राम कथा हिंदी में लिखी हुई-28 ram katha in hindi lyrics
सखियों ने कहा कि हे रघुवर जी हमारी
सीता जी छोटी हैं इसलिए आप थोड़ा सा झुक जाइए। राघव जी हमारे ठहरे सीधे-साधे वह
झुकने लगे तभी लक्ष्मण ने आंखों से इशारा किया नहीं भैया झुकना नहीं है। राघव जी
नहीं झुके तब सखियों की दृष्टि लखन लाल पर पड़ी विचार किया कि यही कुछ काम बना
सकते हैं। फिर मन में विचार आता है कि ये तो शेषावतार हैं। इन्ही ने ही धरती को
संभाल रखा है तो आग्रह करती हैं आप हमारे जानकी जी की तरफ वाली भूमि को थोड़ा ऊपर
उठा दीजिए जिससे जानकी आसानी से राघव जी के गले पर माला डाल सकें। मां जानकी कह
रही हैं-
तुम
हो लखन शेष अवतारा। तुम्हरे शीष भूमि के भारा।।
महि
ऊपर तनि देहु उठाई। मैं जयमाल सकहु पहिरायी।।
तुम हो लखन शेष
अवतारा। लखन
लाल जी बोले मैया भूमि ऊपर उठाने से बात नहीं बनेगी क्योंकि भूमि उठेगी तो राघव जी
भी उठेंगे। मैया ने कहा कि लखन लाल आप कुछ करिए जिससे राघव जी झुक जाए तब लखन लाल
जी मन में सोचा की राघव जी कैसे झुकेंगे? तो मन में एक बहुत अच्छी
युक्ति आई और लखन लाल जी भरी सभा के मध्य राघव जी के चरणों में एकदम सीधा लेट जाते
हैं दंडवत प्रणाम करते हैं। जैसे ही लक्ष्मण जी को चरणों पर लेटा हुआ देखा राघव जी
झुक गए लक्ष्मण जी को उठाने के लिए और इसी समय माता जानकी हाथों में वरमाला जो ली
हुई थीं वह राघव जी के गले में पहना दीं।
बोलिए
सियावररामचंद्र भगवान की जय
गावहिं
छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।
श्री रघुनाथ जी के हृदय पर जयमाला
देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण प्रकार से सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर
कुमुदों का समूह मुरझा जाता है नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। सभी सज्जन लोग प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर,
मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय जयकार करके आशीर्वाद
देने लगे। बड़े दिव्य व मांगलिक चरित्र लीला का हम सब
दर्शन कर रहे हैं, भगवान श्री राघवेंद्र अपने छोटे अनुज
लक्ष्मण और गुरुदेव विश्वामित्र जी के साथ जनकपुरी में हैं।
महाराज जनक की प्रतिज्ञा के अनुसार
प्रभु राघव ने भगवान शिव के धनुष को भंग किया है। सज्जनो धनुष भंग होते ही जनकपुर
का वातावरण बड़ा दिव्य आनंदमय हो गया। प्रभु श्री राम ने पल भर में उस महान शिव
धनुष को तोड़ दिया। किसी ने पूछा कि भगवान यह लीला किया तो कुछ समझ में नहीं आया
कि वह कभी तो पुष्प तोड़न पर भी उनके पसीनो के बूंद झलक आती हैं और कभी वह महान
शिव धनुष जिसको बड़े-बड़े वीर दस हजार राजा भी मिलकर हिला ना पाए उस धनुष को उठाकर
पल भर में तोड़ दिया। वैसे तो भगवान की लीला समझ से परे है। लेकिन इस प्रसंग पर
संतों का बड़ा सुंदर भाव है धनुष प्रतीक है अहंकार का और प्रभु अहंकार को तोड़ने
में पल भर की भी देरी नहीं लगाते।
यहां धनुष टूटने के बाद जैसे ही माता
जानकी प्रभु राघव के गले पर जयमाला डालती हैं, चारों तरफ उत्सव होने लग
गया। जय जयकार होने लगी, पुष्पों की वर्षा होने लगी। इसी समय
वहां पर बैठे हुए जो अभिमानी राजा थे वह वाद विवाद करने लग गए। कहने लगे सीता को
छीन लो यह दोनों राजकुमारों को बंदी बना लो तो वहां पर जो बैठे सभ्य राजा थे साधु
जन थे उन्होंने उनकी बड़ी निंदा की। कहने लगे अरे तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता और नाक तो धनुष के साथ ही चली गई वही
वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? तुम लोगों की ऐसी दुष्ट
बुद्धि है तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखो पर कालिख लगा दी।
देखहु
रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।
ईर्ष्या घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र
भर श्री राम जी की सुंदर छवि को निहार लो नहीं तो लक्ष्मण जी के क्रोध रूपी प्रबल
अग्नि में पतंगे की भांति नष्ट हो जाओगे। जब इस प्रकार से उन साधुजनों ने बताया तो
वह भी प्रभु के अनुपम रूप माधुरी का दर्शन करने लगे। सज्जनो इस संसार में भगवान के
दर्शन रूपी धन,
भजन रूपी धन ही हमारे जीवन का कल्याण कर सकता है और इसका यथार्थ
दर्शन महापुरुष और साधुजन ही करवा सकते हैं। केवल अपने बल से ही इस मार्ग पर कोई
भी समर्थ नहीं है कि चल सके। वह तो कोई बिरला महापुरुष हि हमको उस स्वरूप का ज्ञान
करा सकता है।
वैराग्यवान
महात्माओं की विलक्षण स्थिति होती है।
एक महात्मा अविनाशी
स्वरूपस्मरण में स्वस्थचित्त बैठे थे। एक राजा हाथी पर बैठा जा रहा था। वह बोला -
कहिए महात्मा जी ! आप चुपचाप बैठे हैं, संध्या क्यों नहीं करते?
महात्मा बोले- मेरे परिवार में रोज कोई मरता तथा कोई जन्म लेता है,
इसलिए हर समय मुझे सूतक लगा रहता है, तो मैं
कब संध्या करूं? राजा ने कहाआप त्यागी के पास कहां परिवार है
? महात्मा ने कहा- दुर्गुण और सद्गुण के परिवार हैं। नित
दुर्गुण मरते तथा सद्गुण पैदा होते हैं । महात्मा जी की ज्ञान भरी वाणी सुनकर राजा
प्रभावित हुआ और हाथी से उतर दोनों हाथ जोड़कर महात्मा के चरणों में प्रणाम किया।
महात्मा आशीर्वाद दिये । राजा कहने
लगा- हे संत भगवन! आप महान त्यागी हैं, आपका दर्शन बड़े सौभाग्य से
मिला । महात्मा बोले- नहीं - नहीं, मैं कुछ त्यागी नहीं हूं,
महान त्यागी तुम हो । राजा चौंककर कहने लगा - स्वामी ! मैं महान
त्यागी कैसे हो सकता हूं? महात्मा - तुम महान त्यागी इसलिए
हो कि अक्षय स्वरूपज्ञान धन त्यागकर तुच्छ सांसारिक पदार्थ में ही सन्तुष्ट हो ।
जो त्रयलोक सम्पदा से भी बढ़कर
अविनाशी परमार्थ का त्यागकर कौड़ी-छेदाम के समान मायावी वस्तु ही में सन्तोष रखे
वह कितना महान त्यागी है ! और मैं तो तुच्छ मायिक पदार्थों का त्यागकर अविनाशी, स्वरूपज्ञान
धन का लोभी हूं और उसी की रक्षा में रात-दिन लगा हूं। राजा की और आंखें खुलने
लगीं। राजा ने अशर्फियों की एक थैली महात्मा के सामने रखकर स्वीकार करने का आग्रह
किया ।
महात्मा अपनी नाक को ढक वहां से उठकर
चल दिये और कहा – तुम्हारे रुपये से गन्दगी आ रही है। राजा महात्मा के पीछे
दौड़ादौड़ा चला जाता और कहता - हे महात्मन ! हमारी सेवा स्वीकार कीजिए । महात्मा
एक दुर्गन्धी के पास जा पहुंचे और खड़े हो गये । राजा भी पीछे से पहुंचा ।
दुर्गन्धी से राजा अपनी नाक बन्दकर महात्मा से विनती करने लगा - हे स्वामिन ! यहां
से शीघ्र चले चलें,
क्योंकि बड़ी दुर्गन्धी है ।
महात्मा वहां से जाकर दूसरे स्थान पर
राजा से कहने लगे-जैसे भंगी को पाखाना में रहते-रहते पाखाना की दुर्गन्धी नहीं
ज्ञात होती,
किन्तु जो वह काम नहीं करता, उसको नहीं सहन
होती, वैसे मायावी पदार्थों में रहते-रहते तुम्हें माया की
दुर्गन्धी नहीं ज्ञात होती, किन्तु मुझे तो माया के पास रहा
नहीं जाता। महात्मा के इन वचनों से उस राजा को आत्मज्ञान हो गया और तब से वह अपना
मन भगवान में लगाकर संसार को असत समझने लगा। राजा की अशर्फियों से महात्मा को
गन्दगी नहीं आई; क्योंकि अशर्फियों में गन्दगी नहीं होती ।
वास्तव में राजा के धन-मद को दूर करने के लिए सन्त की यह एक युक्ति थी । इसके
अतिरिक्त धन का अधिक संग्रह दुर्गुण- उत्पादक होने से दुर्गन्ध रूप अर्थात त्याज्य
तो है ही ।
यद्यपि गृहस्थ-विरक्त सबको शारीरिक निर्वाह
मायिक वस्तुओं से ही लेना पड़ता है; किन्तु विवेकवान माया को
अपनी दासी बना लेते हैं और अविवेकी माया का दास स्वतः बन जाता है। जो विवेकवान
गृहस्थ तथा सन्त लोकहिताय कार्यों में प्रवृत्ति लेते हैं उनके पास धन पैसे का
स्वाभाविक आदान-प्रदान तथा सामान्य- विशेष संग्रह भी रहता है; परन्तु वे उससे सर्वथा अनासक्त रहते हैं । इसलिए जो भक्त जन है उनको
अत्यधिक संग्रह से दूर रहना चाहिए। और यदि धन का संग्रह हो भी तो उस धन को
लोकहिताय कार्यों के लिए निरभिमान तथा अनासक्ति पूर्वक उसका सदुपयोग करता रहे।
इधर सज्जनो महाराज जनक जी के मिथिला
नगरी पर बड़ा सुंदर उत्सव चल रहा है। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था उसी समय अचानक से।
तेहिं
अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा।।
शिव जी के धनुष का टूटना सुनकर
चमचमाता फर्सा लेकर परशुराम जी वहां पर प्रकट हो गए। परशुराम जी का आगमन कब हुआ
जयमाल पहनाने के बाद- कूर कपूत मूढ़ कुटिल महीपति। आए थे और राम लक्ष्मण जी से युद्ध करके सीता जी की
जबरदस्ती अपहरण की तैयारी कर रहे थे। श्री लक्ष्मण जी सक्रुद्ध हो गए थे। ठीक इस
मौके पर परशुराम जी रंगमंच पर आते हैं। कवि उनका चित्र खींचते हैं।
भृकुटी
कुटिल नयन रिस राते।
परशुराम जी क्रोध के कारण भौहें
टेढ़ी और आंखें क्रोध से लाल हैं, देखने से ही जान पड़ रहा है कि वह भारी
क्रोध में हैं।
गौरि
सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।
भगवान परशुराम जी का बड़ा ही अनुपम
स्वरूप है सर पर सुंदर जटाएं गौर वर्ण पर भस्मी रमा रखे हैं और विशाल ललाट पर
त्रिपुंड वह विशेष शोभा दे रहा है। उनके विशाल भुजाएं हैं, सुंदर
यज्ञोपवीत धारण किए हुए हैं। हाथ पर धनुष बाण और कंधे पर फरसा धारण किए हुए हैं।
परशुराम जी को देखते ही सब राजा लोग वहां पर आए भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और।
पितु
समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।
पिता सहित अपना अपना नाम कहकर उनको दंडवत प्रणाम करने लगे। परशुराम जी जिसकी ओर क्रोध से देख लेते बस उसको यही लगता मानो मेरी आयु पूरी हो गई।