बड़ी विधि से उनकी पूजा की। शुभ लग्न में शिवजी के लिए सती का कन्यादान किया ।

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