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शिव पुराण कथा हिंदी में-23 shiva puran katha hindi me

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शिव पुराण कथा हिंदी में-23 shiva puran katha hindi me

शिव पुराण कथा हिंदी में-23 shiva puran katha hindi me

 शिव पुराण कथा हिंदी में-23 shiva puran katha hindi me

शिव पुराण कथा हिंदी में-20 shiv puran in sanskrit and hindi

नारद जी बोले- ब्रह्मा जी पार्वती जी मेना से कैसे उत्पन्न हुई और उन्होंने दुःसह तप कर शिवजी को वर रूप में कैसे प्राप्त किया ? ब्रह्माजी बोले- मुनि! मैना का विवाह कर हिमालय पर्वत अपने घर आ गए और प्रसन्न हो मेना के साथ विभिन्न सुखदायक स्थानों में जाकर बिहार करने लगे।

सब देवताओं को साथ ले भगवान विष्णु जी हिमालय के पास गए, हिमालय ने अपने को सब प्रकार बड़ा भाग्यशाली जाना और उनका बड़ा आदर सत्कार किया। हिमालय ने कहा प्रभु आज मेरा जन्म सफल हो गया। कहिए मेरे योग्य क्या सेवा है ?

यह सुन हरि आदि देवताओं को विश्वास हो गया कि अब हमारा कार्य सिद्ध होगा तब उन्होंने हिमालय से कहा- महाप्राज्ञ जो पहले जगदंबा दक्ष की पुत्री होकर शिव जी की पत्नी हुई थी और जिन्होंने अपने पिता के अनादर से अपने शरीर का त्याग कर दिया था। वह सारी कथा आपको भी ज्ञात है।

अब वही आपके घर में प्रगट हों आप इसके लिए उपाय करें। इसलिए हम लोग यहां आए हैं। यह बात सुनकर हिमालय भी प्रसन्न हो गए और बोले ऐसा ही हो । फिर वे सभी देवता गण जगदंबा की स्तुति करने लगे-
देव्युमे जगतामम्ब शिवलोक निवासिनि।
सदाशिवप्रिये दुर्गे त्वां नमामो महेश्वरि।। रु•पा•3-26
हे देवी, हे उमे, हे जगन्माता ! शिव लोक में निवास करने वाली, हे सदाशिव प्रिये, हे दुर्गे, हे महेश्वरी हम आपको प्रणाम करते हैं । इस प्रकार देवताओं ने भगवती की बड़ी स्तुति की।

देवताओं ने जब इस प्रकार प्रार्थना और स्तुति की तो कष्ट निवारणी दुर्गा देवताओं के समक्ष प्रकट हो गई। सभी देवताओं ने देवी को प्रणाम किया और प्रार्थना की कि- हे माता अब सनत कुमारों के वचन को पूर्ण कीजिए।
देवी अब आप पृथ्वी पर अवतार लीजिए, शिव जी की पत्नी बनिए और अपनी अद्भुत लीला से देवताओं को सुखी करिए । देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना से शिवा देवी प्रसन्न हो गई और उन्होंने सब कारण विचार कर अपने प्रभु शिवजी का स्मरण करते हुए, देवी उमा ने हंसकर देवताओं से कहा-
हे हरे हे विधे देवा मुनयश्च गतव्यथाः।
सर्वे शृणुत मद्वाक्यं प्रशन्नाहं न संशयः।। रु•पा•4-23
हे ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों और देवताओं तुम्हारे दुख दूर होंगे, मैं अवश्य ही पृथ्वी पर अवतार लूंगी। इसके और भी कारण हैं पहले हिमाचल और उसकी पत्नी ने मेरी सेवा की है । अब भी भक्ति पूर्वक मेरी सेवा करते हैं इसलिए मैं हिमाचल के घर प्रकट होऊंगी जिससे तुम्हारे सब दुख दूर हो जाएंगे ।
अद्भुता शिवलीला हि ज्ञानिनामपि मोहिनी।
भगवान शिव की लीला अद्भुत है वह ज्ञानियों को भी मोंह में डालने वाले हैं ,इसलिए मैं उन्हीं की पत्नी होऊंगी । वे रुद्र मेरा पाणिग्रहण करना चाहते हैं, अतः मैं हिमाचल के घर जाकर अवतार लूंगी। अब तुम सब देवता अपने स्थान को जाओ, यह कहकर विश्वमाता अपने लोक को चली गई। देवता भी अपने धाम को चले गए ।

ब्रह्माजी बोले- देवता हिमाचल तथा मेना को उपदेश करके चले गए थे । तभी से वे दोनों पुरुष- स्त्री भगवान रुद्र तथा जगदंबा के ध्यान में निमग्न रहने लगे और उनका श्रद्धा से पूजन करने लगे। वे उमा देवी को संतान रूप में पाना चाहते थे ।
चैत्रमासं समारभ्य सप्तविंशति वत्सरान्।
शिवां सम्पूजयामासा पत्यार्थिन्यन्वहं रता।। रु•पा•5-7
संतान की कामना से मेना ने चैत्र मास से आरंभ करके सत्ताइस वर्षों तक प्रतिदिन तत्परता पूर्वक शिवा की पूजा कि। वे कभी निराहार रहती थी, कभी व्रत धारण करती थी, कभी जल पीकर रहती थी और कभी हवा का पान करके रहती थी।

व्रत के पूर्ण होने पर उमा देवी दोनों पति पत्नी पर प्रसन्न होकर शीघ्र ही उनके सामने प्रकट हो गई और हंसकर मेना से बोली - हिमाचल प्रिये-
वरं ब्रूहि महासाध्वि यत्ते मनसि वर्तते।
सुप्रशन्ना च तपसा तवाहं गिरिकामिनी।। रु•पा•5-15
हे महासाध्वि जो तुम्हारे मन में हो वह वर मांगो! हे गिरि कामनी मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैना बारंबार नमस्कार करके बोली- हे जगत की मातेश्वरी आपकी जय हो! मैं तो आप की ही शरण में हूं।


यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे पहला वर यह दें कि-
प्रथमं शतपुत्रा मे भवन्तु जगदम्बिके।
मुझे बड़ी आयु वाले बलवान पराक्रमी रिद्धि सिद्धिओं से युक्त सौ पुत्र हों। दूसरा वर आप यह दें कि-
सुता भव मम शिवे देवकार्यार्थ मेव हि।
आप ही सुंदर गुणों से युक्त रूपवती, दोनों कुल को तारने वाली, आनंद देने वाली, त्रिलोकी में पूजनीय देवताओं के कार्य सिद्ध करने वाली मेरी कन्या के रूप में आकर अवतार लें और आपका भगवान रुद्र के साथ विवाह करूँ।

ब्रह्मा जी बोले- नारद जी ! इस प्रकार मैना के मांगे हुए वरों को सुनकर, उमा देवी मन्द मन्द हंसती हुई बोली- मैना जी आपको सौ पुत्र प्राप्ति का वर दिया। उनमें-
तत्रैको बलवान्मुख्यः प्रथमं सम्भविष्यति।
सबसे बड़ा पुत्र अधिक बलवान होगा और दूसरे वर में मैं आप की पुत्री रूप में अवतीर्ण होंऊगी। इस प्रकार दोनों वरदान देकर उमा देवी मैना के देखते देखते ही वहां से अंतर्ध्यान हो गई । और मैना ने मनोरथों को अपने पूर्ण देख प्रसन्न होकर अपने घर में चली आई।

घर में आकर हिमाचल से मैना ने श्री उमा देवी के दिए वरों का समाचार कह सुनाया, तब दोनों अपने ही भाग्यों की सराहना करने लगे ।
ब्रह्माजी बोले- नारद कुछ समय बाद मेना को गर्भ हो गया, पूर्ण समय हो जाने पर जेष्ठ पुत्र मैनाक ने जन्म लिया। तब तो हिमाचल के नगर में बड़े भारी उत्सव होने लगे। ब्राह्मणों को बहुत से दान दिए।

अपने धन को धर्म में लगाना ही श्रेयस्कर है। एक आदमी ने बक्से में सोना भर रखा था और एक ने बक्से में पत्थर रखा था और दोनों का भार बराबर था। दान व धर्म करने से तो सोना अच्छा है , पर खर्च ना किया जाए तो पत्थर और सोने के भार में क्या फर्क है ।
इतना फर्क जरूर है कि पास में सोना पड़ा रहने से चिंता अधिक हो जाएगी कि, कोई चुरा ना ले, किसी को पता ना लग जाए । मन में चिंता और खलबली होने के सिवाय और क्या फायदा होगा।

इस बात को आप गहरा उतरकर शांति से निष्पक्ष होकर ठीक तरह से समझें । सज्जनों समय बड़ी तेजी से जा रहा है ,मौत नजदीक आ रही है। एक दिन सब पदार्थों के साथ पड़ाक से संबंध टूट जाएगा।
इसलिए बड़ी सावधानी से समय को और पैसों को दान धर्म आदि अच्छे अच्छे काम में लगाइए।
हिमालय भी पुत्र रत्न प्राप्त कर बहुत दान-धर्म किए। पति-पत्नी दोनों बड़े प्रसन्न हो गए। सौ पुत्रों में मैनाक बड़ा था। वह नाग कन्याओं का पति बना।

जब इन्द्र पर्वतों के ऊपर क्रोध करके पर्वतों के पखों को काटने लगा था, तब यही मैनाक समुद्र की शरण में चला गया। वहां समुद्र के साथ उसकी मित्रता हो गई।

( पार्वती का जन्म )
ब्रह्माजी बोले- नारदजी मैना तथा हिमाचल दोनों पति पत्नी देवी उमा एवं भगवान रुद्र के ध्यान में निरंतर रहने लगे । उसके बाद जगत की माता उमा देवी अपना वर सत्य करने के लिए पूर्ण अंशों के द्वारा हिमालय पर्वत राज के हृदय में आकर विराजमान हुई।

तब उत्तम समय जानकर हिमाचल की परम प्रिया मैनावती ने गर्भ स्थापित किया। मैना रानी गर्भवती हो गई । संपूर्ण जगत को आश्रय देने वाली उन देवी के गर्भ में आने से गिरिप्रिया मेना सदा तेजो मण्डल के बीच में स्थित होकर अधिक शोभा पाने लगी।
वे हिमालय भी बड़े प्रसन्न रहने लगे, वह मैना की सखियों से सदा पूछते रहते हैं कि- मैना को किन वस्तुओं की इच्छा है ? वह लज्जा के कारण अपना कुछ भी इष्ट मुझसे नहीं बताती है ।

गर्भलक्षण के प्राप्त कर लेने के बाद मैना जिस वस्तु के लिए कहती थी उसे अपने सामने गिरिराज के द्वारा उपस्थित हुआ देखती थी। क्योंकि उनकी इक्षित कोई भी वस्तु तीनों लोकों में दुर्लभ नहीं थी।

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उस समय विष्णु आदि सभी देवता तथा मुनिगण आकर गर्भ में स्थित शिवा देवी की स्तुति करने लगे-
सत्यस्थे सत्यसुप्रीते सत्ययोने च सत्यतः।
सत्यवक्त्रे सत्यनेत्रे प्रपन्नाः शरणं च ते।। रु•पा•6-20
हे सत्यस्थे, हे सत्य सुप्रीते, हे सत्ययोने, हे सत्य वक्त्रे हम सभी आप की शरण में हैं। हे देवी आप प्रकट होकर देवताओं के कार्य को पूर्ण करें । हम सभी देवगण आपकी कृपा से साथ हो जाएंगे ।

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार सभी देवगण प्रसन्न चित्त होकर गर्भस्थित माहेश्वरी की बहुत स्तुति करके अपने अपने धाम को चले गए। जब नौंवा महीना बीत गया और दशवां भी पूरा हो चला, तब गर्भ स्थित जगदंबा महाकाली ने गर्भ से बाहर आने की इच्छा की।
वह समय बड़ा सुहावना हो गया, नक्षत्र, तारे तथा ग्रह शांत हो गए, आकाश निर्मल हो गया और सभी दिशाओं में प्रकाश फैल गया।
मही मङ्गलभूयिष्ठा सवनग्राम सागरा।

वन, ग्राम व सागर के सहित पृथ्वी पर नाना प्रकार के मंगल होने लगे। तालाब, नदियों में कमल खिल उठे ,अनेक प्रकार के सुख स्पर्शी वायु बहने लगी।
मुमुदुः साधवः सर्वे२सतां दुःखमभूद् द्रुतम्।
सभी साधु जन आनंदित हो गए तथा दुर्जन शीघ्र दुखी हो गए। देवता आकाश में आकर दुन्दुभियां बजाने लगे । वहां फूलों की वर्षा होने लगी ,श्रेष्ठ गंधर्व गान करने लगे ,अप्सराएं और विद्याधरों की स्त्रियां आकाश में नाचने लगी, इस प्रकार आकाश मंडल में देवताओं आदि का महान उत्सव होने लगा। 

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