शिव पुराण कथा हिंदी में-26 shiv kathanak pdf
आप कृपा करके
क्रोध शांत करें तथा दुखित रति को समझाने की कृपा करें । तब सदाशिव बोले- ऋषियों
तथा देवताओं अब तो मेरे क्रोध के कारण जो कुछ हो गया सो हो गया , उसका कुछ नहीं हो सकता। हां कामदेव उत्पन्न होगा
जरूर लेकिन- जब यदुवंश में भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेंगे, तब
उनके पुत्र के रूप में हे रति तुम्हारा पति जन्म ग्रहण करेगा।
जब यदुवंश कृष्ण अवतारा। होहिंह हरण महामहिभारा।
कृष्ण तनय होहिंह पति तोरा। वचन अन्यथा होहिं न मोरा।।
श्री कृष्ण भगवान रुक्मणी के साथ विवाह करके
द्वारिका पहुंचेंगे तब कामदेव का भी जन्म होगा। जिसका नाम प्रद्युम्न होगा।
सम्ब्रासुर सुर नामक एक दानव आकर उसे चुरा ले जाएगा उसे समुद्र में फेंक देगा और
रति उसी संब्रासुर के नगर में निवास करेगी। वही समुद्र में फेंका हुआ इसका पति
वहाँ आकर इसे मिल जाएगा।
सदाशिव बोले- देवताओं कामदेव शीघ्र ही जीवित हो जाएगा और मेरा गण
होकर आनंद करेगा। यह वृतांत किसी से मत कहना , मैं शीघ्र
तुम्हारे दुख हर लूंगा । यह कहकर शंकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए और देवता गण भी
अपने-अपने लोक को चले गए ।
( शिवजी की क्रोधाग्नि की शांति )
ब्रह्माजी बोले- नारद जी भगवान शंकर तीसरे नेत्र की अग्नि द्वारा
काम के भस्म हो जाने पर, त्रिलोकी के चराचर जीव डरकर मेरे
पास आए उन्होंने अपना कष्ट आकर सुनाया। तब ब्रह्मा जी भगवान शंकर के पास गए,
उनकी क्रोध की अग्नि भड़क रही थी ।
उस भयंकर अग्नि को मैंने शिव कृपा से रोककर हाथ से पकड़ लिया और
समुद्र के पास पहुंचा। समुद्र से मैंने कहा- यह शिव की क्रोधाग्नि से त्रिलोकी जल
जाएगी, इस कारण मैं इसे रोक कर तुम्हारे पास लाया हूं ,
तुम इसको सृष्टि के प्रलय काल तक इसे धारण किए रहो।
ब्रह्मा जी के कहने पर समुद्र ने उस अग्नि को अपने अंदर धारण कर
लिया और ब्रह्मा जी अपने लोक में चले गए ।
( पार्वती को नारद जी का उपदेश )
श्री पार्वती जी जब कामदेव के भस्म होने पर घर पहुंची तो उन्हें
भगवान शंकर का बिरह व्याकुल करने लगा।
जगाम शोकं शैलेशो सुतां दृष्ट्वातिविह्वलाम्।। रु•पा•21-8
वे शंभू के विरह से रो रही थीं, अपनी पुत्री
को अत्यंत बिह्वल देखकर शैलराज हिमवान् को बड़ा शोक हुआ। वे शीघ्र उनके पास पहुंचे
और पार्वती जी को समझाने लगे । तब उसी समय लोकों में भ्रमण करते हुए नारद जी वहां
पहुंचे ।
हिमालय ने उनका स्वागत किया, उत्तम आसन पर
बिठाला तब नारदजी हिमालय से इतना ही बोले- कि शिव का भजन करो । फिर नारद जी उठकर
पार्वती पास आए और बोले- पार्वती जी बिना तपस्या किए हुए भगवान शंकर की तुमने सेवा
कि, इससे तुमको अभिमान हो गया था।
तुम्हारे उसी अभिमान को तोड़ने के लिए ही सदाशिव ने ऐसा किया। अब
तुम उनकी प्राप्ति के लिए बहुत समय तक तप करो ,जिससे प्रसन्न
होकर सदाशिव तुम्हें स्वीकार करें।
इतना सुनकर श्रीपार्वती जी बोलीं- ऋषि मुनिराज आप परोपकार परायण हो,
कृपा कर शिव आराधना के लिए- मुझे मंत्र प्रदान करें। क्योंकि-
न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सदगुरुं विना।
सदगुरु के बिना किसी की कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं होती, तब नारदजी ने कहा- हे देवी में तुम्हें पंचाक्षर मंत्र कहता हूं उसका जप
तप करो-
इति श्रुत्वा वचस्तस्याः पार्वत्याः मुनि सत्तमः।
पंचाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्व मुपादिशः।। रु•पा•21-35
ॐ नमः शिवाय - यह मंत्र सब मंत्रो का राजा है और सब कामनाओं को पूर्ण करने
वाला है । इसे विधि पूर्वक जपने से तुम्हें साक्षात शिव के दर्शन होंगे। ऐसा उपदेश
करके नारद जी चले गए।
इधर
पार्वती जी ने विचार किया कि, शिवजी तपस्या द्वारा प्रसन्न होते हैं तो
अपने माता-पिता से बोली मैं तप करना चाहती हूं । तप के द्वारा ही मेरे शरीर ,स्वरूप ,जन्म एवं वंश आदि की सफलता होगी। इसलिए आप
मुझे तप करने की आज्ञा दे दें।
यह सुनकर हिमाचल बोले- कि हे पुत्री मुझे तो तुम्हारा विचार बहुत
अच्छा प्रतीत होता है ,तुम अपनी माता से भी जाकर पूछ लो यदि
वह आज्ञा दे दें तो बहुत उत्तम होगा। यह सुनकर पार्वती मैना माता से पूछने लगी,
माता जी आप मुझे तप करने की आज्ञा दे दें, मैं
कल प्रातः काल होते ही वन में तप करने के लिए चली जाऊंगी।
यह सुनकर मैना अतीव दुखित होकर बोली-
दुःखितासि शिवे पुत्रि तपस्तप्तुं पुरा यदि।
तपश्चर गृहेद्य त्वं न बहिर्गच्छ पार्वति।। रु•पा•22-19
हे शिवे- हे पुत्री यदि तुम दुखी हो और तपस्या करना चाहती हो तो घर में ही
तपस्या करो। हे पार्वती वन में मत जाओ, वन में रहने से
अनेकों दुख होते हैं। इस प्रकार की अनेको बातें कहकर मैना ने उमा देवी को वन जाने
से रोका।
तब तो उमा देवी अत्यंत दुखी हो गई, उसे इस
प्रकार दुखित एवं क्लेश में देखकर अंत में मैना ने उमा देवी को तप करने की आज्ञा
दे दी । तब अत्यंत आनंद पाकर अपने माता-पिता तथा सखी सहेली सब को यथोचित प्रणाम
आदि करके, उनसे आशीर्वाद पाकर तप के लिए चल पड़ीं।
कुछ दूर पर जाकर उन्होंने वस्त्र आभूषण आदि उतार दिया और वत्कल
मृगचर्म आदि धारण कर उसी स्थान पर पहुंची, जहां सदाशिव ने तप
किया था। वहां पृथ्वी को शुद्ध कर वेदी बनाकर अपनी इंद्रियों को वश में करके,
मन को एकाग्र कर कठिन तप करना आरंभ कर दिया।
गर्मी के दिनों में चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठकर मंत्र जपती,
वर्षा का कष्ट सहकर शीतकाल में शीतल जल में बैठकर मंत्र जपतीं। सब
मनोरथ के पूर्ण करने वाले भगवान शंकर के ध्यान में मग्न होकर मंत्र जपने लगीं।
दुःखं च विविधं तत्र गणितं न तयागतम्।
पार्वती जी के ऊपर अनेक प्रकार के दुख आए, परंतु उन्होंने
उनकी कुछ भी परवाह ही नहीं कि। इस प्रकार तप करती हुई देवी ने पहले फलाहार से फिर
पत्ते के आहार से क्रमशः अनेक वर्ष बिताए। फिर पार्वती जी ने पत्ते भी खाना छोड़कर
सर्वथा निराहार रहकर तपस्या में लीन रहने लगीं।
आहारे त्यक्तपर्णाभूद्यस्माद्धिमवतः सुता।
तेन देवैरपर्णेति कथिता नामतः शिवा।। रु•पा•22-49
जब उन हिमालय पुत्री शिवा ने पत्ते खाना भी छोड़ दिया तब वे शिवा देवताओं के
द्वारा अपर्णा कही जाने लगी।
बोलिए अपर्णा माता की जय
शिव जी के चिंतन में लगी हुई पार्वती जी ने तपस्या के द्वारा
मुनियों को भी जीत लिया। इस प्रकार घोर तप करते हुए देवी को-
त्रीणि वर्षसहस्राणि जग्मुः काल्यास्तपोवने।
तीन हजार वर्ष इस तपोवन में तप करते बिता दी और इसी स्थान में-
षष्टि वर्ष सहस्त्राणि यत्र तेपे तपो हरः।
शंकर भगवान ने साठ हजार वर्ष तक तपस्या की थी, उस स्थान में
कुछ क्षण रुककर वे अपने मन में विचार करने लगीं। हे महादेव क्या आप तपस्या में
संलग्न हुई मुझे नहीं जानते? जो कि तपस्या में लीन हुए इतने
वर्ष बीत गए फिर भी आपने मेरी सुध नहीं ली !
देवी कहने लगी- यदि मैं अपनी सारी कामनाओं का त्याग कर मात्र
वृषभध्वज शंकर में अनुरक्त हूं तो वह शंकर मुझ पर प्रसन्न हों। इस तरह अपने मन में
सोचते हुए नीचे की ओर मुख किए निर्विकार होकर दीर्घकाल तक तप किया। उनकी तपस्या
देखकर सब देवता ऋषि मुनि विस्मय में पड़ गए और कहने लगे-
अस्मात्तपोधिकं लोके न भूतं न भविष्यति।
संसार में इस तप से बढ़कर तप ना हुआ है और ना कभी होगा। ब्रह्माजी बोले- हे
महर्षे अब आप जगदंबा पार्वती जी की तपस्या के अन्य बड़े प्रभाव को सुनिए, जो महान आश्चर्यजनक चरित्र है । पार्वती जी के आश्रम में रहने वाले समस्त
जंतु जो स्वभाव से ही परस्पर विरोधी थे वह भी उनकी तपस्या के प्रभाव से वैर रहित
हो गए।
निरंतर राग द्वेष से युक्त रहने वाले वे सिंह और गाौ आदि भी वहां
उनकी तपस्या की महिमा से परस्पर बाधा नहीं करते थे। मर्जार ( बिल्ली ) मूषक ( चूहा
) भी अपने बैर को छोड़ आपस में साथ रहते।
वह संपूर्ण वन ही उनकी तपस्या का रूप हो गया, पार्वती
जी की तप से त्रिलोकी तप उठी। देवता, दानव, ऋषि ,मुनि ,गंधर्व, सिध्द, विद्याधर आदी सभी व्याकुल इंद्र आदि लोकपालों
को साथ लेकर ब्रह्मा जी के शरण में गए और बोले- हे ब्रह्मन आपके द्वारा बनाया यह
ब्रह्मांड कितना संतप्त हो रहा है । उससे दुखित होकर हम सब आप की शरण में आए हैं।
देवताओं के इस प्रकार कहने से ब्रह्मा जी ध्यान द्वारा पार्वती जी
के तप को जान लिया और ब्रह्मा जी सब देवता के साथ छीर सागर में जा पहुंचे वहां
सुंदर आसन में विराजमान विष्णु जी से कहा- इस समय श्री पार्वती जी भगवान शंकर की
प्राप्ति के लिए कठोर तप कर रही हैं। उसी तप द्वारा त्रिलोकी तप्त हो रही है,
हम दुखी होकर आप की शरण में आए हैं हमारी रक्षा करिए।
विष्णु जी बोले- देवताओं आप लोगों का कष्ट मैंने जान लिया, अब हम सबको मिलकर भगवान शंकर की शरण में जाना चाहिए, वहां चलकर उनसे प्रार्थना करें कि वह जगत माता पार्वती जी के तप द्वारा
प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वर दें और उनके साथ विवाह करके हम लोगों का कष्ट
निवारण करें ।
भगवान विष्णु के कथन को सुनकर डरते हुए देवता बोले- भगवन हम तो
भूलकर के भी भगवान शंकर के पास नहीं जाएंगे , क्योंकि उनका
क्रोध हमसे सहा नहीं जा सकता । कामदेव को उन्होंने भष्म कर डाला, कहीं हम लोगों को भी भष्म न कर डालें ।
इस प्रकार देवताओं के वचनों को सुनकर समझाते हुए भगवान विष्णु बोले-
देवताओं भय मत करो भगवान शंकर परम दयालु हैं, हमारी अवश्य ही
रक्षा करेंगे । भगवान विष्णु के वचन सुनकर सभी देवता भगवान शंकर के दर्शन के लिए
चल पड़े।