राम कथा हिंदी में लिखी हुई-44 shri ram katha notes
सीता
सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई।।
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी।।
अब सीता और मंत्री के समेत दोनों भाई
श्रृंगवेर पुर पहुँच गये,
देवनदी गंगाजी को देखकर रामजी ने रथ त्याग किया और विशेष हर्ष के
साथ गंगाजी को दण्डवत किया । यहाँ तन, मन, बचन तीनों से गंगाजी में भक्ति दिखाई है। गंगाजी को देखकर दर्शन का सुख
पाया यह'मन' की भक्ति है क्योंकि सुख
पाना मन का धर्म है। ‘कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा' यह बचन की
भक्ति है और 'कीन्ह दण्डवत' यह '
तन' की भक्ति है। यहाँ गंगा माहात्म्य के
वक्ता स्वयं रामजी हुए। और श्रोता सीता, लक्ष्मण, सुमंत्र हुए। स्नान किया, रास्ते की थकावट दूर हुई
पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया यह खबर जब गुह को लगी तो प्रिय बन्धुओं को
बुलाकर भेंट के लिये फलमूल की बँहगी भरवाकर श्रीराम के सामने रख दण्डवत प्रणाम
किया, श्रीराम ने स्नेहवस उसे निकट बैठाया और कुशल पूछी।
उसने कहा-
नाथ
कुशल पद पंकज देखें। भयेउ भाग भाजनु जन लेखे ॥
देव धरानिधन धान तुम्हारा। मैं जनु नीच सहित परिवारा ॥
जब घर मौजूद है तब जगदम्बा सहित यहाँ
ठहरना ठीक नहीं है। कृपा करिये पुरमें पधारिये, रामजी ने उसे सखा सुजान कह
कर चौदह वर्ष वनवास करने की मुनिव्रत वेष अहार की आज्ञा हुई है अत: ग्राम वास मुझे
उचित नहीं है, यह सुन गुह बड़ा भारी दुःख हुआ। गुह ने कुश और
कोमल पत्तों की एवं सुंदर स्थान पर मुलायम और सुंदर साँथरी संवार कर विछाया और
पवित्र फल मूल मीठे और कोमल उन्हें लाकर दिया पानी को भी दोनों में भरकर रखा।
राम जी को सोते हुए जानकर लक्ष्मणजी
उठे मृदु वाणी से मंत्रीजी को सोने के लिये कहा, कुछ दूर पर धनुष वाण
साज कर वीरासन से जागते हुए बैठ गये गुह भी उनके पास जाकर बैठ जाता है, इतनी बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना नहीं चाहता केवल लक्ष्मणजी का सहायक
बनता है, वातचीत से रात आराम से कट जायेगी।
लक्ष्मण गीता प्रकरण- प्रभु रामजी को
सांथरी पर सोते देख प्रेम के वश निषाद के हृदय में विषाद हुआ, तन
पुलकित हो नेत्रों में जल भर आया। लक्ष्मण से कहने लगा। वे सिय राम आज साँथरी पर
सोये हुए हैं। जिसके राम जैसे पति हों वह वैदेही पृथ्वी पर सो रही हैं, क्या ये बन के योग्य हैं, लोग ठीक ही कहते हैं कि
कर्म ही प्रधान है, यहाँ निषाद को मोह हुआ उसने नहीं समझा कि
प्रभु के जन्म-कर्म दिव्य हैं वे ईश्वर हैं, अपनी इच्छा से
शरीर धारण करते हैं और ऐसी लीला करते हैं जिससे सुनने, समझने
वालों को परम पद की प्राप्ति होती है।
जिस भाँति जीव कर्मवश दुःख-सुख के भागी होते हैं उसी भाँति रघुनाथ
जी को समझकर उसे मोह हुआ । मंदमति कैकयराज की बेटी ने घोर कुटिलपन किया जिसने राम
जानकी के सुख के अवसर में दु:ख दिया, सूर्यकुल वृक्ष के लिये
कुल्हाड़ी बन गई।
बोले
लखन मधुर मृदु बानी । ज्ञान विराग भक्ति रस सानी ॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ॥
कैकई पर निषाद ने जो दोषारोपड़ किया
है “कुमति कीन्ह सब विश्व दुखारी" का उत्तर देते हैं पहले उसने कर्म कोप्रधान
बताया फिर कैकई को दोष देने लग गया कि उन्होंने राम-जानकी को सुख अवसर पर दु:ख
दिया,
ये दोनों बातें एक दूसरे के विरुद्ध हैं। जो तुम कैकई को दु:खदाता
समझ रहे हो यह तुम्हारी भूल है जीव तो कर्मवश सुख-दु:ख का भागी होता है जैसा करता
है वैसा फल भोगता है यह वेद नीति है और सभी इसे मानते हैं, कर्म
जड़ है स्वयं फल नहीं दे सकता, ईश्वर फलदाता है, वह शुभ कर्म का शुभ, अशुभ कर्म का अशुभ फल हृदय में
विचार कर देता है अत: कहते हैं।
“सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धि दोषा।।
कोई किसी को दुख देने वाला नहीं है।
क्योंकि लोग अपने-अपने कर्मों की डोरी में बँधे हुए हैं- (१)
आयु (२) कर्म (३) धन (४) विद्या और (५) मृत्यु ये पाँच बातें जीव के गर्भ में रहते
समय ही रच दी जाती हैं, मनुष्य अपना ही बनाया हुआ दुःख और
अपना ही रचा हुआ सुख भोगता है। लक्ष्मणजी कहते हैं कि दुःख-सुख का होना भी व्यवहारिक
सत्य है परमार्थिक सत्य नहीं है क्योंकि विषय और इन्द्रियों का संयोग ही शीत उष्ण
सुख-दुःख के देने वाले हैं ये उत्पत्ति विनाश शील एवं अनित्य है।
निषाद जी भगवान को वनवासी वेश में
देखकर इतने भावुक हो गए क्या कहें। जिस स्थान पर राघव जी विश्राम कर रहे थे उस
स्थान पर फिर दोबारा किसी को बैठने नहीं दिया है। उसको मंदिर बना दिया कि मेरे
प्रभु यहां पर रुके थे। राघव जी को जो भी देखता है उसकी आंखों में आंसू आ जाते
हैं। कि जिनको राजा बनकर राज सिंहासन पर बैठना चाहिए वह वनवासी बनकर वन पर विचरण
कर रहे हैं।
रामजी ने वट वृक्ष का दूध मँगाकर भाई सहित जटा बनाई जिसे देख
सुमंत्र की आँखों में आँसू आ गये और रामजी से कहने लगे आप भी मेरे नाथ हैं पर
कौशलनाथ सबसे बड़े हैं उनकी आज्ञा आपको शिरोधार्य है वे नहीं चाहते आप पैदल चलें,
इसलिये रथ लेकर मुझे भेजा है और कहा है कि बन दिखा कर गंगा स्नान
कराकर दोनों भाइयों को चार दिनों में ही लौटा लाना।
और सुनिए राघव महाराज बहुत रोए थे और कह रहे थे राम ना भी आए तो
जानकी को लेकर आ जाना। और यदि जानकी नहीं आई तो महाराज जनक को दिया हुआ वचन मेरा
झूठा हो जाएगा। जनक विदाई के समय बहुत रो-रो कर मुझसे कहे थे। हे राजन जानकी को
मैं बड़े प्यार से पाला हूँ। यह मेरी बेटी बस नहीं है यह मेरी प्राण है। इसको बस
कोई कष्ट न होने पावे।
सो चौदह वर्ष की अवधि को ही संकुचित
करके चार दिन किया गया है मैं मंत्री हूँ महाराज के प्रतिनिधि के नाते कह रहा हूँ, महाराज
की आज्ञा से ही लौटाने के लिये आया हूँ ऐसी विनती करके सुमंत्र श्रीरामजी के पैर
पर गिर पड़े और बालक की भाँति रो पड़े । रामजी उनको उठाकर बोले- शास्त्रों,
वेदों, पुराणों में कहा गया है कि सत्य के
समान दूसरा धर्म नहीं है मैंने उसी धर्म को सुलभ करके पाया है, छोड़ने से तीनों लोकों में अपकीर्ति होगी। जिस सत्य की रक्षा के लिए
बड़े-बड़े तपस्वी प्राण दे दिए, लेकिन धर्म के मार्ग को नहीं
छोड़ा। याद करो उन महापुरुषों को, मेरे पूर्वजों को
जिन्होंने कई कठिनाइयों के आने पर भी सत्य के मार्ग को नहीं छोड़ा।
सिबि
दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा।।
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
शिबि, दधीचि और राजा
हरिश्चंद्र ने धर्म के लिए करोड़ों कष्ट सहे थे। राजा रन्तिदेव और बलि बहुत से
संकट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे उन्होंने धर्म का कभी त्याग नहीं किया। वेद
शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। मैंने उसी
धर्म को सहज ही पा लिया है इस सत्य का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा
जाएगा। प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण
संताप देने वाली है।
आप जाकर मेरी ओर से चरण पकड़ कर
पिताजी से करोड़ों प्रणाम कहियेगा और हाथ जोड़ विनती कीजियेगा कि मेरे लिये वे
किसी बात की चिंता न करें,
तब सुमंत्र ने सीता के लौटने की बात कही । महाराज ने कहा है कि यदि
सीता भी न लौटीं तो मैं जी नहीं सकता। मैं बिना पानी के मछली की भाँति निरालम्ब हो
जाऊँगा। इसे सुन सीता बोर्ली प्रभु तो करुणामय हैं परम विवेकी हैं कहिये तो शरीर
को छोड़कर क्या छाँह रोके रुक सकती हैं? सूर्य को छोड़कर
प्रभा कहाँ जाय ? चाँद को छोड़ चाँदनी कहाँ जाय ? कहीं ठिकाना है? आर्यपुत्र के चरण कमलों के बिना
जहाँ तक नाते हैं सब व्यर्थ हैं, सास-ससुर के पाँव पड़कर
मेरी ओर से विनय कीजियेगा कि मेरा कुछ भी सोच न करें। मैं स्वभाव से ही वन में
सुखी हूँ। मेरे लिये भूलकर भी सोच न करें। सुमंत सीता की शीतल वाणी सुनकर ऐसे विकल
हो गये जैसे मणि के चले जाने पर सर्प विकल होता है, रामजी ने
उनको बहुत प्रकार से समझाया।
सज्जनो लौटकर महाराज से संदेश कहने
के बाद फिर सुमंत्र ने चौदह वर्ष तक मुँह नहीं दिखाया, रामजी
के बन से लौटने पर ही, सुमंत्र जी घर से बाहर निकले। ऐसी
पीड़ा सुमंत्र को लौटने में थी ।
बरबस
राम सुमंत पठाये । सुरसरि तीर आपु तब आए ॥
सुमंत्र जी को भगवान श्री राम ने
विदा किया है और वह गंगा के किनारे पर पहुंचे। गंगा किनारे पर एक केवट बैठा हुआ है
भगवान श्री राम केवट के पास पहुंचे। सज्जनों दर्शन करिए इस राम चरित्र के सबसे
अद्भुत प्रसंग को इसको ही केवट प्रसंग के नाम से जाना जाता है।
( केवट प्रसंग )
जिससे सारी दुनिया मांगती है, वह
प्रभु श्री राम आज केवट के पास आकर के केवट से मांग रहे हैं। और केवट प्रसंग भी
प्रारंभ हो रहा है किस शब्द से ध्यान दीजिए।
मांगी
नाव न केवट आना । कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ॥
केवट कहता है कि देव! मर्म तो आपके
पूछने में है। यहाँ नावें तो बहुत हैं किंतु मेरी ही क्यों पूछी जा रही है ? भगवान
श्री राम ने लक्ष्मण जी की तरफ देखा मानो वह कहना चाहते हैं कि देखो लक्ष्मण मेरा
मर्म आज तक कोई नहीं जान पाया। मेरे जन्म के समय एक मास तक दिन हुआ लेकिन उस मर्म
को किसी ने नहीं जाना और यह केवट कह रहा है कि मैं आपका मर्म जान गया। हे लक्ष्मण
जी ब्रह्मा विष्णु महेश भी मेरा मर्म नहीं जान पाए और लक्ष्मण जी सबकी तो छोड़ो
तुम भी मेरा मर्म नहीं जान पाए। लेकिन यह केवट कह रहा है कि मैं आपका मर्म जान
गया। भगवान अंदर से गदगद है और पूछ रहे हैं केवट तुम मेरा कौन सा मर्म जानते हो?
तो केवट कहने लगा-
छुअत
सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।
आपने एक बार एक पत्थर को छुआ था वह
ऋषि पत्नी बन गई और मेरी नाव तो पत्थर की भी नहीं है और यदि यह गई तो हो गई हमारी
जय राम जी की।
कितनी
शिलाएँ थीं,
सभी न महिलाएँ बनी,
पद के पराग का भी धर्म जानता हूँ मैं ॥
पूँछा जिसे आपने वही तो शिला नारी हुई,
आपका रहस्य भरा कर्म जानता हूँ मैं |
नावें हैं अनेक किंतु एक मेरी पूछी गई,
भेद पूछने में, यह मर्म जानता हूँ मैं ॥”
यह नाव भी किसी मुनि की स्त्री हो
जायेगी,
यह भी नहीं कि वह मेरी होकर रहे, इसी भय से तो
मैं किनारे से दूर हटा लाया हूँ।
देखिये
किसकी विजय हो और किसकी हार हो ।
दोनों मल्लाहों में पहले किसकी किश्ती पार हो ॥
प्रेमी अपने प्रियतम का दर्शन करना
चाहता है उनके मुख चन्द्र से निर्झरित बचनामृत का आश्वादन करना चाहता है उसके लिये
वह अनेकों बहाने करता है,
आज महान प्रेमी केवट सोचता है कि नाव ले आने में जितना विलम्ब होगा
उतना ही आनंद आयेगा, बड़े-बड़े भी ठाकुरजी का मर्म नहीं
जानते हैं पर केवट कहता की मैं आपका मर्म जान गया।
जब केवट ने देखा कि अब प्रभु कहने ही
वाले हैं कि चरणा धो लो,
तब केवट का लोभ बढ़ गया, उसके मन में आया कि
इनका सर्वांग कितना मनोहर है, यदि मैं एक बार भी इनको हृदय
से लगा पाऊँ तो मेरा जन्म सफल हो जायेगा।