राम कथा हिंदी में लिखी हुई-22 ram katha in hindi mp3 free download
संसार स्वप्नवत है दृष्टांत — एक
राजा-रानी अपने शहर से तीर्थ-यात्रा को निकले। कुछ काल के पश्चात जब अपने शहर के
पास आये तो क्या देखते हैं कि भूकम्प से अपना सारा शहर धंस गया है। वहां केवल
जल-ही-जल है । राजा हंसने लगा, क्योंकि राजा ज्ञानी था। रानी रोकर कहने
लगी कि कुटुम्ब, सम्पत्ति, सेना,
नौकर यहां तक पूरा अपना शहर नष्ट हो गया, फिर
भी आप थोड़ा शोक नहीं मानते, बल्कि हंसते हैं ।
राजा बोला—तू मूर्ख है। मेरे सैकड़ों
पुत्र-पौत्र और पुत्रबधुएं,
सातों लोकों का राज्य तथा इन्द्रासन छूट गये, इसमें
मैंने शोक ही नहीं किया, फिर एक छोटा-मोटा शहर, दो चार पुत्र-पौत्रादि के छूटने पर क्यों शोक करूं ! रानी - सो कैसे ?
राजा - मैंने कल रात में स्वप्न देखा कि मानो मैं इन्द्र हो गया
हूं। मेरे सैकड़ों पुत्र-पौत्र एवं पुत्रबधुएं हैं, और सातों
लोक, दैव-दनुज सब मेरे आज्ञावर्ती हैं; किन्तु स्वप्न से जागा तो कुछ नहीं ।
वैसे ही चालीस-पचास वर्षों से यह एक
छोटा शहर,
कुछ नौकर, सेना, दो चार
पुत्रपौत्रादिक मिले थे, आज नहीं हैं, तो
क्या उपर्युक्त स्वप्न के समान ये नहीं हुए? वह एक घड़ी का
स्वप्न था, यह चालीस-पचास वर्षों का स्वप्न है, वह रात में सोते समय देखे थे, यह दिन में जागते समय
देख रहे हैं । हैं दोनों स्वप्न ही । स्वप्न के व्यवहार तथा वस्तु जाग्रत में जैसे
नहीं रहते, वैसे ही जाग्रत के व्यवहार, पदार्थ स्वप्न में नहीं रहते। अपने शुद्ध स्वरूप में जाग्रत और स्वप्न का
भास-प्रपंच एक भी नहीं है । यद्यपि प्रवाह रूप जगत अपने क्षेत्र में सत्ता सहित
सदैव स्थित है; तथापि उसका प्रतीत इन्द्रिय-अन्तःकरण
सम्बन्धी स्वप्नवत कल्पना से ही होता है ।
जिस दिन प्राण छूटने लगते हैं, उस
दिन सौ वर्ष की बीती आयु एक मिनट वत लगती है; और कुटुम्ब,
समाज, सम्पत्ति-स्थान, शरीरादि
स्वप्नवत प्रतीत होते हैं । अतएव संसार असार है, जीवन
परिणामी है, केवल मोक्ष प्राप्ति ही सार है । भजन - भक्ति -
बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ ही भोगों में खोकर अन्ततः काल का ग्रास बन जाता है ।
इसलिए यह यह राम कथा हमें यही बतलाती है कि निरंतर हमको अपने वास्तविक संबंधी से
अपना संबंध स्थापित करते हुए उनका स्मरण करते रहना चाहिए।
भजन
रटन लागी जिविहा, राम
ही राम हो
रटन लागी जिविहा राम हाय राम हो
रटन लागी राम हो रटन लागी जिविहा,
राम ही राम हो रटन लागी जिविहा राम ही राम हो
अंखिया कहे, हरि
दर्शन करबे राम
अंखिया काहे हरि दर्शन करबे राम
कनवा कहेकनवा कहे हम, सुनब पुरान हो
रटन लागी जिविहा, राम ही राम हो
रटन लागी जिविहा राम ही राम हो
पऊवा कहे हम तीरथ करबे राम
पऊवा कहे हम तीरथ करबे राम
हमहथवा कहे हम करबे दान हो
रटन लागी जिविहा राम ही राम हो
रटन लागी जिविहा राम हाय राम हो
सकल सुकृत कर बाद फल हेतु
सिया राम पद सहज सनेहु
पल – पल छिन – छिनपल – पल छिन – छिन,
हरि जी को ध्यान हो
रटन लागी जिविहा, राम
ही राम हो
रटन लागी जिविहा, राम ही राम हो
भगवान का भक्ति भजन ही जीव के लिए
सर्वोपरि है।
बोलिए भक्त
वत्सल भगवान की जय
गुरुदेव विश्वामित्र जी की आज्ञा
प्राप्त कर भगवान श्री रामचंद्र और लक्ष्मण दोनों भाई जनकपुर की शोभा देखने के लिए
निकले हैं। और जैसे ही जनकपुर के बाजार में पहुंचे वहां का पूरा समाज इकट्ठा हो
गया प्रभु का दर्शन करने के लिए।
देखन
नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।
जनकपुर वासियों ने जैसे ही यह समाचार
पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं तब यह सब घर बार और कामकाज छोड़कर
ऐसे दौड़ करके आए हैं जैसे मानो कोई दरिद्र धन का खजाना लूटने के लिए दौड़े हों।
सज्जनो यहां पर सबसे बड़ी विचार करने योग्य एक बात निकल करके आ रही है। हम संसार
के लिए तो सब काम छोड़कर के उसको देखने के लिए चले जाते हैं। लेकिन अपने राम के
लिए, उन भगवान के लिए हम यह सोचते हैं कि यह काम भी कर लें तब भजन करेंगे।
वह भी काम कर ले तब भजन करेंगे इसी
प्रकार पूरा जीवन बीत जाता है। छोटे रहते हैं तब सोचते हैं बड़े हो जाएंगे तब भजन
करेंगे हरि का नाम लेंगे। बड़े होने पर अनेक जिम्मेदारी आ जाती हैं उस समय विचार
करते हैं कि बुढ़ापा में भजन करेंगे और बुढ़ापा में फिर भजन होता नहीं है।
एक बहुत अच्छी
दृष्टांत कथा आती है- आज का काम कल पर मत छोड़ो।
दृष्टान्त - एक
महात्मा ने एक भक्त के ऊपर प्रसन्न हो अपनी पारस पत्थर की बटिया देकर कहा कि देखो!
इससे तुम जितना जी चाहे लोहा से सोना बना सकते हो, किन्तु यह स्मरण
रखना कि यह बटिया छठें महीने की अन्तिम घड़ी में नष्ट हो जायेगी। महात्मा चल दिये
। वह मनुष्य सोचा अभी क्या अकाज है, अभी तो छह महीने का अंत
बहुत दूर है । तब तक बहुत लोहा इकट्ठा कर लूं, फिर एक ही दिन
अधिक सोना बना लूंगा ।
इस प्रकार टालमटोल करते-करते छठें
महीने में दो दिन रह गये। इतने में उसे ध्यान आया कि अब तो दो ही दिन और बाकी हैं, यदि
सोना न बना लिया तो बटिया नष्ट हो जायेगी । शीघ्र नौकर से कहा कि आज ही जाकर बाजार
से बहुत-सा लोहा खरीदकर ले आओ। नौकर तुरन्त बाजार गया, परन्तु
उसे कुछ कारण-वश लोहा नहीं मिला। दूसरे दिन लोहा लेने-देने में कुछ विलम्ब हो गया,
और पारस पत्थर की अवधि पूरी होने पर नौकर लोहा लेकर घर पहुंचा।
घरवाला मनुष्य जाकर देखा तो बटिया गायब हो गयी थी । अन्त में वह रोता-झंखता हुआ
अपनी करनी को धिक्कारने लगा, किन्तु " पछताये से होत
क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत ।" अहो, मैंने घर का सारा
धन देकर लोहा खरीद लिया और सोना भी नहीं बना पाया, हाय ! " दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम" ।
सिद्धान्त - मनुष्य देह ही पारस
पत्थर की बटिया है। अज्ञानवश यह जीव लोहारूप जड़ाध्यासी हो रहा है। मोक्षप्रद
मनुष्य शरीर के आधार से सत्संग-सद्बोध द्वारा लोहारूपी अज्ञानी जीव सोनावत शुद्ध
मुक्त हो सकता है। इस शरीर में रहने की जितनी प्रारब्ध - आयु है, वही
बटियारूप देह रहने की अवधि है । साधु-गुरु सावधान कर देते हैं, किन्तु मोह-माया में भूलकर प्राणी उत्तम मनुष्य जन्म को व्यर्थ विषयों में
नष्ट कर देता है। न विषय-सुख भोग, गृह, धन, कुटुम्ब, मान, बड़ाई ही साथ जाते हैं, न मुक्ति ही बन पाती है;
फिर अन्त में क्या हो, शरीर की आयु समाप्त
होते ही यह नष्ट हो जाता है और सबको त्यागकर "
सिर धुनि
हंसा उड़ि चले हो रमैया राम ।
सरवर मीत जो हारि हो रमैया राम ॥
फिर गर्भ जन्म-मरणादिक संकट भोगने
पड़ते हैं । अतएव इस क्षणभंगुर जीवन में अपना कल्याण शीघ्र कर लेना चाहिए ।
क्षणभंगुर
- जीवन की कलिका, कल प्रात को जाने खिली न खिली।
मलयाचल की शुचि शीतल मन्द, सुगन्ध समीर मिली न
मिली।
कलि काल कुठार लिए फिरता, तन नम्र से चोट झिली
न झिली।
कहले हरिनाम अरी रसना, फिर अन्त समय में हिली
न हिली।
तो- धाए धाम काम सब त्यागी। जब कभी
ऐसा अवसर मिले तो काम छोड़कर के राम को पाने के लिए दैडिये क्योंकि काम तो नहीं
निपटेगा बंधुओं माताओं हम लोग जरूर निपट जाएंगे। हम लोगों का निपटना तय है। प्रभु
श्री राघवेंद्र सरकार अपने छोटे अनुज लक्ष्मण जी के साथ जनकपुर की गलियों में
भ्रमण कर रहे हैं। सब जनकपुर वासी राघव जी के सुंदर स्वरूप रूप माधुरी का दर्शन
करके परम अह्लादित हो रहे हैं। माने वह सब लोग यही कह रहे हैं कि हे विधाता आज
हमने नेत्रों के होने का फल प्राप्त कर लिया इनके दर्शन करने के बाद।
जुबतीं
भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।
युवती स्त्रियां घर के झरोखों से
झांक रही हैं। श्री रामचंद्र जी के सुंदर स्वरूप को निहार रही हैं और आपस में बड़े
प्रेम से बातें कर रही हैं कि अरी सखी देख तो सही इनके सुंदर स्वरूप को इतना सुंदर
स्वरूप है जो करोड़ों काम देवों को भी लज्जित करने वाला है। दूसरी सखी ने कहा की
यह सांवरे लाल तो हमारी जानकी जी के योग्य हैं। अगर हमारी जानकी का विवाह इनके साथ
हो जाता तो बहुत अच्छा होता।
तब तक तीसरी सखी ने कहा की हे सखी यह
मत भूलो कि महाराज जनक ने प्रतिज्ञा की हुई है, इनको इनके कोमल शरीर को
देखकर तुम्हें क्या लगता है कि वह महान धनुष क्या इनसे उठेगा? जो फूल के समान कोमल हैं। तब तक वहीं पर बैठी दूसरी सखी ने कहा कि अरे अभी
उनके रूप माधुरी का दर्शन महाराज जनक ने किया ही नहीं होगा, नहीं
तो वह इनको देखते ही अपनी प्रतिज्ञा भुला देंगे और इन्हीं के साथ जानकी को ब्याह
देंगे यह इतने सुंदर जो हैं। यह सखियों की आपस की चर्चा वहीं पर बैठी एक वृद्ध
माता सुन रही थी।
वह लाठी ठेंगते ठेंगते वहां पर आई और
कहने लगी क्यों रे तू बड़ी देर से बोलती जा रही है- वर
सांवरो जानकी जोगू-2। यदि जानकी
जी के योग्य हैं तो यह जानकी जी को मिलेंगे तेरा क्या फायदा होगा? जब
से तू बोले जा रही है, तुझे क्या मिलेगा? सखियों ने कहा मैया हमेशा तुम क्या मिलेगा, क्या
मिलेगा इसी चक्कर में रहती हो। तो वृद्ध माता ने कहा बताओ क्या फायदा होगा?
क्या मिलेगा तुमको अगर जानकी का विवाह उनके साथ होगा तो?
तब सखियों ने कहा ठीक है अब मैया तुम
सुन ही लो कि हमारा क्या फायदा होगा। जब जानकी का विवाह इन सांवले सरकार के साथ हो
जाएगा। इनके यानि भगवान के साथ और वह इनके साथ विदा होकर चली जाएंगी और महाराज जनक
जी की यह बड़ी लाडली बिटिया हैं जानकी जी और जानकी जी जब विदा होकर चली जाएंगी तो
महराज जनक बहुत दिनों तक बिना जानकी के रह नहीं पाएंगे तो वह बार-बार जानकी जी को
बुला करके ले आएंगे।