शिव पुराण कथा हिंदी में-17 shiv puran in sanskrit and hindi pdf
ब्रह्मा जी
ने कहा तुम सनातनी सृष्टि उत्पन्न करो , तुम
पुष्पों के पांच बाणों से सभी स्त्री तथा पुरुषों को मोहित करोगे । मैं वासुदेव और
सभी तुम्हारे बस में हैं । आज से तुम्हारा नाम पुष्पबाण होगा। बाद में मरीच आदि
मुनियों ने उसका अभिप्राय जानकर उसका नाम यथोचित रख दिया।
उन्होंने कहा कि तुमने उत्पन्न होते ही ब्रह्मा का मन मन मंथन कर
दिया था इसलिए-
तस्मान्मन्मथनामा त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।
तुम लोक में मन्मथ नाम से प्रसिद्ध होओगे ,तुम्हारे सामान कोई सुंदर नहीं है इसीलिए हे मनोभव
काम नाम से भी तुम विख्यात होगे। तुम सभी को मदोन्मत्त करने के कारण मदन कहे
जाओगे।
अहंकार युक्त होकर दर्प से उत्पन्न हुए हो , इसलिए
तुम कंदर्प नाम से भी संसार में प्रसिद्ध होगे । तुम्हारे लिए प्रजापति दक्ष एक
सुंदर कामनी स्त्री देंगे ।
इतने में काम ने अपने पांचों बांणो का प्रयोग किया तो मोहन ने
ब्रह्मादिकों के मन को भी मोह लिया। सबके मन में विकार प्रगट हो गया और उनमें काम
की वृद्धि हो गई । मुझमें उनच्चासों भाव खड़े हो गए । संध्या में भी विकार हे़ो
आया तथा वह भी ऋषियों को कटाक्ष करने लगी ।
जब मुनियों और मुझे तथा संध्या को विकार प्राप्त हो गया तब काम को
अपने कार्य पर विश्वास हो गया। पिता और भाइयों की पाप की गति को देखकर धर्म को
बड़ा दुख हुआ और उसने धर्म रक्षक प्रभु शिवजी का स्मरण किया ।
तब मुझे देखकर आकाश से शिवजी हंसे और मुझे लज्जित करते हुए बोले हे
ब्रह्मण तुम्हें पुत्री को देखकर कैसे काम प्रगट हो गया ? सर्वदा
सूर्य का दर्शन करने वाले दक्ष, मरीच आदि एकांत वासी योगियों
का मन स्त्री को देखकर कैसे मलिन हो गया ?
ब्रह्मा जी कहते हैं कि जब लोक पितामह शिवजी ने इस प्रकार कहा तो
लज्जा के कारण क्षण भर के लिए मेरा सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया , उन पसीने के बूंदों से बर्हिषद नामक पितृ गणों की उत्पत्ति हुई।
सहस्त्राणां चतुः षस्ठि रग्निष्वत्ताः प्रकीर्तिताः।
षडतीति सहस्त्राणि तथा बर्हिषदो मुने।। रु•स• 3-50
चौंसठ हजार अग्निष्वात पितर और छियासी हजार बर्हिषद पितर कहे गए हैं
। हे नारद उसी समय शिवजी तो अंतर्ध्यान हो गए और मैं उनके वाक्यों से लज्जित होता
हुआ काम पर बहुत क्रोधित हुआ मेरे क्रुद्ध होते ही काम ने तुरंत अपना बाण खींच
लिया और मैं जलती हुई अग्नि के समान जलने लगा।
उससे पीड़ित होकर मैंने तथा अन्य ऋषियों और प्रजापतियों ने काम को
यह श्राप दिया- जा तू शिवजी के नेत्राग्नि द्वारा भस्म हो जाएगा , यह सुनकर रति पति काम तुरंत अपना धनुष बाण फेंककर मेरे चरणों में आ गया और
बोला कि आपने मुझे ऐसा कठिन श्राप क्यूँ दे दिया ,आपने ही तो
कहा कि ब्रह्मा विष्णु सभी तुम्हारे बस में है तो मैंने उसकी परीक्षा कि, मैं निरपराध हूं ।
मुझे ऐसा कठोर श्राप क्यों देते हैं ? तब
ब्रह्मा जी ने काम को डांटते हुए कहा कि यह संध्या जो मेरी कन्या है इसको तुमने
काम से पीड़ित किया है इसी कारण मैंने श्राप दिया है ।
हे काम अब तुम शांत होकर सुनो कि जब तुम श्री महादेव जी के
नेत्ररूपी अग्निबाण से भस्म हो जाओगे तब फिर कुछ समय बाद इसी समान शरीर को प्राप्त
करोगे। जब शंकर जी विवाह करेंगे तब वे अनायास ही तुम्हें शरीर प्रदान करेंगे ।
काम से ऐसा कह मैं ब्रह्मा अंतर्ध्यान हो गया , मेरे सभी मानस पुत्र व कामदेव प्रसन्न हो अपने अपने घर को चले गए।
नारद जी बोले- हे ब्रह्मण इसके पश्चात फिर क्या हुआ ? वह भी आप कृपा करके मुझसे कहिए क्योंकि भगवान शंभू के सुंदर चरित्रों को
सुनने कि मेरी बड़ी ही अभिलाषा है।
ब्रह्मा जी बोले- हे नारद जब शिवजी अपने स्थान को चले गए और मैं
ब्रह्मा भी अंतर्ध्यान हो गया, तब दक्ष ने कन्दर्प से कहा-
हे कंदर्प तुम्हारे ही समान गुण वाली मेरी पुत्री को तुम अब पत्नी के रूप में
ग्रहण करो। ऐसा कहकर दक्ष ने अपनी देह के पसीने से एक स्त्री को रति नाम से प्रकट
करके उसे कंदर्प के आगे खड़ा कर दिया।
इति
तां मदनो वीक्ष्य रतिं जग्राह सोत्सुकः।
रागादुपस्थितां लक्ष्मीं हृषीकेश इवोतमाम्।। रु•स• 4-29
इस प्रकार परम सुन्दरी रति को देखकर कामदेव ने इसे बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण
किया, जिस प्रकार स्वयं राग से उपस्थित हुई महालक्ष्मी को भगवान नारायण ने ग्रहण
किया था।
दक्ष की उस परम सुंदरी कन्या से विवाह करके काम बड़ा प्रसन्न हुआ।
अपनी कन्या को प्रसन्न देखकर दक्ष भी बड़े प्रसन्न हुए ।
सूत जी बोले- ऋषियों जब ब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा तब नारदजी
बोले- हे ब्रह्मा जी जब आप अन्य सभी महान देवता तथा दक्ष प्रजापति भी अपनी पुत्री
संध्या को काम के अर्पित करके चले गए तब संध्या ने क्या किया ?
ब्रह्माजी बोले- जो पहले संध्या नाम से मेरे मन से ही पैदा हुई और
फिर तप करके अपना शरीर त्याग कर अरुंधति नाम से प्रसिद्ध हुइ उसे मेधातिथि ने
उत्पन्न किया था और वशिष्ठ जी ने पत्नी के रूप में उन्हें ग्रहण किया था ।
नारद जी ने पूछा कि उसे मेधातिथि ने कैसे उत्पन्न किया और वशिष्ठ जी
ने उसे कैसे ग्रहण किया ? ब्रह्मा जी ने कहा- जब मैं काम को श्राप
दे अन्तर्धान हो गया और शिवजी भी चले गए ।
तब सन्ध्या बहुत दुखी हो गई सोचने लगी कि भला मुझसे बढ़कर पापिनी और
कौन होगा जिसे देखकर पिता और भ्राता भी काम की इच्छा करते हों ।
करिष्याम्यस्य पापस्य प्रायश्चित्त महं स्वयम्।
आत्मानमग्नो होष्यामि वेदमार्गा नुसारतः।। रु•स• 5-28
अब मैं इस पाप का प्रायश्चित करूंगी और वेद मार्ग के अनुसार अपने
शरीर को अग्नि में हवन कर दूंगी। मैं इस भूतल पर मर्यादा स्थापित करूंगी , जिससे कि शरीर धारी उत्पन्न होते ही काम भाव से युक्त ना हो।
ऐसा विचार कर सन्ध्या चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित चंद्रभाग पर्वत
पर चली गई। तब मैं अपनी पुत्री को श्रेष्ठ पर्वत पर तपस्या के लिए गई हुई जानकर
अपने संयमात्मक पुत्र वशिष्ठ से बोला- हे पुत्र वशिष्ठ तप के लिए गई हुई पुत्री
तपस्विनी सन्ध्या को तुम जाकर भली प्रकार दीक्षा दो।
सन्ध्या चंद्रभाग पर्वत के लाल सरोवर के निकट बैठी हुई थी उसके पास
पहुंचकर वशिष्ठ जी ने आदर पूर्वक पूंछा-
किमर्थ मागता भद्रे निर्जनं त्वं महीधरम्।
कस्य वा तनया किं वा भगवत्यापि चिकीर्षितम्।। रु•स• 5-50
हे भद्रे! इस निर्जन पर्वत पर तुम किसलिए आई हो और यहां क्या करना चाहती हो? पूर्ण चन्द्रमा के सामान तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो गया है ?
यदि वह छिपाने योग्य ना हो तो मैं सुनना चाहता हूं। वशिष्ठ जी को
देखकर सन्ध्या ने प्रणाम किया और कहा कि मैं इस निर्जन पर्वत पर तप करने आई हूं ।
यदि आप योग्य समझें तो मुझे उपदेश करें। तब वशिष्ठ जी ने कहा- अच्छा तो तुम अब परम
आराध्य शिव जी का आराधन कर उन्हीं का भजन करो । इससे तुम्हारे सभी मनोरथों की
पूर्ति होगी।
ॐ नमः शंकरायेति ओमित्यन्तेन सन्ततम्।
ओम नमः शंकराय । ओम अंत में लगाकर मौन होकर तप करो तथा शिवजी का
पूजन करो। शिवजी तुम्हारे सभी मनोरथों को शीघ्र ही पूर्ण करेंगे । वशिष्ठ जी
संध्या को तप की सब क्रियाएं बतलाई और फिर अंतर्ध्यान हो गए।
संध्या के तप से शिव जी प्रसन्न होकर अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया तो
संध्या मुग्ध होकर आश्चर्य से नेत्र बंद कर लिए । शिवजी उसके हृदय में प्रवेश कर
उसे ज्ञान और दिव्य वाणी तथा दिव्य नेत्र दिए तब वह प्रसन्न हो शिवजी की स्तुति
की। भगवान शिव प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा तो सन्ध्या ने कहा- यदि आप मेरे
तप से प्रसन्न है तो मैं यह वर मांगती हूं ।
उत्पन्न मात्रा देवेश प्राणिनोस्मिन भुवस्थले।
न भवन्तु समेनैव सकामाः संभवन्तु वै।। रु•स• 6-35
इस संसार में प्राणी उत्पन्न होते ही तुरंत कामी ना हो जाए । हे प्रभु मैं
अपने आचरण से तीनों लोकों में इस प्रकार प्रसिद्ध होउँ, जैसे और कोई दूसरी स्त्री ना हो ।
एक और वर मांगती हूं मेरे द्वारा उत्पन्न की गई कोई भी संतति सकाम
होकर पतित ना हो और हे नाथ जो मेरा पति हो वह मेरा अत्यंत सुहृद बने ( मेरे पति के
अतिरिक्त ) जो पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे उसका पौरुष नष्ट हो जाए और वह
नपुंसक हो जाए।
भगवान प्रसन्न होकर वरदान दिया कि अब-
प्रथमं शैशवो भावः कौमाराख्ये द्वितीयकः।
तृतीयो यौवनो भावश्चतुर्थो वार्धकस्तथा।।
तृतीये त्वर्थ संप्राप्ते वयोभागे शरीरिणः।
सकामाः स्युर्द्वितीयान्ते भविष्यति क्वचित् क्वचित्।।
रु•स• 6-42, 43
प्राणियों का प्रथम शैशव (बाल ) भाव, दूसरा
कौमार भाव, तीसरा यौवन भाव तथा चौथा वार्धक्य भाव होगा ।
शरीर धारी तीसरी अवस्था आने पर सकाम होंगे और कोई कोई प्राणी दूसरी के अंत तक सकाम
होंगे।
तेरा पति बड़ा भाग्यशाली और सात कल्प तक जानने वाला होगा। अब मैं
तेरे पूर्व जन्म की बात करता हूं तेरा अग्नि में जलकर शरीर त्यागना निश्चित है।
देखो मेधातिथि बारह वर्ष से एक यज्ञ कर रहे हैं जिसकी अग्नि बड़े जोर से जल रही है
तुम उसी जलती हुई अग्नि में शीघ्र ही प्रवेश कर जाओ।
इसी पर्वत के नीचे चंद्रभागा नदी है उसके तट पर तपस्वियों का आश्रम
है, जिसमें मेधातिथि के यज्ञ में प्रवेश कर तू उसकी पुत्री
होगी। तुझे जैसा पति चाहिए उसका मन में संकल्प करके तू अपने इस शरीर को अग्नि में
गिरा दे। ऐसा कहकर शंकर जी अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद सन्ध्या मेधातिथि की यज्ञ
में पहुंचकर अपने उपदेष्टा वशिष्ठ जी का स्मरण कर उन्हें ही अपना पति स्वीकार कर
यज्ञ की बढ़ी हुई अग्नि में कूद पड़ी। उसे कूदते किसी ने नहीं देखा अग्नि ने उसे
जलाकर सूर्य मंडल में प्रवेश कर दिया ।
सूर्य ने उसके शरीर के विभाग कर अपने रथ में स्थापित कर लिया और
उसके ऊपर का भाग रात्रि और दिन के बीच होने वाला प्रातः काल संध्या हो गया। और शेष
भाग पितरों की प्रसन्नता के लिए दिन का अवसान वाली संध्या हो गया ।
उसके प्राण तो दयालु शिवजी ने अपने शरीर में स्थापित कर लिया। इधर
जब यज्ञ की समाप्ति के बाद ऋषियों ने तप्त स्वर्ण के समान कांति वाली उस कन्या को
अग्नि में पड़ा देखा, तब मेधातिथि ने प्रसन्नता से कन्या को
गोद में लिया और उसका नाम अरुंधति रखा।
जब वह पांच वर्ष की हुई तो ब्रह्मा विष्णु और महेश ने आकर
ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ के साथ उसका विवाह कर दिया, जिनसे
शतपादिक श्रेष्ठ पुत्रों की उत्पत्ति हुई।
सूत जी बोले- हे ऋषियों जब इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने कहा,
तब नारदजी आनंद मग्न होते हुए बोले- हे ब्रह्मन अब आप बताइए इसके
आगे क्या हुआ ?
तब ब्रह्मा जी कहते हैं- जब संध्या को देखने मात्र से शिव जी ने मुझ
सृष्टिकर्ता को बहुत फटकारा था तभी से मैं शिव की माया से मोहित हो उनसे ईर्ष्या
करने लगा था और यह सोचने लगा कि यह विकार से मैं शिव को आवद्ध करूं।
तब रति और मदन को देखकर मैं थोड़ा मद मुक्त हो दक्षादि अपने पुत्रों
के पास गया और उनसे बोला दक्ष तुमको ज्ञात है कि स्त्री को देखने मात्र से शिव जी
ने मुझे बहुत धिक्कारा था , जिसके दुख से मैं आज भी दुखी
हूं। अतः जैसे भी हो महादेव भी स्त्री ग्रहण कर ले तभी मुझे शांति आवेगी ।