राम कथा हिंदी में लिखी हुई-46 ram katha notes pdf
सज्जनों मैं आपको स्मरण दिलाना
चाहूँगा कि यही मुद्रिका फिर राम ने अपनी अँगुली में पहन ली। उस मुद्रिका पर 'राम
का नाम' अंकित था। इस मुद्रिका से ही हनुमान जी के रामभक्त
होने का परिचय लंका में सीता जी को मिलता है । प्रभु राम केवट को अपनी निर्मल और
अमूल्य भक्ति का वरदान देकर उसका उद्धार करते हैं।
विदा
कीन्ह करुणाय यतन, भगति विमल वर देह |
भगवान के बहुत प्रयत्न करने पर भी
केवट ने उतराई नहीं ली जिससे भगवान केवट के ऋणी रह गये। भगवान का दान अमोघ है वह
व्यर्थ नहीं जायेगा। जब केवट ने भगवान से कुछ नहीं लिया तो वह द्वापर में ब्राह्मण
सुदामा बना जिसके पग स्वयं प्रभु ने अपने नेत्रों के जल से धोए (सुदामा चरित्र
में)
पानी परात को हाथ छुयो नाहिं, नैंनन के जल
सों पग धोये-
"द्वापर में केवट सुदामा द्विज दीन बना,
क्योंकि भगवान को भी बदला चुकाना था।
माँगी नाव राम ने न केवट से पाई किंतु,
माँगे बिना ब्राह्मण को भूपति बनाना था ॥
हँसकर हँसाकर पखारा पद केवट ने,
भैरव' रुदन किंतु श्याम को सुनाना था ।
केवट ने धोया पद सुर सरिता के जल,
ब्रह्म आँसुओं से पद विप्र को धुलाना था ॥
तब
मज्जन करि रघुकुल नाथा । पूजि पारथिव नायेउ माथा ॥
श्रीराम ने शिवजी की आराधना की और
जानकी ने गंगाजी से मनौती माँगी, उमा और गंगा दोनों शिवजी की शक्तियाँ
हैं। पार्थिव पूजन से मनुष्य आयुष्मान, बलवान, श्रीमान, पुत्रवान, धनवान और
सुखी होता है और उसे इष्ट वर मिलता है उसकी पूजन विधि भी बड़ी सरल है।
सीताजी ने मनौती माँगी कि पति और
देवर के साथ कुशलपूर्वक लौटकर तुम्हारी पूजा करूँ, प्रेमरस से ओत-प्रोत
सीताजी की विनती सुनकर निर्मल जल से श्रेष्ठ शब्द निकले तुमने विनय करके मुझे बड़ाई
दी, फिर भी हे देवी ! मैं अपनी वाणी को सफल करने तुम्हें
आशीर्वाद दूंगी।
सुनु
रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही।।
तुम्ह
जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई।।
हे रघुवीर प्रिया जानकी आपका प्रभाव
जगत में किसे नहीं मालूम है, आपकी कृपा दृष्टि से देखते ही लोग
लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियां हांथ जोड़कर आपके सामने सेवा के लिए खड़ी रहती
हैं और आपने जो मेरा पूजन- विनय किया यह मुझ पर कृपा और मुझे अपने बडीई दी है। हे
देवी मैं यही आशीर्वाद देती हूं कि आप अपने प्राणनाथ श्री राम व देवर सहित
कुशलपूर्वक अयोध्या लौटेंगी।
यहां गंगा पार होने के बाद प्रभु
श्री रामचंद्र जी ने निषादराजगुह से कहा कि भैया अब तुम घर जाओ और अपने परिवार
जनों की देखभाल करो। यह सुनते ही निषादराज का मुंह सूख गया, वह
बहुत उदास हो गया और हाथ जोड़कर के प्रभु के सामने दीनवचन कहने लगा। कि हे रघुकुल
शिरोमणि मेरी विनती सुनिए। हे नाथ मुझे दो-चार दिन और अपने सेवा का अवसर प्रदान
कीजिए। वन के कठिन मार्ग आपको मालूम नहीं मैं आपको मार्ग दिखाते रहूंगा। आपके लिए
सुंदर पर्णकुटी का निर्माण कर दूंगा फिर आप जैसी आज्ञा देंगे मैं उसको मान लूंगा।
प्रभु श्री राम निषाद राज के निश्चल प्रेम को देखकर उसको साथ में ले लेते हैं।
प्रभु श्री राम गंगा जी को प्रणाम कर सखा निषाद राज छोटे भाई लक्ष्मण और सीता सहित
वन को चले हैं। उस दिन प्रभु राघव पेड़ के नीचे ही निवास किये हैं। सबेरे नित्य
कर्म करके प्रभु ने जाकर तीर्थराज का दर्शन किया।
को
कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।
पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के
लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव कौन कह सकता है? प्रयागराज को देखकर
सुख सागर रघुपति को भी सुख मिला । श्रीमुख से सीता लक्ष्मण और सखा को तीर्थराज की
महिमा सुनाई आकर त्रिवेणी का दर्शन किया। प्रसन्न हो स्नान किया और तीर्थ देवताओं
की यथाविधि पूजा करके शिव पूजा की, तब प्रभु भरद्वाज जी के
यहाँ गये, दण्डवत करते हुए मुनिजी ने उनको हृदय से लगा लिया,
उनको ऐसा आनंद है कि कहते नहीं बनता, मानों
ब्रह्मानंद की राशि प्राप्त हो गयी हो।
आजु
सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू।।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।।
मुनिराज ने उन्हें आशीर्वाद दिया, अत्यंत
आनंद हुआ कि विधाता ने हमारे समस्त पुण्यों का फल लाकर नेत्रों का विषय कर दिया
है।
सब
साधन कर सुफल सुहावा । लखन राम सिय दरसन पावा ॥
तीन ही श्रेय के उपाय हैं कर्म, भक्ति
और ज्ञान योग मैंने तीनों का अनुष्ठान किया सो तीनों के फल मानों राम, जानकी, लक्ष्मण के रूप में मुझे प्राप्त हो गये ।
राम = ज्ञान, जानकी = भक्ति, लक्ष्मण =
वैराग्य = कर्म । मुनि ने कुशल पूछकर आसन दिया। कंदमूल फल और अच्छे अमृत सुस्वादु
लाकर मुनि ने दिये, सीता लक्ष्मण निषाद के साथ रामजी ने उन
मूल फलों को बड़े प्रेम से खाया, थकावट दूर हुई, रामजी सुखी हुए, तब भारद्वाज जी कोमल बचन बोले।
आजु
सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू।।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।।
हे प्रभु आपका दर्शन करते ही आज मेरा
तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा जप, योग और
वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे संपूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल हो गया। बस
राघव जी आपके चरणों में यही निवेदन है कि आपके चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम और
भक्ति बनी रहे। भगवान से भी अधिक आदर भक्ति का है अतः चरण कमलों में सहज स्नेह का
वरदान माँगते हैं।
मुनि का वचन सुन रामजी संकुचित हो
गये एवमस्त नहीं कहा परंतु मुनि जी के कृतकृत्यता के भाव तथा भक्ति के आनंद से
तृप्त हो गये। जहाँ बड़े का नाता मान लेते हैं वहाँ वर माँगने पर प्रभु 'ऐवमस्तु'
नहीं कहते, मनोरथ पूर्ण कर देते हैं, रामजी का समाचार पाकर प्रयाग के रहने वाले ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि उदासीन उनको देखने के लिये आये,
रामजी ने सभी को प्रणाम किया, सब नेत्रों का
लाभ पाकर प्रसन्न हुए, परम सुख पाकर सब आशीर्वाद देते हैं,
प्रशंसा करते घर लौट जाते हैं। प्रातः काल राघव जी मुनि को प्रणाम
करके पूछने लगे- हे नाथ बताइये हम किस रास्ते से जाँय? दर्शन
कीजिए सज्जनों भगवान कैसे गुरु की महिमा को स्थापित कर रहे हैं। सारी दुनिया को
रास्ता दिखाने वाले, सारी दुनिया क पथ प्रदर्शक, संपूर्ण जगत के मार्गदर्शक वह श्रीराम आज भारद्वाज मुनि से पूछ रहे हैं।
राम
सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।।
प्रभु पूंछ रहे हैं कि नाथ हम किस
मार्ग से जाएं?
सारी दुनिया को मार्ग दिखाने वाला वह मार्ग पूछ रहे हैं। और हम सब
भटक रहे हैं क्योंकि ना हम पूछना चाहते हैं और ना ही हमारे जीवन में कोई बताने
वाला है।
सज्जनो जीवन में श्रेष्ठ सद्गुरु, संत,
आचार्य ही होते हैं, जो हमको इस संसार की
नश्वरता का ज्ञान कराकर प्रभु से मिलाने का कार्य करते हैं। जब भी हम श्रेष्ठ
सद्गुरु के पास, संतो के पास जाएं तो उनसे केवल कल्याण के
विषय में ही उपदेश प्राप्त करें। क्योंकि यह अटल सत्य है की ना चाहते हुए भी एक न
एक दिन काया और माया दोनों ही छोड़ना पड़ेगा। इसलिए काया और माया का अभिमान कभी
नहीं करना चाहिए।
दृष्टान्त– धन, कुटुम्ब
तथा शरीर का अभिमानी एक प्रमादी मनुष्य एक सन्त से अपनी बड़ाई हांकते हुए कहने
लगा- मुझे किसी वस्तु की कमी नहीं है। बहुत-सी खेती होती है। बड़ी-बड़ी दुकानें
हैं। पास के शहर में मेरी कपड़े की मिल है । बीसियों पुत्र-पौत्रों से घर भरा है।
कई हजार मनुष्यों का निर्वाह नित्य मेरे यहां से चलता है। तुम्हारे जैसे भिखमंगे
साधुओं के लिए धर्मक्षेत्र खुलवाये गये हैं । तुम्हारे जैसे सैकड़ों भिखमंगे साधु
नित्य भोजन पाते हैं । जिसे चाहूं उसे अभी लुटवा लूं ।
संत बोले- मिथ्या, दुखपूर्ण,
क्षणभंगुर माया का इतना अहंकार करना ठीक नहीं है । किन्तु " आंधी
के आगे बेना का बयार " लगे ही कहां? वह तो धन,
कुटुम्बादि मद चूर हो रहा था। एक वर्ष के पश्चात उस मदांध मनुष्य को
संत ने एक सड़क पर रोता हुआ पड़ा देखा और पूछा- आपकी यह दुखमय दशा कैसे हो गयी?
आप तो धन, बल, कुटुम्ब
से सुखी थे । वह रो-रो कर कहने लगा- बड़े - बड़े राष्ट्रों की लड़ाई में बम -
बारिस होने से मिल पर बम गिर पड़ा, और मिल बिलकुल पृथ्वी में
धंसकर नष्ट हो गयी। बाकी धन चोर डाकू छीन ले गये । कुछ बचा हुआ धन था, उसको उसी आन्दोलन में कुटम्बी लोग छीना-छोरी करके पता नहीं किस देश भाग
गये, जीवित हैं या मर गये। मेरे शरीर में लकवा मार दिया है।
मैं स्वयं उठ बैठ नहीं पाता । इसी सड़क पर यह एक वस्त्र बिछाये पड़ा रहता हूं ।
पथिक लोग जो अन्न-दाना दया कर मेरे कपड़े पर छोड़ देते हैं उसी से
पेट पालता हूं। ऐसा कहते-कहते वह रोने लगा। सन्त विचार करने लगे ऐसी मिथ्या माया-
काया को दो दिन के लिए पाकर मनुष्य कितना अभिमान कर बैठता है जो क्षण में रहती है
और क्षण ही में नष्ट हो जाती है।
शिक्षा - जीव का जो शुद्ध स्वरूप है, वह
अविनाशी और अखण्ड है, सदा रहने वाला है। अतः अपने स्वरूप के
अतिरिक्त मन, वासना, शरीर, इन्द्रिय, धन, कुटुम्ब,
जाति, पांति, मान,
प्रतिष्ठा अधिकार जहां तक माया का पसारा है, सबका
अभिमान सर्वथा दूर कर देना चाहिए और दान नम्रता सत्संग द्वारा अपना कल्याण करना
चाहिए। क्योंकि मृत्यु पश्चात सब छूड़ जाता है केवल अच्छी बुरी कमाई ही साथ जाती
है।
यहां प्रभु राघव जी
ने
भी गुरु जी का मान बढ़ाते हुए उनसे जाने के लिए मार्ग पूंछा है। मुनिजी मन ही मन
हँसकर रामजी से कहते हैं कि सभी रास्ते तुम्हारे लिये सुगम हैं। यहाँ श्रीराम ने
जाने का रास्ता तो पूछा पर गंतव्य स्थान का नाम नहीं लिया जब तक स्थान का नाम न
लिया जाय उस तक पहुँचने का मार्ग कैसे बताया जायेगा ? फिर
भी मुनि सब जानते हैं, बुलाने पर पचास शिष्य आ गये, सबने कहा रास्ता हमारा देखा हुआ है। वे पचास १८ पुराण + १८ उप पुराण + ६
शास्त्र + ४ वेद + ४ उपवेद = ५० ये ही शिष्य रूप से आये । जब प्रभु राघव किसी गांव
के पास से होकर निकलते हैं तब स्त्री पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं और
प्रभु को अपने आंखों से निहार कर मानो जन्म जन्म का फल प्राप्त करते हैं। और मन से
वह रघुनाथ जी के साथ हो जाते हैं तन वहीं रह जाता है।
इसके बाद यमुना जी के पार उतरकर सब
ने यमुना जी के जल में स्नान किया। वहां यमुना किनारे बसने वाले सभी नर नारी भागे
भागे आते हैं और जब उन्होंने राम जी और सीता जी का सौंदर्य देखा तो अपने भाग्य की
बडाई करने लगे। भगवान को देखने के बाद वहां की स्त्रियां आपस में बातें करने लगीं।
ते
पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी।।
हे सखी कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं जिन्होंने ऐसे सुंदर सुकुमार बालकों को वन में भेज दिया है।