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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-47 ram katha notes pdf in hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-47 ram katha notes pdf in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-47 ram katha notes pdf in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-47 ram katha notes pdf in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-47 ram katha notes pdf in hindi

श्री राम जी, लक्ष्मण जी और सीता जी के रूप को देखकर सब स्त्री पुरुष ने स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं। अनूप रूप ने उनके मन को लुभा लिया। ऐसा अनुपम रूप कभी देखा नहीं था अतः नेत्र औरमन लुब्ध हो गये, वहाँ से हटाये नहीं हटते। किसी भाँति तृप्ति नहीं होती। अतः ग्राम्य नारियाँ सीताजी के पास जाकर पूछने लगीं।

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।

हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी वाणी सुनकर सीता जी सकुचा गई और मन ही मन मुस्कुरा कर उन्हें जबाव दिया। गौर शरीर वाले लक्ष्मण मेरे देवर हैं, फिर मुख चन्द्र को अंचल से ढँककर और भौंहों को तिरछी करके देखकर उनका नाम नहीं. लिया, क्योंकि स्त्रियाँ पति का नाम नहीं लेतीं सो पहले देवर का परिचय देने के बाद में उनका नाम न लेने से सब कुछ कह दिया। सभी स्त्रियां प्रेम से सीता जी के पैरों को पड़कर बहुत प्रकार से आशीष देती हैं कि जब तक शेष जी के सिर पर धरती रहे तब तक देवी तुम सदा सुहागन बनी रहो। हे देवी हम पर कृपा ना छोड़ना सदैव अपनी कृपा बनाकर के रखना। हाथ जोड़कर के बार-बार यही विनती करती हैं कि आप जब भी लौटें तो इसी रास्ते से लौटें की एक बार फिर से आपके रूप का दर्शन लाभ प्राप्त हो सके। इस भाँति रघुकुल कमल के सूर्य रास्ते के लोगों को सुख देते हुए सीता और लक्ष्मण के के सहित सुंदर बन पर्वत तालाब को देखते हुए बाल्मीक जी के आश्रम में आये।

( बाल्मीक मिलन प्रसंग )

सुचि सुंदर आश्रम निरखि, हरषे राजिव नैन ।
सुनि रघुवर आगवनु मुनि आगे आयेउ लैन ॥

मुनि ने आगे से आकर प्रभु का स्वागत किया। मुनिजी को रामजी ने दण्डवत किया, विप्रवर ने आशीर्वाद दे दिया आश्रम में ले आये। रामजी कहने लगे- आप मुनियों के नाथ हैं परम ज्ञानी, त्रिकालदर्शी हैं आपसे कुछ छिपा नहीं है यह संसार आपके करगत बेर के फल के समान है। "विश्व बदरि जिमि तुम्हारे हाथा ॥ " अर्थात् संसार में जो कुछ हो रहा है वह सब आपको प्रत्यक्ष है, बदरीफल कहने का भाव कि आप संसार को अपथ्य जानते हैं यथा –

" धात्री फलं सदा पथ्यंमपथ्यं बदरी फलं"

बेर अपथ्य है, आप जानते हैं कि राज्य महाबन्धन है इसके छूटने से मुझे हर्ष है ऐसा कहकर प्रभु ने बाल्मीक से सब कथा कही जिस भाँति रानी कैकई ने बन दिया। भाव यह कि महाराज ने बन नहीं दिया, रानी ने दिया, सब कथा कहने का भाव, जिससे सम्मति लेना हो उसे अपनी परिस्थिति से अवगत करा देना परम आवश्यक है, बाल्मीक से निवास स्थान की सम्मति लेनी थी, अत: सब कथा उनको सुनाई और आगे कहा- हे मुनि आपके चरणों को देख मेरे सब पुण्य सुफल हो गये, अब जहाँ आपकी आज्ञा से और जहाँ रहने से किसी मुनि को उद्वेग न हो, क्योंकि उद्वेग करना हिंसा है।

"उद्वेग जननं हिंसा सन्ताप कारणं तथा"

ऐसा मन में समझकर वह स्थान बतलाइये जहाँ सीता और लक्ष्मण केसाथ कुछ दिनों तक निवास कर सकूँ, मुनि जी ने कहा-वेद मार्ग का पालन तो रघुवंशियों का सहज स्वभाव है।

रघुवंशिन्ह कर सहज स्वभाऊ | मन कुपंथ पग धरहिं न काऊ ॥

और आप तो रघुवंश के ध्वज रूप से ऐसी बात क्यों न कहें आप वेद के पुल के रक्षक हो । हे राम आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका नेति नेति कहकर वर्णन करते हैं। हे राघव जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वह भी आपके मर्म को नहीं जानते तब और कौन आपको जानने वाला है? हे नाथ आपको तो बस केवल वही जान सकता है-

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनंदन | जानहिं भगत भगति उर चंदान ॥

वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन हृदय के शीतल करने वाले चंदन, आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं। हे रामजी तुम्हारे चरित को देख सुनकर मूर्खों को मोह होता है और पंडित सुखी होते हैं।


श्री रामचंद्र जी हाथ जोड़कर के वाल्मीकि जी से पूछते हैं कि हे मुनिराज मैं कहां पर निवास करूं कहिए? यहां फिर राघव जी पूछ रहे हैं। यह साक्षात परम ब्रह्म परमेश्वर है यह क्या नहीं जानते? फिर भी संतों की महिमा बढ़ा रहे हैं। वाल्मीकि जी ने कहा कि हे भगवन-

जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहि देखावहु ठाउँ ॥”

आप पहले यह बतला दीजिए कि आप कहां नहीं हैं? फिर मैं आपको बतलाऊं कि आप कहां रहें। "जब जहँ राउर आयसु होई" का उत्तर देते हैं कि तुमने तो संकोच नहीं किया वेषानुसार ठीक-ठीक अभिनय कर दिया पर मुझे संकोच लगता है, मैं भी वैसा ही तुम्हें कैसे मान लूँ, मैं तो जानता हूँ कि तुम सर्व व्यापक हो, अतः तुम्हारे प्रश्न का ठीक उत्तर तो यही है कि पहले यह बतलाओ कि तुम कहाँ नहीं हो तब मैं कह दूँ कि वहाँ रहो।

मुनिजी के बचन सुन राम सकुचे और मन ही मन मुस्कराये, प्रभु में शील की पराकाष्ठा है, आपने जो कहा है ठीक ही कहा है पर मुनिजी मैं अपने रहने का स्थान नहीं पूछ रहा मेरे साथ गृहस्थी = स्त्री सीताजी और भाई लक्ष्मणजी और साथ में हैं और मैंने कहा भी यही है उस स्थान के लिये "सिय सौमित्र सहित जहँ जाऊँ ॥” अतः मैंने तीनों के रहने को स्थान पूछा है। प्रभु ने माधुर्य में प्रश्न किया, मुनिजी ऐश्वर्य में उत्तर देते हैं, उसी बात को और भी बढ़ाते हुए बहुत कुछ कहेंगे, इसलिये बाल्मीक मुनिजी हँस रहे हैं, भक्ति से पूर्ण वाणी है। इसलिये –

बाल्मीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिय रस बोरी ॥

मधुर और अमिय रस बोरी कहा। मिठास तो भक्ति में ही है। हृदय में तीनों के निवास की जरूरत = राम विमल ज्ञान "ज्ञान अखंड एक रघुराई"। लक्ष्मण = परम वैराग्य और सीताजी भक्ति। तीनों ही साथ रहें तो ही दुःख शोक रहित नित्य शुद्ध सुख होगा। यहां बाल्मिक ऋषि ने भगवान को रहने के लिए 14 स्थान बतलाए हैं। वह 14 स्थान कहीं बाहर नहीं है यही शरीर में हैं। यह शरीर इसीलिए देव मंदिर है इसको हमने दुर्भाग्य से भोगों का घर मान लिया। वह 14 स्थान कौन-कौन से हैं- पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रिया और 4 अंत:करण- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यही 14 स्थान है बंधु माताओं।

और यहाँ बाल्मीकजी चौदह प्रकार के भक्तों के हृदय में रहने के स्थान बतलायेंगे। मानस में सात काण्ड हैं अतः प्रत्येक काण्ड के आदि और अन्त में भी ऐसे दो-दो प्रकार के भक्तों की गणना का भी उल्लेख मानसकार गुसाईं जी ने किया है, इस प्रकार सातों काण्डों में चौदह प्रकार के भक्तों का वर्णन है। “जहाँ बसहु सियालखन समेता" मुनिजी बतलाने लगे।

जिन्हके श्रवण समुद्र समाना । कथा तुम्हारि सुमग सरिनाना ॥

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे । तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥

हे राम जी जिनके कान समुद्र की भांति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं परंतु कभी तृप्त नहीं होते उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं।

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।

हे राघव जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्र आभूषण धारण करते हैं आप उनके हृदय भवन पर निवास करें। जिनके मस्तक देवता गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं। जिनके चरण श्री रामचंद्र जी आपके तीर्थ में चलकर जाते हैं। जो अनेको प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक बड़ा जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं आप दोनों सीता रामचंद्र उनके हृदय भवन पर निवास करिए।

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास ।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥"

जैसे चातक अपनी चोंच उठाकर मेघ के दर्शन के लिये सदा पीऊ-पीऊ रटता रहता है स्वाती के मेघ की एक ही बूँद सहज ही ऊपर उठाई हुई चोंच में पड़ जाय तो उतने जल से ही सुखी रहता है, स्वातीं जल पाने के लिये वह अपनी चोंच इधर-उधर नहीं घुमाता वह मेघों पर अनन्य गति प्रेम करता ही रहता है, उसका प्रेम जरा सा भी नहीं घटता, प्यास के मारे भले ही प्राण चले जायें पर वह स्वाती मेघ के जल के सिवा दूसरे घोर वर्षा के जल की बूँद अपनी चोंच में नहीं लेता यदि उसे गंगा में भी डाल दिया जाय तो चोंच को बंद करके ऊपर की तरफ उठाकर ही मरेगा।


ऐसे चातक जैसी स्थिति जिन्होंने अपने नेत्रों को बना रखा है अपने इष्टदेव के विशिष्ट स्वरूप का ही ध्यान करते रहते हैं। विविध तापों की कितनी ही वर्षा की जाय कितने भी दुःख आ पड़ें तो भी रूप दर्शन लालसा बिलकुल कम न होकर बढ़ती ही रहे और दूसरे का भरोसा न रखें, ऐसे अनन्य गतिक पूर्ण निष्काम परम प्रेमी के हृदय में लक्ष्मण सीता सहित रघुनायक जी निवास करें। इस प्रकार मुनि बाल्मीक ने घर दिखाये उनके प्रेम युक्त बचन रामजी को अच्छे लगे। मुनि ने कहा कि हे सूर्यकुल के नायक सुनिये, जब इस समय सुख देने वाला आश्रम बतलाता हूँ।

चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।

आप चित्रकूट पर्वत पर निवास करो वहाँ तुम्हारे लिये सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत सुंदर बन हाथी सिंह मृग और पक्षी वहाँ विहार किया करते हैं जहाँ मंदाकिनी नदी जिसके अत्रि मुनि की स्त्री अपने तपोबल से लायी है। यह गंगा की धारा बहती है बड़े बड़े महापातक इसके आहार हैं जैसे डाइन बच्चों को खा जाती है उसी भाँति ये नदी महापातकों को खा जाती है। अत्रि आदि बहुत से श्रेष्ठ मुनियों का सत्संग आपको मिलेगा।

"मुनिजन मिलन विशेष बन सबहिं भाँति हित मोर ॥"

हे राघव तुम्हारे वहाँ चलने से सबके श्रम सफल होगा। क्योंकि योग, जप तप सब तुम्हारी प्राप्ति के लिये ही लोग करते हैं और तुम्हारे निवास से चित्रकूट की महिमा बढ़ेगी। अत: पर्वतश्रेष्ठ को बड़ाई दो । वह मेरु से विमुक्त होकर विंध्यवत श्रंग हो रहा है ।

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