F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

लक्ष्मण जी कहते हैं-

"गला खूब हिमालय के हिम में, गुरुता दृढ़ता वहीं लूट गया
मिथिलेशपुरी मध्य रहा सड़ता रंग रोगन भी सब छूट गया ॥
रघुनाथ ने हाथों में ज्यों ही लिया, सच मानिये काँच सा फूट गया ।
'हरेकृष्ण' न जोर किया कुछ भी, स्वयमेव तड़ा तड़ टूट गया ॥

"सुनहु देव सब धनुष समाना" देव सम्बोधन का भाव = आप महादेव हैं ब्राह्मण देवता हैं आपका यह काम नहीं है अत: आपको कठिन जान पड़ा। हम क्षत्रिय हैं, हमारा काम है हमें सहज-सरल जान पड़ता है, अत: हमारे लिये दोनों समान हैं। यह तो छूते ही टूट गया। लक्ष्मण जी के प्रवचन सुनकर परशुराम जी बोले-

बोले चितय परशु की ओरा। रे सठ सुनेउ स्वभाव न मोरा॥

परशुराम अपने परशु की ओर देख लक्ष्मण को दिखाते हैं कि इसे देखता नहीं, केवल बात काटने के लिये धनुष को तुच्छ बताता है और अपना अलौकिक ख्यापन कर रहा है, इसका उत्तर संग्राम ही है। मेरा स्वभाव संसार में प्रसिद्ध है। यह छोरा हमें कोरा फकीर समझ रहा है, इसलिये फर्से की ओर इशारा हैं। मैं तो बालक जानकर तुम्हें नहीं मारता, क्षत्रिय कुल का द्रोही संसार भर में हूँ।भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और अनेक बार ब्राह्मणें को दे डाला, अरे राजा के लड़के तू अपने माता-पिता को शोक के वश न कर। क्योंकि गर्भ के बच्चों को भी मारने वाला मेरा परशु बड़ा घोर है। लक्ष्मण जी विहंस कर मृदुवाणी बोले- अहो मुनीश्वर अपने को बड़ा योद्धा मानते हो, मुझे बार-बार फरसा दिखलाते हो –

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।

मैंने तो भृगुवंशी समझ और यज्ञोपवीत देखकर क्रोध रोककर सहजता से हूँ, देवता, ब्राह्मण, भगवद् भक्त और गाय पर मेरे कुल में बहादुरी नहीं है । आपको मारकर ब्रह्महत्या कौन ले हमें आपके ब्राह्मणत्व का बड़ा आदर है। लक्ष्मण जी के यह वचन सुनने के बाद परशुराम क्रोध में भरकर विश्वामित्र जी की तरफ देखते हुए उनसे कहने लगे-

अवधेश के ऊधमी बालकों को मिथला पुरीमध्य बुलाया तुम्हीं ने।
अपमान करे गुरू ब्राह्मणों का यह निर्मम पाठ पढ़ाया तुम्हीं ने ॥”
अरे कौशिक शांत क्यों बैठे हुए रस रंग में भंग मचाया तुम्हीं ने।
भला चाहते तो समझाओ स्वयं इतना इसे धृष्ट बनाया तुम्हीं ने ॥

लक्ष्मण जी ने विश्वामित्र जी को रोकने का अवसर ही नहीं दिया, बीच में ही बोल पड़े- यदि इतने से संतुष्टि न हुई तो और कुछ कह डालिये, शूर रण में करनी करते हैं वह कहकर जनाया नहीं करते। अपने प्रताप कथन तो कायर का लक्षण है।

सुनत लखन के बचन कठोरा । परशु सुधारि धरेड कर घोरा ॥

लक्ष्मण के कठोरबचन सुनकर सीधे-सीधे 'कायर' कह डाला इसे सुन कंधे के उस घोर कुठार को सुधार कर वार करने को हाथ में ले लिया फिर भी चलाने इच्छा नहीं। अब मुझे लोग दोष न दें यह कटुवादी बालक वध के योग्य है, मैं लोकापवाद से बचना चाह रहा था कि बच्चे को मार दिया। पर यह सचमुच मरना ही चाहता । मुझे इसे मारने से दोनों दोष लगेंगे, अपकीर्ति भी होगी पर कटुतावादी तो वध के योग्य है।

विश्वामित्र जी ने कहा अपराध क्षमा कीजिये बालक के गुण दोष को साधू नहीं गिनते। बालक अव्यवस्थित चित्त के होते हैं। उनका गुण भी कुछ नहीं, दोष भी कुछ नहीं ? आप साधु हैं। तब परशुराम जी विश्वामित्र जी से कहने लगे मैंने शिव से अस्त्र विद्या पाई है वे ही मेरे गुरू हैं उसी विद्या का उनके शत्रु पर उपयोग करके गुरू से उऋण भी हो जाता। भाव कि इसके मारने से केवल शांति ही नहीं बड़ा भारी लाभ भी था, पर तुम्हारे शील संकोच से गुरू ऋण रह गया।

परशुराम जी आज इतना क्रोधित हैं कि वह यह भी भूल गए- कि कोई चाहे कुछ करे पर गुरू के ऋण से कभी मुक्त हो ही नहीं सकता। तो वह एक कटुवादी बालक का वध करके ये मुनि गुरू के ऋण से मुक्त होना चाहते हैं। सज्जनो अपने हाथ से अपने शरीर का माँस काट-काट कर गुरू के सुख के लिये अग्नि में अपने हाथ से होम किया जाय तो भी गुरू के ऋण के एक सहस्त्रांश से भी मुक्त होना असम्भव है।

सज्जनों गुरु की महिमा अनंत है मनुष्य के कल्याण का रास्ता केवल एक है यथार्थ सद्गुरु की शरण। एक सच्चे सद्गुरु ही हमको कुसंग से बचाते हैं। भगवान विष्णु ने राजा बलि से कहा था कि तुम स्वर्ग या नरक जहां जाना चाहो जा सकते हो, परन्तु नियम यह होगा कि स्वर्ग में तुम्हें सौ दुष्ट मिलेगें और नरक में दस विवेकी मिलेंगे । बलि ने कहा दस नहीं, एक विवेकी के साथ हम नरक जाना स्वीकार करेंगे, परन्तु सौ दुष्टों के साथ स्वर्ग नहीं जाना चाहेंगे, क्योंकि एक ही विवेकी की संगत नरक को स्वर्ग के रूप में बदल देगी, परन्तु सौ दुष्ट स्वर्ग को नरक बना देंगे। बाबा जी कहते हैं-

बरु भल वास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देहु विधाता ॥

बिना गुरु शरण कल्याण नहीं

एक अकामपुर नामक शहर था। वहां का राजा बड़ा दयालु था। वहां जो मनुष्य एक बार चला जाता था वह धनी व सुखी हो जाता था; क्योंकि वहां थोड़े दाम में ही बहुमूल्य वस्तुएं मिलती थीं । किन्तु उस शहर में जाने का एक ही मार्ग था और शहर के चारों ओर से कांटा - खाईं और जंगल तथा पर्वत थे। एक बार कई सौदागर अपनीअपनी गाड़ी लेकर उस शहर में व्यापार करने चले । जब शहर के फाटक पर गये तो वहां गाड़ी की चुंगी लगती थी। कुछ लोग तो तुरंत चुंगी देकर शहर में चले गये, कुछ लोग पैसे के लोभवश गाड़ी शहर में नहीं ले गये। शहर में जाने का कोई दूसरा मार्ग खोजने लगे। रात भर कांटा - खाईं में दौड़-दौड़कर मार्ग ढूंढ़े, किन्तु दूसरा मार्ग न मिला।

ऊपर से जाड़े में दुखी हुए। प्रात:काल दो-चार सौदागर विचार करने लगे कि "बिना चुंगी देकर सदर फाटक से गये किसी भांति भी शहर में नहीं प्रवेश कर सकते। चाहे जब हमें शहर में जाना होगा तो सदर फाटक से ही जा सकते हैं, अन्य कोई मार्ग ही नहीं है।" ऐसा सोचकर दो-चार मनुष्य चुंगी देकर शहर में चले गये और बाकी लौट गये ।

सिद्धान्त - गहरी शांति ही मोक्ष है और मोक्ष ही अकामपुर शहर है। उसमें जाने की इच्छा बहुतों को है; किन्तु उसका एक मार्ग गुरुशरण ही है। उसमें सेवा और त्यागकी चुंगी लगती है जिसे लोग देना नहीं चाहते। सांसारिक भोगों के लिए तन, मन, धन सब अर्पण कर देना पड़े, उसमें मनुष्य पिछड़ता नहीं; किन्तु साधना में वह बिलकुल शक्तिहीन बनता है । आखिर गुरु शरण त्यागकर मनुष्य कांटा खाई रूप इन्द्रिय-भोगों में भटककर दुख ही उठाता है। इसलिए इसका जन्मादिक दुख नहीं छूटता ।

शिक्षा - मनुष्यो ! शीघ्र सावधान होओ। करोड़ों कल्प बीत जायं, मनुष्य गुरुशरण बिना आवागमन के रोगों से मुक्त नहीं हो सकता। अतः गुरु शरण लो।

कहेउ लखन मुनि शील तुम्हारा । को नहीं जान विदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भये नीके। गुरू रिनु रहा सोच बड़ जी के ॥

लक्ष्मण जी ने कहा हे मुनि आपका शील को कौन नहीं जानता वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता के ऋण से तो अच्छी तरह उरिन हो ही गए अब गुरु का ऋण रहा जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। वह ऋण आप हमीं से ही उतारना चाहते हैं।

यहाँ ऋण क्या है? एक आचार्य जी बहुत सुंदर भाव है- आयुर्बल ही ऋण है (पं० रामकुमार) इस विषय पर रहते हैं- माता का आयुर्वलरूप ऋण प्रथम चुकाया, अर्थात् माता को प्रथम मारा, इसी से माता को प्रथम कहा, पिता की आज्ञा पाते ही माता की आयु समाप्त कर दी यही उनसे उरिण होना है। पिता से जोर न चला तो सहस्त्रबाहु से वैर करवाके उन्हें मरवा डाला। इस तरह उनके आयुर्बल ऋण को चुकाकर उनसे उऋण हुए, अब रहा गुरूऋण सो उनके ऋण को चुकाने का आपमें सामर्थ्य नहीं है अर्थात् उन अविनाशी शंकर भगवान की आयु समाप्त करने, उनको मार डालने में आप असमर्थ हैं, अत: आपको चिंता है।

एक महानुभाव का मत ऐसा सुना गया कि परशुराम ने भगवान शंकरजी से विद्या पाई थी गुरूदक्षिणा में शंकरजी ने उनसे शेषनाग के कुण्डल इनसे देने को कहा। अत: ये उसमें असमर्थ रहे क्योंकि शेष के पास से कुण्डल लाना इनके लिये असम्भव था। वही कुण्डल शेषरूपी लक्ष्मणजी के कान में पड़े हुए हैं सो उनकी ओर इशारा करके गुरूऋणसे उऋण होना चाहते हैं। माता-पिता से तो शीघ्र उऋण हुए पर गुरू को बहुत दिन हो गये, व्याज भी बहुत बढ़ गया।

लक्ष्मणजी कहते हैं कि मुझे मारकर थोड़े श्रम से ही उऋण होना चाहते हो तो मैं बड़ा सुगम मार्ग बताए देता हूँ। गुरूजी को बुला लाओ, मैं थैली खोल देता हूँ सूद-मूल सब भर लें। भाव यह कि तुम क्या लड़ोगे, गुरूजी को बुलाओ, उनका धनुष तोड़ने से हम दोनों भाई आपके मत से शिव-द्रोही हो गये, वह हमारे मत्थे पर बड़ा ऋण हो गया, इस ऋण को मैं अकेला ही उनका पेट भरके चुका दूँगा, सारांश यह है कि आपके साथ युद्ध करना अधर्म है।

लक्ष्मण जी की यह बात सुनते ही परशुराम जी क्रोध से अपना परसु उठा लिए। तब श्री राघव जी लक्ष्मण जी को इशारा करके अपने पास बिठा लिए और परशुराम जी से कहते हैं कि नाथ बालक पर दया कीजिए इस पर क्रोध न कीजिए। यदि यह आपका प्रभाव कुछ भी जानता तो यह आपकी बराबरी ना करता। यदि लड़के कुछ डिठाई करते हैं तो गुरु पिता माता उसका उसका आनंद उठाते हैं।

परशुराम जी बोले कि हे राम तुम्हारी ही सम्मति से तुम यह तुम्हारा भाई इस प्रकार कड़वे वचन बोलता है और तुम हाथ जोड़कर छल से विनय कर रहे हो? युद्ध में मेरा सामना करो या फिर राम कहलाना छोड़ दो। भगवान श्री राम ने कहा कि हे भगवन स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे प्रभु मेरा नाम राम मात्र लघुनाम और आपका तो परशु सहित बड़ा नाम परशुराम है।

हे भगवन क्षत्रिय धर्म के अनुसार अगर युद्ध में कोई हमको ललकारे तो हम उसके सामने सर नहीं झुकाते चाहे वह स्वयं काल ही क्यों ना सामने आकर खड़ा हो। लेकिन हमारे रघुकुल की यह भी धर्म है कि ब्राह्मण गुरु के सामने शस्त्र ना उठाएं। ब्राह्मण वंश की ऐसी ही प्रभुता है की जो आपसे डरता है वह सबसे निर्भय हो जाता है। श्री रघुनाथ जी के कोमल और रहस्य पूर्ण वचन सुनकर परशुराम जी की बुद्धि के पर्दे खुल गए। और वह बोले-

राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।

हे राम यह भगवान विष्णु का धनुष हाथ में लीजिए और इसकी प्रत्यंचा खींचकर मेरा संदेह दूर कीजिए। परशुराम जी धनुष देने लगे तब वह अपने आप ही उनके पास चला गया तब परशुराम जी के मन मे और बड़ा आश्चर्य हुआ। परशुराम के धनुष के साथ-साथ प्रभु ने उनके तेज को भी खींच लिया।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-30 ram navami katha in hindi

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