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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-23 ram translate into hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-23 ram translate into hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-23 ram translate into hindi

बार बार सनेह बस, जनक बुलाउब सीय।।

और जब जानकी आ जाएंगी जनकपुर तो बार-बार यही दोनों भाई जानकी को विदा कराने के लिए जनकपुर आएंगे और हमको इनका दर्शन होता रहेगा हमको और कुछ नहीं चाहिए। बस इन त्रिभुवन सुंदर का हमको बार-बार दर्शन होता रहे जीवन का यही फल है हमारे।

राम जी भैया लक्ष्मण के साथ जनकपुर की गलियों से गुजर रहे हैं। ऊपर झरोखों से युवती, स्त्रियां दर्शन कर रही हैं। प्रभु राघव के रूप माधुरी का पूर्ण रूप से दर्शन हो सके इसलिए वह जनकपुर की स्त्रियों ने प्रभु से एक निवेदन पुकार किया है क्या सुनिए-

तनी हेरि रघुनाथ जी, हमारी ओरिया,
तनी हेरि रघुनाथ जी, हमारी ओरिया,

सुन्दर श्यामल गौर मनोहर-2
अखिंया मे बसली मधुर जोरिया।-2
तनी हेरि रघुनाथ जी, हमारी ओरिया-2

मिथिला में आई के तु, जादू चलइला। 2
मोहिलि अल मिथिला के सब गोरिया। 2
तनी हेरि रघुनाथ जी, हमारी ओरिया,

नयन चलाय के मधुर मुसुकाय के, 2
कइला जनक जू के चित चोरिया। 2
तनी हेरि रघुनाथ जी, हमारी ओरिया-2

सखियों ने कहा कि हे राघव जी एक बार सर ऊपर कर लीजिए हम आपके सुंदर स्वरूप का दर्शन कर लें। भगवान श्री राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं वह सीधा सामने की ओर देखे चले जा रहे हैं। तब सखियों ने उनके छोटे भाई से इशारा करके कहा अरे लक्ष्मण जी अपने बड़े भैया से कहिए ना कि थोड़ा सर ऊपर करें। उनका क्या चल जाएगा?

राघव जी का सर ऊपर करने का निवेदन किया। लक्ष्मण भैया ने धीरे से कहा कि भैया आपको झरोखों से सब देख रहे हैं आप एक बार उनकी तरफ निहार लीजिए। राम जी ने लक्ष्मण जी का हांथ जोर से दबाया कहा अरे लक्ष्मण यह जनकपुर के लोग हैं मजाक में भी वेदांत बोलते हैं। सावधान रहना इनके चक्कर में मत पड़ो सीधे चलो। लक्ष्मण जी ने उनकी तरफ इशारा करके कहा की काम नहीं बन पाया। तब सखियों ने विचार किया कि अरे ये बिना दर्शन दिए चले जाएंगे क्या? तब उनके मन में एक युक्ति आई क्या? हिय हरषहिं बरसहिं सुमन। ऊपर से पुष्पों की वर्षा कर दिया और बंधु माताओं ऊपर से कोई वस्तु किसी के मुख पर गिरे हो ही नहीं सकता कि वह ऊपर की ओर देखे ना। तो जैसे ही भगवान राघव के ऊपर पुष्प गिरे राघव जी ने सर उठाकर ऊपर की ओर देखा।

जैसे ही सखियों ने भगवान के रूप माधुरी का दर्शन किया सब मूर्छित हो पड़ी। भगवान का रूप तो कहना ही क्या, जो करोड़ों कामदेवों के मन को भी मथने वाला ऐसे स्वरूप को देखकर वह सखियां मूर्छित हो जाएं इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। सखियाँ जैसे ही मूर्छा से जागी हैं, राघव जी आगे को चलने लगे तब उन्होंने रोका है कि त्रिभुवन सुंदर आप कहां चल दिए? रुकिए हमको भी अपने साथ ले चलिए।

राघव सरकार ने कहा कि अरे हम आपको साथ क्यों ले चलें? सखियों ने कहा भगवान ले चलना पड़ेगा! हमने अपना मन आपको दे दिया है। भगवान ने मना कर दिया कि हम आपको साथ में नहीं ले जा सकते। तब सखियां कहने लगीं हम आत्महत्या कर लेंगे और आपको हत्या का पाप लगेगा। भगवान श्री रामचंद्र जी कहने लगे कि मैं इसबार मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में एक पत्नी व्रत को लेकर आया हूं। हां अगर आप प्रतीक्षा कर सको तो एक बात कहता हूं जब मैं द्वापर में आऊंगा उस समय आप सभी की मनोकामना को पूर्ण करूंगा और आप सभी के साथ विवाह करूंगा। जब प्रभु द्वापर में कृष्ण अवतार लेकर के आए हैं उसमें भगवान के विवाह कितने हुए? 16108 हुए।

नगर दर्शन प्रसंग में प्रारम्भ बालकों से होता है, जनक नगर में प्रथम कोई ज्ञानी नहीं मिला, कर्मकाण्डी नहीं मिला, कोई योगी नहीं मिला, कोई ज्ञान वृद्ध, अनुभव वृद्ध और वयोवृद्ध भी नहीं मिला अपितु निर्मल मन प्रेम परिपूर्ण हृदय अल्पवयस्क बालकों का समूह मिला वे आपस की वार्तालाप में कहते हैं कि- कवित्त –

"कोउ बाल बाल सों कहे हैं हम ऐसी सुनी
वीरता बढ़ाय चाप तोरिबे सिधाये हैं।
कोऊ कहें कौतुक बिलोकिबे पधारे दोऊ,
कोऊ कहें, कौशिक मुनिराय इन्हें लाये हैं |
कोउ कहें हेरत बटोही पुरकोऊ कहें
'रसिक बिहारी' आज भूपति बुलाये हैं।
कोऊ कहें जानें हम सत्य सो बखानें सुनो
जनक लली के ब्याहिबे इत आये हैं । "

पूरे जनकपुरी में दोनों भाइयों का बड़ा स्वागत सत्कार किया जा रहा है। जहां-जहां दोनों भाई जाते हैं वहां आनंद छा जाता है। भ्रमण करते दोनों भाई नगर के पूरब की ओर गये जहाँ धनुष यज्ञ के लिये भूमि तैयार की गई थी अत्यंत विस्तृत सुंदर गच ढ़ाली गई थी।

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।

कोमल मधुर और मनोहर वचन कहकर रामजी छोटे भाई को रचना दिखलाते हैं, भक्ति के चलते वही दीनदयाल प्रभु चकित होकर यज्ञशाला देख रहे हैं जो पलक मारने के पहले ही उनकी माया अनंत कोटि ब्रह्माण्ड की रचना कर डालती है। श्री रामचंद्र जी भैया लक्ष्मण सुंदर रचना देखकर वे गुरु के पास चले लेकिन नगर भ्रमण पर काफी समय हो गया। देर हुई जानकर उनके मन में डर है। जिनके भय से डर को भी डर लगता है। वही प्रभु लीला चरित्र करते हुए स्वयं भी डरने की लीला कर रहे हैं। वे आकर गुरु के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा पाकर उनके पास बैठ गए। संध्या वंदन करने के बाद गुरु विश्वामित्र जी से सुंदर कथाओं को सुनने लगे। जब विश्वामित्र जी शयन करने के लिए लेटे तो दोनों भाई आकर उनके चरणों को दबाने लगे।

बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन प्रभु के पावन चरण कमलों का दर्शन करने के लिए बड़े-बड़े साधक योगी मुनि लोग जप, तप, योग करते हैं। वही प्रभु भक्ति के वश में प्रेम के वश में स्वयं गुरु चरणों की सेवा कर रहे हैं। गुरु की महिमा को संसार में प्रदर्शित कर रहे हैं।

बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

प्रेम से गुरूजी के पाँव दबा रहे हैं, बार-बार मुनि ने आज्ञा दी तब रघुवर ने जाकर शयन किया। लक्ष्मणजी प्रेम और परमसुख से रामजी के पैर दबाने लगे, बार-बार प्रभु के कहने पर चरण कमल को हृदय में धारण करके लक्ष्मण जी लेट गये। सोये नहीं, प्रभु के घर से बाहर निकलने पर लक्ष्मणजी सोते ही नहीं हैं रक्षा के लिये सदैव जागरूक हैं निंद्रा के वशीभूत नहीं हुए ।

"उठे लखन निसि विगत सुनि, अरून शिखा धुनि कान ।
गुरू से पहले जगत पति जागे राम सुजान ॥ "

शास्त्र का विधान है कि शिष्य गुरू से पीछे सोये और पहले जगे, तदनुसार प्रभु श्रीरामजी गुरू के पीछे सोये और पहले जगे । सज्जनों मनुष्य को सदैव दो बातों का स्मरण रखना चाहिए। गुरु और मौत को।

दृष्टान्त – एक सन्त से एक राजा ने कुछ शिक्षा चाही। संत ने कहा- मृत्यु और सद्गुरु का सदैव स्मरण रखो । राजा बोला - इससे क्या होता है? सन्त बोले- मायाकाया का अभिमान दूर होता है । जब मृत्यु पश्चात कोई वस्तु साथ नहीं जाती, तब किसके लिए पाप तथा अपयश की गठरी बांधी जाय, और किसकी ममता के वश होकर परमार्थ भूला जाय ! अन्त में तो धर्म - परमार्थ ही लोक-परलोक में काम आते हैं। सद्गुरु की दया - दृष्टि से अविनाशी स्वरूप का बोध और सद्गुणों की प्राप्ति होती है । वे ही काल - जाल से बचाने वाले हैं, रक्षक हैं। ऐसे परम रक्षक की जीवनपर्यन्त शरण न छूटने पाये।

यह जीव अनादिकाल से कर्म-पथ में भटक रहा है। इसलिए यह पथिक है। यह भूलवश अपने को यात्री न मानकर बल्कि संसार - शरीर को अपना मुख्य स्थान मानकर मोह की नींद में रमने लगता है। फिर तो इसके ज्ञान-धन को कामादि डाकू लूट लेते हैं । अतएव इसे अपने को पथिक समझकर सदैव इस संसार से अपना चित्त उठाये रहना चाहिए और इस संसार की लुभावनी माया से सावधान रहना चाहिए।

काल खड़ा शिर ऊपरे, तैं जागु बिराने मीत ।
जाका घर है गैल में, सो कस सोवै निश्चिन्त ॥

जीव का शुद्ध स्वरूप चेतन और निरन्तर ज्ञान है। किसी ने कहा कि यदि जीव सर्वदा जाग्रत ज्ञान रूप है तो गर्भवास, आवागमन और पूर्वजन्मों की बातें क्यों नहीं जानता? तो इसका उत्तर यह है कि शरीर और स्मरण से ही जीव जगत का ज्ञान करते आया है, वे दोनों परिवर्तनशील, जीव से भिन्न हैं । आज पहले जन्म का शरीर नहीं है और शरीर न रहने से स्मरण भी नहीं है । फिर पहले जन्म का ज्ञान कैसे हो ! पहले जन्म का ज्ञान तो रहने दीजिए, इसी जन्म में जब से यह शरीर उत्पन्न हुआ तब से चारपांच वर्ष तक की बातों की जानकारी आज नहीं है । जब हम छ: महीने तथा दो वर्ष शिशु अवस्था में थे, तब कौन-कौन हमसे मिले, कौन बिछुड़े, कितने हमें सुख- - दुख हुए, इनका कोई ज्ञान आज नहीं है। पीछे रविवार को 5 बजकर 15 मिनट सायंकाल में हम कौन-सी बात सोच रहे थे, इसका स्मरण आज नहीं है । फिर पूर्वजन्म, आवागमन, गर्भवास आदि का स्मरण आज तक कैसे रह जाय ! यद्यपि हम शिशु अवस्था से लेकर आज तक हैं, किन्तु हमारे स्वरूप में जगत नहीं है, स्मरण से ही हमें जगत का ज्ञान होता है, वे स्मरण परिवर्तनशील हैं, मिटते रहते हैं, इसलिए जगत भूलता रहता है।

हम सुषुप्ति अवस्था में भी थे, यदि सुषुप्ति अवस्था में न होते तो जाग्रत होकर नाना क्रियाएं कौन करता, सुखपूर्वक सोने का आनन्द कौन बताता; किन्तु गाढ़ी सुषुप्ति में मुझे जगत का कोई ज्ञान नहीं था। वहां पर बाह्य कोई ज्ञान न होते हुए भी मेरा अस्तित्व था । जीव का स्वरूप सर्वदा ज्ञान मात्र है, उसे बाह्य जगत का ज्ञान शरीर के सम्बन्ध से स्मरण द्वारा होता है । शरीर और स्मरण परिवर्तनशील होने से जगत भूलता रहता है । जगतं ज्ञान का अभाव होने से जीव का अस्तित्व कभी मिट नहीं सकता; क्योंकि जीव अविनाशी और नित्य है । लेकिन वह अपने अज्ञान के कारण ही अपने स्वरूप को भूल बैठा है इस विषय में एक बड़ी सुंदर कथा आती है –

एक पथरकट ने एक सिंह का बच्चा पकड़ा और लाकर अपने गधों के बीच में रखने लगा । सिंह का बच्चा धीरे-धीरे मान लिया कि मैं गधा हूं, अतः वह गधों की-सी चाल चलता और गधों के बीच में घूमता रहता । एक दिन पथरकट गधों को जंगल में चराने ले गया, साथ में सिंह का बच्चा भी गया । इतने में एक जंगली सिंह आया और सिंह के बच्चे से कहने लगा- अरे भाई ! तुम सिंह का बच्चा होकर दूसरे के वश हो गधों की-सी चाल क्यों चलते हो ? सिंह का बच्चा बोला- नहींनहीं, मैं गधा ही हूं। सिंह - अच्छा! तू आकर जल में अपना रूप देख तो सही । जब सिंह का बच्चा जल में अपना रूप देखा तो उस सिंह के समान ही था । अतः "मैं सिंह हूं" ऐसी निश्चयता होते ही सिंह के साथ सिंह का बच्चा भी दहाड़ते हुए जंगल में चला गया।

सिद्धान्त - इस जीव ने सिंहवत अत्यंत शक्तिशाली शुद्ध चैतन्य होते हुए अनादिकाल से वासनावश शरीर का सम्बन्ध कर शरीर को अपना रूप मान लिया है। परन्तु सिंहवत ज्ञानी गुरु जब अधिकारी जीव को मिल जाते हैं, तब उनके संकेतअनुसार सत्संग - सद्विचार में अपने शुद्ध स्वरूप का अपरोक्ष दर्शन प्राप्त कर यह जीव संसार झमेला से अकेला हो सत्संग में निवास कर जन्मादि बन्धनों से मुक्त हो जाता है। सच्चे सदगुरुदेव की महिमा का वर्णन किया ही नहीं जा सकता। स्वयं जो जगदीश है, जो सबका परमपिता है वहीं आकर गुरु चरणों की सेवा कर रहा है। जगत को उपदेश दे रहा है कि गुरु चरणों से ही जीव का कल्याण हो सकता है।

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