राम कथा हिंदी में लिखी हुई-45 bal ram katha notes
इक नारी का
पालना दुस्तर है,
उस नारी को पार लगाऊँगा कैसे।
जब नाव ही हाथ से मेरे गयी, निज जीविका नाथ
चलाऊँगा कैसे ॥
धन काष्ठ सा साधन पास नहीं, फिर दूसरी ओर
गढ़ाऊँगा कैसे |
दया सिंधु
विचार करौ मन में,
सुतवारे हमारे जिलाऊँगा कैसे ॥
आप तो बहुत प्रपंच जानते हैं
"माया कोटि प्रपंच निधाना" बावन बनकर माँगना जानते हैं, विराट
बनकर त्रैलोक माँपना जानते हैं, पाहन से नारी बनाना जानते
हैं, और पानी पर पत्थर तैराना भी जानते हैं, फिर यदि विराट बनकर चरण बढ़ाना जानते हैं तो चरण बढ़ाकर चले जाइये उस पार।
श्रीराम सीता जी से हँसकर कहते हैं
कि हे मिथिलेश राज किशोरी देखो इसकी भावना और आपकी भावना मिल गई। यह भी अहिल्या की
गति का स्मरण करके चरणों के प्रक्षालन से धूलि को हटाना चाहता है जिस धूलि का
स्मरण करके आपने भी चरण स्पर्श नहीं किया था।
केवट ने कहा- नाव पर तो मैं केवल
मनुष्यों को ही चढ़ाता हूँ देव ! लक्ष्मण बोले- तो क्या हम मनुष्य नहीं हैं ? - केवट
ने कहा–कुमार ! रुष्ट क्यों होते हो, आप कौन हैं? बता दूँ- सुनो - कवित्त – “
प्रलय
पयोधि में प्रवीण बनते हो मीन,
नाव मनु की भी तुम पार पहुँचाते हो ।
बनते हो कमठ महोदधि के मन्थन में,
पीठ पर धन्य मन्दराचल उठाते हो |
सिंधु के निवासी शेष, सीता सिंधु की ही सुता,
तुम भी सदैव सिंधु में ही सुख पाते हो ।
जलचर जीव क्या कभी चढ़े हैं नाव,
तैर कर तीनों तुम पार क्यों न जाते हो ॥”
और आगे कहा- वामनावतार में आपने 'बलि'
से तीन पग पृथ्वी माँगी किंतु उस तीन पग में से अधिक त्रिलोक नाप
लिया तो मेरी छोटी सी नावकिस गणना में है नाथ! वामनावतार में नापने वाले अकेले थे,
आज तो तीन-तीन मूर्ति हैं आप भगवन्। प्रभु श्री राघव जी ने केवट से
कहा- भैया जैसे तुम्हारी नाव बची रहे वही करो। मुझे तुम्हारी नाव को स्त्री बनाकर
किसी मुनि को नहीं देनी है। मुझे तो केवल गंगा पार जाने के जल्दी है।
कृपासिंधु
बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।
राघव जी जब इस प्रकार मुस्कुरा कर
बोले। तब केवट ने विचार किया कहीं गंगाजी अपना उद्गम या जन्म स्थान जानकर मार्ग न
दे दें। जिससे मेरा मनोरथ पूर्ण न हो सके। केवट का अपार प्रेम देखकर प्रभु राघव
उसकी इच्छा पूर्ण करने का विचार बना लिये। दूसरी बात- 'राम
ते अधिक राम कर दासा' यह बचन भरतजी के विषय में चरितार्थ
करना है उनकी चित्रकूट यात्रा में, रामजी को अपना स्वामी
मानकर नदियों को मार्ग देना पड़ा है। जिनके नाम के·एक बार
स्मरण करने से मनुष्य अपार भवसागर से पार उतर जाता है वही नामी कृपालु प्रभु राम
केवट का निहोरा कर रहे हैं जिन्होंने संसार को तीन पग से भी छोटा कर दिया था । वह
आज प्रभु लीला पुरुषोत्तम लीला करते हुए केवट से पर उतरने के लिए बार-बार निवेदन
कर रहे हैं। इधर जैसे ही प्रभु राघव का इशारा हुआ केवट को तो।
केवट
राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि ले आवा ॥
अति आनंद उमगि अनुरागा । चरन सरोज पखारन लागा ॥ "
केवट चतुर था, काठ
का ही कठौती लाया जिसमें परीक्षा भी हो जायेगी, यदि यह
स्त्री हो गई तो कठौती ही जायेगी नाव तो बच जायेगी, विशेष
हानि न होगी, अथवा भगवान तपस्वी भेष में हैं तपस्वियों को
धातु का स्पर्श नहीं करना चाहिए वो धातु नहीं छूते पाषाण और काष्ठ छूते हैं।
अत्यंत आनंद से उमंग में भरकर चरण कमल धोने लगा।
सज्जनो केवट जब भगवान राम के चरण धुल
उस जल को बार-बार पीने लगा तो उसके भाग्य की सराहना करते हुए देवता लोग जय जयकार
करने लगे। वह कहने लगे की अरे जिन चरन कमलों का लाभ महाराज जनक ने जानकी जैसी
पुत्री को देकर के प्राप्त किया। भरत, बलि, विभीषण
ने जीवन में अनुपम त्याग के द्वारा उस लाभ की प्राप्ति की लेकिन धन्य यह केवट
जिसने प्रभु की कृपा को घर बैठे गंगा तीर पर ही प्राप्त कर लिया।
चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित
स्वयं उस चरणोदक पान कर सबसे पहले महान पुण्य के द्वारा अपने पितरों को भवसागर से
पार किया फिर आनंद पूर्वक प्रभु श्री रामचंद्र को गंगा जी के पार ले गया।
मेरी नैया में
लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो,
धीरे
बहो गंगा धीरे बहो,
नैया में लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो...
लहरों में उठे हिलोर गंगा मैया धीरे
बहो,
कौन की है गंगा कौन की है नैया,
कौन के है लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो,
मेरी नैया में लक्ष्मण राम...
भागीरथ की गंगा केवट की है नैया,
दशरथ के लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो,
धीरे बहो गंगा धीरे बहो,
मेरी नैया में लक्ष्मण राम...
काहे आई गंगा काहे आई नैया,
काहे आये लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो,
धीरे बहो गंगा धीरे बहो,
मेरी नैया में लक्ष्मण राम...
पाप हरे गंगा पार करे नैया,
भक्तनहित लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो,
मेरी नैया में लक्ष्मण राम गंगा मैया धीरे बहो...
निषादराज और लक्ष्मण जी सहित श्री
सीता जी और रामचंद्र जी नाव से उतरकर गंगा जी की रेत में खड़े हो गए। तब केवट
उतरकर प्रभु राम को दंडवत प्रणाम किया। केवट को देखकर प्रभु के मन में संकोच हुआ
कि अभी इसको हमने कुछ दिया नहीं। सीताजी राम के मन की बात जानने वाली हैं कि
श्रीराम जी का मन सदा उनके पास रहता है "सो मन रहत सदा तोहिं पांही ॥ "
उतराई बहुत छोटी चीज है मणि मुंदरी बड़ी अमूल्य वस्तु है, ऐसे
अमूल्य आभूषण को उतारना स्त्रियों के लिये तो बड़े ही कष्ट की बात है पर सीताजी को
प्रभु के संकोच के सामने मणि मुंदरी क्या है, अत: प्रसन्न मन
से उतार कर देने का आग्रह किया, उतराई का नाम सुनते ही केवट
विह्वल हो गया, उतराई कैसी ? और बोला-
धोबी से
धोबी न लेत धुलाई,
नाई से कछु लेत ना नाई।
तुम भी केवट मैं भी केवट, कैसे तुमसे लूं
उतराई।।
कर दीजो प्रभु भव पार मोहे।
कर दीजो प्रभु भव पार प्रभु जब घाट तिहारे अइहों।
अभि उतराई नहिं लैहों। २
मैं तो उतराई तभी लैहों।
तुलसीदास जी ने इस प्रसंग को राम
भक्ति का भावनात्मक रूप देकर केवट को न केवल राम के अनन्य भक्त के रूप में स्थापित
किया है। अपितु केवट के माध्यम से उन्होंने अपने आराध्य राम को भी परमात्मा का
अवतार सिद्ध कर दिया।
निष्काम भक्त - हम जिस
भक्ति से परिचित हैं,
वह है मन्दिर जाना, घंटा बजाना, अगरबत्ती जलाना, मूर्ति की परिक्रमा कर प्रसाद
चढ़ाना और चरणामृत ग्रहण करना। बस इससे हमारा काम चल जाता है और मनोकामना पूरी
होने पर अधिक हुआ तो मानता के अनुसार भगवान को कुछ अर्पण कर देना । जनम से ही बालक
परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए, बड़े होने पर अच्छी नौकरी
के लिए, अच्छी पत्नी मिले, अच्छी संतान
हो आदि कामनाओं की पूर्ति का यही साधन भक्ति के रूप में मानने लगता है । उसकी
मान्यता बन जाती है कि मूर्ति-पूजन के बिना भक्ति अधूरी है। यही भक्ति उसकी सभी
इच्छाएँ पूरी कर देती है।
कई व्यापारियों को मैंने देखा कि
सुबह अपनी दुकान पर आते ही,
वे दुकान पर रखे भगवान के चित्र पर माल्यार्पण करते हैं और धूप-दीप
प्रज्ज्वलित कर अपने धंधे का प्रारंभ करते हैं, किन्तु क्या
इस धंधे में ईमानदारी होती है ? वस्तुओं की कीमतें, लाभ, नाप-तौल, पैसे की लेन-देन,
उधारी जैसे धंधों के प्रति वे कितने ईमानदार रहते हैं, यह बात हम सभी जानते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि उनकी यह पूजा क्षुद्र का
ही अनुभव है। उनकी भक्ति संसार तक ही सीमित है किन्तु चेतना का अनुभव विराट का
अनुभव है । जिसने पूरे हाथी को देख लिया है, वह अंधों की
भाँति उसके अलग-अलग अंगों को हाथी कैसे कह सकता है ?
केवट भी कमाई करता है। उसे भी परिवार
पालना होता है। बच्चों की शिक्षा देना होता है किन्तु वह विराट पुरुष राम को सामने
देखकर भी धंधे की बात नहीं करता बल्कि चरणामृत ग्रहण करने का आग्रह करता है। उसकी
निष्काम भक्ति का यही एक मात्र प्रतीक है। वह परमात्मा को पाकर भी उससे कुछ नहीं
मांगता। यहाँ तक कि उतराई भी नहीं लेता। इससे अधिक उसकी निष्काम भावना का और क्या
परिचय दिया जा सकता है। दूसरे की उपस्थिति में व्यक्ति सहज नहीं रह सकता। उसे
नैतिकता,
शिष्टाचार आदि का बनावटी मुखौटा तो लगाना ही पड़ता है, जो कुछ प्राप्त होता है, उसी में गुजारा कर लेने की
उसकी कामना नहीं होती है। वह उससे अधिक की कामना करता है। किन्तु केवट राम को
सम्मुख पाकर निग्रंथ हो जाता है। उसकी समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती हैं। वह समस्त
कामनाओं, वासनाओं और इच्छाओं से परे हो जाता है; उसका अंतःकरण संकल्प-विकल्प से शून्य हो जाता है। वह बाहर से अन्य
व्यक्तियों के समान ही दिख रहा है किन्तु उसके भीतर बड़ा अंतर आ जाता है। इसकी
पुष्टि तब होती है, जब श्रीराम गंगापार उतरते हैं। पार उतरने
के बाद वह राम को दंडवत् करता है।
साधारण लोक व्यवहार में दण्डवत्
मिलते समय ही किया जाता है,
अथवा विदा लेते समय भी किन्तु केवट ने राम के गंगा किनारे आते समय
उन्हें दण्डवत् नहीं किया, जब उन्हें पार उतारा तब दण्डवत्
किया। यही केवट की निष्काम भक्ति का प्रमाण है। उसके मन में तर्क था कि यदि मैंने
आते समय दण्डवत् कर लिया तो उसका भाव होगा राम के प्रति समर्पण जिसे किया जाता है,
उसकी हर आज्ञा का पालन उसे करना होता है।
अतः पहले अपने मनोनुकूल इनसे व्यवहार
कर लूं फिर साष्टांग प्रणाम करने पर राम संकोच में पड़ गए। वे सोचने लगे कि इस
समर्पण करने वाले भक्त को वे क्या दें? मुक्ति की भी इसकी इच्छा
नहीं, तो केवट क्या चाहता है? तब सीता
ने इस द्वंद्व से राम को निकालते हुए अपनी हाथ की मुद्रिका उतार कर राम को सौंप
दी। राम ने उस मुद्रिका को यह कहते हुए केवट को देना चाहा कि, "कहेठ कृपालु लेहु उतराई । " , यह सुनकर केवट बोला, "नाथ आज मैं काह न पावा । " तुलसी की रचना शैली की यह अद्भुत क्षमता है कि वह किसी दृश्य को दर्शन
में बदल देती है। केवट की बात सुनकर राम सोचने लगे कि मैंने तो अभी मुद्रिका देने
का प्रस्ताव ही किया है किन्तु यह कहता मैंने क्या नहीं पाया? तभी पुनः अपनी बात को स्पष्ट करते हुए केवट कहता है।
नाथ
आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुःख दारिद दावा।।
अर्थात् मेरे जीवन में आज से दोष, दुःख
और दरिद्रता दूर हो गई। यह इस प्रसंग की फलश्रुति है । तुलसी कहना चाहते हैं कि
परमात्मा के दर्शन होने पर भी यदि भक्त का हृदय कलुषित दुःखी और भौतिक सुविधाओं की
लालसा करता है, तो वह ईश्वर का सच्चा भक्त नहीं । तभी केवट
के मुँह से वे कहलाते हैं, यदि आपके मन में मुझे देने की भावना
है तो—
फिरती
बार मोहि जो देबा । सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा । ।
प्रभु लौटते समय आप जो मुझे देंगे, मैं उसे प्रसाद मानकर सिर पर धारण कर लूँगा। उतराई मान कर नहीं।