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शिव पुराण कथा हिंदी में-21 shiv puran in hindi

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शिव पुराण कथा हिंदी में-21 shiv puran in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-21 shiv puran in hindi

 शिव पुराण कथा हिंदी में-21 shiv puran in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-20 shiv puran in sanskrit and hindi

भगवती सती जब यज्ञ मंडप में सभी देवताओं के साथ महादेव का भाग नहीं देखी तो बहुत दुखी हो गई और उनको बड़ा क्रोध आया। फिर तो वे सभी की ओर क्रोध दृष्टि से देखते हुए बोलीं- पिताजी आपने भगवान शंकर को क्यों नहीं बुलाया ? जो स्वयं यज्ञ स्वरूप हैं, बिना उनके आये आपने यज्ञ को आरंभ ही कैसे कर लिया ?
तब दक्ष ने शिवजी की निंदा करना शुरू कर दिया तब सती बोली-
संत संभु श्रीपति अपवादा। सुनिअ जहाँ तहां असि मरजादा।।
काटिय तासु जीभ सो बसाई। श्रवण मूदि न त चलिअ पराई ।।
पिताजी जो शिवजी की निंदा करता है अथवा सुनता है वे दोनों ही नरकगामी होते हैं । अपने स्वामी का अपमान सुनकर मेरे जीने से ही क्या लाभ, मैं अग्नि में प्रवेश कर शरीर को त्याग दूंगी।

यदि सक्ती हो तो शिवजी की निंदा करने वाले की जिह्वा को काट लें, यदि असमर्थ है तो कान मूंदकर कहीं चला जाए। फिर सती जी मौन हो गई और उत्तर की तरफ मुंह करके जा बैठी और आचमन करके योगाग्नि के द्वारा शीघ्र ही अपने शरीर को भस्म कर डालीं।
सती देह को जैसे ही त्यागी ,वहां हाहाकार मच गया , शिवगण शोक में भरकर अपने अंगों को ही छेदने लगे। साठ हजार गणों में बीस हजार गण स्वयं ही नष्ट हो गए दुखी होकर । तथा जो बचे वह सब दक्ष को मारने के लिए दौड़े।
तब महर्षि भृगु वेद मंत्रों से अग्नि में आहुतियां दी जिससे ऋभु नामक बहुत से देवता प्रकट हो गए ,उनसे शिव गणों का युद्ध होने लगा उन्होंने शिवजी के गण की शक्ति क्षीण कर दी। तब दक्षादि को सुनाते हुए आकाशवाणी हुई-
रे रे दक्ष दुराचार दंभाचार परायण।
किं कृतं ते महामूढ कर्म चानर्थकारकम्।। रु•स• 31-2
रे दुराचारी तथा दंभ वृत्ति में तत्पर दक्ष, हे महामूढ तुमने यह कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला। तूने सती और शंकर का पूजन नहीं किया, तुझे तो शिव की अर्धांगिनी सती का आदर करना ही योग्य था। वह अनादिशक्ति जगत की सृष्टा, राधिका और कल्पान्त में संहारिका है और तुमने उनका ही सत्कार नहीं किया इसलिए तेरा यज्ञ नष्ट हो जाएगा।

सर्वेश्वर शिव से विमुख होने पर कोई भी देवता तेरी सहायता करने योग्य नहीं है । आकाशवाणी को सुन सभी आश्चर्य करने लगे। इधर शिव गणों के द्वारा सती देह का त्याग का सारा वृत्तांत सुन महादेव के क्रोध का अंत ना रहा ।
लोक संघार कारी भगवान शंकर ने अपनी एक जटा उखाड़ कर उसे एक पर्वत पर दे मारा, जिससे उसके दो खंड हो गए और एक प्रलय काल के समान एक भयंकर शब्द के साथ महा बलशाली वीरभद्र उत्पन्न हो गये।
महाकाली समुत्पन्ना तज्जटापर भागत:।

फिर जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई।
महाबली वीरभद्र शिव जी को प्रणाम कर हाथ जोड़कर निवेदन किया कि- हे प्रभु मैं क्या करूं आज्ञा दीजिए
शोषणीयाः किमीशान क्षणार्धेनैव सिंधवः।
पेषणीयाः किमीशान क्षणार्धेनैव पर्वताः।। रु•स• 32-29
हे ईशान क्या मैं आधे ही क्षण में समुद्र को सुखा दूं अथवा क्या आधे ही क्षण में पर्वतों को चूर चूर कर दूं या हे हरे क्षण भर में सारे ब्रह्मांड को भस्म कर दूं ?

यह सुन मंगल पति भगवान शिव वीरभद्र को आशीर्वाद देकर बोले- तात वीरभद्र ब्रह्मा का पुत्र दुष्ट दक्ष यज्ञ कर रहा है जो बड़ा अहंकारी और मेरा विरोधी है। तुम जाकर उसको तथा उसके यज्ञ को विध्वंस कर दो । वहां उपस्थित कोई भी दंड से ना बचने पावे। यह सुनते ही वीरभद्र भगवान शंकर को प्रणाम कर यज्ञ विध्वंस करने चल दिया।

वीरभद्र शिव जी का ही रूप धारण कर एक ऐसे रथ पर चढ़कर चला था, जिसे दस हजार सिंह खींच रहे थे । काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुंडा, मुण्डामर्दिनी, भद्रकाली, भद्राबलि और वैष्णवी इन नौ दुर्गायें भी अपने भूतों के साथ प्रस्थान किया।

वीरभद्र और महाकाली के साथ जो गण थे उनकी संख्या बताना संभव नहीं असंख्य गण थे । उनके साथ स्वयं रुद्र के गण भृगां, कोट, असनि और मालकगण चौंसठ हजार करोड़ सेना लेकर चले थे ।
उधर दक्ष के यज्ञ में नाना प्रकार के अपशगुन होने लगे।
दक्षवामाक्षिबाहू रूविस्पंदः समजायत।
नाना कष्टप्रदस्तात सर्वथाशुभसूचकः।। रु•स• 34-3
दक्ष की बाई आंख, बाई भुजा और बाई जांघ फड़कने लगी जो अनेक प्रकार के कष्ट देने वाली तथा सर्वथा अशुभ की सूचक थी। पृथ्वी में भूकंप हुआ, दिशायें मलिन हो गई, सूर्य में काले दाग दिखाई पड़ने लगे।

हजारों गीध दक्ष के सिर ऊपर मडराने लगे, गीदड़ भयानक शब्द करने लगे । उसी समय आकाशवाणी भी दक्ष को धिक्कारती है। तब दक्ष भय के कारण विष्णु जी से हाथ जोड़कर बोला- आप मेरी रक्षा कीजिए और विष्णु जी के चरणों में गिर पड़ा।
तब शिव जी को प्रणाम कर विष्णु जी दक्ष को उठाते हैं और समझाने लगे दक्ष तुमने शिव जी को क्यों भुला दिया। पूज्यों का अपमान होने से पद पद पर विपत्तियां आती हैं । अतएव तुम प्रयत्न पूर्वक शिवजी की पूजा करो ।

यह सुनकर दक्ष का मुंह सूख गया वह पृथ्वी पर बैठ गया । उसी समय वीरभद्र पहुंच गया, यज्ञ स्थल की कौन कहे सातों द्वीपों सहित पृथ्वी कांप उठी, समुद्र थर्रा उठे।

वीरभद्र व उसके गणों ने यज्ञ को क्षण भर में नष्ट कर दिया, कई देवताओं को अंग भंग कर दिया और मार डाला। कितने ही अपने प्राणों को बचा कर भाग खड़े हुए। इसके बाद वीरभद्र और विष्णु जी का भयानक युद्ध हुआ जब ब्रह्मा जी द्वारा विष्णु जी को शिव जी के उस महागण का परिचय दिया तब जय समझ विष्णु जी अंतर्ध्यान हो गएऔर अपने लोग को चले गए।

मैं ब्रह्मा भी पुत्र शोक से पीड़ित सत्य लोक को चला गया। उसके बाद वीरभद्र ने सबको जीतकर, भागते हुए दक्ष को पकड़ा और उसका सिर काट डाला। मणिभद्र नामक प्रतापी गण ने भृगु जी की दाढी उखाड़ ली। पूखा हंसे थे इसलिए चण्ड ने उनके दांत तोड दिये।
वीरभद्र ने दक्ष का सिर तोड़ मरोड़ कर अग्निकुंड में छोड़ दिया। इस प्रकार सब कार्य कर विजयी वीरभद्र कैलाश पर शिवजी के पास पहुंचा। शिव जी ने प्रसन्न होकर उसे अपने गणों का नायक बना दिया।

नारद जी ने ब्रह्मा जी से पूंछा प्रभो - शिव जी से विमुख हो विष्णु जी दक्ष के यज्ञ में क्यों गए थे ? जिससे उनका अपमान हुआ।
ब्रह्मा जी बोले- नारद दधीचि ऋषि के श्राप से विष्णु जी का ज्ञान भ्रष्ट हो गया था जिसके कारण वे दक्षराज के यज्ञ में गये। नारद जी ने पूछा मुनि दधीचि ने श्राप क्यों दिया ? तब ब्रह्माजी बोले-
समुत्पन्नो महातेजां राजा क्षुव इति स्मृतः।
अभून्मित्रं दधीचस्य मुनीन्द्रस्य महाप्रभोः।। रु•स• 38-8
छुव नाम से प्रसिद्ध एक महा तेजस्वी राजा उत्पन्न हुए थे। प्रभावशाली मुनीश्वर दधीचि के मित्र थे। पूर्व काल में लंबे समय से तप के प्रसंग को लेकर छुव और दधीचि में महान अनर्थकारी विवाद आरंभ हो गया , जो तीनों लोकों में विख्यात हो गया।

उस विवाद में वेद विद शिवभक्त दधीचि ने कहा कि तीनों वर्णों में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं इसमें संदेह नहीं। महामुनि दधीचि की यह बात सुन धन के मद से विमोहित राजा छुव ने कहा- नहीं सब वर्णों का श्रेष्ठ राजा है। राजा सर्वमय है यह श्रुति का भी वाक्य है ।
इस पर दधीचि को बड़ा क्रोध आया उन्होंने राजा छुव के सिर में जोर से घूंसा मारा ,छुव मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। ज्यों ही सचेत होकर उठा कि उसी क्षण उस दुष्ट छुव ने दधीचि मुनि पर वज्र चला दिया।

उससे घायल हो दधीच मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े और शुक्राचार्य का स्मरण किए, शुक्राचार्य आकर दधीचि को पूर्ण रूप से स्वस्थ कर दिया और फिर उन्होंने दधीचि ऋषि को वैदिक महामृत्युंजय मंत्र का उपदेश दिया।

उस मृत्युंजय मंत्र की आराधना और जाप से भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रगट हो गये। वरदान मांगने को बोले- तब दधीचि ऋषि बोले-
देव देव महादेव मह्यं देहि वरत्रयम्।
वज्रास्थित्व मवध्यत्व मदीनत्वं हिसर्वतः।। रु•स• 38-43
हे देव देव महादेव मुझे तीन वर दीजिए - पहला मेरी हड्डी वज्र की हो जाए, दूसरा कोई भी मेरा वध ना कर सके। तीसरा मैं सर्वथा अदीन यानी प्रसन्न रहूं। भगवान शिव प्रसन्न होकर तथास्तु कह तीनों वर दिये।

मुनि दधीचि प्रसन्न होकर शीघ्र ही राजा छुव के स्थान पर आए और छुव के मस्तक पर पादमूल से प्रहार किया । तब विष्णु की महिमा से गर्वित राजा छुव ने भी क्रोधित होकर दधीचि की छाती में वज्र से प्रहार किया, परंतु दधीचि को वज्र से कोई चोट नहीं आई। यह देख ब्रह्म पुत्र छुव बडा़ विस्मित हुआ।
मृत्युंजय के सेवक दधीचि ने उसे परास्त कर दिया , उस पराजय से लज्जित राजा छुव तपस्या करने चला गया, हरि की आराधना किया तो भगवान विष्णु उसे दर्शन देने आए ।

विष्णु भक्त छुव ने उनसे दधीचि द्वारा अपने अपमान की बात कह मृत्युंजय का प्रभाव कहा। विष्णु जी ने कहा अवश्य शंकर के भक्तों को किसी का भय नहीं है, उन्हें दुख देने से मुझ जैसे देवता के लिए भी श्राप का कारण बन जाएगा।
भगवान ने कहा- हे राजन मैं आपके लिए दधीचि को जीतने का प्रयास करूंगा। ब्रह्माजी बोले- नारद, एक दिन राजा छुव का कार्य सिद्ध करने के लिए भगवान विष्णु महर्षि दधीचि के आश्रम में पहुंचे और उनसे कहा कि- हे महर्षि आपसे वर मांगने आया हूं। उन्होंने नेत्र बंद करके ध्यान के द्वारा विष्णु जी का सारा कपट जान लिया ।

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