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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-31 bal ram katha in hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-31 bal ram katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-31 bal ram katha in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-31 bal ram katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-31 bal ram katha in hindi

जो उनके अंदर वैष्णव तेज था वह तेज उनको भगवान विष्णु ने ही प्रदान किया था और परशुराम जी से कहा था-

"त्रेतामुखे दाशराधि र्भूत्वा रामोऽहमव्ययः ।
उत्पत्स्यते परमा शक्त्यातदादृक्षासि मांततः ॥”

मत्तेजः पुनरादास्ये त्वयि दन्तंमयापुरा ।

(आध्यात्म रामायण)

भगवान विष्णु ने परशुराम से कहा कि त्रेतायुग में मैं दाशरथि होकर पराशक्ति के सहित अवतीर्ण हँगा ॥ तब जब मुझसे तुम्हारी भेंट होगी तो मैंने जो अपना तेज तुम्हें दिया है उसे लौटा लूँगा। वही उस समय हुआ, रामजी ने अपना तेज परशुराम से खींच लिया, अर्थात ले लिया।

'देतचाप आपुहि चलिगयऊ' - धनुष को देते ही उसके साथ आप ही से परशुराम का वैष्णव तेज निकल कर श्रीराम के मुख में प्रवेश कर गया। वे पाँच कला के आवेशावतार थे, पाँचों कलाएँ ही धनुष के साथ जाकर श्रीरामजी में लीन हो गयीं, अर्थात् अपने में जो शक्ति थी वह भी धनुष के साथ रामजी में चली गयी ।

प्रभु राघव ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और परशुराम जी से बोले कि अब यह निष्फल नहीं जा सकता, तुम ब्राह्मण हो, इससे हम तुम्हें नहीं मारते, बताओ कि हम इससे तुम्हारी गति का नाश करें जिससे तुम जहाँ चाहते हो वहाँ मन की गति से चले जाते हो या जो तुमने अपना लोक-परलोक बनाया है उसे नष्ट करें ।

परशुराम ने प्रार्थना की जो लोकपरलोक हमने उत्पन्न किये हैं, पुण्य किये हैं उनका नाश कर दीजिये हम फिर तप करके बना लेंगे, गति का नाश मत करिये। जब प्रभु राम ने अपना प्रभाव जनाया तब जाने “सोइ जाने जाहि देहु जनाई" परशुराम का तन, मन, बचन में प्रेम हर्षित हो रहा है । यहाँ ध्यान देने की बात है परशुरामजी छठे अवतार हैं । उन्होंने छः ही चौपाई में दोनों भाइयों की स्तुति की है। सातवाँ अवतार जो श्रीराम रघुवीरजी उन्होंने यह सूचित करने के हेतु से सातवें अवतार का त्रिवार जय सातवीं चौपाई में करके तप के लिये चले गये ।

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।

अत: परशुराम ने अब समाज की चिंता छोड़ दी, जिसका समाज है वह आ गया, अब वह ब्राह्मणत्व की रक्षा कर लेगा । राजा लोग डर गये कि जब इनसे परशुराम जी दब गये तो हम लोगों की क्या गिनती है, इसलिये कायर तो इसभाँति निकल गये कि उनका पता भी न लगा कि किधर गये । सभी जनकपुरवासी बड़े प्रसन्न हुए देवता लोग भी फूलों की वर्षा करने लगे ढोल नगाड़े बजाने लगे।

बोलिए परशुराम भगवान की जय ।

श्री राघवेंद्र सरकार की जय

 

(श्री रघुवीर विवाह प्रकरण)

जनक जी ने विश्वामित्र जी को प्रणाम किया और कहा कि प्रभु कृपा से श्री रामचंद्र जी ने धनुष तोड़ा है। आपने यह दोनों भाइयों को यहां लाकर मुझे कृतार्थ कर दिया। हे नाथ अब जो मुझे करना हो उसकी आज्ञा दीजिए? मुनि ने कहा कि हे राजन सुनो वैसे तो यह विवाह धनुष के अधीन था, सो धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सभी को यह विदित है लेकिन फिर भी तुम जाकर अपने कुल के रीति व्यवहार जैसे हो ब्राह्मणों को, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूंछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार है वैसे ही करो।

दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।।
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।

राजा जनक ने आदंदित होकर उसी समय दूत बुलाकर अयोध्या भेज दिया। और महाराजों को बुलाकर नगर की साज-बाजार-मार्ग-मंदिर तथा नगर को चारों ओर से सजाने की आज्ञा दी। उन्होंने नगर आदि को विविध प्रकार से ऐसा सजाया जिसकी विचित्र रचना देखकर ब्राह्माजी का मन भी भूल जाय ।

दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइन बरनि विचित्र बिताना ॥
जेहि मण्डप दुलहिन बैदेही । सो बरनै अस मति कवि केही ॥

जिस मण्डप में साक्षात महालक्ष्मी वैदेही दुलहिन हों उसका वर्णन करने वाला कौन कवि है जो मैंने वर्णन किया वह अत्यन्त अल्प है। जिस मण्डप में रूपगुण सागर रामजी दूल्हा हों वह तीनों लोकों में प्रकाशित है, जनक के घर की शोभा जैसी थी वैसी नगर में घर-घर देखाई पड़ती थी । जहाँ साक्षात् लक्ष्मी माया से स्त्री का सुंदर रूप धारण करके बसती है उसकी शोभा कहने में शारदा, शेष को भी संकोच होगा ।

सज्जनो यहां जनकपुर के दूत श्रीरामचन्द्र जी के पवित्र नगर में पहुँचे, उन्होंने द्वारपालों द्वारा राजदरबार सूचना दी, राजा ने सुनकर उन्हें बुलवा लिया।
दूत पाती लेकर अयोध्या राजा दशरथ के दरबार मे जाता है और कहता है –

हम त पाती लेइके आवत बानी पार से, राजा जनक दरबार से ना ।
हमरा घरवा जनक नगरिया, राजन अइली भूप दुअरिया
मनवा रीझ गइले महिमा अपरम्पार से ...
हमरा राजा जनक के धिया ,जिनकर नाम बाटे सीया
उनकर शादी होइहे कोशल राजकुमार से ....
सिय के शांति रूप जब जनलें,बाबा जनक धनुष प्रण ठनलें
रचना रचले सिया स्वयंवर के विचार से ....राजा जनक ..
जुटले बड़े बड़े भट भूप , धनुहा देखि के बैठे चुप
तिलभर धनुष उठल ना कौनो बीर बरियार से , राजा जनक .....
तहवाँ राजन राउर लाल, पवले धनुष तोड़ जयमाल
तीनो लोक भरल रघुवर के जय जयकार से , राजा जनक ...
पाती लिखल बाटे थोड़ा, जल्दी साजी हाथी घोड़ा
बिनती करजोरी करत बानी सरकार से , राजा जनक ...।।

उन्होंने राजा दशरथ को प्रणाम करके चिट्ठी दी, पत्रिका देख आनन्द में ऐसे लालायित और उत्कंठित हैं कि स्वयं ही उठकर पत्रिका ली, राजमर्यादा यह है कि मंत्री चिट्ठी लेकर पहुँचाते, पर प्रेम के कारण महाराज दशरथ स्वयं उस पत्रिका को पढ़ने लगे ।

बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती।।
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी।।

बारि विलोचन बांचत पाती' 'बाँचत' क्रिया से सूचित होता है कि पूरी चिट्ठी न पढ़ पाये “पुलकगात आई भर छाती।। प्रेम से विह्वल हो गये, हृदय में प्रेम नहीं समाता। सज्जनो पत्र का मिलना आधी भेंट माना गया है। चिट्ठी पढ़ते समय महाराज दशरथ के नेत्रों से आंसुओं की धारा चलने लगी, ऐसा शुभ समाचार, ऐसी प्रसन्नता जिसके कारण महाराज दशरथ का हृदय प्रसन्नता और खुशी से फूल उठा।

महाराज दशरथ ने पूरे अयोध्या में ढोल नगाड़े बजवाए और जनकपुर बारात जाने के लिए सबको संदेश भिजवाया।

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आये भरत सहित हित भाई।।
पूछत अति सनेह सकुचाई । तात कहाँ ते पाती आई ॥

भरत जी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहां खेलते थे वहीं समाचार पाकर वे दौड़े आए। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए वह पूछते हैं पिताजी चिट्ठी कहां से आई है? हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई सकुशल तो हैं? वह किस देश में हैं? यह वचन सुनकर राजा दशरथ जी ने पुन: बाँचकर सुनाया चिट्ठी सुन दोनों भाई पुलकित स्नेह शरीर में समाता नहीं था । राजा दशरथ ने प्रेमाधिक्य के कारण दूत को निकट बैठा कर अनेक प्रश्नोत्तर से श्रीराम-लक्ष्मण की कुशलक्षेम पूछी।

भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।।
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।

इतने प्रश्न एक साथ दूतों को उत्तर देने का मौका भी नहीं दिया, दूत इस अलौकिक प्रेम देखकर आश्चर्य के मारे मुस्कराये। प्रेम में चारों आँखें अंधी होती हैं प्रेम में संबोधन नहीं होता। यह सुनकर दूतों ने कहा महाराज आप धन्य हैं जिनके राम-लक्ष्मन ऐसे विश्वविभूषण पुत्र हैं।

रघुवंशमणि राम ने बिना प्रयास के धनुष को तोड़ डाला, इसे सुन परसुराम आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखाई, रामजी के बल को देखकर अपना धनुष उन्हें दे तप को चले गये । हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखकर के अब और कोई आँख में जचता ही नहीं। दूत के बचन की रचना प्रिय लगी क्योंकि वह प्रेम, प्रताप और वीर रस से पगी थी।

सभा समेत राजा प्रेम में पग गये, दूतों को निछावर देने लगे, अनीति है ऐसा कहकर दूतों ने अपने कान ढ़क लिये, भाव यह है कि उन्होंने कहा हम कन्यापक्ष के हैं हम लेने के अनुकूल कोई युक्ति सुन भी नहीं सकते। हे महाराज दशरथ हम सीता को निज कन्या समझते हैं फिर बेटी का धन कैसे लें ? यह धर्म विचार कर सबने सुख माना। सभी दूतों की स्वामिभक्ति से प्रसन्न हो गये।

तब उठि भूप वशिष्ठ कहुँ, दीन्हि पत्रिका जाय ।
कथा सुनाई गुरूहिं सब, सादर दूत बोलाइ ॥

यदि कोई बात गुरूजी ऐसी पूछें जो महाराज दशरथ को न मालूम हो, इसलिये दूतों का वहाँ रहना आवश्यक था । दूत ही बतला सकते थे सब कथा - 'दलि ताड़का मारि' जो पूर्व लिख चुके हैं वे सब कथा गुरूजी को सुनादी । सुनकर वशिष्ठ मुनि बोले- पुण्यात्मा के लिये पृथ्वी सुख से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को चाह नहीं हैं उसी भाँति सुख सम्पत्ति बिन बुलाए धर्मशील के पास स्वभाव से ही जाती है। तुम गुरू, विप्र, गाय और देवताओं के सेवक हो और कौशल्या देवी भी वैसी ही पवित्र हैं। राजन! तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा जग में न तो कोई हुआ है, न है और न होने वाला है तुमसे अधिक पुण्य किसका जिसको रामजी सदृश पुत्र है। तुम्हारे चारों बालक वीर, विनीत और धर्मव्रत के धारण करने वाले हैं, तुम्हारा सब काल में कल्याण है डंका देकर बरात सजाओ।

चौदहों भुवनों में उछाह भर गया कि जनक की बेटी और रघुवहर का ब्याह है यह शुभ कथा सुनकर लोगों में अनुराग बढ़ा, रास्ता, घर, गली सँवारने लगे, यद्यपि अयोध्यापुरी नित्य ही सुहावनी है फिर भी प्रीति की रीति सुंदर होती है। अयोध्या की सुहागिन स्त्रियां सभी सोलहों श्रृंगार करके मनोहर वाणी से गान करने लगीं और संसार को मोहन करने वाला मंडप छाया गया ।

राजा दशरथ ने भरत को बुलाकर बरात के लिये घोड़े, हाथी, रथ सजवाने को कहा, सुनते ही दोनों भाई पुलक से पूर्ण हो गये। उन सब घोड़ों पर भरतजी के समान आयु वाले छैल छबीले राजकुमार सवार हुए उनके हाथों में धनुषबाण और कमर में तरकस बँधा था। बहादुर पार्श्व रक्षक पैदल थे। विविध प्रकार के घोड़े ऐसे दिखाई पड़ने लगे उनके देखने से विषय विमुख स्थिति प्रज्ञ का भी मन मोहित हो जाय जो थल की भाँति जल पर चलते थे।

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