राम कथा हिंदी में लिखी हुई-21 ram katha in hindi pdf download
माता अहिल्या ने भगवान के चरणों को
अपने आंसुओं के जल से धोया था और भगवान के चरणों का जो धोबन है वह क्या है? आप
सब जानते हैं वही गंगा है। अब भगवान आगे की ओर चल देते हैं। कहां चले?
चले
राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा।।
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई।।
श्री राम लक्ष्मण मुनि के साथ चलते
हुए गंगा समीप पहुंचे। जिस प्रकार से पृथ्वी पर गंगा आई वह सब कथा गाधिराज के
पुत्र विश्वामित्र ने सुनाई। गंगा जी की बहुत बड़ी महिमा कही गई है। शास्त्रों में
यहां तक वर्णित है गंगा की महिमा के विषय में-
गंगा
गंगेति यो ब्रुयात योजनानां च शतैरपि।
मुच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।
जो सैकड़ो योजन दूर बैठा हुआ भी गंगा
गंगा ऐसा उच्चारण करता है,
वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक का अधिकारी हो जाता है तो जो
श्रद्धा पूर्वक गंगा जी का सेवन करते हैं उनके विषय में तो कहना ही क्या?
बोलिए गंगा
मैया की जय
तब प्रभु ने ऋषि के साथ स्नान किया
औपटर हर्षित होकर के आगें चले शीघ्र ही विदेहराज का नगर निकट आ गया। उसकी रमणीयता
देख दोनों भाई बहुत प्रसन्न हुए।
बनइ
न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई।।
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी।।
नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं
बनता। मन जहां जाता है वहीं लुभा जाता है। सुंदर बाजार है। मणियों से बने हुए
विचित्र छज्जे हैं। मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया हो।
सिय
निवास सुंदर सदन, शोभा किमि कहि जात।।
सुंदरता को भी सुंदर करने वाली जिस
नगर में रहती हैं उस नगर की शोभा ही अनुपम है तब वह सीता जी स्वयं जिस महल में
रहती हैं उसकी शोभा कौन किस तरह कर सकेगा। इधर एक आम के वाटिका में महाराज
विश्वामित्र दोनों कुमारों के साथ ठहरे। मिथिला नरेश ने समाचार पाया कि महामुनि
विश्वामित्र आए हैं तो वह अपने मंत्री व श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ मुनीश्वर से
मिलने बगिया में पहुंचे। जनक ने मुनि विश्वामित्र के चरण पर माथा रखकर प्रणाम
किया। मुनि ने प्रसन्न हो आशीर्वाद दिया। कुशल पूछ कर राजा को बिठाया। इसी समय
दोनों भाई जो फुलवारी देखने गए थे श्याम गौर सुकुमार किशोरावस्था नेत्रों को सुख
देने वाले विश्व चितचोर वहां आ गए।
विश्वामित्र ने उनको भी अपने निकट
बैठा लिया,
दोनों भाइयों को देख सभी परम सुखी हुये। नेत्रों में जल छा गए और
सबके शरीर पुलकित हो गए। राजा बिदेह तो विशेष रूप से बिदेह हो गए। यानी अब तक देह
रहित थे अब मन रहित भी हो गए। राघव सरकार के सुंदर स्वरूप को देखकर महाराज जनक
गुरुदेव विश्वामित्र जी से निवेदन करते हैं-
कहहु
नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।
हे नाथ! कहिए यह दोनों सुंदर बालक
मुनि कुल के आभूषण है या किसी राजवंश के पालक हैं? विश्वामित्र जी
मुस्कुराने लगे और कहने लगे हे राजन आपको क्या लगता है कि यह कौन हो सकते हैं?
तब महाराज जनक जी ने कहा-
ब्रह्म
जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।
सहज
बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
हे मुनिराज मुझे तो ऐसा लगता है
जिसका वेदों ने नेति नेति कहकर गान किया है। वही ब्रह्म युगल रूप धरकर मेरे सामने
आ गया हो। मेरा मन सहज ही बैरागी है लेकिन इनको देख करके। इनकी तरफ उसी प्रकार
आकर्षित हो रहा है ,
खिंचा चला जा रहा है जैसे चंद्रमा को देखकर चकोर मुदित होता है। सज्जनों
यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि महाराज जनक विदेह राज कहलाते हैं। जिनको अपने
देह का भी भान ना रहे वह है विदेह। देह की सुध न रहे तो राज्य, बंधु, बांधव व संसार की बात ही क्या करें।
और सबसे बड़ा हमारा दुर्भाग्य यही है
कि हम देह की तो छोड़िए,
संसार को ही छोड़ना नहीं चाह रहे। उसी में लिपटे हुए हैं और दुखों
को भोगने में लगे हुए हैं और जब तक हम संसार से निवृत्ति नहीं लेंगे तब तक हमको
दुखों से कष्टों से मुक्ति मिलने वाली नहीं है।
एक बहुत सुंदर दृष्टांत कथा आती है
कि- एक महाशय जी घोड़ा पर बैठे जा रहे थे। बहुत दूर से चलने के कारण घोड़ा प्यासा
हो गया था। संयोगाधीन मार्ग में जल का रहंट चल रहा था। सवार महाशय ने सोचा कि इस
रहंट पर घोड़े को जल पिला लें। ज्योंहि रहंट की ओर घोड़े की लगाम फेरकर हांका, त्योंहि
रहंट के चर चर मर-मर शब्द सुनकर घोड़ा पिछड़ने लगा। सवार ने रहंट हांकने वाले से
कहा- ऐ भाई ! रहंट बन्द कर दो, मैं घोड़ा को जल पिलाऊंगा।
रहंट वाला रहंट बन्द कर दिया। जब सवार रहंट के पास घोड़ा ले गया, तो वहां जल ही नहीं था; क्योंकि रहंट से जल आता था
तब आगे बहता था, जब रहंट बन्द होता था तब जल न आने के कारण
आगे रहे ही क्या?
सवार बोला—अरे भाई! इसमें तो जल ही
नहीं है,
घोड़ा को क्या पिलाऊं? रहंट वाला बोला-आपही तो
रहंट बन्द करवा दिये थे । अच्छा, अब मैं रहंट चलाता हूं। ऐसा
कहकर जैसे पुन: रहंट चलाने लगा, वैसे चर चर मर-मर शब्द सुनकर
घोड़ा फिर पीछे हटने लगा। सवार क्रोध में आकर कहने लगा हमारा घोड़ा कैसे जल पीये?
रहंट वाला बोला- यदि आप घोड़ा को जल पिलाना चाहते हैं तो उसकी लगाम
बलपूर्वक पकड़कर रहंट के पास लाइए, क्योंकि जब रहंट से जल
निकलेगा, तब चर चर मरमर शब्द अवश्य होगा।
सिद्धान्त - सवार जीव है, घोड़ा
मन है। यह मन रूपी घोड़ा अनादिकाल से विषयमार्ग में चलते-चलते भोगों का अति प्यासा
हो गया है। इतने में इसे जीवन-पथ में साधु-गुरु रूपी रहंटवाला भक्ति - ज्ञान रूपी
रहंट से संतोष रूपी जल निकालते मिलते हैं। यह देखकर कोई सुज्ञ जीव अपनी कामना रूपी
प्यास को शान्त करने के लिए भक्ति - ज्ञान रूपी रहंट से मन रूपी घोड़े को सन्तोष
रूपी जल पिलाना चाहता है; किन्तु मन रूपी अति चंचल घोड़ा
भक्ति-ज्ञान में जो साधना रूपी चर चर मर-मर का परिश्रम है, उसको
नहीं सहना चाहता। दुख रूप संसार की ओर अति विघ्न तथा परिश्रम सहा; किन्तु मोक्ष-दाता सद्गुरुदेव के भक्ति - ज्ञान निमित्त थोड़ा भी विघ्न
तथा परिश्रम नहीं सहना चाहता । हम सबको भी चाहिए कि संसार का मोह छोड़कर गुरु
संतों के वचनों को अपना कर अपने जीवन का कल्याण करें।
जब महाराज जनक जी ने राघव सरकार का
दर्शन किया तो जो उनका मन स्वभाव से ही बैरागी था उन्हें देखकर ऐसे मुग्ध हो गया
जैसे चंद्रमा को देखकर के चकोर होता है। महाराज जनक को ऐसा अनुभव हुआ जैसे वह
ब्रह्म ही सुंदर स्वरूप धारण करके मेरे सम्मुख प्रकट हो गया हो। उन्होंने
विश्वामित्र जी से निवेदन किया की हे महाराज मैं आपसे निश्चल भाव से पूछता हूं कि
यह कौन हैं?
क्योंकि ऐसा अनुभव मुझे जीवन में पहले कभी नहीं हुआ। जैसे अब हो रहा
है। महाराज जनक ने अपना अनुभव का वर्णन भी महाराज विश्वामित्र जी से किया! क्या?
इन्हहि
बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
हे मुनिवर इनको देखते ही अत्यंत
प्रेम के कारण मेरे मन ने जबरदस्ती ब्रह्म सुख का त्याग कर दिया है। अब भला मन
ब्रह्म सुख का त्याग कैसे नहीं करता, जब साक्षात ब्रह्म ही
सम्मुख प्रकट हो जाए। महाराज जनक के वचनों को सुनकर विश्वामित्र जी मुस्कुराते हुए
कहने लग- हे राजन!
वचन
तुम्हार ना होइ अलीका।।
आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। और
महाराज जनक आपका उनके प्रति मन का आकर्षित होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि यह ऐसे
मनोहर हैं ही जो सबके मन को आकृष्ट कर लेते हैं।
ए
प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।
हे राजन जगत में जहां तक जितने भी
प्राणी है यह सभी को प्रिय हैं। विश्वामित्र मुनि जी की रहस्यभरी वाणी सुनकर राघव
जी मन ही मन मुस्कुराते हैं। हंसकर मानो संकेत कर रहे हैं कि गुरुदेव आप तो
सर्वज्ञ हैं। संत तो सर्वज्ञ ही होते हैं। सब कुछ जानते हैं लेकिन फिर भी आपसे
निवेदन है कि इस रहस्य को उजागर नहीं करियेगा अभी। तब मुनि ने कहा कि हे महाराज
जनक के रघुकुल के मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं, मेरे हित के लिए
राजा ने मेरे साथ भेजा है।
राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई
रूप, शील और बल के धाम हैं सारा जगत इस बात का साक्षी है इन्होंने युद्ध में
असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है। महाराज जनक ने कहा कि हे मुनिवर आपका
यज्ञ तो पूर्ण हो गया अब इस दास के यज्ञ को भी आप पूर्ण करिये अपनी कृपा से।
महाराज जनक ने विश्वामित्र मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में प्रणाम कर
उन्हें नगर में लिवा ले गए। एक सुंदर महल जो सब समय सभी ऋतुओं में सुखदायक था वहां
राजन उन्हें ले जाकर ठहराया और सब प्रकार से पूजा उनकी पूजा की।
मुनि विश्वामित्र के साथ राम लक्ष्मण
ने उस सुंदर भवन में विश्राम किया। सज्जनो लक्ष्मण जी नगर देखना चाहते हैं जनकपुर
को और लक्ष्मण जी के पास दो बाधा है। कौन-कौन सी? एक तो भगवान दूसरे
गुरुदेव भगवान। अब प्रभु श्री रामचंद्र जी से कहने की हिम्मत नहीं है। लक्ष्मण जी
कह नहीं पा रहे हैं और जब श्री राम जी से कहने की सामर्थ नहीं जुटा पा रहे हैं तो
फिर गुरुदेव भगवान से क्या ही कह सकते हैं? लेकिन यही मेरे
प्रभु श्री राघव का स्वभाव है, वह समझ गए की लक्ष्मण जी नगर
को देखना चाहते हैं। तो राघव सरकार गुरुदेव भगवान के पास पहुंचे हैं। और निवेदन
करते हैं क्या निवेदन-
नाथ
लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ।।
हे गुरुदेव लक्ष्मण जी नगर देखना
चाहते हैं। किंतु डर और संकोच के कारण प्रकट नहीं कर रहे हैं। यदि आपकी आज्ञा हो
तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही वापस लेकर के आ जाऊं? श्री
राम जी के वचन सुनकर विश्वामित्र जी अत्यंत प्रसन्न हुए। विश्वामित्र जी इसलिए
प्रसन्न हुए कि वह तो चाहते ही थे। कि यह विदेह की नगरी है राम, और यदि निर्गुण निराकार का आनंद होता है तो सगुण साकार का अपना एक अलग
आनंद होता है और इस निर्गुण के देह में सगुण का दर्शन कराकर आओ गुरुदेव
विश्वामित्र जी ने भगवान श्री राम को आज्ञा दे दी।
जाइ
देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।
सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख
आओ अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब नगर निवासियों के नेत्रों को सफल करो। यह पलक
परमात्मा ने क्यों बनाई है?
यह बार-बार खुलते हैं और बंद हो जाते हैं। एक भक्त का बड़ा सुंदर
भाव है कि यह पलक इसीलिए भी बार-बार बंद होती और खुलती हैं कि यह जो जीव है यह उसी
परमात्मा का अंश है। (ईश्वर अंश जीव अविनाशी)
तो वह निरंतर अपने प्रियतम सरकार को देखने के लिए इंतजार करती रहती है कि वो आए कि
नहीं आए? आए कि नहीं आए? लेकिन हम सब
का यह कितना बड़ा अज्ञान है कि हम जिसके वास्तविक हैं। उसको कभी याद नहीं करते और
जिससे हमारा झूठा रिश्ता है उसको हम सदैव याद करते रहते हैं। संसार से हमारा
वास्तविक रिश्ता नहीं है अपितु जो संसार को रचने वाल वाले हैं उस परमात्मा से
हमारा वास्तविक रिश्ता है। संसार क्या है संसार स्वप्न की भांति है।