शिव पुराण कथा हिंदी में-22 shiv puran katha dijiye
राजा छुव ने कहा मैं समझ गया आप भगवान हैं, आप अब इस ब्राह्मण वेष को त्याग दीजिये। राजा छुव के लिए मुझे छलने आए
हैं। लज्जित होकर भगवान विष्णु ने कहा- महामुनि आपका कहना सत्य है ! आप शिव भक्तों
को किसी का भय नहीं परंतु आप मेरे कहने से राजा छुव के पास जाकर उससे कह दो कि मैं
तुमसे डरता हूं ।
ऐसी बात सुनकर दधीचि हंसते हुए बोले कि- मैं शिवजी के प्रभाव से
कहीं और किसी से भी नहीं डरता, फिर उसससे क्या कहने जाऊं। इस
पर विष्णु जी को क्रोध आ गया और अपना चक्र सुदर्शन उठा महर्षि को मारना चाहा।
परंतु ब्राह्मण पर वह नहीं चला। तब दधीचि ने कहा- शिव जी का अस्त्र
मुझ जैसे ब्राह्मणों के लिए नहीं है। यदि आप क्रुद्ध हैं तो क्रम से ब्रह्मास्त्र
आदि अस्त्रों का प्रयोग कीजिए ।
तब विष्णु जी दधीचि को पराक्रम हीन ब्राह्मण समझ कर अपना अस्त्र
चलाया तथा इन्द्रादि देवों ने भी बडे वेग से अपने अस्त्रों को चलाया । परंतु शिव
भक्त दधीचि ने मुट्ठी भर कुशा उठा कर उनपर छोडा तो, कुशा
कालाग्नि के समान त्रिशूल बन प्रलयाग्नि के समान अपनी ज्वाला से सभी देवताओं के
अस्त्रों को शांत कर काट दिया।
देवता पराक्रमहीन हो वहां से भाग चलें । केवल विष्णु जी बस युद्ध
करते रहे, भीषण युद्ध हुआ तब हे नारद मैं ब्रह्मा राजा छुव
को साथ ले उनका युद्ध देखन गया और उनको युद्ध करने से रोका।
देवताओं से कहा आप लोगों का प्रयास व्यर्थ है ,इस ब्राह्मण को आप लोग नहीं जीत सकते। तब भगवान विष्णु जी ने युद्ध बंद कर
दिया परंतु दधीचि का क्रोध सान्त न हुआ उन्होंने श्राप दे दिया कि समय आने पर
रुद्र की कोपाग्नि से भस्म हो जाओगे।
इसके बाद दधीचि को प्रणाम कर राजा छुव अपने घर को चला गया और विष्णु
आदि देवता भी अपने लोक में चले गए।
तदेवम् तीर्थमभवत् स्थानेश्वर इति स्मृतम्।
तब से वह स्थान स्थानेस्वर नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
स्थानेश्वर पर पहुंचकर मनुष्य शिवजी का सायुज्य प्राप्त करता है।
( ब्रह्मा जी का उद्योग )
नारद जी बोले- महाभाग्य! जब वीरभद्र दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर कैलाश
को गए तब क्या हुआ ? ब्रह्माजी बोले- नारद जब रुद्र की सेना
सै घायल देवताओं ने मुझे जाकर दक्ष यज्ञ विध्वंस समाचार कह सुनाया तो मैं देवताओं
को सुखी व यज्ञ को पूर्ण कैसे करें।
तब मैं शिवजी का स्मरण कर बैकुंठ गया और भगवान विष्णु की स्तुति की,
उन्होंने कहा कि दक्ष ने अपराध किया जो अपने यज्ञ में शिव जी को भाग
नहीं दिया, जिसके लिए हम सभी देवता शिवजी के अपराधी हैं । हम
सब को शिवजी की ही शरण में जाकर उनकी स्तुति करनी चाहिए।
तब मैं ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवता कैलाश को
गए जहां दिव्य योगियों से सेवित श्रेष्ठ शिव जी विराजमान थे । तब उनके समीप जाकर
उन्हें प्रणाम कर प्रार्थना की - हे महादेव आपकी कृपा के बिना हम सब नष्ट हो गए
हैं आप हमारी रक्षा कीजिए । नाथ आप प्रशन्न होकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें।
भग देवता को आंख तथा पूषा देवता को दांत प्रदान करिए और सभी देवताओं
को स्वस्थ करिये और आज से यज्ञ के अवशिष्ट पदार्थ पर आपका भाग होगा।
ऐसा कह कर मुझ ब्रह्मा सहित विष्णु जी हाथ जोड़े शिव जी के चरणों
में गिर पड़े। तब भगवान शंकर प्रसन्न होकर देवताओं को धैर्य बंधाते हुए बोले-
देवों सुनो मैं तुमको क्षमा करता हूं। दक्ष का मैंने विध्वंस नहीं किया किंतु जो
दूसरों का बुरा चाहता है उसी का बुरा होता है ।
भगवान शिव ने कहा- हे गणों दक्ष के सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा
दो, भग देवता सूर्य के नेत्र से देखेंगे, पूषा के दांत हो जाएंगे, मेरा विरोधक भृगु बकरे की
ही दाढ़ी मूछ पाएगा, गणों द्वारा सभी देवता जो अंग भंग हो गए
हैं वे स्वस्थ हो जाएंगे।
दक्ष को जब बकरे का सिर लगा जीवित होकर उठा और प्रसन्न चित्त हो
शंकर जी का दर्शन किया । उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया और उसने शिवजी की स्तुति
की - भगवान शंकर उसकी स्तुति से प्रसन्न हो गए।
उन्होंने सब की ओर कृपा दृष्टि से देखकर दक्ष से कहा- कि प्रजापति
दक्ष सुनो यद्यपि में स्वतंत्र हूं, पर भक्तों के वश में
हूं। भक्तों में ज्ञानी भक्त सबसे श्रेष्ठ है, ज्ञानी मेरा
ही स्वरूप है ,उससे अधिक प्रिय मुझे कोई नहीं है। तू दक्ष
केवल कर्मो के द्वारा ही संसार सागर से तरना चाहता था । तेरा यह कर्म मुझे अच्छा
ना लगा इसलिए मैंने तेरे यज्ञ का विध्वंस कर दिया ।
अब तुम मुझे परमेश्वर जानकर बुद्धि पूर्वक ज्ञान पारायण हो सावधानी
से कर्म करो। तू यह जान कि मैं शंकर ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति
और संघार का करता हूं और क्रिया के अनुसार विभिन्न नामों को धारण करता हूं ।
हरिभक्तो हि मां निन्देत्तथा शैवो भवेद्यदि।
तयोः शापा भवेयुस्ते तत्त्वप्राप्तिर्भवेन्न हि।। रु•स• 43-21
यदि कोई विष्णु भक्त मेरी निंदा करेगा और मेरा भक्त विष्णु की निंदा करेगा तो
आपको दिए हुए समस्त श्राप उन्हीं को प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्व ज्ञान
की प्राप्ति नहीं हो सकती।
इस प्रकार शंकर जी के वचनों को सुन सभी देवता मुनि प्रसन्न हो गए ।
दक्ष शीघ्र ही शिवजी का नाम जपने लगा, शिव जी की कृपा से
उसने अपना यज्ञ पूर्ण किया। सब देवताओं के साथ शिव जी को भी भाग मिला दक्ष ने
ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया।
परब्रह्म की कृपा से यज्ञ पूर्ण हुआ सब देवता और ऋषि आदि भगवान शंकर
का यश गान करते हुए अपने अपने धाम को चले गए। इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला
ज्ञानी हो उत्तम सुख और दिव्य गति को प्राप्त होता है।
इस प्रकार दक्ष पुत्री सती अपना शरीर त्याग कर हिमालय की पत्नी के
गर्भ से उत्पन्न हुई और महातप कर फिर शिव जी को प्राप्त कर लिया।
( सती खण्ड का विश्राम )
( रुद्र संहिता - पार्वती खंड )
पितरों की कन्या मेना के साथ हिमालय का विवाह-
नारद जी बोले-
दाक्षायणी सती देवी त्यक्तदेहा पितुर्मखे।
कथं गिरिसुता ब्रह्मन् बभूव जगदम्बिका।। रु•पा•1-1
ब्रह्मन सती ने पर्वत की कन्या होकर कैसे तप कर शिवजी को प्राप्त किया ? ब्रह्माजी बोले- मुनि जब सती ने दक्ष के यज्ञ में अपना शरीर त्याग दिया तब
उन्होंने हिमालय के घर जन्म लेने का विचार किया। क्योंकि शिवलोक में स्थित मेना ने
सती देवी के लिए आराधन किया था ।
समय आने पर वही देवी अपना शरीर त्याग मैना की पुत्री बन गई। तब उनका
नाम पार्वती हुआ और नारद जी से उपदेश ग्रहण कर कठिन तप के द्वारा शिव जी को
प्राप्त किया।
नारद जी बोले- ब्रह्मन अब मेना की उत्पत्ति विवाह आदि का चरित्र
सुनाइए ? ब्रह्माजी बोले- नारद
अस्त्युत्तरस्यां दिशि वै गिरीशो हिमवान्महान्।
पर्वतो हि मुनिश्रेष्ठ महातेजाः समृद्धिभाक्।। रु•पा•1-14
उत्तर दिशा में हिमालय नाम का एक महान राजा था जो कि एक श्रेष्ठ पर्वत था। सब
समृद्धियों से युक्त और बड़ा ही तेजस्वी था। उस पर्वत का बड़ा ही दिव्य रूप है और
जो सर्वांग सुंदर विष्णु का रूप संतों का प्रिय और शैलराज के नाम से प्रसिद्ध है ।
वह हिमालय भी कहा जाता है और उस पर्वत के जंगल और स्थिर दो भेद हैं,
उसी शैलराज ने धर्म वर्धन के लिए अपना विवाह करने की इच्छा की। उसी
समय देवता गण पितरों के पास गए और बोले कि यदि आप अपना कर्तव्य पालन करना चाहते
हैं तो आप अपनी कन्या मैना का विवाह हिमालय से कर दीजिए। इससे देवताओं के कार्य की
भी सिद्धि होगी।
देवताओं का कथन पितृ गणों को अच्छा लगा और धूमधाम से अपनी पुत्री
मैना का विवाह हिमालय के साथ कर दिया। फिर विवाह का उत्सव समाप्त होने पर देवता और
मुनीश्वर शिव पार्वती का ध्यान कर अपने लोक को चले गए ।
( मेना की पूर्व कथा )
नारद जी बोले- ब्रह्मन अब आप मैना की उत्पत्ति और पितरों के
श्राप की भी कथा कहिए । ब्रह्मा जी कहने लगे- नारद मेरे पुत्र दक्ष की साठ
पुत्रियां हुईं, जिनका विवाह उसने कश्यपादि महर्षियों के साथ
कर दिया।
उनमें स्वधा नाम वाली कन्या को उसने पितरों को दिया ,जिससे तीन कन्यायें उत्पन्न हुई। उनमें-
मेना नाम्नी सुता ज्येष्ठा मध्या धन्या कलावती।
सबसे बड़ी कन्या का नाम मेना, मझली कन्या का
नाम धन्या तथा अंतिम कन्या का नाम कलावती था। मुनीश्वर - एक समय यह तीनों बहनें
श्वेतद्वीप में विष्णु जी के दर्शन करने गई तो वहां बड़ा भारी समाज एकत्रित हो
गया।
जिसमें ब्रह्म पुत्र सनकादि भी आए और सब ने विष्णु जी की स्तुति की
और सनकादिकों को देखकर सभी लोग उनके स्वागतार्थ उठ खड़े हुए। परंतु तीनों बहनें
उनके स्वागत के लिए ना उठीं क्योंकि शंकर की माया ने उन्हें मोहित कर दिया था।
उनके इस दुर्व्यवहार से क्रुद्ध होकर सनकादियों ने उन्हें श्राप दे
दिया कि- तुम अभिमान के कारण खड़ी नहीं हुई इसलिए जाओ तुम तीनों स्वर्ग से दूर
पृथ्वी में मनुष्य की स्त्रियां बनो।
अब तीनों बहनें सनकादिकों के चरणों में गिरकर क्षमा मांगती हैं। तब
सनकादिक प्रसन्न होकर बोले- पितरों की कन्याओं अब तुम प्रसन्न होकर मेरे वचनों को
सुनो ! तुम सब बहनों में जो बड़ी है इसका विवाह हिमालय से होगा और इसको पार्वती
नामक एक कन्या प्राप्त होगी।
यह दूसरी धन्या नामक कन्या जनक की पत्नी होगी और जिससे महालक्ष्मी
सीता उत्पन्न होंगी।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति।।
सबसे छोटी कन्या कलावती वृषभानु की पत्नी होंगी, जिसकी पुत्री
के रूप में द्वापर के अंत में राधा जी प्रकट होंगी।
और तुम तीनों बहनें अंत में भगवत धाम को प्राप्त होगी। मेना से
पार्वती देवी उत्पन्न हो अपने कठिन तप के द्वारा शिवजी की प्रिया और धन्या की
पुत्री सीता श्री रामचंद्र जी की पत्नी होगी तथा कलावती की पुत्री राधा जी अपने
गुप्त स्नेह से बंधी हुई श्री कृष्ण की पत्नी होंगी ।
ऐसा कह सनकादि कुमार अंतर्ध्यान हो गए और वे तीनों बहनें भी सुखी हो
अपने धाम को चली गई।