राम कथा हिंदी में लिखी हुई-24 ram katha hindi download
( पुष्प
वाटिका प्रकरण )
समय
जानि गुरू आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥
दोनों भाई नित्यक्रिया करके फूल लेने
राजा जनक के श्रेष्ठ बाग में गये हैं। जरा कल्पना करिए महाराज जनक के यहां पर
हजारों दास दासियां हैं,
वह किसी को भी कह देते कि जाओ फूल लेकर के आओ। लेकिन नहीं बोले,
गुरु जी के पूजा के लिए फूल चाहिए गुरु सेवा स्वयं करना चाहिए इसलिए
वह स्वयं आज्ञा लेकर बाग में फूल चुनने के लिए आए हैं। महाराज जनक की बगिया की
शोभा बडी़ निराली है। वहाँ का सौंदर्य देख बसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। नए-नए फल
फूलों के वृक्ष अपने सौंदर्य से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोता, चकोर आदि पक्षी
मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं। राम लक्ष्मण दोनों भाई उस
बगिया को देखकर बड़े प्रसन्न हुए मालियों से पूछ कर वे पत्र पुष्प लेने लगे।
चहुँ
दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।
देखिए यह प्रभु का ऐसा अवतार है
मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आए हैं। यहां पर प्रभु के प्रत्येक चरित्र पर आपको
एक मर्यादा देखने को मिलेगी। यहां भी प्रभु पुष्प चुनने के लिए आए हैं तो बाग में
आकर सबसे पहले चारों तरफ घूम करके माली को देख रहे हैं क्योंकि बगिया का रक्षक
माली होता है इसलिए उनसे आज्ञा लेने के बाद ही राघव सरकार पुष्प तोड़ना चाह रहे
हैं।
इधर माता सुनैना मां जानकी को बुला
रही हैं। बेटी सीता तेरा स्वयंवर है। तुम्हारे मन अनुकूल वर तुमको मिले इसलिए जाओ
जानकी अपने सखियों को साथ लेकर के माता गौरी का पूजन करके आओ। जिस समय भगवान गुरु
पूजन के लिए पुष्प लेने आए हैं बगिया में उसी समय मा जानकी भी माता के वचनों को
सुनते ही पूजन की तैयारी कर, सुंदर आरती की थाल सजा करके माता गिरजा
का पूजन करने को आई है।
( भजन )
पूजन
की करके तैयारी सखिन संग आयी जनक लली।
बीच सिया सुकुमारी सखिन संग आयी जनक की लली।।
पूजन साज सजाये विविध विधि। 2
कर कंचन की थाली, सखिन
संग आयी जनक लली।
पूजन की करके तैयारी सखिन संग आयी जनक की लली।
कौ सखी सर चवर दुलावत। 2
कोऊ लिए जलतारी हैं, सखिन संग आयी जनक लली।
पूजन की करके तैयारी सखिन संग आयी जनक की लली।
निर्मल नीर नहायी सरोवर। 2
गिरिजा के मन्दिर पधारी, सखिन संग आयी जनक की
लली।
पूजन की करके तैयारी सखिन संग आयी जनक की लली।
सीता जी के साथ उनकी कई सखियां है, जो
बड़े सुंदर गीत गाते जा रही हैं।सखियों सहित माता सीता ने सरोवर में स्नान किया और
फिर प्रसन्न मन से मां गिरिजा जी के मंदिर में गई हैं। उन्होंने बड़े प्रेम से
पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर मांगा।
यहां पर एक समझने वाली बात यह है कि
भगवान गुरु पूजन के लिए कार्य कर रहे हैं और माता जानकी गौरी पूजन के लिए। तो गुरु
पूजन क्या है?
और गौरी पूजन क्या है? इसको हम आध्यात्मिकता
के माध्यम से समझें। गुरु किसी हांढ मांस के शरीर का नाम नहीं है। गुरु एक सत्ता
है, गुरु एक परम तत्व है। गुरु यानी मर्यादा, गुरु यानी आचरण, गुरु यानी आज्ञा पालन, गुरु यानी सत्य चरण, गुरु यानी धर्मनिष्ठा, गुरु यानी पुरुषार्थ, गुरु यानी प्रकाश।
गौरी भी किसी पत्थर का नाम नहीं है। गौरी यानी सदगुणोंकी खान। गौरी
यानी हाथों में कर्मठता, गौरी यानी वाणी में माधुर्य,
गौरी यानी हृदय में वात्सल्यता, गौरी यानी
लज्जा शील तो हमारे बच्चों और बच्चियों में यह गुण हों तो इसी को गौरी पूजन और
गुरु पूजन कहते हैं।
माता जानकी ने भगवान से विवाह करने
के लिए तीन काम किया। अगर हम सबको भी भगवान से विवाह करना यानि ( भगवान का होना )
हो तो हमको भी यह तीन काम करना पड़ेगा। माता जानकी ने प्रभु से विवाह करने से पहले
कौन से तीन काम किया?
तो जानकी जी पहले बाग में आई हैं। फिर जानकी जी ने सरोवर में स्नान
किया है। फिर जानकी ने गौरी पूजन किया है। तो हम सबको भी यह तीन काम करना पड़ेगा
पहले बाग में जाना पड़ेगा कौन से बाग में? तो सुनिए-
सन्त
सभा चहुँ दिसि अंवरायी। श्रद्धा ऋतु बसन्त समगायी।।
यह संतों की सभा ही सत्संग है और यही
सत्संग ही बाग है। तो भगवान से जिनको विवाह करना है, भगवान का जिनको होना
है उनको भी इस बाग में सत्संग रूपी बाग में जाना पड़ेगा। दूसरा काम क्या है?
सरोवर में स्नान। किस सरोवर में स्नान? संतों
की सभा यदि बाग है तो सरोवर क्या है?
सन्त
हृदय जस निर्मल वाणी। बाधे घाट मनोहर चारी।।
संतों का हृदय ही सरोवर है जिसमें
बड़े मनोहर घाट हैं। संतवाणी रूपी सरोवर में स्नान। तीसरा संतों की वाणी को हृदय
पर धारण करके उसमें अमल करना। संतों की वाणी का जीवन में पालन करना अगर यह तीन कम
कर लिए जाएं तो फिर हम भगवान के हो जाएंगे और भगवान हमारे हो जाएंगे। और जीवन की
सबसे बड़ी सार्थकता यही है कि हम भगवान के हो जाएं लेकिन दुर्भाग्य है कि हम संसार
के हो जाते हैं जो संसार सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ का सगा है।
दृष्टान्त — एक मनुष्य
बहुत द्रव्य वाला था । उसके कई पुत्र और पुत्रवधुएं थीं । उसका उन कुटुम्बियों में
अधिक मोह था । वृद्ध अवस्था आने पर विशेष प्रेम - वश थोड़ा द्रव्य अपने पास रखकर
बाकी सारे पैसे पुत्रों को बांट दिये। जब तक कुछ द्रव्य बुड्ढे के पास था, तब
तक तो पुत्र और पुत्रवधुएं प्रेमपूर्वक सेवा करते रहे । पश्चात जब समझ गये कि
बुड्ढे के पास अब कुछ नहीं है, तब सेवा करना ढील कर दिये।
यहां तक कि उचित समय पर बुड्ढे को जल - भोजन मिलना भी कठिन हो गया। एक दिन बुड्ढा
अपने पुराने मित्र के पास गया और अपना दुख कह सुनाया ।
उसके बुद्धिमानं मित्र ने चांदी के
पन्द्रह रुपये देकर कहा - इसको आप ले जाइए और एक गठरी ठीकरा (कंकड़) चुपके से अपनी
कोठरी में रख लीजिए। किसी-किसी दिन जब दस बजे रात्रि का समय हो, तब
अपने कमरे का किवाड़ बन्द करके और भीतर में बैठकर एक पत्थर पर इन चांदी के रुपयों
को पटक-पटक कर एक-दो -दस-पचास, सौ-दो सौ, हजार-चार हजार कहकर गिनते जाइए । अन्त में ठीकरे की गठरी को सन्दूक में
जोर से रखिए। इस प्रकार करने से पुत्र और पुत्रवधुएं अपनी-अपनी कोठरियों में से
शब्द सुन-सुन कर समझने लगेंगे कि अभी बुढ़ऊ के पास अधिक द्रव्य है ।
अतः द्रव्य के लोभ-वश फिर से सेवा
करने लगेंगे। इस प्रकार मित्र के कहने पर बुड्ढे ने ऐसा ही किया । निदान पुत्र और
पुत्रबधुएं बुड्ढे के पास द्रव्य जानकर स्वार्थ- वश आज्ञा - सेवा में उपस्थित रहने
लगे। अपने-अपने सेवा - प्रेम को अधिक दर्शाने के लिए एक-से-एक बढ़कर सेवा करते।
कोई स्नान कराता,
तो कोई भोजन खिलाता, कोई पैर दबाता इत्यादि।
अहो! यह है स्वार्थपूर्ण संसार का रहस्य, फिर भी मनुष्य चेत
नहीं करता ।
शिक्षा - मनुष्यो !
शीघ्र सावधान होओ। स्वार्थ के सगे स्वप्न के साथी स्त्रीपुत्रादि कुटुम्बियों के
मोह - वश मुक्तिदायी नर - जन्म न नष्ट करो । सब जीव पंथी हैं; तुम्हारा
कोई नहीं है। इसलिए शत्रु-मित्र का भाव त्यागकर मात्र शुद्ध प्रेम सबसे रखो।
सत्संग-साधना करके जन्मादिक दुखों से मुक्ति लो । यही तुम्हारा मुख्य कर्तव्य है ।
जानकी जी माता गौरी का पूजन कर रही
हैं। एक सखी सीता जी का साथ छोड़कर फुलवारी देखने चली गई थी। वह बाग में विचरण कर
रही थी तभी उसने दोनों भाइयों को देखा और वह उनको देखकर प्रेम विह्वल हो गई। उस
सखी के ऊपर ऐसी कृपा हो गई कि उसको सबसे पहले भगवान राघव दिखलाई पड़ गए।
तेहि
दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।
वह सखी राघव जी का दर्शन करने के बाद
दौड़ी दौड़ी माता जानकी के पास आई है। उसकी दशा ऐसी है उसका शरीर पुलकित है।
नेत्रों में जल भर आया है। मुख मंडल प्रसन्नता से मिला हुआ है। सब सखियां पूछने
लगी अरी सखी क्या हो गया बता तो सही? तेरी प्रसन्नता का कारण
क्या है? वह सखी जानकी जी से कहने लगी अरे जानकी जी आप यह
प्रतिमा की पूजा बाद में करना चलो मैं पहले साक्षात देवता का दर्शन आपको करवाती
हूं। और वह सखी कहने लगी-
देखन
बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।
सुंदर दो राजकुमार बाग देखने आए हैं
वह इतनी सुंदर हैं की वाणी के द्वारा उनके सौंदर्य का वर्णन करना संभव नहीं है।
क्योंकि जिन्होंने देखा है वह वाणी से बखान नहीं कर सकते और जो बखान कर पा रहे हैं
मानो उन्होंने जी भर के उनको देखा ही नहीं है। जब इस प्रकार उस सखी ने वर्णन किया
है तब सीता जी के हृदय में बड़ी उत्कंठा हुई उनको देखने के लिए। माता-सीता तो जगत
जननी भवानी हैं वह तो जानती हैं सब कुछ लेकिन फिर भी वह लीला कर रहे हैं।
एक सखी कहने लगी यह वही राजकुमार हैं
जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं और जिन्होंने अपने रूप मोहिनी
डालकर नगर के स्त्री पुरुषों को अपने वश में कर लिया है। जहां जाओ वहीं उन दोनों
के सौंदर्य छवि का वर्णन हो रहा है तो चलो उनको चलकर हमें देखना चाहिए।
तासु
वचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।
उस सखी के वचन सीता जी को बड़े ही प्रिय
लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उस सखी को आगे करके सीता जी भी उनको
देखने के लिए चलती हैं। यद्यपि यह तो सदा सदा के ही दोनों साथी हैं। छीरसागर के
फिर भी पुरातन प्रीति को कोई जान नहीं पाता। सज्जनों जब फुलवारी की तरफ माता जानकी
आने लगती हैं तो उनके शरीर के आभूषण ऐसे शोभायमान हो रहे थे।
कंकन
किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।
कंगन ,करधनी और पायल की
ध्वनि सुनकर भगवान राघव पुष्प चयन करना बंद कर दिए और उसी दिसा में टकटकी लगाकर
देखने लग गये जहां से ध्वनि आ रही थी। प्रभु ने लक्ष्मण जी को सावधान भी किया कि
हे लक्ष्मण यह ध्वनि ऐसी आ रही है मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके
नगाड़े पर चोट मारी हो।
मानहुँ
मदन दुंदुभी दीन्ही।