F शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf - bhagwat kathanak
शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

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शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

 शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

तब उन्होंने कहा प्रभु आज्ञा करो उस समय सदाशिव ने कहा ऋषियों पापी तारकासुर देवताओं को अत्यंत पीड़ा पहुंचा रहा है, ब्रह्मा जी उसे वर दे चुके हैं और पार्वती जी ने मुझे पाने के लिए घोर तपस्या की है। उसकी इच्छा अनुसार वर देना कर्तव्य है मैं पार्वती जी के साथ विवाह करना चाहता हूं ।


इससे पूर्व मैं भिक्षुक रूप धारण कर हिमालय के पास गया था उन्होंने मुझे परब्रह्म जाना और अपनी कन्या देने के लिए भी तैयार हो गए । उसके बाद देवताओं की प्रार्थना करने पर फिर मैं ब्राह्मण का रूप धारण कर हिमालय के पास गया , मैंने अपनी निंदा आप ही कर डाली।
जिससे वह मुझसे अब घृणा करने लग गए। अब तो मेरे साथ पार्वती जी का विवाह भी नहीं करना चाहते। इसी कारण तुम लोग शीघ्रता पूर्वक उनके पास जाओ , हिमाचल एवं मैना को समझा कर आओ, जिससे वे मेरे साथ पार्वती का विवाह करा दें ।

यह सुनकर मुनिगण अत्यंत प्रसन्नता के साथ हाथ जोड़ कर चल दिए। हिमाचल सूर्य के समान तेजस्वी मुनियों का दर्शन करके आनंद में उठ खड़े हुए। उनका सत्कार करके उन्हें उत्तम आसन पर बिठाया और कहने लगे मैं धन्य हूँ।

आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हुआ । आप तो पूर्ण काम है किंतु मुझे भी अपना सेवक जानकर कुछ सेवा के लिए आज्ञा करें। मुनि बोले-
जगत्पिता शिवः प्रोक्तो जगन्माता शिवा मता।
तस्माद्येया त्वया कन्या शंकराय महात्मने।। रु•पा•33-1
भगवान शंकर जगत के पिता हैं और पार्वती जी जगत की जननी हैं और तुम श्री पार्वती जी का विवाह भगवान शंकर के साथ करके अपने धर्म को सफल करो।
श्री गौरी जगत की मातु है, पिता शंकर भगवान ।
इन दोनों के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम ।।
ऋषियों के वचन सुनकर हिमाचल बोले- ऋषि गण आप लोग सत्य कह रहे हैं। लेकिन अभी अभी वैष्णव ब्राह्मण ने आकर मुझे शिव के दोष बताकर शिव के साथ पार्वती के विवाह की नाही कर दी है। जिससे पार्वती की माता कोप भवन में चली गई हैं, वह कहती हैं कि मैं अपनी पार्वती का विवाह शिव के साथ कदापि नहीं करूंगी और मेरा भी ज्ञान भ्रष्ट हो चुका है।

इतना सुनकर सप्त ऋषियों ने अरुंधति को मैना के पास भेजा, वहां अरुंधति ने देखा कि मैना शोक मूर्छित होकर पड़ी हुई है । अरुंधति जी ने कहा मैंना उठो वह जब अपने सामने अरुंधति को देखती हैं तो उठकर नमस्कार करती है।
बोली मेरे तो भाग्योदय हो गए जो आप पधारी हैं। आज्ञा करिए मैं आपकी क्या सेवा करूं ? तब तो श्री अरुंधति जी ने मैना को भाति भाति भगवान शंकर के विषय में अनेक प्रकार समझाया।

फिर ऋषियों के पास आई ,इधर ऋषिगण भी हिमाचल को समझा रहे थे कि महादेव संग अपनी पुत्री का विवाह करो । हिमाचल बोले- मैं चाहता हूं कि मेरी पुत्री तो राजपुत्री है, राजाओ जैसे सुख भोगती है । किंतु शिव जी के घर तो धन वैभव आदि कुछ नहीं है।

वहां तो भोजन पदार्थ भी दिखाई नहीं देते, यह कन्या वहां जाकर क्या खाएगी ? क्या सुख भोगेगी? अब आप ही बातों पर विचार करें ।
वशिष्ठ जी बोले- शैलराज तुम शिव स्वरूप को जानते ही नहीं। उनका धनपति कुबेर सेवक है। उनके पास धन की कौन सी कमी है? जो सारे संसार की उत्पत्ति पालन तथा संघार करते हैं उन्हें भोजन का क्या दुख है?

ब्रह्मा विष्णु तो उनके अंग हैं। उन्होंने मुख से सरस्वती , वक्षःस्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से शिवा प्रकट किए हैं । भला उन्हें दुख कैसे हो सकता है?

तुम्हारी कन्या तो अनादि काल से उनकी पत्नी होती रही है एवं होती रहेगी । तुम कन्या देने का वचन देकर अब उससे पीछे ना हटो।
अतस्त्वं स्वेच्छया कन्यां देहि भद्रां हराय च।
अथवा सा स्वयं कान्तस्थाने यास्यत्यदास्यसि।। रु•पा•33-47
आप अपनी इच्छा से इस कल्याणी कन्या को शंकर के निमित्त प्रदान कीजिए। अन्यथा आप नहीं देंगे तो भी वह स्वयं अपने पति के पास चली जाएंगी।

शैलेंद्र यह समझ लो इसमें तुम्हारा एक भी शिखर ना रहेगा, इससे पहले इन्द्र ने पंख काट दिए क्या अब तुम अपने शिखरों को भी नष्ट करना चाहते हो ? केवल कन्या के कारण अपना कुल क्यों नष्ट कर रहे हो?
त्यजेत एकं कुलस्यार्थे श्रुतिरेषा सनातनी।
कुल की रक्षा के लिए एक का त्याग कर देना चाहिए ,यह सनातनी श्रुति है । शास्त्रों के वचन है । पूर्व काल में अनरण्य नामक राजा ने अपनी कन्या ब्राह्मण को देकर उसके श्राप के भय से अपनी संपत्ति की रक्षा की थी ।

अनरण राजा की बात सुनकर हिमाचल कहने लगे- महर्षि अनरण्य राजा की पूरी कथा सुनाइए- वशिष्ठ जी बोले-
मनोर्वंशोद्भवो राजा सोऽनरण्यो नृपेश्ववरः।
इन्द्र सावर्णि संज्ञस्य चतुर्दशमितस्य हि।। रु•पा•34-1

हे गिरिश्रेष्ठ इन्द्र सावर्णि नामक चौदहवें मनु के वंश मे वह अनरण्य राजा उत्पन्न हुआ था। वह अनरण्य भगवान शंकर के प्रिय भक्त थे। सात द्वीपों पर इनका राज्य था, इन्होंने अपने कुल में भृगु जी को आचार्य बनाकर सौ यज्ञ किए थे ।

इनकी पांच रानियां थी ।सौ पुत्र तथा लक्ष्मी के समान परम सुंदरी पदमा नाम की कन्या थी। वह कन्या राजा तथा रानियों को बहुत प्यारी थी। राजा बड़े उदारात्मा थे एक बार सब देवताओं ने कहा आप इंद्र के समान सिंहासन पर बैठ कर स्वर्ग का राज्य करो, किंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया था।

जब इनकी परम प्रिय कन्या विवाह के योग्य हुई तो उन्होंने उसके वर की खोज के लिए चारों ओर पत्र भेजें । चारों ओर वर की तलाश होने लगी ।
इतने में तप करके लौटते हुए पिप्पलाद ऋषि ने एक वन में एक मनुष्य को अपनी स्त्री के साथ विहार करते देख लिया। ऋषि के मन में भी कामना जाग गयी।

वह ऋषि अपने स्थान को गए एक दिन पिप्पलाद पुष्पभद्रा नामक नदी पर स्नान करने गए। वहां अनरण्य की परम सुंदरी कन्या भी आई हुई थी । वह उसकी सुंदरता देखकर मोहित हो गए। ऋषि ने कन्या के आसपास खड़े मनुष्य से उसका परिचय पूंछा।
उन्होंने कहा यह राजा अनरण्य की पदमा नाम की कन्या है। उन्होंने कहा आपका मन इसपर मुग्ध हो गया है क्या ? जाकर राजा से माग क्यों नहीं लेते?

इस प्रकार के हास्य युक्त वचन सुनकर मुनि लज्जित हो गए और अपने दिल में उसे पाने की इच्छा भी कर ली। उसके बाद स्नान नित्यकर्म शिवपूजन आदि कर पिप्पलाद राजा अनरण्य की सभा में चले गए ।

राजा ने मुनि को देखकर प्रणाम किया और विधिवत पूजन करके उनको आसन पर बिठाया। ऋषि से सेवा पूछी ! ऋषि ने राजा से उसकी कन्या की याचना की ! इतना सुनकर राजा चुप हो गए ।
कुछ क्षण के बाद ऋषि फिर बोले- राजन अपनी कन्या शीघ्र ही मुझे दे दो नहीं तो कुल के साथ तुम को भस्म कर दूंगा । इस प्रकार मुनि के कहने पर राजा रोने लगे।

इस बूढ़े ऋषि को कन्या किस प्रकार दी जाए । लोग क्या कहेंगे ? राजा इसी चिंता में घुल रहे थे, उसी समय राजपुरोहित तथा राजगुरु वहां पर आ गए । राजा ने रोते-रोते उस ऋषि का वृतांत सुनाया। पुरोहित तथा गुरुजी बिचार कर राजा से बोले- राजन आपको कन्या का किसी के साथ विवाह तो करना ही है फिर इसके साथ ही विवाह क्यों न कर दें ।

जिससे आपके कुल की रक्षा हो जाए, इन ब्राह्मण द्वारा कुल का विनाश हो जाना अच्छा नहीं । इस प्रकार पुरोहित एवं गुरु के वचन सुनकर बुद्धिमान राजा ने अपने कुल की रक्षा के लिए अपने कन्या को वस्त्र आभूषणों से अलंकृत करके मुनि को अर्पण कर दी।

मुनि भी विधि पूर्वक पदमा के साथ विवाह करके अत्यंत प्रसन्न होकर राजा से विदा होकर अपने स्थान को चले गए। इस शोक में राजा राजपाठ छोड़कर वन में चले गए और तप करके शंकर को प्रसन्न किया और शिवलोक को प्राप्त हो गए।
फिर अनरण राजा के बड़े पुत्र कीर्तिमान राज्य करने लगे । वशिष्ठ जी ने कहा हिमाचल राज इस प्रकार अनरण्य राजा ने अपनी कन्या को देकर अपना कुल धन आदि सबकी रक्षा कर ली। इसलिए अब तुम भी अपनी कन्या शिव को अर्पण करके सब देवताओं को अधीन कर लो ।

ब्रह्माजी बोले- नारद हिमाचल अनरण्य की कथा सुनकर कहने लगे आपने बहुत सुंदर कथा सुनाई है । अब आप कृपा करके पिप्पलाद की कथा सुनावें। पद्मा के साथ विवाह करके ऋषि ने कहां निवास किया और क्या किया ? वशिष्ठ जी बोले- पर्वतराज
पिप्पलादो मुनिवरो वयसा जर्जरोऽधिकः।
गत्वा निजाश्रमं नार्यानरण्यसुतया तया।। रु•पा•35-5
पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, कमर झुक गई थी, कांप कांप कर चलते थे। इस प्रकार बूढ़े मुनि पदमा के साथ विवाह करके अपने कुटिया में निवास करने लगे । वह पद्मा साक्षात लक्ष्मी थी, अपने पति को साक्षात विष्णु समझकर उसकी सेवा करने लगी।

 शिव पुराण कथा हिंदी में-29 shiv kathanak hindi pdf

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