राम कथा हिंदी में लिखी हुई-32 ram janam katha in hindi
सारथियों ने अस्त्र-शस्त्र सब साजकर
रथियों को बुला लिया,
रथ पर चढ़-चढ़कर नगर के बाहर बरात जुटने लगी और जो जिस कार्य के
लिये जाता था उन सबको सुंदर सगुन होते थे । इसके बाद सुमंत्र ने दो रथ सजाये,
एक वशिष्ठ को और दूसरा राजा दशरथ को, महाराज
ने वशिष्ठजी को रथ पर चढ़ाकर तब अपने रथ पर चढ़े। रामजी का स्मरण करके और गुरू की
आज्ञा पाकर पृथ्वीपति शंख बजाकर चले। देवता बरात देखकर हर्षित हुए वे मंगलदायक
फूलों की वर्षा करने लगे। हाथी घोड़े गरजने लगे, कोलाहल मच
गया। आकाश में और बरात में बाजे बजे, देवियों और नारियों ने
मंगल गान किया और सरस राग से शहनाई बजी । श्रेष्ठ राजकुमार डंके और मृदंग के शब्द
सुन घोड़े को ऐसा नचा रहे हैं कि नगर के नर्तक चकित होकर देखते हैं ताल के बंधान
में चूक नहीं होती।
बनइ
न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।
बरात को चलते समय विविध प्रकार के
शकुन हो रहे हैं नीलकंठ बांई ओर चारा ले रहा है, नेवले का दर्शन भी
सब किसी ने पाया, तीनों प्रकार की शीतल मंद सुगंधित हवा
अनुकूल दिशा में चल रही है। सुहागिनी स्त्रियां भरे हुए घड़े -कलश और गोद में बालक
लिए आ रही हैं। गैया मैया सामने खड़ी अपने बछड़े को दूध पिला रही हैं। हाथ में
पुस्तक लिये दो ब्राह्मण प्रवीण आ पड़े, मंगलमय कल्याणमय
इप्सित फल देने वाले शकुन एक साथ हुए।
ऐसा ब्याह सुन सगुन सब नाच उठे कि अब
ब्रह्मा ने हमें सच्चा बनाया। इस भाँति बरात ने प्रस्थान किया। सूर्यकुल के पताका
को आते हुए जानकर जनक ने रास्ते की नदियों के पुल बनवा दिये थे और रास्ते में उनके
भोजन की व्यवस्था भी कर दी गई थी।
एक और बात अयोध्यावासी जब बारात लेकर
जनकपुर जा रहे थे तो जिस गांव नगर में पहुंचते तो उनसे पूंछा जाता कि महाराज यह
बारात कहां जा रही है?
तो अयोध्या वासियों ने बताया कि जनकपुर, तो
उन्होंने कहा अच्छा तो विवाह की तिथि क्या है? तो सब
अयोध्यावासी एक दूसरे का मुंह देखने लगे क्योंकि किसी को तिथि का पता ही नहीं है
कि विवाह किस दिन है तो बताएं क्या? अगले गांव पर पहुंचे
वहां के लोगों ने पूछा कि अच्छा बारात जनकपुर जा रही है! दूल्हा कहां है? अब बारात में दूल्हा हो तब तो दूल्हे को दिखाया जाए। बारातियों ने कहा
महाराज दूल्हा तो है नहीं लेकिन बारात बस जा रही है। सब हंसी उड़ाने लगे सज्जनों
यह राम जी की बारात बड़ी विचित्र बारात है, इस प्रकार की
बारात किसी की ना हुई होगी ना तिथि का पता है और ना ही बारात में दूल्हा है फिर भी
बारात जा रही है।
अब हर गांव में बस यही पूछा जाता कि
दूल्हा कहां है ?
दूल्हा कहां है? अब हंसी से बचने के लिए
अयोध्या वासियों ने एक युक्ति निकाली। गांव वालों ने आगे वालों से पूछा था तो
उन्होंने यह कह दिया की दूल्हा सबसे पीछे है। यह कहकर उन्होंने अपनी जान तो छुड़ा
लिया, अब गांव वाले भागे-भागे सबसे पीछे पहुंचे पीछे वालों
से पूछा कि दूल्हा कहां है? तो जो पीछे वाले थे वह समझ गए कि
वह खुद बच गए और हम पर डाल दिया तो वह तुरंत बोले कि दूल्हा बीच में है। वह ग्राम
वासी भागकर बीच में पहुंचे कि दूल्हा कहां है?
अच्छा उसी बरात में जो यो वयोवृद्ध
थे, सयाने थे उन्होंने विचार किया की बारात तो अभी लंबी दूरी तय करेगी और इसी
प्रकार सब दूल्हा को पूछेंगे तो सब ने निर्णय किया की बारात में से एक ऐसे व्यक्ति
हैं जिनको दूल्हा बनाया जा सकता है। अच्छा विचार करिए वह कौन हो सकते हैं? तो वह हैं श्री भरत जी।
भरत
राम ही कि अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।
भरत जी राम जी के ही सामान लगते हैं
तो अब सब बताने लगे कि यह दूल्हा है। यह दूल्हा है। जब सब भरत जी की तरफ देखने लगे
तो भरत जी शर्माने लगे विचार करने लगे हम तो हैं नहीं दूल्हा और यह झूठ ही हमें
दूल्हा बना रहे हैं।
बारात में एक और अद्भुत चरित्र हुआ
अब प्रभु श्री राम जी की ही बारात है सभी देवता ब्रह्मा विष्णु महेश उस बारात पर
आए अनेक प्रकार के महात्मा ऋषि मुनि देव सब उपस्थित हुए। तो बारात में मस्त मगन
होकर ब्रह्मा जी भी कमंडल लिए चले जा रहे थे नगर वासियों ने विचार किया कि यह राजा
की बारात है कि यह सब भिखारी ही चले आ रहे हैं क्योंकि लंबी दाढ़ी हाथों में कमंडल
था।
अवध नगरिया से चलली
बरतिया हे सुहावन लागे।
जनक
नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
सब देवतन मिलि चलले बरतिया,
हे सुहावन लागे। बजवा बजेला घनघोर हे, सुहावन
लागे।
सब देवतन मिलि चलले बरतिया,
हे सुहावन लागे। बजवा बजेला घनघोर हे, सुहावन
लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
बजवा के शब्द हुलसे मोरी छतिया हे सुहावन लागे।
चहु दिस भइल बा अजोर हे सुहावन लागे।
बजवा के शब्द हुलसे मोरी छतिया हे
सुहावन लागे।
चहु दिस भइल बा अजोर हे सुहावन लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
कहत र रसिक जन, दूल्हा के सुरतिया हे सुहावन
लागे।
सुफल मनोरथ भइले मोर हे सुहावन लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
जनक नगरीया भइले शोर हे सुहावन लागे।
यहां जैसे ही जनकपुर वासियों ने सुना कि नगर तक बारात आ चुकी है तो
सभी लोग अगवानी के लिए स्वागत के लिए आए हैं।
हरषि
परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।
मानों दो आनंद समुद्र मर्यादा छोड़कर
मिल रहे हैं। राजा दशरथ ने सब स्वीकार किया, सीता ने जाना कि बरात नगर
में आ गई तो अपनी महिमा से सब सिद्धियों को बुलाकर सत्कार करने को भेज दिया। वह
सिद्धियां स्वर्ग लोक की संपदा वैभव को लाकर जनकपुर में अयोध्या वासियों के स्वागत
के लिए स्थापित कर दिया। इस बात को केवल रामजी ने जाना, प्रेम
की पहिचान करके हृदय में हर्षित हुए।
यहां बारातियों को देखकर प्रेम
पूर्वक जनकपुर के लोग उनसे हंसी कर रहे हैं, एक ने कहा की विवाह तो एक
दिन होता है लेकिन यह अयोध्यावासी एक महीने के लिए क्यों चले आए? तो दूसरा कहने लगा अरे तुम जानते नहीं हो यह अयोध्या के लोग हैं वहां इनको
कुछ मिलता तो है नहीं खाने के लिए इसीलिए यह सोचे चलो अच्छा-अच्छा वहां पर खाने को
मिलेगा तो भागे चले आये मिथिला में। सज्जनों यह मिथिला के लोग हैं बारात आई नहीं
की मजाक करना शुरू कर दिए। कहने लगे ये अयोध्या में सत्तू खाते-खाते मर गए,
इसीलिए यहां पर आ गए यहां पर बढ़िया दही चूड़ा खाने को मिलेगा विविध
प्रकार के व्यंजन खाने को मिलेगा।
सज्जनों यह सब हंसी की बातें हैं, लेकिन
मिथिला के लोगों ने अयोध्या वासियों का ऐसा स्वागत किया है कि वे सब बाराती अपने
अयोध्या को भूल गए। सज्जनो हमारे घर पर कोई प्रसाद ग्रहण कर ले यह बड़े सौभाग्य की
बात है क्योंकि खिलाने वाला तो वह परमात्मा है कौन किसे खिला सकता है? कहते हैं ना कि दाने-दाने में लिखा है खाने वाले का नाम। लेकिन ऐसे सत्कार
के द्वारा धन, अन्न और जीवन पवित्र हो जाता है।
एक भक्त ह्रदय
सज्जन थे
वह प्रतिदिन बहुत दान दिया करते थे। लेकिन उनमें एक विशेषता यह थी कि जब भी वह दान
करते तो वह नजरें नीचे की ओर झुकाए रखते थे। तो किसी ने उनसे कहा कि महाराज आप
इतना दान कर रहे हैं,
इतने बड़े आप दानी हैं आपको तो गर्व से सर उठा करके मुस्कुराना
चाहिए अपने आप पर आपको अभिमान होना चाहिए कि आप इतने बड़े दानी हैं। तो उन सज्जन
ने बड़ी सुंदर बात कही कि यही तो भ्रम है कि लोग मुझे देने देने वाला मानते हैं।
लेकिन-
देनहार कोई
और है भेजत है दिन रैन।
लोग भरम हमपे करें याते नीचे नैन।।
देने वाला तो वह परमात्मा है जो दिन
रात दे रहा है लेकिन लोग भ्रम मुझ पर कर रहे हैं कि मैं देने वाला हूं मैं तो बस
निमित्त मात्र हूं इसीलिए मैं नज़रे नीचे झुकाए हुआ हूँ।
हम सब भारतवासी हैं हमारे ऋषि
मुनियों ने हम सबको यही शिक्षा दिया। (अतिथि देवो भवः) घर में आए हुए अतिथि
देवता रूप होते हैं उनका स्वागत सत्कार उनका सत्कार करने का सौभाग्य अगर जीवन में
आए तो इसको प्रेम पूर्वक उत्साह के साथ करना चाहिए। अतिथि देवो भव यह तो हमारी
आर्ष परंपरा रही है लेकिन आज के इस चकाचौंध दुनिया में हम सब अपने संस्कार भूलते जा
रहे हैं। सिनेमा जगत से जुड़कर के हम पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं, जहां
हमारे सनातन हमारे धर्म शास्त्रों में अतिथि को देवता कहा गया है उसी अतिथि के लिए
सिनेमा वालों ने दिखाया अतिथि तुम कब जाओगे।
यहाँ दोनों भाइयों ने पिता का आगमन
सुन हृदय में प्रेम उमड़ रहा है दर्शन का लालच मन में है संकोच के कारण गुरू से कह
नहीं सकते,
विश्वामित्र को इतना बड़ा विनय ( विनम्रता ) देखकर विशेष संतोष हुआ।
दोनों भाइयों को कलेजे से लगा लिये अतिसय प्रेम के कारण आँसू छलछला उठे, जहाँ जनवासे में दशरथ थे वहाँ के लिये चल पड़े। दशरथ आनंदित होकर उठे और
सुख के समुद्र में थाह लेते हुए चले, महाराज ने मुनि को
दण्डवत प्रणाम किया, चरण रज को बार-बार सिर पर धारण किया,
विश्वामित्र ने भी राजा को हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद दे कुशल
पूछा फिर दोनों भाइयों को दण्डवत करते देख हृदय से लगाकर दुसह दुःख को मिटाया,
जैसे मरे हुए शरीर में फिर से प्राण का संचार हुआ हो क्योंकि
पूर्वजन्म में माँगा था।
मनि
बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना ।
मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना ॥"
सो पहली दशा उपस्थित थी बिना मणि के
फणि, सर्प की भाँति महाराज श्रीराम की अनुपस्थिति में व्याकुल रहते थे अबलम्ब
इतना ही था कि उनके प्रतिनिधि के रूप में मुनिजी साथ थे, सौंपते
समय महाराज ने कहा भी था "तुम मुनि पिता आन नहिं कोऊ” सो पुत्रों को हृदय में
लगाने के सुख से दु:ख को मिटा रहे हैं, क्योंकि प्राण हृदय
में रहता है, अब प्राणों से भेंट हुई । फिर दोनों भाइयों ने
वशिष्ठजी के चरणों में सिर झुकाया, वशिष्ठ ने भी उन्हें हृदय
से लगा लिया।
भरत
सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।
श्री भरत जी ने शत्रुघ्न जी के साथ
प्रभु श्री रामचंद्र जी को प्रणाम किया, भगवान श्री राघवेंद्र ने
उठाकर उन्हें हृदय से लगा लिया। फिर प्रभु कृपालु राघव अयोध्या वासियों, कुटुंबियों व मंत्रियों सभी से मिलते हैं। श्री रामचंद्र जी और माता सीता
सुंदरता की सीमा है और दोनों राजा पुण्य की सीमा है। श्री जनक जी के सुकृत पुण्य
की मूर्ति जानकी जी हैं और दशरथ जी के सुकृत पुण्य की मूर्ति धारण किए हुए श्री
राम जी हैं। इन्ह दोनों राजाओं के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और ना
उनके सामान किसी ने फल ही पाए। उनके सामान जगत में ना कोई हुआ है और ना कभी होगा।