शिव पुराण कथा हिंदी में-24 shiv katha pradan kijiye
उसी समय-
आविर्बभूव पुरतो मेनाया निजरूपतः।
आद्याशक्ति सती शिवा देवी मैना के सामने अपने रूप
में प्रकट हो गईं।
बोलिए आदिशक्ति जगदंबा की जय
वसन्तर्तौ मधौ मासे नवम्यां मृग धिष्ण्यके।
अर्धरात्रे समुत्पन्ना गङ्गेव शशिमण्डलात्।। रु•पा•6-32
भगवती वसंत ऋतु के चैत्रमास में नवमी तिथि को
मृगशिरा नक्षत्र में आधी रात के समय चंद्र मंडल से गंगा की भांति प्रकट हुईं।
उस समय भगवती के प्रगट होने पर शंकर जी प्रसन्न हो गए और अनुकूल
गंभीर ,सुगंधि तथा शुभ वायु बहने लगी। उनके प्रगट होते ही
हिमालय के नगर में समस्त संपत्ति स्वतः आ गई तथा लोगों का सारा दुख दूर हो गया।
उस समय पावन अवसर पर विष्णु आदि समस्त देवता सुखी होकर वहां पर आ गए
और प्रेम से जगदंबा का दर्शन करने लगे और उनकी स्तुति प्रणाम कर अपने अपने धाम को
चले गए ।
ब्रह्माजी बोले- नारद जी तब तो वह देवी कन्या रूप होकर सांसारिक
कन्याओं की भांति रुदन करने लगी। उस कन्या के रुदन को सुनकर नगर की स्त्रियां
तुरंत ही वहां दौड़ी आई ।
हिमाचल भी यहां पुत्री का जन्म सुनते ही अत्यंत आनंदित हो गए,
नगर की नर नारियां उत्सव करने लगे । नाच गान एवं बाजे बजने लगे ।
हिमाचल ने विधिपूर्वक जात कर्म किया ,ब्राह्मणों को दान दिए।
याचकों को मुह मागी वस्तुएं देकर प्रशन्न किया फिर शुभ मुहूर्त में कन्या का नाम
संस्कार हुआ।
मुनि जनों ने जगदंबा, तारा, महाविद्या, काली आदि अनेकों नाम बताए। चंद्रमा की
कला की तरह हिमाचल पुत्री अब धीरे-धीरे बड़ी होने लगी ,उनके
अंग प्रत्यंग चंद्रमा की कला एवं बिंब के समान अत्यंत शोभायमान होने लगे ।
गिरिजा अपनी सहेलियों के साथ खेलने भी लग गई, उन्होंने
अपना प्रभाव छुपा रखा था। गंगा जी की रेती से घर बना बना कर तथा गेंद से खेलने लगी
और भी अनेकों वेश बदल बदल कर क्रीडाएँ करने लगी।
फिर पढ़ने के समय में गुरुजी के पास जाकर परम प्रसन्नता से ध्यान
लगाकर पढ़ने लगी। जिस प्रकार शरद ऋतु में हंस पंक्ति गंगा को तथा रात्रि में
अमृतमयी चंद्र किरणों औषधियों को प्राप्त होता है। उसी प्रकार उन पार्वती को
पूर्वजन्म की विद्यायें स्वयं प्राप्त हो गई।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद!
एकदा त्वं शिवज्ञानी शिवलीला विदां वरः।
हिमाचल गृहं प्रीत्यागमस्त्वं शिव प्रेरितः।। रु•पा•8-1
एक समय की बात है आप शिव जी से प्रेरित होकर प्रसन्नता पूर्वक हिमालय के घर गए
। आप शिव तत्व के ज्ञाता और शिव लीला के जानकारों में श्रेष्ठ हैं। हे मुने
गिरिराज हिमालय ने आपको देखकर प्रणाम करके आपकी पूजा की और अपनी पुत्री को बुलाकर
उनसे आपके चरणों में प्रणाम करवाया।
हे मुनीश्वर -तत्पश्चात स्वयं नमस्कार करके हिमाचल अपने सौभाग्य की
सराहना कर के मस्तक झुकाकर हाथ जोड़कर आपसे कहने लगे- हे ब्रह्मा के पुत्रों में
श्रेष्ठ आप सर्वज्ञ हैं, दयामय और दूसरों के उपकार में लगे
रहने वाले हैं।
मत्सुताजातकं ब्रूहि गुणदोष समुद्भवम्।
कस्य प्रिया भाग्यवती भविष्यति सुता मम।। रु•पा•8-5
गुण दोष को प्रकट करने वाले आप मेरी पुत्री के जन्म फल का वर्णन कीजिए। मेरी
सौभाग्यवती पुत्री किसकी पत्नी होगी ? नारदजी बोले-
हे शैलराज,हे मेने आप की यह पुत्री चंद्रमा की आदि कला के
समान बढ़ रही ,यह समस्त गुणों से संपन्न है । यह अपने पति के
लिए अत्यंत सुखदायिनी, माता-पिता की कृति को बढ़ाने वाली-
महासाध्वि च सर्वासु महानन्द करी सदा।
समस्त नारियों में परम साध्वी और स्वजनों को सदा महान आनंद देने वाली होगी ।
हे गिरे आप की पुत्री के हाथ में उत्तम लक्षण विद्यमान हैं।
एका विलक्षणा रेखा तत्फलं शृणु तत्त्वतः।
केवल एक रेखा विलक्षण है, उसका फल यथार्थ रूप से सुनिए। इसे ऐसा पति
प्राप्त होगा जो-
योगी नग्नो२गुणोकामी मातृतातविवर्जितः।
अमानो शिववेषश्च परिरस्याः किलेदृशः।। रु•पा•8-11
योगी, नग्न, निर्गुण,
निष्काम ,माता-पिता से रहित, मान विहीन और अमंगल वेषवाला होगा। नारद जी की बात सुनकर मैना तथा हिमालय
दोनों पति-पत्नी बहुत दुखी हुए । लेकिन जगदंबा शिवा पार्वती यह सारे लक्षण तो मेरे
शिवजी में है ऐसा सोच कर बहुत प्रसन्न हुई ।
इधर दुखी मन से हिमालय ने श्री नारद जी से कहा मुनिवर मैं क्या उपाय
करूं कि यह दोष हट जाएं मेरी पुत्री के जीवन से । तब नारदजी बोले- हे गिरिराज
सुनिए मेरी बात सच्ची है ,झूठ नहीं होगी हाथ की रेखा ब्रह्मा
जी की लिपि है । निश्चय ही वह मिथ्या नहीं होती है।
परंतु आप इसके उपाय को प्रेम पूर्वक सुनिए जिसे करके आप सुख प्राप्त
करेंगे ।
तादृशोस्ति वरः शम्भुः लीलारूप धरः प्रभुः।
कुलक्षणानि सर्वाणि तत्र तुल्यानि सद्गुणैः।। रु•पा•8-19
उस प्रकार के वर तो लीला रूप धारी प्रभु शिव ही हैं ,उनमें समस्त कुलक्षण सद्गुणों के समान ही हैं ।
प्रभौ दोषो न दुःखाय दुःखदो त्यप्रभौ हि सः।
रवि पावक गङ्गानां तत्र ज्ञेया निदर्शना।। रु•पा•8-20
समर्थ पुरुष में दोष दुख का कारण नहीं होता ,असमर्थ में वही
दुख दायक होता है। इस विषय में सूर्य, अग्नि और गंगा का
दृष्टांत जानना चाहिए।
इसलिए आप विवेक पूर्वक अपनी कन्या को शिव को अर्पण कीजिए । भगवान
शिव सर्वेश्वर सब के सेव्य, निर्विकार, सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं। विशेषतः वे तपस्या से वश में हो जाते हैं ।
अतः यदि शिवा तप करें , तो शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले शिव
उसे अवश्य ग्रहण कर लेंगे।
सर्वेश्वर शिव सब प्रकार से समर्थ तथा वज्र लेख का भी विनाश करने
वाले हैं। ब्रह्मा जी उनके अधीन है तथा वे सब को सुख देने वाले हैं। इस प्रकार
नारद जी कहकर वहां से चले गए।
( पार्वती का स्वप्न )
कुछ समय के बाद एक बार मैना ने हिमाचल के पास प्रणाम किया फिर
नम्रता से बोली- हे देव पार्वती का अब विवाह हो
विवाहं कुरु कन्यायाः सुन्दरेण वरेण ह।
इस गुणवती सुंदर कन्या को इसके समान ही वर मिले तभी ये प्रशन्न रह सकेगी।
हिमाचल बोले- देवी तुम इस प्रकार संसय ही मत करो नारद वचन कभी असत्य नहीं होते।
यदि अपनी पुत्री से प्रेम करती हो तो, पुत्री को
भगवान रुद्र की प्रसन्नता के लिए तप करने के लिए कहो ।
जब भगवान रुद्र ही प्रसन्न होकर उसे अपनी पत्नी बनाना स्वीकार कर
लें तो उनके बुरे लक्षण भी उत्तम एवं शुभ होंगे इतना सुनकर मैना प्रसन्न हो गई।
किंतु उमा की सुंदरता देख कर मन व्याकुल सा हो गया और आंखों से अश्रु धारा बह चली
।
मुख से वाणी ना निकल सकी तब सबके मन का भाव जानने वाली श्री भगवती
उमा जी ने माता के भाव समझकर उन्हें धैर्य देकर कहा-
मातः शृणु महाप्राज्ञेऽद्यतनेऽजमूर्तके।
रात्रौ दृष्टो मया स्वप्नस्तं वदामि कृपां कुरू।। रु•पा•9-17
हे माता जी सुनिए आज की रात्रि के ब्रह्म मुहूर्त में मैंने एक सपना देखा है
उसे बताती हूं ,आप श्रवण करें ! हे माता एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मण ने मुझे
शिव के निमित्त उत्तम तपस्या करने का प्रसन्नता पूर्वक उपदेश दिया है।
यह सुनकर मैना ने वहां शीघ्र अपने पति को बुलाकर पुत्री के देखे हुए
उस सपने को पूर्ण रूप से बताया । तब गिरिराज बड़े प्रसन्न हुए और मधुर वाणी से
पत्नी को समझाते हुए कहने लगे-
हे प्रिये पररात्रान्ते स्वप्नो दृष्टो मयापि हि।
हे प्रिये मैंने भी रात के अंतिम प्रहर में एक सपना देखा है सुनो- नारद जी
द्वारा बताए गए वर के अंगों ( लक्षणों ) को धारण करने वाले एक परम तपस्वी
प्रसन्नता के साथ तपस्या करने के लिए मेरे नगर के निकट आए हैं। तब मैं अति प्रसन्न
होकर अपनी पुत्री को साथ लेकर वहां गया, उस समय मुझे
ज्ञात हुआ कि नारद जी के द्वारा बताए हुए वर भगवान शंभू यही हैं।
यह स्वप्न कहकर गिरिराज मैना शुद्ध चित्त हो कुछ काल पर्यंत स्वप्न
फल की प्रतीक्षा करने लगे। ब्रह्माजी बोले- नारद उधर भगवान शंकर अपनी प्राणेश्वरी
श्री सती जी के विरह में व्याकुल होकर अपने गणों से श्री सती के अनेकों गुण एवं
उनकी सुशीलता आदि सुनकर कुछ दिन कैलाश पर विराजमान रहे। फिर-
दिगम्बरो बभूवाथ त्यक्त्वा गार्हस्थ्य सद्गतिम्।
गृहस्थ धर्म को त्याग कर नग्न होकर कुछ समय तक सब लोकों में घूमते रहे । इसके
बाद कैलाश पर वापस पधारे फिर वहां आकर समाधि धारण कर ली। कुछ समय बाद सदाशिव समाधि
से जग गए, समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिर
पड़ी।
तब तो उससे एक बालक प्रगट हो गया ,जिसका लाल
वर्ण था चार भुजाएं थी और सुंदर था। वह प्रकट होते ही रोने लगा उसे देखकर संसारी
मनुष्यों की भांति सदाशिव उसके पालन-पोषण का विचार करने लगे ।
उस समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई और बालक को अपनी गोद में
लेकर उसे दूध पिलाकर उसका मुख चुम्बन तथा उसे लाड लड़ाने लगी। वही स्त्री और कोई
नहीं थी स्वयं पृथ्वी माता आई थी। अंतर्यामी श्री महादेव जी ने समझ लिया तब उससे
बोले पृथ्वी-
धन्या त्वं धरणि प्रीत्या पालयैतं सुतं मम।
इसका पालन पोषण करो यही बालक तुम्हारे पुत्र नाम से विख्यात होगा । सदाशिव के
इन वचनों को सुनकर धरती माता उस बालक को गोद में उठाकर अपने स्थान पर चली गई। वहां
वह सुख पूर्वक उसका लालन-पालन करने लगी।
पृथ्वी के नाम से उसका भौम नाम प्रसिद्ध हुआ। तब वही भौम अपनी
युवावस्था में काशीपुरी आकर बहुत समय तक भगवान शंकर का पूजन करता रहा, इसके बाद उसने शुक्र लोक से भी ऊपर का लोक प्राप्त कर लिया ।
बोलिए काशी विश्वनाथ भगवान की जय