F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-18 bal ram katha story in hindi

श्री हनुमान जी तो सदैव ही भक्तिविह्वल होकर अश्रु पूर्ण नेत्रों से श्री राम के सम्मुख दंडवत रहते हैं।

यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्।।

जहां जहां भी रघुनाथ जी का कीर्तन होता है कथा होता है वहां वहां हनुमान जी महाराज अपना मस्तक झुका करके खड़े-खड़े प्रभु के चरित्र को सुनते हैं नाम को सुनते हैं और उनके नेत्र सजल होते रहते हैं। यह है भक्ति का प्रभाव मनुष्य के अंदर भक्ति बिना रघुनाथ जी के कृपा के नहीं आती है। हम सबको भक्ति को प्राप्त करने के लिए पाने के लिए असद वासना का त्याग करना होगा और असद वासना का विनाश या त्याग सद वासना से होगा। इसको एक दृष्टांत के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं-

किसी राजा के पास एक बकरा था। राजा ने एक बार ऐलान किया कि इस बकरे को जंगल में चराकर जो इसे तृप्त करके लाएगा उसे मैं आधा राज्य दे दूंगा। किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं खुद करूंगा। इस ऐलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास आकर कहा कि बकरे को चराना कोई बड़ी बात नहीं है और वह बकरे को लेकर जंगल में गया वहां सारा दिन उसने कोमल हरी घास बकरे को खिलाई। शाम होने पर उसने सोचा कि अब तो बकरे का पेट भर गया होगा क्योंकि सारा दिन उसे चराता फिरा हूँ। वह बकरे के साथ में राजा के पास आया राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के आगे रखी तो बकरा उसे खाने लगा। इस पर राजा ने उस मनुष्य से कहा कि तूने इसे पेट भर खिलाया ही नहीं है। वरना यह घांस क्यों खाने लग जाता? बहुतों ने बकरे के पेट भरने का प्रयत्न किया परंतु ज्यों ही दरबार में उसके सामने घांस डाली जाती कि वह खाने लगता।

एक सत्संगी ने सोचा कि राजा के इस ऐलान में कोई रहस्य है, तत्व है! मैं युक्ति से काम लूंगा। वह बकरे को चराने के लिए ले गया। जब भी बकरा घास खाने लगता तो वह उसे लकड़ी से मार देता। सारे दिन में कई बार ऐसा हुआ अंत में बकरे ने सोचा कि यदि मैं घांस खाने का प्रयत्न करूंगा तो मार खानी पड़ेगी। शाम को वह सत्संगी बकरे को लेकर राज दरबार में लौटा। बकरे को घांस बिल्कुल खिलाई नहीं थी फिर भी उसने राजा से कहा मैंने इसे पेट भर घास खिलाई है। अतः यह अब बिल्कुल घांस नहीं खाएगा कर लीजिए परीक्षा? राजा ने घांस डाली लेकिन उस बकरे ने खाया तो क्या उसे देखा और सूंघा तक नहीं। बकरे के मन में यह बात बैठ गई थी की घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी तथा उसने घास नहीं खाई।

सज्जनों यह बकरा हमारा मन ही है। बकरे को घास चरने ले जाने वाला जीवात्मा है और राजा परमात्मा है। मन को मारो, मन पर अंकुश रखो, मन सुधरेगा तो जीवन सुधरेगा। मन को विवेक रूपी लकड़ी से रोज पीटो। भोग से जीव तृप्त नहीं हो सकता! त्याग में ही तृप्ति समायी हुई है। मन अहंता और ममता से भरा हुआ है कुछ मांगे तब उसे विवेक रूपी लकड़ी से मारोगे तो वह वश में हो जाएगा। वही मन जब रघुनाथ जी के चरणों में लग जाएगी तो उनकी भक्ति की प्राप्ति होगी और भक्ति जीवन मुक्त करने वाली होती है।

जब भगवान श्री राघवेंद्र सरकार कुछ बड़े हुए तो गुरु पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया और फिर रघुनाथ जी भाइयों सहित गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए।

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥

गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं। चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। वह हरि नारायण जिसके स्वास प्रश्वास से वेद की ऋचाएं प्रकट होती हैं, वह गुरुकुल पढ़ने जा रहे हैं यह कोई सामान्य बात नहीं है। भगवान राघवेंद्र सरकार गुरु की और गुरुकुल की महिमा स्थापित कर रहे हैं। भगवान ने यह बतलाया है और संदेश दिया है कि जीवन में प्रथम कर्तव्य है गुरु सेवा करना और गुरु से ज्ञान प्राप्त करना। लेकिन हम सब का दुर्भाग्य है कि धीरे-धीरे अपने बच्चों को गुरुकुल में भेजना बंद कर दिए जिससे गुरुकुल का स्वरूप लोप होता रहा। और एक बात हम सबको स्मरण करना अति आवश्यक है कि जब तक हम अपने उस स्वरूप में पुनः नहीं आएंगे भारत की जो वह ऋषि परंपरा है। गुरुकुल के उत्थान पर प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक भारत व भारत के लोगों का कल्याण नहीं होने वाला है अगर भारत विश्व गुरु बना तो ये गुरुकुल का ही परिणाम था। गुरु वशिष्ट के आश्रम पर राघवेंद्र सरकार गुरु जी की सेवा करते हुए बड़े प्रेम से ज्ञान अर्जन कर रहे हैं।

पढ़ लिखकर कुछ ही वर्षों में विद्या निधि से अवतीर्ण हुए।
रण शिक्षा राजनीति में भी सब भली भांति उत्तीर्ण हुए।।
तब लगे सिखाने गुरु इन्हें, विज्ञान विवेक योगियों का।
उस ऊंचे पद पर पहुंचाया जो पद था तत्वदर्शियों का।।
दश पञ्च मध्य चैतन्य एक जिसका प्रकाश तारों में है।
जैसे दिनकर का गुप्त तेज, चंद्रमा और तारों में है।
उस प्रकाश द्वारा ही शरीर चैतन्य दिखाई देता है।।
वह व्यापक वह चैतन्य तत्व संपूर्ण सृष्टि का नेता है।
वही सच्चिदानंद तुम हो वह ही निज देश तुम्हारा है।।
जो तीन गुणों से ऊपर है जो पंचकोश से न्यारा है।
व्यवहार जगत में कर्म लिप्त कहलाता वह जीवात्मा है।।
वास्तव में वह ही तत्सत है परमात्मा है विश्वात्मा है।।

भगवान श्री राघवेंद्र सरकार अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में गुरु जी की सेवा करते हुए बड़े प्रेम से विद्या अर्जन करने लग गए, बहुत ही कम समय में उन्होंने संपूर्ण विद्याओं को प्राप्त कर लिया। श्री राघवेंद्र तो गुरु की और गुरुकुल की महिमा को स्थापित करने के लिए गुरु आश्रम गए। गुरुकुल की जो पढ़ाई है उसमें संस्कृति संस्कृत और संस्कार तीनों दिखाई पड़ते हैं इसका प्रमाण विश्व विदिक है। बाबा जी लिखते हैं-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।

यह गुरुकुल की शिक्षा का परिणाम है प्रातः काल नित्य उठकर माता-पिता गुरु को प्रणाम करते हैं। वर्तमान की दशा बड़ी भयानक है आज बहुत कम ही संस्कार देखने को मिलता है। अब तो अपने से बड़ों को प्रणाम करने में भी लोगों को लज्जा और शर्म महसूस होती है। अब विचार कीजिए जहां पर हमारे ऋषि महापुरुषों ने अपने से श्रेष्ठ जनों को प्रणाम उनका आदर उनकी सेवा की इतनी बड़ी भारी महिमा गाई है की-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।

अपने से बड़ों का अभिवादन करने वाले और वृद्धों की सेवा करने वाले लोगों के आयु, विद्या, यश, और बल ये चार गुण अपने-आप बढ़ते हैं। और हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि हम सब बड़ों का अभिवादन करना वृद्धों की सेवा करना अपने से श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करना इसमें लज्जा शर्म महसूस करते हैं। और जब तक हम अपनी पद्धति गुरुकुल की व्यवस्था में स्वयं को परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक यह संस्कार हमारे अंदर नहीं आ सकते।

बिना गुरु शरण कल्याण नहीं- एक बहुत सुंदर दृष्टांत आता है कि एक अकामपुर नामक शहर था वहां का राजा बड़ा दयालु था वहां जो मनुष्य एक बार चला जाता था वह धनी व सुखी हो जाता था क्योंकि वहां थोड़े दाम में ही बहुमूल्य वस्तुएं मिलती थी। किंतु उस शहर में जाने का एक ही मार्ग था और शहर के चारों ओर से कांटा खाई और जंगल तथा पर्वत हैं। एक बार कई सौदागर अपनी अपनी गाड़ी लेकर उस शहर में व्यापार करने चले जब शहर के फाटक पर गए तो वहां गाड़ी की चुंगी ( टोल टैक्स ) लगती थी। कुछ लोग तो तुरंत चुंगी देकर शहर में चले गए कुछ लोग पैसे के लोभवश गाड़ी शहर में नहीं ले गए। शहर में जाने का कोई दूसरा मार्ग खोजने लगे। रात भर कांटा खाई में दौड़ दौड़ कर मार्ग ढूंढे किंतु दूसरा मार्ग ना मिला।

ऊपर से जाड़े में दुखी हुए। प्रातः काल दो चार सौदागर विचार करने लगे कि बिना चुंगी (टैक्स) देकर फाटक से गए किसी भाँति भी शहर में नहीं प्रवेश कर सकते। चाहे जब हमें शहर में जाना होगा तो फाटक से ही जा सकते हैं अन्य कोई मार्ग नहीं है। ऐसा सोचकर दो-चार मनुष्य चुंगी टैक्स देकर शहर में चले गए और बाकी लौट गए।

इस दृष्टान्त कथा को अगर हम आध्यात्मिक दृष्टि से समझें तो गहरी शांति ही मोक्ष है और मोक्ष ही अकामपुर शहर है। उसमें जाने की इच्छा बहुतों को है किंतु उसका एक ही मार्ग है- गुरु शरण। उसमें सेवा और त्याग की चुंगी टैक्स लगता है। जिसे लोग देना नहीं चाहते। सांसारिक भोगों के लिए तन मन धन समर्पण कर देना पड़े उसमें मनुष्य पिछड़ता नहीं। किंतु साधना में वह बिल्कुल सक्तिहीन बनता है। आखिर गुरु शरण त्याग कर मनुष्य कांटा खाई रूप इंद्रिय भोगों में भटक कर दुख ही उठाता है। इसलिए इसका जन्मादिक दुख नहीं छूटता। सज्जनो हम सबको सावधान होना पड़ेगा। करोड़ों कल्प बीत जाएं, मनुष्य गुरु शरण बिना आवागमन के रोगों से मुक्त नहीं हो सकता। अतः गुरु शरण लेना ही चाहिए। जब अनंत कोटि ब्रह्मांड को रचने वाले श्री रघुनाथ जी भी गुरु की शरण लिए तो, हम सब मनुष्यों को भी इस पथ का अनुसरण करना चाहिए।

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।।
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।

जब प्रभु श्री रामचंद्र जी अपने कोमल हाथों में धनुष बाण धारण कर लेते हैं तब उनकी शोभा का बखान करते नहीं बनता। उनके रूप माधुरी को देखते ही जड़ चेतन सभी मोहित हो जाते हैं। चारों भैया अयोध्या की जिन गलियों से खेलते हुए निकलते हैं सभी स्त्री पुरुष उनको देखकर प्रेम मगन हो जाते हैं।

राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कहीं कंकड़िया गढ़ी नहि जाय
राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कहीं कंकड़िया गढ़ी नहि जाय।।

नवरा जीव चरण अरुणाय ,
खेलन बिनु पग परे अकुलाय
नीरज नयन मोद मंगल अयन ,
लाल तेरी मैं ले लूँ बलाय।।

राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कहीं कंकड़िया गढ़ी नहि जाय
रवि कर उदित सीस नहि छाही ,
बदन निरखि सर सिज संकुचाय।।

सूरज किरण पड़े अधरन जले ,
क्यों मुखड़ा नही कुम्हलाय
राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कंकड़िया कहीं गढ़ी नहि जाय।।

लालन यंही आंगन मिल खेलो,
अल बल वचन तोतरे बोलो
चितवन चपल चाल मंजुल मचल ,
देख सुषमा सरस तरसाय।।

राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कहीं कंकड़िया गढ़ी नहि जाय
खेलन को अब दुरी न जाओ,
ठुमक ठुमक पठ नाच दिखाओ।।

सुन्दर सुवन दिन बरसे सुमन आज,
कौसल्या बलि बलि जाय
राघव ललन तेरे कोमल चरण ,
कहीं कंकड़िया गढ़ी नहि जाय ।।

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